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दूसरा प्रश्नः कल आपने कहा कि हृदय के भाव पर बुद्धि का अंकुश मत लगाओ। लेकिन मुझे तो भगवान श्री, आपके प्रवचन बहुतबहुत तर्कपूर्ण लगते हैं। तो क्या तर्क की संतुष्टि से दिमाग की पुष्टि होती है? तो क्या मेरे लिए मैं जो बोल रहा हूं, वह निश्चित ही यह खतरा नहीं है कि तर्क-पोषित दिमाग, । तर्कपूर्ण है; लेकिन सिर्फ तर्कपूर्ण ही दिल पर हावी हो जाये और भावों की अनुभूति नहीं है, थोड़ा ज्यादा भी है। तर्कपूर्ण बोलता को दबा डाले? कृपाकर मुझे राह बताएं। हूं-तुम्हारे कारण; थोड़ा ज्यादा जो है-वह मेरे
कारण। तर्कपूर्ण न बोलूंगा, तुम समझ न पाओगे। वह जो तर्कातीत है, वह न बोलूंगा, तो बोलूंगा ही नहीं; बोलने में सार क्या फिर? _____ तो जब मैं बोल रहा हूं तो मेरे बोलने में दो हैं, तुम हो और मैं हूं; सुनने वाला भी है और बोलने वाला भी है। ___अगर मेरा बस चले, तब तो मैं तर्कातीत ही बोलूं, तर्क बिलकुल छोड़ दूं; लेकिन तब तुम मुझे पागल समझोगे। तब तुम्हारी समझ में कुछ भी न आयेगा। तब तो तुम्हें लगेगा, यह तो तर्क-शून्य शोरगुल हो गया। तुम्हारी तर्क-सरणी में बैठ सके, इसलिए तर्कपूर्ण बोलता हूं। लेकिन अगर उतना ही तुम्हें समझ में आये, तो तुम बेकार आए और गए। . ऐसा समझो कि जैसे चम्मच में हम दवा भरते हैं और तुम्हारे मुंह में डाल देते हैं—चम्मच नहीं डाल देते। तर्क की चम्मच में जो तर्कातीत है. वह डाल रहा है। तम चम्मच मत गटक जाना: नहीं तो
और झंझट में पड़ जाओगे। चम्मच का उपयोग कर लो, लेकिन चम्मच में जो भरा है, उस रस को पीयो। तर्क की तो चम्मच है, तर्क का तो सहारा है; क्योंकि तुम अभी इतनी हिम्मत में नहीं हो कि तर्कातीत को सुन सको।
अगर तर्कातीत ही सुनना है तो पक्षियों के गीत सुन कर भी वही काम हो जायेगा जो अष्टावक्र की गीता सुनने से होता है! वे तर्कातीत हैं। हवाओं का वृक्षों से गुजरना, सरसराहट की आवाज; सूखे पत्तों का राह पर उड़ना, खड़खड़ाहट की आवाज; नदी की धारा में उठती आवाज; आकाश में मेघों का गर्जन-वह सब तर्कातीत है। अष्टावक्र बोल रहे आठों दिशाओं से, सब ओर से! मगर वहां तुम्हें कुछ समझ में न आयेगा। यह चिड़ियों की चहचहाहट, तुम कितनी देर सुन सकोगे? तुम कहोगे, हो गई बकवास; थोड़ा बहुत सुन लो, ठीक है लेकिन इस चहचहाहट में कुछ अर्थ तो है ही नहीं! वह जो तर्कातीत है, वह तो चिड़ियों की चहचहाहट जैसा ही है; लेकिन तुम्हारे तक पहुंचाने के लिए सेतु बनाता हूं तर्क का। ____ अब अगर तुम सेतु को ही पकड़ लो और मंजिल को भूल जाओ, शब्द को ही पकड़ लो, और शब्द से जो पहुंचाया था वह भूल जाओ तो तुम कंकड़-पत्थर बीन कर चले गए, जहां से हीरेजवाहरात से झोली भर सकते थे।
मित्र ने पूछा है, 'हृदय के भाव पर बुद्धि का अंकुश मत लगाओ, ऐसा आप कहते हैं।' निश्चित। बुद्धि से समझो, लेकिन हृदय को मालिक रहने दो। बुद्धि को गुलाम बनाओ, हृदय
हरि ॐ तत्सत्
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