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ममता कैसी, प्यार कहां
और पुष्प कहां पर महका करता? मिली दुलारी आहों की और हास मिला है शूलों का जान सके न जीवन भर हम
सौरभ कैसा, पराग कहां
और मेघ कहां पर बरसा करता ?
पर मेघ बरस रहा है— तुम्हारे ही गहनतम अंतस्तल में । फूल महक रहा है - तुम्हारे ही गहन अंतस्तल में । कस्तूरी कुंडल बसै ! यह जो महक तुम्हें घेर रही है और प्रश्न बन गई है— कहां से आती है ? यह महक तुम्हारी है; यह किसी और की नहीं। इसे अगर तुमने बाहर देखा तो मृग मरीचिका बनती है; माया का जाल फैलता है; जन्मों-जन्मों की यात्रा चलती है। जिस दिन तुमने इसे भीतर झांक कर देखा, उसी दिन मंदिर के द्वार खुल गए। उसी दिन पहुंच गए अपने सुरभि के केंद्र पर। वहीं है प्रेम, वहीं है प्रभु !
मन उलझाए रखता है बाहर । मन कहता है : चलेंगे भीतर, लेकिन अभी थोड़ी देर और ।
किसी कामना के सहारे
नदी के किनारे बड़ी देर से
मौन धारे खड़ा हूं अकेला। सुहानी है गोधूलि बेला
लगा है उमंगों का मेला ।
यह गोधूलि बेला का हलका धुंधलका
मेरी सोच पर छा रहा है।
मैं यह सोचता हूं,
मेरी सोच की शाम भी हो चली है।
बड़ी बेकली है।
मगर जिंदगी में
निराशा में भी एक आशा पली है मचल ले अभी कुछ देर और ऐ दिल ! सुहाने धुंधलके से हंस कर गले मिल अभी रात आने में काफी समय है!
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मन समझाए चला जाता है; थोड़ी देर और, थोड़ी देर और — भुला लो अपने को सपनों में; थोड़ी देर और दौड़ लो मृग-मरीचिकाओं के पीछे। बड़े सुंदर सपने हैं ! और फिर अभी मौत आने में तो बहु देर है ।
इसलिए तो लोग सोचते हैं, संन्यास लेंगे, प्रार्थना करेंगे, ध्यान करेंगे - बुढ़ापे में, जब मृत्यु द्वार
जागो और भोगो
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