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तीसरा प्रश्नः धर्म + धारणा या धारणा + धर्म से संस्कृति का निर्माण होता है। और संस्कृति से समाज और उसकी परंपराएं बनती हैं। पूज्यपाद ने बताया कि धर्म सबके खिलाफ है। अगर धर्म सभी के विरोध में रहेगा तो किसी ध र्म से जो तुम अर्थ समझ रहे हो प्रकार की अराजकता होना असंभव है क्या? धारणा का, वैसा अर्थ नहीं है। हमें समझाने की कृपा करें!
धारणा, कनसेप्ट धर्म नहीं है। धर्म शब्द बना है
जिस धातु से, उसका अर्थ है : जिसने सबको धारण किया है; जो सबका धारक है; जिसने सबको धारा है। धारणा नहीं—जिसने सबको धारण किया है।
यह जो विराट, ये जो चांद-तारे, यह जो सूरज, ये जो वृक्ष और पक्षी और मनुष्य, और अनंतअनंत तक फैला हुआ अस्तित्व है-इसको जो धारे हुए है, वही धर्म है।
धर्म का कोई संबंध धारणा से नहीं है। तुम्हारी धारणा हिंदू की है, किसी की मुसलमान की है, किसी की ईसाई की है—इससे धर्म का कोई संबंध नहीं। ये धारणाएं हैं, ये बुद्धि की धारणाएं हैं। धर्म तो उस मौलिक सत्य का नाम है, जिसने सबको सम्हाला है; जिसके बिना सब बिखर जायेगा; जो सबको जोडे हए है: जो सबकी समग्रता है: जो सबका सेत है—वही। ___ जैसे हम फूल की माला बनाते हैं। ऐसे फूल का ढेर लगा हो और फूल की माला रखी हो—फर्क क्या है ? ढेर अराजक है। उसमें कोई एक फूल का दूसरे फूल से संबंध नहीं है, सब फूल असंबंधित हैं। माला में एक धागा पिरोया। वह धागा दिखायी नहीं पड़ता; वह फूलों में छिपा है। लेकिन एक फूल दूसरे फूल से जुड़ गया।
इस सारे अस्तित्व में जो धागे की तरह पिरोया हुआ है, उसका नाम धर्म है। जो हमें वृक्षों से जोड़े है, चांद-तारों से जोड़े है, जो कंकड़-पत्थरों को सूरज से जोड़े है, जो सबको जोड़े है, जो सबका जोड़ है-वही धर्म है।
धर्म से संस्कृति का निर्माण नहीं होता। संस्कृति तो संस्कार से बनती है। धर्म तो तब पता चलता है जब हम सारे संस्कारों का त्याग कर देते हैं।
संन्यास का अर्थ है: संस्कार-त्याग।
हिंदू की संस्कृति अलग है, मुसलमान की संस्कृति अलग है, बौद्ध की संस्कृति अलग है, जैन की संस्कृति अलग है। दुनिया में हजारों संस्कृतियां हैं, क्योंकि हजारों ढंग के संस्कार हैं। कोई पूरब की तरफ बैठकर प्रार्थना करता है, कोई पश्चिम की तरफ मुंह करके प्रार्थना करता है-यह संस्कार है। कोई ऐसे कपड़े पहनता, कोई वैसे कपड़े पहनता; कोई इस तरह का खाना खाता, कोई उस तरह का खाना खाता-ये सब संस्कार हैं।
दुनिया में संस्कृतियां तो रहेंगी-रहनी चाहिए। क्योंकि जितनी विविधता हो उतनी दुनिया सुंदर है। मैं नहीं चाहूंगा कि दुनिया में बस एक संस्कृति हो-बड़ी बेहूदी, बेरौनक, उबाने वाली होगी। दुनिया में हिंदुओं की संस्कृति होनी चाहिए, मुसलमानों की, ईसाइयों की, बौद्धों की, जैनों की, चीनियों
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1