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झरना तो तैयार है, झरना तरंगित है, झरना तो प्रतीक्षा कर रहा है कि हटाओ पत्थर, मैं दौड़ पडूं सागर की तरफ ! लेकिन कितने पत्थर बीच में पड़े हैं, और कितनी बड़ी चट्टानें पड़ी हैं — इस पर निर्भर करेगा। झरने के निकलने में देर नहीं है — झरने की राह खुली है, बंद तो नहीं है। कहीं से झरना अभी फूट जाएगा, कहीं थोड़ा खोदना पड़ेगा। कहीं बड़ी चट्टान हो सकती है, डॉयनामाइट लगाना पड़े। पर तीनों ही स्थितियों में, चाहे अभी झरना फूटे, चाहे घड़ी भर बाद फूटे, चाहे जन्मों बाद फूटे- - झरना तो सदा मौजूद था। बाधा झरने के फूटने में न थी, बाधा झरने के प्रगट होने के बीच पड़े पत्थर के कारण थी। जनक की चेतना पर कोई भी पत्थर न रहा होगा - अहोभाव प्रगट हो गया, कृतज्ञता का ज्ञापन हो गया ! नाच उठे! मगन हो गए!
' जैसे इस देह को मैं अकेला ही प्रकाशित करता हूं,' जनक ने कहा, 'वैसे ही संसार को भी प्रकाशित करता हूं। इसलिए तो मेरा संपूर्ण संसार है अथवा मेरा कुछ भी नहीं ।'
यह आस्तिकता है। अर्जुन तो नास्तिक है। अर्जुन तो इंकार करता है। अर्जुन तो बार-बार सवाल उठाता है। अर्जुन तो हजार संदेह करता है। अर्जुन तो इस तरफ से पूछता है, उस तरफ से पूछता है। जनक ने कुछ पूछा ही नहीं ।
इसलिए मैंने इस गीता को महागीता कहा है। अर्जुन की नास्तिकता अंत में मिटती है, वह घर आता है। जनक में नास्तिकता है ही नहीं । वे जैसे घर के द्वार पर ही खड़े थे और किसी ने झकझोर दिया और कहा कि जनक, तुम घर पर ही खड़े हो, कहीं जाना नहीं। और वे कहने लगे, 'अहो ! जैसे इस देह को मैं अकेला ही प्रकाशित करता हूं, वैसे ही संसार को भी प्रकाशित करता हूं।'
अष्टावक्र ने कहा कि तुम्हारा वह जो आत्यंतिक साक्षी भाव रूप है, वह तुम्हारा ही नहीं है, वह तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, वह समस्त सृष्टि का केंद्र है। ऊपर-ऊपर हम अलग-अलग, भीतर हम बिलकुल एक हैं। बाहर-बाहर हम अलग-अलग; जैसे-जैसे भीतर चले, हम एक हैं। जैसे लहरें अलग-अलग हैं सागर की छाती पर, लेकिन सागर के गहनतम में तो सारी लहरें एक हैं। ऊपर एक लहर छोटी, एक लहर बड़ी; एक लहर सुंदर, एक लहर कुरूप; एक लहर गंदी, एक लहर स्वच्छऊपर बड़े भेद हैं। लेकिन सागर में सब जुड़ी हैं। जिसको केंद्र का स्मरण आया, उसका व्यक्तित्व गया; फिर वह व्यक्ति नहीं रह जाता।
तो जनक कहते हैं, जैसे इस देह को मैं अकेला प्रकाशित करता हूं, वैसे ही सारे संसार को भी प्रकाशित करता हूं। क्या कह रहे हैं आप ? भरोसा नहीं आता !
एक युवक ने रात्रि मुझे आ कर कहा कि जो हुआ है ध्यान में, उस पर भरोसा नहीं आता । ठीक! जब कुछ होता है तो ऐसा ही होता है, भरोसा नहीं आता। हमारा भरोसा ही छोटी चीजों पर है, क्षुद्र पर है। जब विराट घटता है तो भरोसा आएगा कैसे ?
जब परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा होगा तो तुम आश्चर्यचकित और अवाक रह जाओगे ।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा संत हुआ : तरतूलियन। उसका वचन है- किसी ने पूछा कि तरतूलियन, ईश्वर के लिए कोई प्रमाण है? उसने कहा, एक ही प्रमाण है: ईश्वर है, क्योंकि वह भरोसे योग्य नहीं है। ईश्वर है, क्योंकि उस पर विश्वास नहीं आता। ईश्वर है, क्योंकि वह असंभव है।
यह बड़ी अनूठी बात तरतूलियन ने कही : ईश्वर है, क्योंकि असंभव है ! संभव तो संसार है,
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1