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दो नहीं हुए हो, इसलिए औषधि की कोई जरूरत नहीं है। टूटे नहीं, इसलिए जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम जुड़े ही हो। सिर्फ देखो, जागो, पहचानो। अलग हो कैसे सकते हो जीवन से? अस्तित्व से भिन्न हो कैसे सकते हो? श्वास-श्वास जुड़ी है।
तुम कभी देखते नहीं, जीवन का जोड़ कैसा रसपूर्ण है। रस बह रहा है सबके भीतर; एक-दूसरे में बदलता जा रहा है। जो श्वास अभी मेरे भीतर है, क्षण भर बाद तुम्हारे भीतर हो जाती है। फिर भी तम नहीं देखते। क्षण भर पहले मैं कहता था. मेरी श्वास. क्षण भर बाद तम्हारी हो गई। तो हम और तुम बहुत अलग नहीं हो सकते। क्षण भर पहले जो तुम्हारी श्वास थी, अब मेरी हो गई, तो हम और तुम बहुत अलग नहीं हो सकते। यह श्वास का धागा जोड़े हुए है। मैं अगर कहूं कि मैं तो अपनी ही श्वास से जीऊंगा. हर किसी की ऐसी बासी और उधार श्वास नहीं लंगा तो मर जाऊंगा। मैं कहं कि न हम दूसरों के जूते पहनते न दूसरों के कपड़े, दूसरों की श्वास कैसे ले सकते हैं तो यह सारी हवा दूसरों की श्वास है। यह हजारों नासापुटों में जा रही, आ रही। और ध्यान रखना, आदमियों की ही नहीं है इसमें सम्मिलित; पशु, पक्षी, गधे, घोड़े, सब; वृक्ष भी श्वास ले रहे, छोड़ रहे। हम सब जुड़े हैं। देखो तुम, प्राण का यह सागर, उसमें हम सब जुड़े हैं।।
अभी नाशपाती का फल लगा, या आम लगा, या सेव लगा, वृक्ष पर लगा, इसे तुम खा जाओ-जो रसधार नाशपाती में बहती थी, चौबीस घंटे भर बाद तुम्हारा खून हो जायेगी, तुम्हारी हड्डी बनने लगेगी, तुम्हारी मज्जा हो जायेगी, तुम्हारा मस्तिष्क बन जायेगी। फिर एक दिन तुम मरोगे, फिर तुम खाद बन जाओगे; फिर कोई वृक्ष तुममें से रस ले लेगा, फिर फल बन जायेगा। तुम जब वृक्ष से एक नाशपाती को तोड़ कर ला रहे हो, तो ऐसा मत सोचना, सिर्फ नाशपाती है, तुम्हारे बाप-दादे उसमें हो सकते हैं। क्योंकि सभी जमीन में गिर जाते हैं. फिर जमीन में मिल जाते हैं. सब खाद बन जाते हैं. फिर फल बनते हैं। वृक्ष आदमियों में उतरते रहते हैं, आदमी वृक्षों में उतरते रहते हैं। एक वर्तुल है। . एक वर्तुल घूम रहा है। जो चांद-तारों में है वह तुम्हारे शरीर में आ जाता है; जो तुम्हारे शरीर में है, वह चांद-तारों में चला जाता है।
हम सब जुड़े हैं। हम पृथक नहीं हैं। हम पृथक हो नहीं सकते। हम सब परस्पर निर्भर हैं। न तो कोई परतंत्र है और न कोई स्वतंत्र है। हमारे जीवन की स्थिति को ठीक नाम अगर देना हो तो वह है 'परस्पर-तंत्रता'। इंटरडिपेंडेंस!
हम एक-दूसरे से जुड़े हैं। जैसे लहरें जुड़ी हैं, ऐसे हम जुड़े हैं। इस जोड़ के प्रति जागो! 'औषधि कोई भी नहीं है।'
और औषधियां बड़ी उलझन लाती हैं। कामवासना से थक गये, परेशान हो गये, तो ब्रह्मचर्य की औषधि मिल जाती है, कि चलो ब्रह्मचर्य साधो। फिर तुम ब्रह्मचर्य थोपने लगते हो। फिर जबर्दस्ती थोपा हुआ ब्रह्मचर्य और नई उलझनें लाता है। फिर तुम्हारा चित्त और भी काम-विकार से ग्रस्त हो जाता है। जिसे तमने बाहर से रोक दिया. फिर वह भीतर चलने लगता है. घाव बन जाता है। इन घावों से सावधान रहना। ये घाव बना-बना कर ही तुम रुग्ण और बीमार हो गये हो। __ जीवन को सहज स्वीकार करो। जीवन जैसा है, उससे अन्यथा होने की चेष्टा भी मत करो। जीवन जैसा है, ऐसा ही परमात्मा ने चाहा है। तुम इस चाह में अपने को विसर्जित कर दो। तुम कह दो : 'तेरी
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1