Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1240
________________ दुप्पणिहाण 2562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुफास यदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे / एवं पंचिंदियाणं०जाव वेमाणियाणं / / दुष्प्रणिधानमशुभमनःप्रवृत्त्यादिसामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति। स्था०३ ठा०१3०। प्रव०ा आ०चू०। भाधा चउव्विहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणदुप्पणिहाणे० जाव उवगरणदुप्पणिहाणे, एवं पंचें दियाणं०जाव वेमाणियाणं / स्था०४ ठा०१०। दुप्पणिहिय त्रि०(दुष्प्रणिहित) विश्रोतोगामिनि, दश०८ अ० स्था) आचा। दुप्पणोल्लिय त्रि०(दुष्प्रणोद्य) दुःखेन प्रणोद्यते इति दुष्प्रणोद्यः / दुस्त्य जे, सूत्र०१ श्रु०३अ०१3०। दुप्पण्णवणिज्ज न०(दुष्प्रज्ञाप्य) दुःखेन प्रज्ञप्तु योग्ये, दुःखेन धर्म संज्ञोपदेशेनानाय॑सङ्कल्पान्निवर्तन्ते। आचा०१ श्रु०१ चू०३अ०१ उ० दुप्पत न०(दुष्पत) अपतनशीले पात्रविशेषे, "ज ठविज्ज़त उड्डठायति, चालियं पुण पलोट्टति, तंदुप्पतं।" नि०चू०१3०1 दुप्पतर त्रि०(दुष्प्रतर) दुरुत्तरे. सूत्र०१ श्रु०५ अ०१3०। दुप्पधंसग त्रि०(दुष्प्रधर्षक) दुर्धर्ष एव दुर्धर्षकः / उत्त०६ अ०॥ शत्रुभिर्दुराकलनीये, उत्त० अ०। दुप्पमजण त्रि०(दुष्प्रमार्जन) अविधिना प्रमार्जने, ध०३ अधिo दुप्पमज्जिय त्रि०(दुष्प्रमार्जित) अविधिना अनुपयुक्ततया च रजो हरणाऽऽदिना विशोधिते, प्रव०६ द्वार / आचा०। आवा०। दुप्पमज्जियचारि(ण) पुं०(दुष्प्रमार्जितचारिण) दुष्प्रमार्जितेऽवस्थाननिषीदनशयनीयक रनिक्षेपोचाराऽऽदिपरिष्ठापनकारके, दशा०१अ० स०। आ०चू०। प्रश्न०। दुप्पयन०(दुष्पद) पुष्पकमूलेन प्रतिष्टिते, बृ०३ उ०। दुप्पयारप्पमद्दण त्रि० (दुष्प्रचारप्रमर्दन) दुष्प्रचाराश्चौराऽऽदयोऽन्यायकारिणस्तान प्रमर्दयति यस्तस्मिन् / अन्यायकारिप्रचारनिवारके, कल्प०१ अधि०३क्षण। दुप्परकंत न०(दुष्पराक्रान्त) प्राणिघातादत्तापहाराऽऽदौ कर्मणि, ज्ञा०१श्रु०१६अ। दुप्परिअल्ल (देशी) अशक्ये दुर्गुणे, अनभ्यस्ते च / दे०ना०५ वर्ग 55 गाथा। दुप्परिकम्मतर न०(दुष्परिकर्मतर) कष्टकर्त्तव्यतेजोजननमगक रणाऽऽदिप्रक्रिये, भ०६ श०१उ०। दुप्परिचय त्रि०(दुष्परित्यज) दुःखेन परित्यक्तुं योग्ये, उत्त०। "दुप्परि चया इमे कामा, नो सुजना अधीरपुरिसेहिं / ' उत्त०८ अ०। दुप्परियतणसील त्रि० (दुष्परिवर्तनशील) महता कष्टेन पश्चाद्वलनशीले, "मच्छो विव दुष्परियतणसीलाओ।' मत्स्यवत् दुष्परिवर्तनशीला महता कष्टेन परिवर्तनं पश्चाद्वालयितुं शील स्वभावो यासा तास्तथा स्त्रियः / तं० दुप्परिवत्तणसील त्रि०(दुष्परिवर्तनशील) 'दुप्परियत्तणसील' शब्दार्थे, तं०। दुप्परिस त्रि०(दुष्प्रधृष्य) अपरिभवनीये, प्रश्न०५ संब० द्वार। दुप्पलिओसहिभक्खणया स्त्री०(दुष्पवौषधिभक्षणता) भोजनतः परिभोग उपभोगव्रतस्यातिचारविशेषे, "दुष्पक्कोसहिभक्खणया।' दुप्पक्ता अग्निना अचित्ता औषधयस्तद्भक्षणता / अतिचारता चास्य पक्कबुद्ध्या भक्षयतः। उपा०१ अ०। ध। ध०र०। आव०। दुप्पलितोसहिभक्खणया स्त्री०(दुष्पक्षौपधिभक्षणता) 'दुप्पलिओसहिभक्खणया शब्दार्थे , उपा०८० दुप्पलिय त्रि०(दुष्पक) मन्दपक्के, ध०२ अधिका दुप्पवियम त्रि०(दुष्प्रावृत) परिधानवर्जिते, तं०। दुप्पवेस त्रि०(दुष्प्रवेश) दुरवगाहे, आ०म०१अ०२खण्ड। अ०। दुप्पवेसतरग त्रि०(दुष्प्रवेशतरक) प्रवेष्टुमशक्ये, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दुप्पसह पुं०(दुष्प्रसह) कल्किनृपसमकालिके राजोपद्रुतसंरक्षक स्वनामख्याते आचार्ये, ती०२० कल्प। "दूसमपजते वारसवरिसिओ पव्वइय दुहझूसियतणू दसवेयालियागमधरो अट्ठसिलोगप्पमाणगणहरमंतजावी छट्टउक्किट्ठतबो दुप्प सहो नाम आयरिओ चरमजुगप्पहाणो अट्ठ वासाई सामण्णं पालित्ता वीसवरिसाओ अट्ठमभत्तेणं कयाणसण' सोहम्मे कप्पे पलिओवमाओसरो एगावयारो उप्पिजहइ दुप्पसहो सूरी फगुसिरी अजा, नाइलो सावगो, सव्वसिरी साविया, एस अपच्छिमो संघो।" ती०२० कल्प। तिका दुप्पसहंतं चरणं, जं भणियं भगवया इहं खेत्ते / आणाजुत्ताणमिणं, न होइ अहुणो त्ति वामोहो / / 57 / / (दुप्पसहतमिति) दुःखेन प्रकर्षप्राप्ततया सह्यत इति दुष्प्रराह, त्द् गुणयोगादाचार्योऽपि दुष्प्रसहः / यथा दण्डयोगाद्दण्डः पुरुष इति / स एवान्ते पर्यन्ते यस्य तत्तथा, चरण चारित्रं भणितं प्रतिपादितं भगवता श्रीमन्महावीरेण, इहास्मिन् क्षेत्रे भरताभिधाने यद्यस्मात्कारणात् तस्मादाज्ञायुक्तानामपि, न केवलमाज्ञाबाह्यानामिदं प्रस्तुतं चारित्रं न भवति न जायतेऽधुनेति साम्प्रतं तत्साध्यातिशयदर्शनाच इति तेषामसद् ग्राहगृहीतचेतसां व्यामोहो मूढतेति यावत् / मूढता च तेषामागमवचनान्यथाकरणादिति गाथार्थः / / 57 / / दर्श० 2 तत्त्व / शत्रुञ्जयतीर्थस्योद्धारके, "सुमङ्गलः शूरसेन इत्यस्योद्धारकारकाः। अवक दुष्प्रसहोदन्त, भावी विमलवाहनः / / 13 / / " ती०१ कल्प।"अस्याः पश्चिममुद्धार, राजा विमलवाहनः / श्रीदुष्प्रसहसूरीणामुपदेशाद्विधास्यति ||1||" ती०१ कल्प। दुप्पस्स त्रि०(दुर्दर्श) दुःखेन दर्श्यत इति दुर्दशः। परीषहाऽऽदौ दुर्दर्श , ''मज्झिमगाणं जिणाणं, दुप्पस्सं दुग्गम भवइ।' स्था० 5 डा०१3०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2262 पृष्ठे व्याख्या) दुप्पहंसय त्रि०(दुष्प्रहंस्यक) दुरभिभवे, उत्त०११ अ०। दुफास त्रि०(द्विस्पर्श) द्वावविरुद्धौ स्निग्धशीलाऽऽद्यात्मको स्पर्शा वस्येति द्विस्पर्शः / उत्त०पाई०१ अ०। स्निग्धरूक्षशीत:

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