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पायाः क्योंकि था तो वह भी सिंह; भागता तो सिंह की चाल से था, समझा अपने को भेड़ था। और यह बूढ़ा सिंह था, वह जवान सिंह था। बामुश्किल से पकड़ पाया। जब पकड़ लिया, तो वह रिरियाने लगा, मिमियाने लगा। सिंह ने कहा, अबे चुप! एक सीमा होती है किसी बात की। यह तू कर क्या रहा है? यह तू धोखा किसको दे रहा है? ___वह तो घिसट कर भागने लगा। वह तो कहने लगा, क्षमा करो महाराज, मुझे जाने दो! लेकिन वह बूढ़ा सिंह माना नहीं, उसे घसीट कर ले गया नदी के किनारे। नदी के शांत जल में, उसने कहा, जरा झांक कर देख। दोनों ने झांका। उस युवा सिंह ने देखा कि मेरा चेहरा और इस बूढ़े सिंह का चेहरा तो बिलकुल एक जैसा है। बस एक क्षण में क्रांति घट गई। 'कोई औषधि नहीं!' हुंकार निकाल गया, गर्जना निकल गई, पहाड़ कंप गये आसपास के! कुछ कहने की जरूरत न रही। कुछ उसे बूढ़े सिंह ने कहा भी नहीं सदगुरु रहा होगा! दिखा दिया, दर्शन करा दिया। जैसे ही पानी में झलक देखीहम तो दोनों एक जैसे हैं-बात भूल गई। वह जो वर्षों तक भेड़ की धारणा थी, वह एक क्षण में टूट गई। उदघोषणा करनी न पड़ी, उदघोषणा हो गई। हुंकार निकल गया। क्रांति घट गई। .
ऐसा ही ठीक अष्टावक्र और जनक के बीच हआ। अष्टावक्र यानी बूढ़ा सिंह। जनक यानी जवान सिंह। पकड़े गये! अष्टावक्र के सत्संग में झलक दिखाई पड़ी। अष्टावक्र की घोषणा में अपने स्वभाव की पहचान हुई।
अब तुम पूछो कि अगर कोई सिंह भेड़ों में खो गया हो, तो उसे वापस सिंह बनाने की औषधि क्या है? औषधि कोई नहीं-नो रेमेडी! उसे कितने ही इंजेक्शन लगाओ, कितना ही वेटेनरी डाक्टर के पास ले जाओ, दवाइयां पिलवाओ—उससे कुछ लाभ न होगा। तुम्हारी दवाइयां, तुम्हारे इंजेक्शन, तुम्हारा वेटेनरी डाक्टर के पास ले जाना, उसे और कमजोर करता जायेगा। तुम्हारी दवाइयां और उसे भ्रांति से भर देंगी कि हूं तो मैं भेड़ ही, देखो इतने उपाय किये जा रहे हैं मुझे सिंह बनाने के, फिर भी . कुछ हो नहीं रहा। मैं सिंह तो हो नहीं पा रहा हूं। और अगर मैं सिंह ही था, तो उपाय क्यों किये जाते? जरूर मैं भेड़ हूं, जबर्दस्ती ये लोग सिंह बनाने की चेष्टा कर रहे हैं।
फिर अगर समझा-बुझा कर किसी तरह, तुम इसको यह भी भरोसा दिलवा दो कि तू रट रोज, सुबह ध्यान कर बैठ कर कि मैं सिंह हूं, मैं सिंह हूं, ऐसा रोज रट-अहं ब्रह्मास्मि-धीरे-धीरे हो जायेगा। रोज दोहरा कि मैं सिंह होता जा रहा हूं। जैसा कुए कहता है कि रोज मैं स्वस्थ होता जा रहा हूं, सुंदर होता जा रहा हूं। ऐसा अगर यह सिंह वर्षों तक भी कहता रहे, और वर्षों कहने के बाद मान भी ले, तो भी क्या यह सिंह हो जायेगा? यह मान्यता ही रहेगी। यह विचार की पतली पर्त ही रहेगी। मगर उस बूढ़े सिंह ने ठीक किया। उसने इसे कुछ मंत्र नहीं दिया, जप-तप नहीं दिया। घसीट कर ले गया, एक स्थिति पैदा की, जिसमें इसे अपने स्वभाव की झलक मिल गई।
सदगुरु के सत्संग का इतना ही अर्थ होता है कि वह तुम्हें घसीट कर वहां ले जाये, जहां तुम उसके चेहरे और अपने चेहरे को मिला कर देख पाओ: जहां तम उसके भीतर के अंतरतम को, अपने अंतरतम के साथ मिला कर देख पाओ। गर्जना हो जाती है, एक क्षण में हो जाती है। ..
सत्संग का अर्थ ही यही है कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठना, उठना, जिसे अपने स्वरूप का बोध हो गया है; शायद उसके पास बैठते-बैठते संक्रामक हो जाये बात; शायद उसकी मौजूदगी में,
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1