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झांक रहीं कुछ आंखें सूरज के मुंह पर संध्या की काली अनगिन तीर सरीखी-सी चुभती हुई सलाखें अपने चेहरे के पीछे चुप सहमे लुके हुए सब राही रुके हुए सब! अपने चेहरे के पीछे चुप सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब! ये जो चेहरे हैं, मुखौटे हैं—बुद्धिमानी के, पांडित्य के, शास्त्रीयता के–इनके पीछे कब तक छुपे रहोगे? ये जो विचारों की परतें हैं, इनके पीछे कब तक छुपे रहोगे? इन्हें हटाओ! भीतर के शुद्ध चैतन्य को जगाओ।
द्रष्टा की तरह देखो, विचारक की तरह नहीं। विचारक का तो अर्थ हुआ मन की क्रिया शुरू हो
___ तो अगर अष्टावक्र को समझना हो तो चैतन्य, शुद्ध चैतन्य की तरह ही समझ पाओगे। अगर तुम सोच-विचार में पड़े तो अष्टावक्र को तुम नहीं समझ पाओगे, चूक जाओगे।
अष्टावक्र कोई दार्शनिक नहीं हैं, और अष्टावक्र कोई विचारक नहीं हैं। अष्टावक्र तो एक संदेशवाहक हैं-चैतन्य के, साक्षी के। शुद्ध साक्षी! सिर्फ देखो! दुख हो दुख को देखो, सुख हो सुख को देखो! दुख के साथ यह मत कहो कि मैं दख हो गया: सख के साथ यह मत कहो कि मैं सख हो गया। दोनों को आने दो, जाने दो। रात आये तो रात देखो, दिन आये तो दिन देखो। रात में मत कहो कि मैं रात हो गया। दिन में मत कहो कि मैं दिन हो गया। रहो अलग-थलग, पार, अतीत, ऊपर, दूर! एक ही बात के साथ तादात्म्य रहे कि मैं द्रष्टा हूं, साक्षी हूं।
हरि ॐ तत्सत्!
| समाधि का सूत्र : विश्राम
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