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'नहीं' के भीतर रहने का प्रयास कर रहा है। 'नहीं' के भीतर कोई रह कैसे सकता है? नास्तिकता में कोई जी कैसे सकता है? जीने के लिए 'हां' चाहिए। 'नहीं' में कहीं फूल खिलते हैं? 'हां' चाहिए! स्वीकार चाहिए।
जीवन में जितना स्वीकार होता है, उतने ही फूल खिलते हैं; लेकिन सीमा के बाहर फूल न खिल जायें, इससे भय होता है। कहीं फूल इतने न खिल जायें कि मैं उन्हें सम्हाल न पाऊं...!
कल रात एक युवक ने मुझे कहा कि अब मुझे बचाएं, यह जरूरत से ज्यादा हुई जा रही है बात। मैं इतना प्रसन्न हूं कि लगता है मैं टूट जाऊंगा! इतना आनंद है कि लगता है मैं सम्हाल न पाऊंगा। यह मेरा हृदय का पात्र छोटा है। मुझे बचाएं! मैं इसके ऊपर से बहा जा रहा हूं। ये मेरी सीमाएं सब टूटी जा रही हैं। और मुझे डर है कि अगर मैं इसके साथ बह गया तो फिर लौट न पाऊंगा।
नियंत्रण कहीं खो न जाये—यह भय है। अहंकार दुख के साथ भलीभांति जी लेता है, क्योंकि दुख में नियंत्रण नहीं खोता। कितने ही तुम रोओ दुख में, तुम अपने मालिक रहते हो। नियंत्रण खोता है आनंद में, सीमा टूटती है आनंद में। दुख में कभी कोई सीमा नहीं टूटती। नरक में भी सीमा नहीं टूटती। तुम नरक में भी पड़े रहो तो भी तुम अपने भीतर मजबूत रहते हो। सीमा टूटती है स्वर्ग में। वहां नियंत्रण खो जाता है। जहां नियंत्रण खोता है, वहां अहंकार खो जाता है। जहां नियंत्रण खोता है, वहां बुद्धि की पकड़ खो जाती है, तर्क का जाल खो जाता है।
वही हो रहा है। घबड़ाना मत! तिरने का क्षण करीब आ रहा है। लेकिन सिर फिरे बिना कोई कभी तिरा नहीं है।
एक धन की तलाश है मझे जो ओठों पर नहीं शिराओं में मचलती है लावे-सी दहकती हैपिघलने के लिए एक आग की तलाश है मुझे कि रोम-रोम सीझ उठे
और मैं तार-तार हो जाऊं! कोई मुझे जाली-जाली बुन दे कि मैं पारदर्शी हो जाऊं! एक खुशबू की तलाश है मुझे कि भारहीन हो, हवा में तैर सकू हलकी बारिश की महीन बौछारों में कांप सकू गहराती सांझ के स्लेटी आसमान पर चमकना चाहता हूं कुछ देर,
एक शोख रंग की तलाश है मुझे! ओमप्रकाश! वही शोख रंग मैंने तुम्हें दे दिया है। ये गैरिक वस्त्र वही शोख रंग हैं। बहो! सीमाएं
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1