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हैं। कुश्ती हो रही हो तो देख आते हैं। क्रिकेट हो तो देख आते हैं। ओलंपिक हो तो देख आते हैं। बस सिर्फ देखने वाले रह गए हैं। खड़े हैं दर्शक की तरह राह के किनारे राहगीर । जीवन का जुलूस निकल रहा है, तुम देख रहे हो ।
कुछ हैं जो जीवन के जुलूस में सम्मिलित हो गये हैं; वह जरा कठिन धंधा है; वहां बड़ी प्रतियोगिता है। जुलूस में सम्मिलित होना जरा मुश्किल है। बड़े संघर्ष और बड़े आक्रमण की जरूरत है । लेकिन जुलूस को देखने वालों की भी जरूरत है । वे किनारे खड़े देख रहे हैं। अगर वे न हों तो जुलूस भी विदा हो जाये ।
तुम थोड़ा सोचो, अगर अनुयायी न चलें पीछे तो नेताओं का क्या हो ! अकेले - 'झंडा ऊंचा रहे हमारा' – बड़े बुद्ध मालूम पड़ें! बड़े पागल मालूम पड़ें! राह-किनारे लोग चाहिए, भीड़ चाहिए। तो पागलपन भी ठीक मालूम पड़ता है।
तुम थोड़ा सोचो, कोई देखने न आये और क्रिकेट का मैच होता रहे — मैच के प्राण निकल गए ! मैच के प्राण मैच में थोड़े ही हैं : देखने जो लाखों लोग इकट्ठे होते हैं, उनमें हैं।
और आदमी अदभुत है ! आदमी तो घुड़दौड़ देखने भी जाते हैं। यह पूरा कोरेगांव पार्क घुड़दौड़ देखने वालों की बस्ती है। यह बड़ी हैरानी की बात है : आदमी को दौड़ाओ कोई घोड़ा देखने नहीं आता! घोड़े दौड़ते हैं, आदमी देखने जाते हैं । यह घोड़ों से भी गयी - बीती स्थिति हो गई ।
देखते ही देखते जिंदगी बीत जाती है । दर्शक... !
प्रेम करते नहीं तुम; फिल्म में प्रेम चलता है, वह देखते हो । नाचते नहीं तुम; कोई नाचता है, तुम देखते हो। गीत तुम नहीं गुनगुनाते; कोई गुनगुनाता है, तुम सुनते हो। तुम्हारा जीवन अगर नपुंसक हो
, अगर उसमें से सब जीवन ऊर्जा खो जाये तो आश्चर्य क्या ? तुम्हारे जीवन में कोई गति नहीं है, कोई ऊर्जा का प्रवाह नहीं है। तुम मुर्दे की भांति बैठे हो । बस तुम्हारा कुल काम इतना है कि देखते रहो; कोई दिखाता रहे, तुम देखते रहो ।
ये दो ही की बड़ी संख्या है दुनिया में। दोनों एक-दूसरे से बंधे हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, दुनिया में हर बीमारी के दो पहलू होते हैं। दुनिया में कुछ लोग हैं, जिनको मनोवैज्ञानिक कहते हैं: मैसोचिस्ट; स्व- दुखवादी ! वे अपने को सताते हैं । और दुनिया में दूसरा एक वर्ग है, जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं : सैडिस्ट पर दुखवादी । वे दूसरे को सताते हैं। दोनों की जरूरत है। इसलिए दोनों जब मिल जाते हैं तो बड़ा राग-रंग चलता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर पति दूसरों को सताने वाला हो और स्त्री खुद को सताने वाली हो तो इससे बढ़िया जोड़ा और दूसरा नहीं होता । स्त्री अपने को सताने में मजा लेती है; पति दूसरे को सताने में मजा लेता है— राम मिलायी जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी ! मिल गये, बिलकुल मिल गये, बिलकुल ठीक बैठ गये !
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हर बीमारी के दो पहलू होते हैं। दृश्य और दर्शक एक ही बीमारी के दो पहलू हैं। स्त्रियां आमतौर दृश्य बनना पसंद करती हैं; पुरुष आमतौर से दर्शक बनना पसंद करते हैं । मनोवैज्ञानिकों की भाषा में स्त्रियों को वे कहते हैंः एग्जीबीशनिस्ट, नुमाइशी । उनका सारा रस नुमाइश बनने में है।
मुल्ला नसरुद्दीन मक्खियां मार रहा था । बहुत मक्खियां हो गयी थीं तो पत्नी ने कहा, इनको
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1