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• वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूं-मैं एक ऐसा भटका यात्री हूं, भूला-भटका यात्री, बटोही। कि आप अपनी मंजिल हूं कि मुझे पता नहीं, लेकिन हूं मैं अपनी मंजिल। ___मंजिल कहीं बाहर नहीं है। भटका हूं इसलिए कि भीतर झांक कर नहीं देखा है; अन्यथा भटकने का कोई कारण नहीं है। भटका हूं इसलिए कि आंख बंद करके नहीं देखा है। भटका हूं इसलिए कि अपने को पहचानने की कोई कोशिश नहीं की। और वहां खोज रहा हूं मंजिल, जहां मंजिल हो नहीं सकती।
वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूं, कि आप अपनी मंजिल हूं। यही तो भटकाव का कारण है, कि मंजिल भीतर है, हम बाहर खोज रहे हैं। रोशनी भीतर-जल रही है। प्रकाश बाहर पड़ रहा है। बाहर प्रकाश को पड़ते देखकर हम दौड़े जा रहे हैं कि प्रकाश का स्रोत भी बाहर ही होगा। बाहर जो प्रकाश पड़ रहा है वह हमारा है। बाहर से जो गंध आ रही है, वह हमारी दी हुई गंध है; वह प्रतिफलन है, प्रतिध्वनि है। हम उस प्रतिध्वनि के पीछे भाग रहे हैं।
यूनानी कथा है नार्सीसस की। एक युवक-बहुत सुंदर! बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। वह बैठा है एक झील के किनारे-शांत, सुंदर झील; तरंग भी नहीं! उसमें अपनी छाया देखी। वह मोहित हो गया अपनी छाया पर। वह अपनी छाया से प्रेम करने लगा। वह इतना पागल हो गया कि वहां से हटे ही न। उसे भूख-प्यास भूल गई। वह मजनू हो गया, और अपनी ही छाया को लैला समझ लिया। छाया सुंदर थी, बार-बार वह झील में उतरे उसे पकड़ने को; लेकिन जब उतरे तो झील कंपं जाये, लहरें उठ आयें, छाया खो जाये। फिर किनारे पर बैठ जाये। जब झील शांत हो तब फिर दिखाई पड़े। कहते हैं, वह पागल हो गया। ऐसे ही वह मर गया।
तुमने नार्सीसस नाम का पौधा देखा होगा। पश्चिमी पौधा है। वह नदी के किनारे होता है, नार्सीसस की याद में ही उसको नाम दिया गया। वह नदी के किनारे ही होता है, और झांककर अपनी छाया, अपने फूलों को पानी में देखता रहता है।
लेकिन हर आदमी नार्सीसस है। जिसे हम खोज रहे वह भीतर है। जहां हम खोज रहे, वहां केवल प्रतिबिंब है, वहां केवल प्रतिध्वनियां हैं। निश्चित ही प्रतिध्वनियों को खोजने का कोई उपाय नहीं, जब तक हम मूलस्रोत की तरफ न आयें।
मैं वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूं, कि आप अपनी मंजिल हूं
मुझे हस्ती से क्या हासिल... -जीवन से मुझे क्या लेना देना है?
मैं खुद हस्ती का हासिल हूं। -मैं खुद जीवन का निष्कर्ष हूं।
जीवन से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। जीवन के माध्यम से मुझे कुछ अर्थ नहीं खोजना है—मैं खुद जीवन का अर्थ हूं; मैं खुद जीवन की निष्पत्ति हूं, निष्कर्ष हूं; उसका आखिरी फूल हूं, अंतिम चरण हूं, उच्चतम शिखर हूं।
लेकिन जो व्यक्ति जीवन में अर्थ खोज रहा है, वह निरंतर अर्थहीनता को अनुभव करता है। यही तो हुआ आधुनिक युग में : अर्थ खो गया है! लोग कहते हैं, जीवन में अर्थ कहां? ऐसी दुर्घटना पहले
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1