Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 397
________________ का ही साथ जाता है। बाहर में उलझे होने के कारण भीतर का दिखाई नहीं पड़ता। जब भीतर का दिखाई पड़ता है तो बाहर की पकड़ नहीं रह जाती। • आश्चर्य ! कहा अष्टावक्र ने। जैसे बार-बार जनक ने कहा आश्चर्य ! कि परम ब्रह्म शाश्वत चैतन्य, और कैसे माया में भटक गया था ! जैसे बार-बार जनक ने कहा कि आश्चर्य ! कि मैं स्वयं परमात्मा और कैसे सपने में खो गया था। ऐसे ही अब बार-बार अष्टावक्र कहते हैं। 'आश्चर्य ! कि जैसे सीपी के अज्ञान से चांदी की भ्रांति में लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय - भ्रम के होने पर राग पैदा होता है।' रस्सी पड़ी देखी और समझा कि सांप है तो भय पैदा हो जाता है। सांप है नहीं और भय पैदा हो जाता है। सांप तो झूठा, भय बहुत सच्चा । तुम भाग खड़े होते हो। तुम घबड़ाहट में गिर भी सकते हो, भागने में हाथ-पैर तोड़ ले सकते हो — और वहां कुछ था ही नहीं; सिर्फ रस्सी थी । सांप के भ्रम ने काम कर दिया। अष्टावक्र कहते हैं, ऐसे ही सीपी में कभी चांदी की झलक दिखाई पड़ जाती है। सीपी पड़ी है, सूरज की किरणों में चमक रही है-लगता है चांदी ! चांदी वहां है नहीं, सिर्फ लगता है चांदी है। चांदी के लगते ही उठाने का भाव पैदा हो जाता है, मालिक बनने की आकांक्षा हो जाती है। चांदी के भ्रम में भी लोभ पैदा हो जाता है। आश्चर्य कि भ्रम में भी लोभ पैदा हो जाता है ! जहां कुछ भी नहीं है, वहां पाने की आकांक्षा पैदा हो जाती है ! जहां से कभी किसी को कुछ भी नहीं मिला, वहीं-वहीं हम टटोलते रहते हैं। कुछ मिला हो तो भी ठीक। इस पृथ्वी पर कितने लोग हुए, कितने अनंत लोग हुए, सबने धन खोजा, सब निर्धन मरे । सबने पद खोजा, सबने प्रतिष्ठा खोजी, सब धूल में गिरे। बड़े-बड़े सम्राट पैरों में दबे पड़े हैं, धूल गए हैं। च्वांगत्सु लौटता था एक गांव से। मरघट से गुजरा तो एक खोपड़ी पर उसका पैर लग गया। उसने वह खोपड़ी उठा ली और उससे माफी मांगने लगा कि क्षमा कर । उसके शिष्यों ने कहा, क्या कर रहे हैं! यह मरी खोपड़ी से क्या क्षमा मांग रहे हैं? इसमें सार क्या ? यह धनपति, च्वांगत्सु ने कहा, तुम्हें पता नहीं। एक तो यह बड़े लोगों का मरघट है। यहां सिर्फ राजा, राजनेता गड़ाए जाते हैं। यह कोई छोटी-मोटी खोपड़ी नहीं है, पागलो ! यह किसी बड़े आदमी की खोपड़ी है। शिष्य हंसने लगे। उन्होंने कहा, आप भी खूब मजाक करते हैं । अब यह बड़े की हो कि छोटे की हो, खोपड़ी सब बराबर हैं । और मुर्दा खोपड़ी से क्या क्षमा मांगते हो ? च्वांगत्सु कहने लगा, तुम्हें पता नहीं, केवल समय की बात है। दो-चार छह महीने पहले इस आदमी के सिर में अगर मेरा पैर लग जाता तो मेरे सिर की खैरियत न थी । यह कुल समय की बात है। माफी तो मांग ही लूं। तुम जरा इसकी भी तो सोचो। और कुछ दिनों बाद मेरी खोपड़ी भी यहीं कहीं पड़ी होगी और लोगों के पैर मेरी खोपड़ी से लगेंगे और कोई क्षमा भी न मांगेगा। तुम यह भी तो सोचो ! किसको क्या मिला है ? कुछ मिला हो और तुम खोजो, तब भी ठीक है। ऐसा सुलतान महमूद के जीवन में उल्लेख है कि वह रोज रात अपने घोड़े पर सवार हो कर जीवन की एकमात्र दीनता : वासना 383

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