________________
तुम थोड़ा भी तो अपनी तरफ से, थोड़ा भी, इंच भर भी जागने का प्रयास नहीं करते। किसी ने कह दी, तुमने मान ली और फिर ऐसी सरल बात कि बिना कुछ किए मिल जाए। - कृष्णमूर्ति को मानने वाले चालीस वर्षों से सुन रहे हैं-करीब-करीब वे ही के वे लोग। मिला कुछ भी नहीं है। मेरे पास कभी-कभी उनमें से कोई आता है तो कहता है कि हमें पता है कि सब मिला ही हुआ है, मगर मिलता क्यों नहीं? हम कृष्णमूर्ति को सुनते हैं, बात समझ में आती है कि सब मिला ही हुआ है।
ये लोभीजन हैं। ये चाहते ही थे पहले से कि कोई श्रम न करना पड़े, मुफ्त मिल जाये। इन्होंने कृष्णमूर्ति को नहीं सुना, न अष्टावक्र को समझा है, इन्होंने अपने लोभ को सुना है। इन्होंने अपने लोभ के माध्यम से सुना है। फिर इन्होंने अपने हिसाब से व्याख्या कर ली!
किसी मित्र ने पूछा है कि अब ध्यान करना बड़ा बेहूदा लगता है। पांच-पांच ध्यान-और अष्टावक्र पर चल रही प्रवचनमाला-बड़ा बेहूदा लगता है!
ध्यान छोड़ने में कितनी सुगमता है—करने में कठिनता है! अष्टावक्र को भी जो मिला, वह कुछ करके मिला, ऐसा नहीं; लेकिन बिना कुछ किए मिला, ऐसा भी नहीं।
अब इसे तुम समझना। यह थोड़ा जटिल मामला है।
मैंने तुमसे कहा, बुद्ध को मिला जब उन्होंने सब करना छोड़ दिया; लेकिन पहले सब किया। छह वर्ष तक अथक श्रम किया. सब दांव पर लगा दिया। उस दांव पर लगाने से ही यह अनभव आया कि करने से कुछ नहीं मिलता। अष्टावक्र को पढ़ने से थोड़े ही, नहीं तो अष्टावक्र की गीता बुद्ध के समय में उपलब्ध थी। उन्होंने पढ़ ली होती, छह साल मेहनत करने की जरूरत न थी। छह साल अथक श्रम किया और श्रम कर-करके जाना कि श्रम से तो नहीं मिलता। रत्ती भर रेखा भी न बची भीतर कि श्रम करने से मिल सकता है। ऐसी कोई वासना भी न बची भीतर। करके देख लिया, नहीं मिलता। यह इतना प्रगाढ़ हो गया कि एक दिन इसी प्रगाढ़ता में करना छूट गया, तभी मिल गया।
तो- मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि न करने की अवस्था आयेगी, जब तुम सब कर चुके होओगे। जल्दबाजी मत करना; अन्यथा थोड़ा-बहुत ध्यान कर रहे हो, वह भी छूट जायेगा; थोड़ी बहुत पूजा-प्रार्थना में लगे हो, वह भी छूट जायेगी। अष्टावक्र तो दूर रहे, तुम जो हो थोड़े-बहुत, चल रहे थे किसी यात्रा पर, वह भी बंद हो जायेगा।
इसके पहले कि कोई रुके, समग्र रूप से दौड़ लेना जरूरी है। तो ही दौड़ने से नहीं मिलता, यह बोध प्रगाढ़ होता है। छूटता है एक दिन श्रम, लेकिन केवल बुद्धि के समझने से नहीं तुम्हारा रोआं-रोआं, तुम्हारा कण-कण समझ लेता है कि व्यर्थ है, उसी घड़ी मिल जाता है।
ठीक कहते हैं अष्टावक्र कि अनुष्ठान बंधन है। लेकिन जो अनुष्ठान करेगा, उसको ही पता चलेगा। ____ मैं तुमसे कह रहा हूं, क्योंकि अनुष्ठान किया और पाया कि बंधन है। मैं तुमसे कह रहा हूं, क्योंकि साधन किये और पाया कि कोई साधन साध्य तक नहीं पहुंचते। ध्यान कर करके पाया कि कोई ध्यान समाधि तक नहीं लाता। लेकिन जब ऐसा करके तुम पाते हो कि कोई ध्यान समाधि तक नहीं लाता, ऐसी तुम्हारी गहन होती अनुभूति, एक दिन उस जगह आ जाती, सौ डिग्री पर उबलती, तुम सब दांव
जागो और भोगो
1371