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प्रस्तावना
कारने अनगारधर्मामृतके अन्तमें उसे जिनप्रवचनसे उद्धृत श्रमणधर्मका सार,और उसके प्रत्येक अध्यायकी टीकाके अन्तमें प्रयुक्त पद्यमें 'जिनेन्द्रागमरूप क्षीरसागरको मथकर निकाला हुआ धर्मामृत प्रकट किया है। साथ ही अन्यकी प्रशस्तिमें उसे 'अर्हद्वाक्यरस' विशेषणके साथ भी उल्लिखित किया है, जिसका अर्थ टिप्पणीमें 'जिनागमनिर्यासभूतं' (जिनागमका रस या सार) दिया है । इस सब कथनसे भी उक्त 'सूक्तिसंग्रह' विशेषण, प्रतिपादित आशयके साथ, सार्थक जान पड़ता है। यहाँ 'सूक्ति' शब्द सद्गुरुत्रोंकी उक्तियोंका वाचक है और सद्गुरुओंमें मुख्यतः अर्हन्तों तथा गौणतः उन गणधरादि परम्परा-आचार्योका ग्रहण है नो अर्हद्वाणी तथा उसके द्वारा प्रतिपादित अर्य एवं आशयको श्रुतनिबद्ध करके उसे सुरक्षित रखते आए हैं। धर्मामृतके दोनों भागोंकी टीकाओंमें प्रमाणादिके रूपमें उद्धृत वाक्योंको देखनेसे स्पष्ट पता चलता है कि ग्रन्थकार महोदयने कहाँसे किन वाक्योंका किस रूपमें क्या कुछ सार खींचा है अथवा उन्हें किस रूपमें अपनाकर अपने ग्रन्थका अंग बनाया है। और इससे उनके साहित्य
* "जिनप्रवचनाम्बुधेरुद्धृतं... श्रमणधर्मसारम् ।"
"यो धर्मामृतमुधार सुमनस्तृप्त्यै जिनेन्द्रागमक्षीरोदं शिवधीनिमथ्य जयता स श्रीमदाशावर।"