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अनुभव होगा; लेकिन लाभ ! कुछ भी नहीं । व्यावहारिक अर्थों में कोई लाभ नहीं। उससे तुम किसी तरह की संपदा निर्मित न कर पाओगे ।
वही व्यक्ति ध्यान की तरफ आना शुरू होता है, जिसे संसार स्वप्नवत हो गया; जो इस संसार में से अब कुछ भी नहीं बचाना चाहता; जो कहता है यह पूरा सपना है, जाये पूरा; अब तो मैं उसे जानना चाहता हूं जो सपना नहीं है।
ये
सूत्र उसी खोजी के लिये हैं ।
जनक ने कहा: 'ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता, ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जिसमें ये तीनों भासते हैं, मैं वही निरंजन हूं।'
जिसके ऊपर यह सपना चलता संसार का ... । रात तुम सोते हो, तुम सपना देखते हो । सपना सत्य नहीं है, लेकिन जिसके ऊपर सपने की तरंगें चलती हैं, वह तो निश्चित सच है । सपना जब खो जायेगा तब भी सुबह तुम तो रहोगे। तुम कहोगे, रात सपना देखा, बड़ा झूठा सपना था। एक है, जो देखा, वह तो झूठ था, लेकिन जिसके ऊपर बहा, उसे तो झूठ नहीं कह सकते। अगर देखने वाला भी झूठ हो, तब तो सपना बन ही नहीं सकता । सपने के बनने के लिये भी कम से कम एक तो सत्य चाहिये – वह सत्य है तुम्हारा होना । और सुबह जाग कर जब तुम पाते हो कि सपना झूठा था, तो तुम जरा खयाल करना : जिसने सपने को देखा, और जो सपने में भरमाया, जो सपने का द्रष्टा बना था, वह भी झूठा था ।
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रात तुमने सपना देखा कि एक सांप, बड़ा सांप चला आ रहा है, फुफकारें मारता तुम्हारी ओर । जिसने देखा सपने में, वह कंप गया, वह घबड़ा गया। वह पसीने-पसीने हो भागने लगा। पहाड़-पर्वत पार करने लगा, और सांप पीछा कर रहा है । और तुम भागते हो, और उसकी फुफकार तुम्हें सुनाई पड़ रही है। वह जब तुम सुबह जागोगे, तो सांप तो झूठा हो गया। और जिसने सांप को देखा था, जो देख कर भागा था, जो भाग-भाग कर घबड़ाया, पसीने से लथपथ हो कर गिर पड़ा था — क्या वह सच था? वह भी झूठ हो गया । सपना भी झूठ हो गया, सपने का द्रष्टा भी झूठ हो गया। लेकिन फिर भी इन दोनों के पार कोई है, जिस पर दोनों घटे । नहीं तो सुबह याद कौन करेगा? यह किसको आती याद ? यह कौन कहता सुबह कि सपना झूठ था ?
खयाल रखना, दृष्य तो झूठ था ही; वह जो द्रष्टा था सपने में, वह भी झूठ था, क्योंकि वह झूठ हमें आ गया था। झूठ से जो प्रभावित हो जाये, वह भी झूठ । झूठ से जो आतंकित हो जाये, वह भी झूठ ।
सत्य कहीं झूठ से प्रभावित हुआ है ? झूठे से जो भयभीत हो जाये, वह भी झूठ । झूठ को जो मान ले कि सच है, वह भी झूठ । झूठ को मानने में ही हम झूठ हो जाते हैं। दोनों गये ।
जैसे सुबह जागता कोई, ऐसे ही एक दिन अंतिम जागरण आता — ध्यान का, समाधि का साक्षी का। उस दिन तुम पाते हो, सब झूठ था। तब तुम यह नहीं कहते कि पत्नी ही झूठ थी - पति भी झूठ था। तब तुम यह नहीं कहते कि धन झूठ था; वह जो धन को इकट्ठा कर रहा था, वह भी झूठ था। तब तुम यह नहीं कहते सिर्फ कि मेरे बाहर जो झूठ था वही झूठ था; तब तुम जानते हो कि तुम्हारे भीतर भी बहुत कुछ था, जो झूठ था । और जो अब बचा है, वह तो न तुम्हारे बाहर था और न भीतर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1