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शायद याद आ जाये कि तुम पहले भी गेरुए वस्त्रों में घूमे हो ! कि कहूंगा : नाचो ! शायद नाचते-नाचते किसी दिन उस मनोअवस्था में पहुंच जाओ, जहां तुम्हें अतीत जन्मों के नृत्य याद आ जायें। कहूंगा: ध्यान करो ! ध्यान करते-करते शायद अचेतन का कोई द्वार खुल जाये, स्मृतियों का बहाव आ जाये ! इसीलिए तो बोले चला जाता हूं- कभी गीता पर, कभी अष्टावक्र पर, कभी जरथुस्त्र पर, कभी बुद्ध पर, कभी जीसस पर, कभी कृष्ण पर! न मालूम कौन- -सा शब्द तुम्हारे भीतर गूंज बना दे; - मालूम कौन-सा शब्द तुम्हारे भीतर कुंजी बन जाये; न मालूम कौन-सा शब्द तुम्हें जगा दे तुम्हारी नींद से ! सब उपाय किये चला जाता हूं। कोशिश सिर्फ इतनी है, कि किसी तरह मृत्युओं ने जो बीच-बीच में आ कर तोड़ दिया है और तुम्हारा जीवन अस्तव्यस्त हो गया है, उसमें एक सिलसिला पैदा हो जाये, उसमें एकतानता आ जाये, एकरसता आ जाए। बस एकरसता आते ही तुम्हारी नियति करीब आने लगेगी। तुमने घर तो बहुत बार बनाया, अधूरा-अधूरा छूट गया।
इसलिए 'दयाल' ठीक ही कहता है कि मुझे तो ऐसा कोई क्षण स्मरण नहीं आता जब मैंने संन्यास लिया हो। उसने लिया भी नहीं, मैंने दिया है।
'कब लिया, कहां लिया ! आपने ही दिया था । मैं आप तक पहुंचा कहां हूं अभी ! '
मुझ तक तो तुम तभी पहुंचोगे, जब तुम तुम तक पहुंच जाओगे। मुझ तक पहुंचने का और कोई उपाय भी नहीं। अपने तक पहुंच जाओ कि मुझ तक पहुंच गये। स्वयं को जान लो, तो मुझे जान लिया । मेरे पास आने के लिए बाहर की कोई यात्रा नहीं करनी है— अंतरतम, और अंतरतम में उतर जाना है।
'न मुझे तब कुछ पता था संन्यास का और न आज ही पता है।'
होगा, शीघ्र ही पता होगा । न तब पता था, न आज पता है - यह सच है । लेकिन यह मनोदशा अच्छी है कि तुम सोचते हो, जानते हो कि तुम्हें पता नहीं । दुर्भाग्य तो उनका है जिनको पता नहीं, और सोचते हैं कि पता है। तुम तो ठीक स्थिति में हो। यही तो निर्दोष चित्त की बात है कि मुझे पता नहीं है ! तो तुम खाली हो, तो तुम्हें भरा जा सकता है। कुछ हैं जिन्हें कुछ भी पता नहीं है — और बहुत है उनकी संख्या — लेकिन सोचते हैं उन्हें पता है । इसी भ्रांति के कारण, पता हो सकता है, उससे भी वंचित रह जाते हैं।
ज्ञान रोक लेता है, ज्ञान तक जाने से। अगर तुम्हें पता है कि मैं अज्ञानी हूं, तो तुम ठीक दिशा में हो। ऐसी निर्दोषचित्तता में ही ज्ञान की परम घटना घटती है। यह जानना कि मैं नहीं जानता हूं, जानने की तरफ पहला कदम है।,
'मेरी पात्रता कहां! मेरी उतनी श्रद्धा और समर्पण कहां!'
यह पात्र व्यक्ति के हृदय में ही भाव उठता है कि मेरी पात्रता कहां! अपात्र तो समझते हैं, हम जैसा सुपात्र कहां! यह विनम्र भाव ही तो पात्रता है कि मेरी पात्रता कहां, कि मेरा समर्पण कहां, कि मेरी श्रद्धा कहां! यही तो श्रद्धा की सूचना है। बीज मौजूद हैं, बस समय की प्रतीक्षा है: ठीक अनुकूल समय पर, ठीक अनुकूल ऋतु में, अंकुरण होगा, क्रांति घटेगी।
और यह यात्रा तो अनूठी यात्रा है। यह यात्रा तो अपरिचित, अज्ञेय की यात्रा है।
मुसलसल खामोशी की ये पर्दापोशी,
नियंता नहीं—साक्षी बनो
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