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लहूलुहान हो गया। वहां कोई भी न था, अकेला था। सुबह मरा हुआ पाया गया। सारे भवन में खून के चिह्न थे। उसकी कथा आदमी की कथा है। . यहां दूसरा नहीं है। यहां अन्य है ही नहीं। जो है, अनन्य है। यहां एक है। लेकिन उस एक को जब तक तुम भीतर से न पकड़ लोगे, खयाल में न आयेगा।
'तू सबका एक द्रष्टा है, और सदा सचमुच मुक्त है।' अष्टावक्र कहते हैं : सचमुच मुक्त है। इसे कल्पना मत समझना।
आदमी बहुत अदभुत है! आदमी सोचता है कि संसार तो सत्य है और ये सत्य की बातें सब कल्पना हैं। दुख तो सत्य मानता है; सुख की कोई किरण उतरे तो मानता है कोई सपना है, कोई धोखा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. बडा आनंद मालम हो रहा है। शक होता है यह कहीं भ्रम तो नहीं! दुख में इतने जन्मों-जन्मों तक रहे हैं कि भरोसा ही खो गया कि आनंद हो भी सकता है। आनंद असंभव मालूम होने लगा है। रोने का अभ्यास ऐसा हो गया है, दुख का ऐसा अभ्यास हो गया है, कांटों से ऐसी पहचान हो गयी है कि फूल अगर दिखायी भी पड़े तो भरोसा नहीं आता; लगता है सपना है, आकाश-कुसुम है; होगा नहीं, हो नहीं सकता! ____ इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, सचमुच मुक्त है! व्यक्ति बंधा नहीं है। बंधन असंभव है; क्योंकि केवल परमात्मा है, केवल एक है। न तो बांधने को कुछ है, न बंधने को कुछ है।
'तू सदा सचमुच मुक्त है!'
इसलिए अष्टावक्र जैसे व्यक्ति कहते हैं कि इसी क्षण चाहे तो मुक्त हो सकता है क्योंकि मुक्त है ही। मुक्ति में कोई बाधा नहीं है। बंधन कभी पड़ा नहीं; बंधन केवल माना हुआ है। - 'तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़, दूसरे को द्रष्टा देखता है।' .
एको द्रष्टाऽसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा। अयमेव हि ते बंधो द्रष्टारं पश्यसीतरम्।।
एक ही बंधन है कि तू अपने को छोड़ दूसरे को द्रष्टा देखता है। और एक ही मुक्ति है कि तू अपने को द्रष्टा जान ले। तो इस प्रयोग को थोड़ा करना शुरू करें।
देखते हैं...। वृक्ष के पास बैठे हैं, वृक्ष दिखायी पड़ रहा है, तो धीरे-धीरे वृक्ष को देखते-देखते, उसको देखना शुरू करें जो वृक्ष को देख रहा है। जरा से हेर-फेर की बात है। साधारणतः चेतना का तीर वृक्ष की तरफ जा रहा है। इस तीर को दोनों तरफ जाने दें। इसका फल दोनों तरफ कर लें-वृक्ष को भी देखें और साथ ही चेष्टा करें उसको भी देखने की, जो देख रहा है। देखने वाले को न भूलें। देखने वाले को पकड़-पकड़ लें। बार-बार भूलेगा–पुरानी आदत है; जन्मों की आदत है। भूलेगा, लेकिन बार-बार देखने वाले को पकड़ लें। जैसे-जैसे देखने वाला पकड़ में आने लगेगा, कभी-कभी क्षण भर को ही आयेगा; लेकिन क्षण भर को ही पायेंगे कि एक अपूर्व शांति का उदय हुआ! एक आशीष बरसा!! एक सौभाग्य की किरण उतरी!!! एक क्षण को भी अगर ऐसा होगा तो एक क्षण को भी मुक्ति का आनंद मिलेगा। और वह आनंद तुम्हारे जीवन के स्वाद को और जीवन की धारा को बदल देगा। शब्द नहीं बदलेंगे तुम्हारे जीवन की धारा को, शास्त्र नहीं बदलेंगे-अनुभव बदलेगा, स्वाद बदलेगा!
जैसी मति वैसी गति
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