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जैसे कि कृष्ण कहते हैं गीता में सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । - सब छोड़-छाड़ अर्जुन, तू मेरी शरण आ!
मेरी
जब तुम पढ़ोगे तो ऐसा लगेगा यह घोषणा तो बड़े अहंकार की हो गयी; 'सब छोड़-छाड़,' शरण में आ ! मेरी शरण में !'
तो इस 'मेरे' का जो अर्थ तुम करोगे, वह तुम्हारा होगा, कृष्ण का नहीं होगा। कृष्ण में तो कोई 'मैं' बचा नहीं है । यह तो सिर्फ कहने की बात है । यह तो प्रतीक की बात है । तुमने प्रतीक को बहुत ज्यादा समझ रखा है। तुम्हारी भ्रांति के कारण प्रतीक तुम्हें सत्य हो गया है। कृष्ण के लिए केवल व्यवहारिक है, पारमार्थिक नहीं ।
तुम देखा, अगर कोई आदमी राष्ट्रीय झंडे पर थूक दे, तो मार-काट हो जाये, झगड़ा हो जाये, युद्ध हो जाये : 'राष्ट्रीय झंडे पर थूक दिया!' लेकिन तुमने कभी सोचा कि राष्ट्रीय झंडा राष्ट्र का प्रतीक है, और राष्ट्र पर तुम रोज थूकते हो, कोई झगड़ा खड़ा नहीं करता ! पृथ्वी पर तुम थूक दो, कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। जब भी तुम थूक रहे हो, तुम राष्ट्र पर ही थूक रहे हो— कहीं भी थूको । राष्ट्र पर थूकने से कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता । राष्ट्र का जो प्रतीक है, संकेत - मात्र, ऐसे तो कपड़े का टुकड़ा है - लेकिन उस पर अगर कोई थूक दे तो युद्ध भी हो सकते हैं।
मनुष्य प्रतीकों को बहुत मूल्य दे देता है— इतना मूल्य, जितना उनमें नहीं है। मनुष्य अपने अंधेपन में प्रतीकों में जीने लगता है।
कृष्ण जब 'मैं' शब्द का प्रयोग करते हैं, तो केवल व्यावहारिक है; बोलना है, इसलिए करते हैं; कहना है, इसलिए करते हैं। लेकिन कहने और बोलने के बाद वहां कोई 'मैं' नहीं है। अगर तुम आंख में आंख डाल कर कृष्ण की देखोगे तो वहां तुम किसी 'मैं' को न पाओगे। वहां परम सन्नाटा है, शून्य है। वहां मैं विसर्जित हुआ है। इसलिए तो इतनी सरलता से कृष्ण कह पाते हैं कि आ, मेरी शरण आ जा! जब वे कहते हैं कि आ, मेरी शरण आ जा, तो हमें लगेगा बड़े अहंकार की घोषणा हो गयी। क्योंकि हम 'मैं' का जो अर्थ जानते हैं वही अर्थ तो करेंगे।
जनक के ये वचन तो तुम्हें और भी चकित कर देंगे। ऐसे वचन पृथ्वी पर दूसरे हैं ही नहीं। कृष्ण तो कम-से-कम कहा था, 'आ, मेरी शरण आ'; जनक के ये वचन तो कुछ ऐसे हैं कि तुम भरोसा न करोगे ।
इन वचनों में जनक कहते हैं कि 'अहो ! अहो, मेरा स्वभाव ! अहो, मेरा प्रकाश ! आश्चर्य ! यह मैं कौन हूं! मैं अपनी ही शरण जाता हूं ! नमस्कार मुझे !' यह तुम हैरान हो जाओगे ।
इन वचनों में जनक अपने को नमस्कार करते हैं। यहां तो दूसरा भी नहीं बचा। बार-बार कहते हैं, 'मैं आश्चर्यमय हूं! मुझको नमस्कार है!'
अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे ।
आश्चर्य से भर गया हूं, मैं स्वयं आश्चर्य हूं। मैं अपने को नमस्कार करता हूं। क्योंकि सभी नष्ट हो जायेगा, तब भी मैं बचूंगा । ब्रह्मा से ले कर कण तक सब नष्ट हो जायेगा, फिर भी मैं चूंगा। मुझे नमस्कार है! मुझ जैसा दक्ष कौन! संसार में हूं - और अलिप्त ! जल में कमलवत ! मुझे नमस्कार है!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1