Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ देवसूरि 2626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवाणुभाग रे विक्रमसंवत्- 1152 वर्षे भुनिचन्द्रसूरिपाचे दीक्षां जग्राह / तदानीं | महावीरे।" राग रामचन्द्र इति नाम लेभे, पश्चात्तर्कव्याकरण-साहिल्याऽऽयनेकशार नेषु / देवाइदेव-पुं०(देवातिदेव) देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वपरिनिष्ठां प्राप्य विक्रमसंवत्-- 1174 सूरिपदं सहैव च तेन देवसूरि- योगाद्देवातिदेवाः। पञ्चविधभव्यद्रव्यदेवा-ऽऽदिदेवभेदे, भ० 0220 उ०० रिति नाम लब्धम् / ततः क्रमण धवलकपुरे उदयश्रेष्टिकारितसीम - देवाउय-न०(देवाऽऽयुष) देवानामायुष्कर्मणि, 'चउहि ठाणेहि जीवा न्धरस्वामिप्रतिमा प्रातिष्ठिपत्, अणहिल्लपुरपट्टने वाहडश्रावकस्य देवाउयत्ताए कम्मं पगरेति। तं जहा-पगइभद्दयाए. विणीययाए, सागुमोवीरप्रभुप्रतिमामस्थापयत्। नागपुरराजं सिद्धराजाऽऽक्रान्तगमोचयत। सयाए. अमच्छरियाए।" स्था०४ ठा०४उ० कर्णाटकदेशे कर्णावत्यां नगर्या गत्वा कुमुदचन्द्रनाम वादप्रसिद्ध दिगम्ब देवागमण-न०(देवाऽऽगमन) यद्यपि सुराणामचिन्त्यशक्या सर्वत्राराऽऽचार्य वादे आहूय अणहिल्लपुरपट्टने सिद्धराजसमक्षं तं पराजिग्ये / ऽऽगमनशक्तिररित,तथापि सिद्धान्ते सुराणामागमनं प्रायो निर्याणततः संतुष्टेन सिद्धराजेन तस्मै दीनारलक्षं दातुमुत्सृष्ट, किं तु तेन मार्गेणोक्त दृश्यत इति। 46 प्र०। सेन०२ उल्ला निष्परिग्रहेण नाङ्गीकृतमिति तत्रैव श्रीऋषभदेववैल्यं तद- द्रव्येण कारितम / विक्रमसंवत्-१२२६ वर्षेऽयं देवसूरिदेवलोकमगमत् / जै०ई०। देवाजीव-त्रि०(देवाऽऽजीव) देवं देवं प्रतिमाद्रव्यमाजीवनि। जीव अण। जी। मुनिचन्द्रसूरिशिष्ये रत्नप्रभसूरेर्गुरौ स्वनामख्याले आचार्य, रत्ना० पूजादौ, न०। 8 परि० "येत्र स्वप्रभया, दिगम्बरस्याऽर्पिता पराभूतिः / प्रत्यक्ष देवाणंद-पुं०(देवाऽऽनन्द) ऐरवते वर्षे भविष्यति तुर्विशतितमे विबुधाना, जयन्तु ते देवसूरयो नव्याः // 2 // " निर्जितदुर्जयपरप्रवादाः स्वनामख्याते जिने, स०। "देवाणंदे य अरहा, समाहे पडि देसंतु श्रीदेवसूरिपादाः / स्या० / सामन्तभद्रसूरिशिष्ये रवनामख्याते सूरी, मे।'' तिन गा सर्वदेवसूरेगुरौ स्वनामख्याते सूरी, ग०। देवाणंदसूरि(ण)-पुं०(देवानन्दसूरिन्) जयदेवसूरी-शिष्ये स्व.. वृद्धगच्छमधिकृत्य -- नामख्याते सूरी, ग०४ अधिo! ''अभवत्तत्र प्रथमः सूरिः श्री श्रीसर्वदेवाऽऽहः।।२१।। देवाणंदा-स्त्री०(देवानन्दा) ब्राह्मणकुण्डग्रामे कोडालसगोत्रस्य ऋषभदरूपश्रीरिति नृपति-प्रदत्तविरुदोऽथ देवसूरिरभूत। ताभिधानस्य ब्राह्मणस्य जालन्धरायणसगोत्रायां भायां महावीरश्रीसर्वदेवसूरिज॑ज्ञे पुनरेव गुरुचन्द्रः / / 22 / / " ग०४ अधि०। स्वामिनो मातरि, आचा०२ श्रु०३ चू० १अ० / पुग्न्दराऽऽदिष्टन देवसेण-पुं०(देवसेन) देवा सेना यस्य, देवाधिष्ठिता वा सेना यस्य स हरिनगमोषिदेवेन यदुदरात त्रिशलाभिधानाया राजपत्न्या उदरसंक्रामणं देवसेन इति / शतद्वारनगरस्थे महापद्मापरनामके स्वनामख्याते नृपे, भगवतो महावीरस्य कृतम् / स्था० 10 ठा०1 एतच्च 'महावीर' शब्द "तस्स महापउमस्स रन्नो दव्वे वि नामधिजे भविस्सइ देवसेणे ति।" स्फुटीभविष्यति) स्था०६ ठा० भ०। (एतद्वक्तव्यता 'महापउम' शब्दे वक्ष्यते) ऐरवत इह खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्वभरहे दाहिणमाह-- वर्तमानजिनेषु स्वनामख्याते षोडशे जिने, प्रव०७ द्वार। भारत वर्षे णकुंडपुरसण्णिवेसंसि उसभदत्तस्स माहणस्स कोमालसभविष्यज्जिनस्य विमलवाहनस्य पूर्वभवजीवे, 'देवसेणो विमल गोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए वाहणो तित्थयरो।" ती० 20 कल्प / नयचक्रय-थकारके स्वनाम सीहब्भवभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिंसि गम्भं वक्रते समणे भगवं ख्याते दिगम्बराऽऽचार्य , "इस्थमेव समादिष्ट, नयचक्रेऽपि तत्कृता।" महावीरे। आचा०२ श्रु०३ चू०१ अ० स० आ०म०! आ०चू० द्रव्या०८ अध्या०ातजन्म विक्रमसंवत्-६५१ वर्षे रामसेनस्यस शिष्यः, कल्प तेन दर्शनसारभावसंग्रहतत्त्वसाराऽऽराधनासारधर्मसंग्रहाऽऽलाप- (देवानन्दायाः प्रव्रज्याऽऽदिवक्तव्यता 'उसमदत्त' शब्दे द्वितीयभागे पद्धत्यादयो ग्रन्था विरचिताः। जै०३०। भहिलपुरनगरे नागस्य गृहपतेः 1153 पृष्ठे द्रष्टव्या) पक्षस्य स्वनामख्याताया पञ्चदश्यां रात्री, ज० सुलसानामभार्यायामुत्पन्ने स्वनामख्याते पुत्रे, स चारिष्टनेमेरन्तिके ७वक्ष। चं०प्र०ा कल्पना "जहा देवाणंदा पुप्फचूलाणं अतिए।'' नि०१ प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां पञ्चमेऽध्ययने सूचितम्। अन्त० श्रु०४ वर्ग 2 अग 1 वर्ग 1 अग देवाणुपुवी-रत्री०(देवानुपूर्वी) एकोनविंशतितमे शुभकर्मभेदे, उत्त० देवसेणगणि-पुं०(देवसेनगणिन्) यशोभद्रसूरिशिष्ये पृथ्वीचन्द्रगुरी, तेन 33 अ०। चपर्युषणकल्पटिप्पणो नाम ग्रन्थो विरचितः। जै० इ०। देवाणुपुटवीए पुच्छा? गोयमा ! जहण्णे णं सागरोवमदेवस्सपरिभोग-पुं०(देवस्वपरिभोग) देवस्वस्य जिनविम्बनिर्मा- सहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जभागणं पणार्थ कल्पितत्वेन जिनदेवद्रव्यस्य परिभोगो भक्षणं देवस्वपरिभोगः। उक्कोसेणं दससागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससयाई जिनदेवद्रव्यभक्षणे, उपचारात्तद्धेतुकं कर्मा देवस्वपरिभोगः / ततुके अवाहा। प्रज्ञा०२१ पद। कर्मणि च / पञ्चा०५ विव० देवाणु प्पिय-पुं०(देवानुप्रिय) सरलस्वभावे, कल्प० 1 अधिo देवा-स्त्री०(देवा) दिव० अच् / पद्मचारिण्यां लतायाम, असनपा च।। ३क्षण / भ० / रा०ा विपा०।। वाच०। प्रा०॥ देवाणुभाग-j०(देवानुभाग) अद्भुवैक्रियशरीराऽऽदिशक्तियोगे. नि०१ देवाइ-पुं०(देवादि) देवाऽऽदियोगाद्देवाऽऽदिः। जिने, 'देवाइ समण भगवं / श्रु०३ वर्ग 4 अ० गण

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