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तर्क तो आटा है, तर्कातीत कांटा है। तुम्हें फुसलाते हैं, कड़वी भी दवा पिलानी हो तो शक्कर की पर्त चढ़ाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों जैसी हालत है आदमी की, वह शक्कर के रस में कड़वी दवा भी गटक जाता है। जहर भी पी सकते हो तुम। लेकिन अगर सीधा ही तुम्हारे सामने तर्कातीत को खड़ा कर दिया जाये तो तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, 'नहीं इस पर तो हमारी बुद्धि को भरोसा नहीं आता।'
तो मैं तुम्हारी बुद्धि को भरोसा लाना चाहता हूं। लेकिन अगर वहीं तुम रुक गए और तुमने सोचा कि आ गया बद्धि को भरोसा. अब घर जायें तो तम चक गए। तो तमने ऐसा समझो कि
ए। तो तुमने ऐसा समझो कि दवा के ऊपर तो चढ़ी शक्कर थी, उसको तो उतार कर पी लिया और दवा को फेंक दिया।
'तर्क की संतुष्टि से क्या दिमाग की पुष्टि होती है?' ।
तुम पर निर्भर है। अगर सिर्फ तर्क ही तर्क को सुनोगे, तो दिमाग की पुष्टि होगी; लेकिन तर्कों के बीच में अगर तुमने अतर्क्स को भी थोड़ा-सा जाने दिया, बूंद-बूंद सही, तो वह बूंद तुम्हारे मस्तिष्क में, हृदय की क्रांति को उपस्थित कर देगी। ___यह तुम पर निर्भर है। कुछ लोग हैं, जो सिर्फ तर्क ही तर्क को सुनते हैं; जो-जो तर्क के बाहर पड़ता है, उसे वे हटा देते हैं। फिर वे मेरे पास आये ही नहीं; आये या न आये, बराबर। वे जैसे आये थे, वैसे ही वापस गए और मजबूत होकर गए। उन्होंने अपने-अपने हिसाब का चुन लिया, मतलब की बात चुन ली। जो उनके तर्क के साथ बैठती थी, वह चुन ली; जो नहीं बैठती थी, वह छोड़ दी। जो नहीं बैठती थी तुम्हारे तर्क के साथ, वही तुम्हारे भीतर क्रांति की चिनगारी बनती। जो तुम्हारे तर्क के साथ बैठती थी, वह तो तुम्हीं को मजबूत करेगी। तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी चिंता, तुम्हारा संताप, और मजबूत हो जाएगा। तुम्हारा अहंकार और मजबूत हो जाएगा।
तो थोड़ी कुशलता बरतना। इसलिए तो जनक कहते हैं अष्टावक्र से: कैसी कुशलता! कि क्षण में दिखाई पड़ गया! कैसी मेरी दक्षता! कैसी मेरी निपुणता!! उस निपुणता को ध्यान में रखना, उस दक्षता को ध्यान में रखना। तुम पर निर्भर है।
यहां जो मैं बोल रहा हूं, बोलना मुझ पर निर्भर है, लेकिन सुनना तो तुम पर निर्भर है। बोलने के बाद तो फिर मैंने जो कहा, उस पर मेरी कोई मालकियत नहीं रह जाती। इधर बोला कि वह मेरे हाथ के बाहर हुआ। छूटा तीर! फिर तो तुम्हारे हाथ में है कि कहां लगेगा, कहां तुम लगने दोगे? लगने दोगे कि बच जाओगे? बुद्धि में लगने दोगे? तो तुम यहां से और भी पंडित होकर लौट जाओगे,
और तर्क-कुशल हो जाओगे, विवाद में और प्रवीण हो जाओगे। मगर चूक गए तुम। हृदय में लगने देते तो तुम और आनंदित होते, तुम और अहोभाव से भरते; तो धन्यता का द्वार खुलता; तो प्रसाद की वर्षा की थोड़ी संभावना बढ़ती; तो अमृत की तरफ तुम थोड़े सरकते; दो कदम तुमने उठाये होते उस अंतिम पड़ाव की तरफ। पंडित होकर मत लौट जाना। थोड़े प्रेमी होकर लौटना।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। वे ढाई अक्षर जो प्रेम के हैं, वह मत भूलना।
तो सुनो मेरे तर्क को, राजी होओ मेरे तर्क से—पर साधन की भांति। साध्य यही है कि एक दिन तुम हिम्मत जुटा लोगे, और तर्कातीत में छलांग लगा दोगे। तर्क के माध्यम से तुम्हें वहां तक ले
हरि ॐ तत्सत्
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