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हर बात पे टोका है !
जब भी हृदय में कोई तरंग उठती है, तो बुद्धि तत्क्षण रोकती है। जब भी कोई भाव गहन होता है, बुद्धि तत्क्षण दखलंदाजी करती है।
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ये अक्ल भी क्या शै है जिसने दिले-रंगी को
हर काम से रोका है, हर बात पे टोका है !
इस अक्ल को थोड़ा किनारे रख देना - थोड़ी देर को ही सही, क्षण भर को ही सहीं। उन क्षणों में ही बादल हट जाएंगे, सूरज का दर्शन होगा। अगर इस अक्ल को तुम हटा कर न रख पाओ, तो यह टोकती ही चली जाती है। टोकना इसकी आदत है । टोकना इसका स्वभाव है । दखलंदाजी इसका रस है।
और धर्म का संबंध है हृदय से, वह तरंग खराब हो जायेगी। उस तरंग पर बुद्धि का रंग चढ़ जायेगा, और बात खो जायेगी । तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
आरास्ता ए मानी, तखईल है शायर की !
जो वास्तविक कवि है, मनीषी है, ऋषि है, वह तो अर्थ पर ध्यान देता है।
आरास्ता ए मानी, तखईल है शायर की !
उसकी कल्पना में तो अर्थ के फूल खिलते हैं, अर्थ की सुगंध उठती है।
लफ्जों में उलझ जाना फन काफिया - गो का है।
लेकिन जो तुकबंद है, काफिया - गो, वह शब्दों में ही उलझ जाता है। वह कवि नहीं है । तुकबंद तो शब्दों के साथ शब्दों को मिलाए चला जाता है । तुकबंद को अर्थ का कोई प्रयोजन नहीं होता; शब्द से शब्द मेल खा जाएं, बस काफी है।
बुद्धि तुकबंद है, काफिया - गो है। अर्थ का रहस्य, अर्थ का राज, तो हृदय में छिपा है। तो बुद्धि को हटा कर सुनना, तो ही तुम सुन पाओगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक कपड़े वाले की दुकान पर गये, और एक कपड़े की ओर इशारा करके पूछने लगे, भाई, इस कपड़े का क्या भाव है ?
दुकानदार बोला, मुल्ला, पांच रुपये मीटर !
मुल्ला ने कहा, साढ़े चार रुपये में देना है ?
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दुकानदार बोला, बड़े मियां, साढ़े चार में तो घर में पड़ता है।
तो मुल्ला ने कहा, ठीक, फिर ठीक। तो ठीक है, घर से ही ले लेंगे।
आदमी अपना अर्थ डाले चला जाता है।
एक रोगी ने एक दांत के डाक्टर से पूछा, कि क्या आप बिना कष्ट के दांत निकाल सकते हैं?
अष्टावक्र: महागीता भाग-1