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आह, वह तो मेरे दे दिए गए हृदय में उतरा मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका वह अनजाना, अनपहचाना ही आया वह इन सबके और मेरे माध्यम से अपने में, अपने को लाया अपने में समाया अकेला वह तेजोमय है जहां दीठ बेबस झक जाती है वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूंज
वहां चुक जाती है। सुनो मुझे-गहन आंसुओं से! सुनो मुझे हृदय से! सुनो मुझे—प्रेम से! बुद्धि से नहीं, तर्क से नहीं। वही श्रद्धा और निष्ठा का अर्थ है।
ऊपर ही ऊपर, जो हवा ने गाया जो देवदारू ने दोहराया जो हिम-चोटियों पर झलका जो सांझ के आकाश से छलका वह किसने पाया? क्या उसने, जिसने
आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढाया? नहीं! जहां आकांक्षा का हाथ बढ़ा, वहां तो हाथ बड़ा छोटा हो गया। आकांक्षा के हाथ में तो भिक्षा ही समाती है, साम्राज्य नहीं समाते। साम्राज्य समाने के लिए तो प्रेम से खुला हुआ हृदय चाहिए; भिक्षा का, वासना का पात्र नहीं।
वह किसने पाया?
जिसने आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया? तो तुम मुझे यहां ऐसे सुन सकते हो कि चलो, जो अपने मतलब का हो उसे उठा लें, अपनी झोली में सम्हाल लें। तो तुम आकांक्षा के हाथ से मेरे पास आ रहे हो। आकांक्षा तो भिक्षु है। तो तुम कुछ थोड़ा-बहुत ले जाओगे, लेकिन तुम जो ले जाओगे वे टेबल से गिरे रोटी के टुकड़े इत्यादि थे। तुम अतिथि न हो पाए। संन्यास तुम्हें अतिथि बना देता है।
आह, वह तो मेरे दे दिए गए हृदय में उतरा! आह, वह तो मेरे दे दिए गए हृदय में उतरा।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1