Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 401
________________ दौलत दे, मेरे साम्राज्य को बड़ा कर! फरीद की आंखों में तो आंसू आ गए यह दीनता देख कर। यह सम्राट भी कोई सम्राट है! इससे तो हम भले। कम से कम परमात्मा एक इल्जाम तो नहीं लगा सकता कि हमने कुछ मांगा हो। और फिर उसे याद आया कि इस आदमी से क्या मांगना! इससे तो एक मदरसा लेने का मतलब होगा इसको गरीब बनाना, थोड़ा गरीब हो जाएगा। यह तो वैसे ही गरीब, इसकी हालत तो वैसे ही खराब है! इसकी दीनता तो देखो, अभी भी हाथ फैलाए है! अकबर जैसा सम्राट, जिसके पास सब है, वह भी मांग रहा है अभी! होने से क्या होता है, भिखमंगापन थोड़े ही मिटता है! दनिया में दो तरह के भिखमंगे हैं गरीब और अमीर। भिखमंगे तो सभी हैं। गरीब को तो क्षमा भी कर दो: लेकिन अमीर को कैसे क्षमा करो, वह भी मांगे चला जाता है। __ फरीद तो लौटने लगा। अकबर उठा तो फरीद को सीढ़ियों से उतरते देखा। उसने कहा, कैसे आए और कैसे चले? कभी तो तुम आए नहीं। स्वागत! घर में पधारो! फरीद ने कहा, हो गया; आए थे एक बात से, लेकिन वह तो गलत खयाल था। चूक हो गई। हमसे भूल हुई, तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। अकबर तो बड़ा बेचैन हो गया। उसने कहा, हुआ क्या? मैं कुछ समझू भी तो! पहेली मत बूझो! फरीद ने कहा, गांव के लोगों ने नासमझों ने—यह समझ कर कि तुम सम्राट हो, तुम्हारे पास बहुत है, मुझे भी भ्रम में डाल दिया। मैं भी उनकी बातों में आ कर चला आया। नासमझों की दोस्ती ठीक नहीं। अब मैं वापिस जा रहा हूं उनको समझाने कि तुम गलती में थे। मैं आ गया मांगने। गांव के लोगों ने कहा था एक मदरसा खुलवा दो। नहीं, लेकिन तुम्हारी हालत खराब है, तुम तो दीन अवस्था में हो। वह प्रार्थना मैं तुमसे न करूंगा। मेरे पास कुछ होता तो वह मैं तुम्हें दे डालता। मेरे पास कुछ है नहीं। तुम्हारी हालत बड़ी खराब है। तुम्हारी तो हालत दिवाले निकले जैसी है। तुम प्रार्थना करके मांग रहे थे! मैं आया था सम्राट से मिलने, भिखारी को देख कर वापिस जा रहा हूं। अष्टावक्र ने कहाः विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंग इव सागरे। 'जैसे आत्मारूपी समुद्र में यह संसार तरंगों के समान स्फुरित होता, वही मैं हूं-ऐसा जानकर...।' सोऽहमस्मीति विज्ञाय... '...ऐसा जान कर।' किं दीनं इव धावसि। '...फिर तू दीन की तरह दौड़ा जा रहा है!' जरा भीतर तो देख, वहां कोई दौड़ बाकी तो नहीं है? वहां कुछ मांग बाकी तो नहीं है? वहां कुछ पाने को शेष तो नहीं है? क्योंकि परमात्मा के मिलने का अर्थ यह है कि अब पाने को कुछ भी शेष . न रहा। मिल गया जो मिलना था। आखिरी मिल गया, आत्यंतिक मिल गया; इसके पार मिलने को कुछ भी नहीं। अगर तेरे भीतर अब भी इसके पार मिलने को कुछ हो तो समझना कि परमात्मा नहीं मिला, तू शब्दों के जाल में आ गया जनक! तू मेरे प्रभाव में आ गया जनक। तू सम्मोहित हो गया। जीवन की एकमात्र दीनता: वासना 387

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