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होने लगती है। वे कहते हैं, इससे तो अराजकता हो जाएगी।
अराजकता अभी है। जिसको तुम कहते हो व्यवस्था, राजकता, वह क्या खाक व्यवस्था है ? सारा जीवन कलह से भरा है । सारा जीवन न मालूम कितने अपराधों से भरा है। और सारा जीवन दुख से भरा है। फिर भी तुम घबड़ाते हो, अराजकता हो जाएगी।
तुम्हारे जीवन में क्या है सिवाय नर्क के ? कौन-से सुख की सुरभि है ? कौन-से आनंद के फूल खिलते हैं? कौन-सी बांसुरी बजती है तुम्हारे जीवन में ? राख ही राख का ढेर है ! फिर भी कहते हो, अराजकता हो जायेगी !
धार्मिक व्यक्ति विद्रोही तो होता है, अराजक नहीं। इसे समझना ।
धार्मिक व्यक्ति ही वस्तुतः राजक व्यक्ति होता है, क्योंकि उसने संबंध जोड़ लिया अनंत से। उसने जीवन परम मूल से संबंध जोड़ लिया, अराजक तो वह कैसे होगा ? हां, तुमसे संबंध टूट गया, तुम्हारे ढांचे, व्यवस्था से वह थोड़ा बाहर हो गया। उसने परम से नाता जोड़ लिया। उसने उधार से नाता तोड़ दिया, उसने नगद से नाता जोड़ लिया। उसने बासे से नाता तोड़ दिया, उसने ताजे से, नित- नूतन से, नित- नवीन से नाता जोड़ लिया।
तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता तो प्लास्टिक के फूलों जैसी है। धार्मिक व्यक्ति का जीवन वास्तविक फूलों जैसा है। प्लास्टिक के फूल फूल जैसे दिखाई पड़ते हैं, वस्तुतः फूल नहीं हैं; मालूम होते हैं; बस दूर से दिखायी पड़ते हैं; धोखा हैं ।
तुम अगर इसलिए सत्य बोलते हो क्योंकि तुम्हें संस्कार डाल दिया गया है सत्य बोलने का, तो तुम्हारा सत्य दो कौड़ी का है। तुम अगर इसलिए मांसाहार नहीं करते क्योंकि तुम जैन घर में पैदा हुए और संस्कार डाल दिया गया कि मांसाहार पाप है, इतना लंबा संस्कार डाला गया कि आज मांस को देखकर ही तुम्हें मतली आने लगती है, तो तुम यह मत सोचना कि तुम धार्मिक हो गए। यह केवल संस्कार है। यह व्यक्ति जो जैन घर में पैदा हुआ है और मांसाहार से घबड़ाता है, इसे देखकर मतली आती है, देखने की तो बात, 'मांसाहार' शब्द से इसे घबड़ाहट होती है, मांसाहार से मिलती-जुलती कोई चीज देख ले तो इसको मतली आ जाती है, टमाटर देखकर यह घबड़ाता है – यह सिर्फ संस्कार है । । अगर यह व्यक्ति किसी मांसाहारी घर में पैदा हुआ होता तो बराबर मांसाहार करता; क्योंकि वहां मांसाहार का संस्कार होता, यहां मांसाहार का संस्कार नहीं है।
संस्कार, कंडीशनिंग तो तुम्हारा बंधन है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा कि मांसाहार करने लगो । मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे भीतर वैसा आविर्भाव हो चैतन्य का, जैसा महावीर के भीतर हुआ ! वह संस्कार नहीं था। वह उनका अपना अनुभव था कि किसी को दुख देना अंततः अपने को ही दुख देना है; क्योंकि हम सब एक हैं, जुड़े हैं। यह ऐसे ही है जैसे कोई अपने ही गाल पर चांटा मार ले ! देर- अबेर जो हमने दूसरे के साथ किया है, वह हम पर ही लौट आयेगा । महावीर को यह प्रतीति इतनी गहरी हो गयी, यह बोध इतना साकार हो गया कि उन्होंने दूसरे को दुख देना बंद कर दिया। मांसाहार छूटा, इसलिए नहीं कि बचपन से उन्हें सिखाया गया कि मांसाहार पाप है; मांसाहार छूटा उनके साक्षी भाव में । यह धर्म है।
तुम अगर जैन घर में पैदा हुए और मांसाहार नहीं करते, यह सिर्फ संस्कार है। यह प्लास्टिक का
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1