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है, लोग उसको सहते हैं; मगर उनके भाव से पता चलता है कि अब जाओ भी क्षमा करो, अब यहां किसलिए चले आए? अब दूसरे काम करने दो!' वे ही लोग जो उसकी खुशामद करते थे, रास्ते से कन्नी काट जाते हैं। वे ही लोग जो उसके पैर दाबते थे, अब दिखायी नहीं पड़ते। अचानक उसके अहंकार का गुब्बारा सिकुड़ जाता है; जैसे गुब्बारा फूट गया, हवा निकलने लगी, पंचर हो गया! सिकुड़ने लगता है। जीने में कोई अर्थ नहीं मालूम होता। मरने की आकांक्षा पैदा होने लगती है। वह सोचने लगता है, अब मर ही जाऊं, क्योंकि अब क्या सार है!
रिटायर होकर लोग जल्दी मर जाते हैं। क्योंकि उनके जीवन का सारा बल तो उनके साम्राज्यों में था। कोई हेड क्लर्क था तो दस-पांच क्लर्कों को ही सता रहा था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कौन हो-तुम चपरासी सही, मगर चपरासी की भी अकड़ होती है! जब जाओ दफ्तर में अंदर तो चपरासी को देखो, स्टूल पर ही बैठा है बाहर, लेकिन उसकी अकड़ देखो! वह कहता है, ठहरो! __मुल्ला नसरुद्दीन कांस्टेबल का काम करता था। एक महिला को तेजी से कार चलाते हुए पकड़ लिया। जल्दी से निकाली नोट-बुक, लिखने लगा। महिला ने कहा, 'सुनो! बेकार लिखा-पढ़ी मत करो। मेयर मुझे जानते हैं।' मगर वह लिखता ही रहा। महिला ने कहा कि 'सुनते हो कि नहीं, चीफ मिनिस्टर भी मुझे जानते हैं!' मगर वह लिखता ही रहा। आखिर महिला ने आखिरी दांव मारा, उसने कहा, 'सुनते हो कि नहीं? इंदिरा गांधी भी मुझे जानती हैं!'
मुल्ला ने कहा, 'बकवास बंद करो! मुल्ला नसरुद्दीन तुम्हें जानता है?' उस महिला ने कहा, 'कौन मुल्ला नसरुद्दीन ? मतलब?' ।
उसने कहा, 'मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है। अगर मैं जानता हूं तो कुछ हो सकता है, बाकी कोई भी जानता रहे, भगवान भी तुम्हें जानता हो, यह रिपोर्ट लिखी जायेगी, यह मुकदमा चलेगा।'
हर आदमी की अपनी अकड़ है! कांस्टेबल की भी अपनी अकड़ है; उसकी भी अपनी दुनिया . है, अपना राज्य है; उसके भीतर फंसे कि वह सतायेगा। ____ अहंकार जीता है उस सीमा पर, जो तुम कर सकते हो। इसलिए तुम देखना, अहंकारी आदमी 'हां' कहने में बड़ी मजबूरी अनुभव करता है।
तुम अपने में ही निरीक्षण करना। यह मैं कोई दूसरों को जांचने के लिए तुम्हें मापदंड नहीं दे रहा हूं, तुम अपना ही आत्मविश्लेषण करना। 'नहीं' कहने में मजा आता है, क्योंकि 'नहीं' कहने में बल मालूम पड़ता है। बेटा पूछता है मां से कि जरा बाहर खेल आऊं, वह कहती है कि नहीं! नहीं! अभी बाहर खेलने में कोई हर्जा भी नहीं है। बाहर नहीं खेलेगा बेटा तो कहां खेलेगा। और मां भी जानती है कि जायेगा ही वह; थोड़ा शोरगुल मचायेगा, वह भी अपना बल दिखलायेगा। बलों की टक्कर होगी। थोड़ी राजनीति चलेगी। वह चीख-पुकार मचायेगा, बर्तन पटकेगा, तब वह कहेगी, 'अच्छा जा, बाहर खेल!' लेकिन वह जब कहेगी, 'जा, बाहर खेल', तब ठीक है; तब उसकी आज्ञा से जा रहा है!
मल्ला नसरुद्दीन का बेटा बहत ऊधम कर रहा था। वह उससे बार-बार कर रहा था, 'शांत होकर बैठ! देख मेरी आज्ञा मान, शांत होकर बैठ!' मगर वह सुन नहीं रहा था। कौन बेटा सुनता है! आखिर भन्ना कर मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'अच्छा अब कर जितना ऊधम करना है। अब देखू, कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है। अब मेरी आज्ञा है, कर जितना ऊधम करना है। अब देखें कैसे मेरी
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1 |