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'मैं आभास - रूप अहंकारी जीव हूं, ऐसे भ्रम को और बाहर-भीतर के भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध-रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर । '
अहं आभासः इति बाह्यं अंतरम् मुक्त्वा 'बाहर और भीतर के भाव से मुक्त हो जा।'
आत्मा न तो बाहर है और न भीतर। बाहर और भीतर भी सब मन के ही भेद हैं। आत्मा तो बाहर भी है, भीतर भी है। आत्मा में सब बाहर-भीतर है। आत्मा ही है। बाहर-भीतर के सब भाव को छोड़ कर तू कूटस्थ बोध-रूप अद्वैत आत्मा का विचार कर ।
यह अनुवाद ठीक नहीं है। मूल सूत्र है:
:
बाह्यं अंतरम् भावं मुक्त्वा !
- मुक्त होकर अंतर - बाहर से ।
त्वं
कूटस्थ बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
- परिभाव कर !
विचार कर, यह ठीक नहीं है । 'परिभाव कर' कि तू कूटस्थ आत्मा है। ऐसा बोध कर, ऐसा भाव । भाव! ऐसी भावना में जग । विचार तो फिर बुद्धि की बात हो जाती है । विचार तो फिर ऊपर-ऊपर की बात हो जाती है। सिर से नहीं होगा, यह हृदय से होगा। यह भाव प्रेम जैसा होगा, गणित जैसा नहीं । यह तर्क जैसा नहीं होगा, गीत जैसा होगा - जिसकी गुनगुनाहट डूबती चली जाती है गहराई तक और प्राणों के अंतरतम को छू लेती है, स्पंदित कर देती है।
परिभाव कर कि मैं कूटस्थ आत्मा हूं। यह घूमता हुआ चाक नहीं, बीच की कील हूं। कील यांनी कूटस्थ ।
तुम जब तक सोचते हो पृथ्वी पर हो, पृथ्वी पर हो। जिस क्षण तुमने तैयारी दिखायी, जिस क्षण तुमने हिम्मत की, उसी क्षण आकाश में उड़ना शुरू हो सकता है।
दल के दल तैर रहे मेघ मगन भू पर उड़ता जाता हूं मैं मेघों के ऊपर ! एक अजब लोक खुला है मेरे आगे कोई सपना विराट सोये में जागे कहां उड़ जाता है समय-1 - सिंधु घर-घर ! गाड़ी जो अंधी घाटी में बर्फीली ऊर्मिल धाराओं में मछली चमकीली धंसता जाता हूं फेनिल तम के भीतर ! कोसों तक लाल परिधि सूरज को घेरे छलक रहा इंद्रधनुष पंखों पर मेरे यहां-वहां फूट रहे रंगों के निर्झर ! ठहरी-सी नदी कहीं उड़ते-से पुल हैं धाराओं पर धाराएं आकुल-व्याकुल हैं
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1