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दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति सुंदर दिखने लगते । दर्पण देखे होंगे, जाते, अष्टावक्र हो जाते।
जिनमें तुम
अति कुरूप
हो
दर्पण में जो झलक मिलती है वह तुम्हारी नहीं है, दर्पण के अपने स्वभाव की है। विरोधी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। इन्हीं विरोधी बातों के संग्रह का नाम तुम समझ लेते हो, मैं हूं ! इसलिए तुम सदा कंपते रहते हो, डरते रहते हो ।
लोकमत का कितना भय होता है ! कहीं लोग बुरा न सोचें। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि मैं मूढ़ हू ! ! कहीं ऐसा न समझ लें कि मैं असाधु हूं! लोग कहीं ऐसा न समझ लें; क्योंकि लोगों के द्वारा ही हमने अपनी आत्मा निर्मित की है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहता था : अगर तुम्हें आत्मा को जानना हो तो तुम्हें लोगों को छोड़ना होगा। ठीक कहता था । सदियों से यही सदगुरुओं ने कहा है । अगर तुम्हें स्वयं को पहचानना हो तो तुम्हें दूसरों की आंखों में देखना बंद कर देना होगा ।
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मेरे देखे, बहुत-से खोजी, सत्य के अन्वेषक समाज को छोड़ कर चले गये – उसका कारण यह नहीं था कि समाज में रह कर सत्य को पाना असंभव है; उसका कारण इतना ही था कि समाज में रह कर स्वयं की ठीक-ठीक छवि जाननी बहुत कठिन है। यहां लोग खबर दिये ही चले जाते हैं कि तुम पूछ पूछो, सब तरफ से झलकें आती ही रहती हैं कि तुम कौन हो । और हम धीरे-धीरे इन्हीं झलकों के लिए जीने लगते हैं।
मैंने सुना, एक राजनेता मरा। उसकी पत्नी दो वर्ष पहले मर गयी थी। जैसे ही राजनेता मरा, उसकी पत्नी ने उस दूसरे लोक के द्वार पर उसका स्वागत किया। लेकिन राजनेता ने कहा : अभी मैं भीतर न आऊंगा। जरा मुझे मेरी अर्थी के साथ राजघाट तक हो आने दो।
पत्नी ने कहा : अब क्या सार है ? वहां तो देह पड़ी रह गयी, मिट्टी है ।
उसने कहा : मिट्टी नहीं; इतना तो देख लेने दो, कितने लोग विदा करने आये !
राजनेता और उसकी पत्नी भी अर्थी के साथ-साथ - किसी को तो दिखाई न पड़ते थे, पर उनको अर्थी दिखाई पड़ती थी— चले... । बड़ी भीड़ थी ! अखबारनवीस थे, फोटोग्राफर थे। झंडे झुकाए गये थे। फूल सजाये गये थे । मिलिट्री के ट्रक पर अर्थी रखी थी। बड़ा सम्मान दिया जा रहा था । तोपें आगे-पीछे थीं। सैनिक चल रहे थे। गदगद हो उठा राजनेता ।
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पत्नी ने कहा, इतने प्रसन्न क्या हो रहे हो ?
उसने कहा, अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आयेगी तो मैं पहले कभी का मर गया होता । तो हम पहले ही न मर गये होते, इतने दिन क्यों राह देखते ! इतनी भीड़ मरने पर आये इसी के लिए तो जीये !
भीड़ के लिए लोग जीते हैं, भीड़ के लिए लोग मरते हैं।
दूसरे क्या कहते हैं, यह इतना मूल्यवान हो गया है कि तुम पूछते ही नहीं कि तुम कौन हो । दूसरे क्या कहते हैं, उन्हीं की कतरन छांट-छांटकर इकट्ठी अपनी तस्वीर बना लेते हो। वह तस्वीर बड़ी डांवांडोल रहती है, क्योंकि लोगों के मन बदलते रहते हैं । और फिर लोगों के मन ही नहीं बदलते रहते, लोगों के कारण भी बदलते रहते हैं ।
अष्टावक्र: महागीता भाग-1