Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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प्रथमाध्याय:
छाया- अथ किं तत् अनुगम:? नवविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सत्पदप्ररूपणता
द्रव्यप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शनं च कालश्च अन्तरं भागः भाव:
अल्पबहुत्वं चैव । प्रश्न-अनुगम (ज्ञान होने का प्रकार) क्या है ? उत्तर- वह नौ प्रकार का कहा गया है
सत्पदप्ररूपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव
और अल्पबहुत्व । संगति-सत् और सत्पदप्ररूपणता में भेद नहीं है । द्रव्यप्रमाण और संख्या भी प्रथक् भाव वाले नहीं हैं। तत्वार्थसूत्र के शेष पद आगम में वैसे के वैसे ही हैं। अगम वाक्य में भाग अधिक है, जिसका सूत्रकार ने संक्षेप से वर्णन करने के कारण द्रव्य प्रमाण के साथ संख्या में अन्तर्भाव किया है । इस प्रकार आगम तथा सूत्र दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥
भ०१ सूत्र पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियणणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे ॥
स्थानांगसूत्र स्थान : उद्दे० ३ सू० ४६३
अनुयोगद्वार सूत्र १
नन्दिसूत्र १
भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देश २ सूत्र ३१८ छाया- पञ्चविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं
अवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानम् ॥ भाषा टीका-ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है-श्राभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ।
संगति- इस आगम वाक्य तथा सूत्र में मतिज्ञान के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है । सो यह अन्तर भी कुछ अन्तर नहीं है । क्योंकि तत्वार्थसूत्र के इसी