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संसार तुम्हारी स्वतंत्रता है; तुमने चाहा तो हो गया। तुम्हारी चाह मुक्त है। तुम चाहो तो अभी न हो जाए। तुम चाहो तो अभी फिर हो जाए।
तो मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि न बिछुड़ने वाला मिलन कैसे होगा । बिछुड़न तो कभी हुई नहीं है, लेकिन आत्मा की यह परम स्वतंत्रता है कि वह जब चाहे जिस चीज को भूल जाए, और जिस चीज को चाहे याद कर ले। अगर आत्मा की यह संभावना न हो तो आत्मा सीमित हो जाएगी; उसकी मुक्ति बंधित हो जाएगी; उस पर आरोपण हो जाएगा, उपाधि हो जाएगी।
पश्चिम में एक विचारक हुआ : दिदरो । उसने सिद्ध किया है कि ईश्वर पूर्ण शक्तिमान नहीं है, सर्व शक्तिमान नहीं है। उसने तर्क जो दिए हैं, वे ऐसे हैं कि लगेगा कि बात ठीक कह रहा है। जैसे वह कहता है, 'क्या ईश्वर दो और दो के जोड़ से पांच बना सकता है?' यह अपने को भी अड़चन मालूम होती है कि दो और दो से पांच ईश्वर भी कैसे बनाएगा ? तो फिर सर्वशक्तिवान कैसा ? दो और दो चार ही होंगे। ‘क्या ईश्वर एक त्रिकोण में चार कोण बना सकता है ?' कैसे बनाएगा ? चार बनाएगा तो वह त्रिकोण नहीं रहा । त्रिकोण रहेगा तो चार कोण बन नहीं सकते उसमें । 'तो सीमित हो गया ईश्वर ।'
ईसाइयों की जो ईश्वर के बाबत धारणा है, उसको तो दिदरो ने झकझोर दिया। लेकिन अगर दिदरो को भारतीयों की धारणा पता होती तो मुश्किल में पड़ जाता। वे कहते कि यही तो सारा उपद्रव है कि ईश्वर की स्वतंत्रता ऐसी है कि दो और दो पांच बना देता है, दो और दो तीन बना देता है। इसी को
हम माया कहते हैं, जिसमें दो और दो पांच हो जाते हैं, दो और दो तीन हो जाते हैं। जब दो और चार हो गए, माया के बाहर हो गए।
यहां त्रिकोण चतुर्भुज जैसे बैठे हैं। यहां बड़ा धोखा चल रहा है। यहां कोई कुछ समझे है, कोई कुछ समझे है । जो जैसा है, वैसे भर का पता नहीं रहा । दो और दो चार नहीं रहे, एक बात पक्की है और सब हो गया है। इसको ही हम माया कहते हैं।
माया को हमने परमात्मा की शक्ति कहा है। तुमने कभी सोचा है, इसका क्या अर्थ होता है ? माया को हमने परमात्मा की शक्ति कहा है ! इसका अर्थ हुआ कि अगर परमात्मा चाहे तो अपने को भ्रम देने की भी शक्ति उसमें है; नहीं तो सीमित हो जाएगा। वह परमात्मा भी क्या परमात्मा जो सपना न देख सके? तो उतनी सीमा हो जाएगी कि सपना देखने में असमर्थ है।
नहीं, परमात्मा सपना देख सकता है। तुम सपना देख रहे हो। तुम परमात्मा हो, जो सपना देख रहा है । जाग सकते हो, सपना देख सकते हो — और यह क्षमता तुम्हारी है। इसलिए तुम जब चाहो तब सपना देख सकते हो, और तुम तब चाहो तब जाग सकते हो। यह तुम्हारी मर्जी है कि तुम अगर जागे ही रहना चाहो तो तुम जागे ही रहोगे; तुम अगर सपने में ही रहना चाहो तो तुम सपना देखते रहोगे । मनुष्य की स्वतंत्रता अबाध है। आत्मा की शक्ति अबाध है । सत्य और स्वप्न - आत्मा की दो धाराएं हैं। उन दो धाराओं में सब समाविष्ट है।
तुम पूछते हो कि क्या पुनर्मिलन संभव है?
पहले तो 'पुनर्मिलन' कहो मत। पुनर्मरण कहो, तो तुमने ठीक शब्द उपयोग किया। फिर तुम पूछते हो कि 'क्या न बिछुड़ने वाला...?'
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1