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का रस चखा – जो न योगी है न भोगी ।
‘आश्चर्य है कि अनंत समुद्ररूप मुझमें जीवरूपी तरंगें अपने स्वभाव के अनुसार उठती हैं, परस्पर लड़ती हैं, खेलती हैं और लय भी होती हैं !'
और मैं सिर्फ देख रहा ! और मैं सिर्फ देख रहा ! और मैं सिर्फ देख रहा !
रंग-रहित ही सपनों के चित्र, हृदय-कलिका मधु-से सुकुमार । अनिल बन सौ-सौ बार दुलार, तुम्हीं ने खुलवाए उर-द्वार । और फिर रहे न एक निमेष, लुटा चुपके से सौरभ - भार । रह गई पथ में बिछ कर दीन दृगों की अश्रु-भरी मनुहार ! मूक प्राणों की विकल पुकार ! विश्व - वीणा में कब से मूकपड़ा था मेरा जीवन - तार ! न मुखरित कर पाईं झकझोर थक गईं सौ-सौ मलय-बयार । तुम्हीं रचते अभिनव संगीत कभी मेरे गायक ! इस पार तुम्हीं ने कर निर्मम आघात छेड़ दी यह बेसुर झंकार ।
और उलझा डाले सब तार ?
सब हो रहा स्वभाव से - ऐसा कहो । या सब कर रहा प्रभु — ऐसा कहो ।
भक्त की भाषा है कि परमात्मा कर रहा है। ज्ञानी की भाषा है कि स्वभाव से हो रहा है। तुम्हें जो भाषा प्रीतिकर हो, चुन लेना । वह भाषा का ही भेद है। एक बात सत्य है कि तुम कर्ता नहीं हो – या तो स्वभाव या परमात्मा - तुम कर्ता नहीं हो। तुम सिर्फ द्रष्टा हो। तुम सिर्फ देखने वाले हो ।
प्राण के निर्वेद का लघु तोल है यह शांति की परिकल्पना का मोल है यह यह समुज्ज्वल भूमि का समतल किनारा यह मधुर मधु-माधुरी रस घोल है यह यह वही आनंद चिरसत्य सुंदर और उस आलोक का लघु दीप पावन यह हृदय का हार हीरक वैजयंति और जीवन का मधुरतम सरस सावन
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1