________________
र्म अनुभूति है, विचार नहीं। विचार धर्म की छाया भी नहीं बन पाता। और
जो विचार में ही उलझ जाते हैं, वे धर्म से सदा के लिए दूर रह जाते हैं। विचारक जितना धर्म से दूर होता है उतना कोई और नहीं! ___ जैसे प्रेम एक अनुभव है, ऐसे ही परमात्मा भी एक अनुभव है। और अनुभव करना हो, तो समग्रता से ही संभव है।। . विचार की प्रक्रिया मनुष्य का छोटा-सा अंश है-और अंश भी बहुत सतही, बहुत गहरा नहीं। अंश भी अंतस्तल का नहीं; केंद्र का नहीं, परिधि का; न हो तो भी आदमी जी सकता है। और अब तो विचार करने वाले यंत्र निर्मित हुए हैं, उन्होंने तो बात बहुत साफ कर दी कि विचार तो यंत्र भी कर सकता है। मनुष्य की कुछ गरिमा नहीं!
अरिस्टोटल या उस जैसे विचारकों ने मनुष्य को विचारवान प्राणी कहा है। अब उस परिभाषा को बदल देना चाहिए, क्योंकि अब तो कंप्यूटर विचार कर लेता है और मनुष्य से ज्यादा दक्षता से, ज्यादा निपुणता से; मनुष्य से तो भूल भी होती है, कंप्यूटर से भूल की संभावना नहीं।
मनुष्य की गरिमा उसके विचार में नहीं है। मनुष्य की गरिमा उसके अनुभव में है।
जैसे तुम स्वाद लेते हो किसी वस्तु का, तो स्वाद केवल विचार नहीं है। घटा! तुम्हारे रोएं-रोएं में घटा। तुम स्वाद से मगन हुए।
जैसे तुम शराब पी लेते हो, तो पीने का परिणाम तुम्हारे विचार में ही नहीं होता, तुम्हारे हाथ-पैर भी डांवाडोल होने लगते हैं। शराबी को चलते देखा? शराब रोएं-रोएं तक पहुंच गयी! चाल में भी झलकती है, आंख में भी झलकती है, उसके उठने-बैठने में भी झलकती है, उसके विचार में भी झलकती है; लेकिन उसके समग्र को घेर लेती है।
धर्म तो शराब जैसा है—जो पीयेगा, वही जानेगा; जो पी कर मस्त होगा, वही अनुभव करेगा।
जनक के ये वचन उसी मदिरा के क्षण में कहे गये हैं। इन्हें अगर तुम बिना स्वाद के समझोगे, तो भूल हो जाने की संभावना है। तब इनका अर्थ तुम्हें कुछ और ही मालूम पड़ेगा। तब इनमें तुम ऐसे अर्थ जोड़ लोगे जो तुम्हारे हैं।