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यदि तुम पावन प्रतिमा हो तो मैं जीवन का अर्घ्य चढ़ाऊं
तुम तो छिपे सीप-मोती-से मैं सागर का ज्वार बन गया जो तुम स्वाति-बूंद बन बरसो मैं सौ-सौ सावन पी जाऊं
अंजुरी भर सपनों की आशा खोज रही जीवन-परिभाषा जो तुम मंगल-दीप बनो तो मैं जीवन की ज्योति जलाऊं
मौन साध आतुर अभिलाषा खोल रही नैनों की भाषा जो तुम चरण धरो धरणी पर मैं मोतिन से हंस चुगाऊं
कस्तूरी मृग की सी छलना झुला रही मायावी पलना जो तुम मानस-दीप धरो तो
मैं सौ-सौ बंदन बन जाऊं! पर यह सब कल्पना का खेल है। खेलना हो, खेलो। सुखद कल्पना का खेल है, बड़ा प्रतिकर, बड़ा रसभरा-पर है कल्पना का खेल! इसे सत्य मत मान लेना। सत्य तो वहां है जहां न मैं, न तू। सत्य तो वहां है जहां द्वि गई, द्वंद्व गया, द्वैत गया; बचा एक-एक ओंकार सतनाम।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1