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हटाओ। आईने के पास मक्खियां मार रहा था; बोला कि एक जोड़ा, दो मादाएं बैठी हैं। पत्नी ने कहा, हद हो गई! तुमने पता कैसे चलाया कि नर हैं कि मादा हैं?
उसने कहा, घंटे भर से आईने पर बैठी हैं—मादाएं होनी चाहिए। नर को आईने के पास क्या करना?
स्त्रियां आईने से छूट ही नहीं पातीं। आईना मिल जाये तो चुंबक की तरह खींच लेता है। सारी जिंदगी आईने के सामने बीत रही है—कपड़ों में, वस्त्रों में, सजावट में, श्रृंगार में! और बड़ी हैरानी की बात है, इतनी सज-धजकर निकलती हैं, फिर कोई धक्का दे तो नाराज होती हैं! कोई धक्का न दे तो भी दुखी होंगी, क्योंकि धक्का देने के लिए इतना सज-धजने का इंतजाम था; नहीं तो प्रयोजन क्या था? पति के सामने स्त्रियां नहीं सजतीं। पति के सामने तो वे भैरवी बनी बैठी हैं। क्योंकि वहां धक्कामुक्का समाप्त हो चुका है। लेकिन घर के बाहर जाएं, तब बड़ी तैयारी करती हैं। वहां दर्शक मिलेंगे। वहां दृश्य बनना है।
मनुष्य को, पुरुष को मनोवैज्ञानिक कहते हैं : वोयूर। उसकी सारी नजर देखने में है। उसका सारा रस देखने में है।
स्त्रियों को देखने में रस नहीं है, दिखाने में रस है। इसलिए तो स्त्री-पुरुषों का जोड़ा बैठ जाता है। बीमारी के दो पहलू बिलकुल एक साथ बैठ जाते हैं। और ये दोनों ही अवस्थाएं रुग्ण हैं।
अष्टावक्र कहते हैं : मनुष्य का स्वभाव द्रष्टा का है। न तो दृश्य बनना है और न दर्शक।
अब कभी तुम यह भूल मत कर लेना... । कई बार मैंने देखा है, कुछ लोग यह भूल कर लेते हैं, वे समझते हैं दर्शक हो गए तो द्रष्टा हो गये। इन दोनों शब्दों में बड़ा बुनियादी फर्क है। भाषा-कोश में शायद फर्क न हो-वहां दर्शक और द्रष्टा का एक ही अर्थ होगा; लेकिन जीवन के कोश में बड़ा फर्क है।
दर्शक का अर्थ है: दृष्टि दूसरे पर है। और द्रष्टा का अर्थ है : दृष्टि अपने पर है। दृष्टि देखने वाले पर है, तो द्रष्टा। और दृष्टि दृश्य पर है, तो दर्शक। बड़ा क्रांतिकारी भेद है, बड़ा बुनियादी भेद है! जब तुम्हारी नजर दृश्य पर अटक जाती है और तुम अपने को भूल जाते हो तो दर्शक। जब तुम्हारी दृष्टि से सब दृश्य विदा हो जाते हैं; तुम ही तुम रह जाते हो; जागरण-मात्र रह जाता है; होश-मात्र रह जाता है तो द्रष्टा।
तो दर्शक तो तुम तब हो जब तुम बिलकुल विस्मृत हो गए; तुम अपने को भूल ही गए; नजर लग गयी वहां। सिनेमा-हाल में बैठे हो : तीन घंटे के लिए अपने को भूल जाते हो, याद ही नहीं रहती कि तुम कौन हो। दुख-सुख, चिंताएं सब भूल जाती हैं। इसीलिए तो भीड़ वहां पहुंचती है। जिंदगी में बड़ा दुख है, चिंता है, परेशानी है-कहीं चाहिए भूलने का उपाय! लोग बिलकुल एकाग्र चित्त हो जाते हैं। बस ध्यान उनका लगता ही फिल्म में है। वहां देखते हैं...पर्दे पर कुछ भी नहीं है, छायाएं डोल रही हैं; मगर लोग बिलकुल एकाग्र चित्त हैं। बीमारी भूल जाती, चिंता भूल जाती, बुढ़ापा भूल जाता, मौत भी आती हो तो भूल जाती है लेकिन द्रष्टा नहीं हो गए हो तुम फिल्म में बैठकर; दर्शक हो गए; भूल ही गए अपने को; स्मरण ही न रहा कि मैं कौन हूं। यह जो देखने की ऊर्जा है भीतर, इसकी तो स्मृति ही खो गयी; बस सामने दृश्य है, उसी पर अटक गए, उसी में सब भांति डूब गए।
जैसी मति वैसी गति
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