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प्रेम-गली अति सांकरी तामें दो न समायें। उस गली में दो तो नहीं समाते, एक ही बचता है, संवाद कैसा? संवाद के लिए तो दो चाहिए, कम से कम दो तो चाहिए ही।
तो तुम जिससे बातें कर रहे हो, वह तुम्हारी ही कल्पना का जाल है, वह वास्तविक भगवत्ता नहीं। भगवत्ता जब घटती है तो संवाद नहीं होता; निनाद होता है, संवाद नहीं। एक, जिसको पूरब के मनीषियों ने अनाहत-नाद कहा है, वह होता है। एक गुनगुनाहट! पर एक में ही होती है वह गुनगुनाहट; कोई दूसरे से बातचीत नहीं हो रही है। वह ओंकार की ध्वनि का उठना है। लेकिन वह किसी दसरे से बातचीत नहीं हो रही है. दसरा तो कोई बचता नहीं।
कभी किसी भक्त ने भगवान का दर्शन नहीं किया। जब तक भगवान का दर्शन होता रहता है, तब तक भक्त भी मौजूद है; तब तक कल्पना का ही दर्शन है। इसलिए तो ईसाई जीसस से मिल लेता है, जैन महावीर से मिल लेता है, हिंदू राम से मिल लेता है। तुमने कभी हिंदू को जीसस से मिलते देखा? - भूल-चूक से कहीं रास्ते पर जीसस मिल जायें-मिलते ही नहीं। जो अपनी धारणा में नहीं है, वह मिलेगा कैसे?. तुमने कभी ईसाई को कहते देखा कि बैठे थे ध्यान करने और बुद्ध भगवान प्रगट हो गए? वे होते ही नहीं। वे होंगे कैसे? जिसका बीज धारणा में नहीं है, वह कल्पना में कैसे होगा? जो तुम्हारी धारणा है, उसी का कल्पना-विस्तार हो जाता है। __अष्टावक्र का सूत्र तो यही है कि तुम सब धारणाओं, सब मान्यताओं, सब कल्पनाओं, सब प्रक्षेपों से मुक्त हो जाओ, सब अनुष्ठान-मात्र से! अनुष्ठान-मात्र बंधन है। जब कोई भी नहीं बचता तुम्हारे भीतर-न भक्त, न भगवान-एक शून्य विराजमान होता है। उस शून्य में अहर्निश एक आनंद की वर्षा होती है। उस घड़ी कैसा संवाद, कैसा विवाद? नहीं, सब संवाद कल्पना के ही हैं।
कभी रात मुझे घेरती है कभी मैं दिन को टेरता हूं कभी एक प्रभा मुझे हेरती है कभी मैं प्रकाश-कण बिखेरता हूं कैसे पहचानूं कब प्राण-स्वर मुखर है,
कब मन बोलता है? मैं तुमसे कहूंगा, पहचान सीधी है: जब भी कुछ बोले, मन ही बोलता है। जब भी कुछ दिखाई पडे. मन ही दिखाई पड़ता है। जब कछ भी दिखाई न पडे. कछ भी न बोले- तब जो बचा. वही अ-मन है, वही समाधि है। जब तक अनुभव हो, तब तक मन है।
इसलिए परमात्मा का अनुभव, ये शब्द ठीक नहीं; क्योंकि अनुभव-मात्र तो मन के होते हैं। अनुभव-मात्र तो द्वंद्व और द्वैत के होते हैं, द्वि के होते हैं। जब अद्वैत बचा, तो कैसा अनुभव? इसलिए 'आध्यात्मिक अनुभव' यह शब्द ठीक नहीं है।
जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, वहां अध्यात्म है। नहीं तो तुम खेल खेलते रह सकते हो। यह खेल धूप-छाया का खेल है।
जो तुम श्रद्धा नमन बनो तो मैं सुरभित चंदन बन जाऊं
हरि ॐ तत्सत
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