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आह! उसी में कैसी एकांत-निबिड़ वासना थरथराती है! तभी तो सांप की कुंडली हिलती नहीं,
फन डोलता है। तुम वासना से मुक्त भी होना चाहते हो, तो भी तुम वासना का ही जाल बिछाते हो। तुम परम शद्ध-बुद्ध होना चाहते हो, तो भी लोभ के माध्यम से ही. तो भी वासना ही थरथराती है।
आह! उसी में कैसी एकांत-निबिड़ वासना थरथराती है। वासना को बांधने को
तूमड़ी जो स्वरतार बिछाती है। तुम परमात्मा को पाने चलते हो, लेकिन तुम्हारे पाने का ढंग वही है जो धन पाने वाले का होता है। तुम परमात्मा को पाने चलते हो, लेकिन तुम्हारी वासना, कामना वही है—जो पदार्थ को पाने वाले की होती है। संसार को पाने वाले की जो दीवानगी होती है, वही दीवानगी तुम्हारी है।
वासना विषय बदल लेती है, वासना नहीं बदलती।
सुनकर अष्टावक्र को तुम्हारी वासना कहती है : 'अरे, यह तो बड़ा शुभ हुआ! हमें पता ही न था कि जिसे हम खोज रहे हैं वह मिला ही हुआ है। तो अब बस बैठ जाएं।' फिर तुम प्रतीक्षा करते होः अब मिले, अब मिले, अब मिले! कैसी वासना थरथराती है! अब मिले! तो तुम समझे ही नहीं।
फिर से सुनो अष्टावक्र को। अष्टावक्र कहते हैं : मिला ही हुआ है। लेकिन इसे तुम कैसे सुनोगे? कैसे समझोगे? तुम्हारी वासना तो थरथरा रही है।
जब तक तुम अपनी वासना में दौड़ न लो, दौड़-दौड़कर वासना की व्यर्थता देख न लो, दौड़ो और गिरो और लहूलुहान न हो जाओ, हाथ-पैर न तोड़ लो-तब तक तुम नहीं समझ पाओगे। वासना के अनुभव से जब वासना व्यर्थ हो जाती है, थककर गिर जाती है और टूट जाती है-उस निर्वासना के क्षण में तुम समझ पाओगे, कि जिसे तुम खोजते हो वह मिला ही हुआ है।
अन्यथा, तुम तोते हो जाओगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम हिंदू तोते हो कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन कि बौद्ध, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता-तोते यानी तोते। तोते को तुम चाहो तो बाइबिल रटा दो, और तोते को तुम चाहो तो गीता रटा दो। तोता तोता है; वह रटकर दोहराने लगेगा।
मंदिर के भीतर वे सब धुले-पुंछे उघड़े, अवलिप्त, खुले गले से, मुखर स्वरों में, अति प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम। भीतर सब गूंगे, बहरे, अर्थहीन जलपक, निर्बोध, अयाने, नाटे, पर बाहर, जितने बच्चे, उतने ही बड़बोले!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1