Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 372
________________ नदारद है, वह जा चुका है। वह प्रयोग पूरा हो गया। वहां कुछ भी हंसी जैसी बात न थी। वह जो गा रहा था गीत, वह बड़ा दुखांत था। लेकिन धारणा अगर पकड़ जाए तो व्यावहारिक रूप सत्य मालूम होने लगती है। अहंकार एक धारणा है। सभी को पकड़ी है। और खूब उस धारणा के नीचे सभी की छातियां दबी हैं! लेकिन है केवल व्यावहारिक सत्य । उपयोगी है निश्चित, यथार्थ नहीं है। उपयोग खूब करो, लेकिन भूल कर भी अपने को अहंकार मत समझ बैठना । काम ले लो, लेकिन अहंकार के वशीभूत मत हो जाना। इतना ही प्रयोजन है साक्षी भाव का कि तुम साक्षी भाव से देखो कि क्या व्यावहारिक है, क्या पारमार्थिक है; क्या वस्तुतः है और क्या है केवल मान्यता के आधार पर। एक सूफी कथा है। एक आदमी था । उसे अपनी परछाईं से घृणा हो गई । न केवल परछाईं से घृणा हो गई, उसे अपने पद चिह्नों से भी घृणा हो गई। उस आदमी को अपने से ही घृणा थी। जब अपने से घृणा थी तो अपने पद चिह्नों से भी घृणा हो गई। और जब अपने से घृणा थी तो अपनी छाया से भी घृणा हो गई। वह बचना चाहता था। वह चाहता था कि यह छाया मिट जाए। और वह चाहता था कि मैं कोई पद चिह्न पृथ्वी पर न छोडूं, मेरी कोई याद न रह जाए, मैं इस तरह मिट जाऊं कि जैसे मैं कभी हुआ ही नहीं। वह भागने लगा – छाया और पद - चिह्नों से बचने को । वह खूब दूर मीलों भागने लगा। लेकिन जितना ही वह भागता, छाया उसी के साथ घसिटती हुई भागती । वह जितना भागता, उतने ही पद चिह्न बनते । आखिर उसकी बुद्धि ने कहा कि तुम ठीक से नहीं भाग रहे, तुम तेजी से नहीं भाग रहे हो। उसके तर्क ने कहा कि इस तरह काम न चलेगा; ऐसे तो तुम भागते रहोगे, छाया साथ लगी है। तुम्हारे दौड़ने में जितनी गति होनी चाहिए उतनी गति नहीं है। गति से दौड़ो ! तुम जितनी तेजी से दौड़ रहे हो, उतनी तेजी से तो छाया भी दौड़ रही है। इसलिए छाया भी उतना दौड़ सकती है। इतने दौड़ो कि छाया न दौड़ सके, तो संबंध टूट जाए। तो वह इतना ही दौड़ा और कहते हैं, गिरा और मर गया । सूफी इस कहानी की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं, ऐसी ही आदमी की दशा है। कुछ हैं यहां, जो छाया को भरने में लगे हैं; जो छाया पर हीरे-मोती लगा रहे हैं; जो छाया को सोने से मढ़ रहे हैं। वे कहते हैं, यह हमारी छाया है; इसे हम सजाएंगे; इसे हम रूपवान बनाएंगे; इस पर हम इत्र छिड़केंगे; इस पर हम मखमल बिछाएंगे। यह हमारी छाया है; यह किसी गरीब-गुरबे, किसी भिखमंगे की छाया नहीं । यह ऐसे सड़क के कंकड़-पत्थरों पर न पड़ेगी; यह सिंहासनों पर पड़ेगी; यह स्वर्ण-पटे मार्गों पर पड़ेगी। राजाओं को चलते देखा है ? जब वे चलते हैं तो आगे उनके मखमल बिछाई जाती है। उनके पदचिह्न मखमल पर पड़ते हैं। ये कोई साधारण आदमी थोड़े ही हैं कि मिट्टी पर...साधारण मिट्टी पर तो सभी के पदचिह्न पड़ते हैं। एक हैं, जो इस छाया को सजाने में लगे हैं। यह एक तरह का पागलपन है। फिर दूसरे हैं, जो इस छाया से भयभीत हो गए हैं- भगोड़े, तथाकथित साधु-संत । संसारी छाया को सजाने में लगे हैं, छाया के आस-पास महल बना रहे हैं। और जिनको तुम गैर-संसारी कहते हो, विरागी कहते हो, वे भाग खड़े हुए, वे भाग रहे हैं कि छाया से दूर निकल जाएं। और छाया है नहीं। सजाओ तो भ्रांति है, भागो 358 अष्टावक्र: महागीता भाग-1 •

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