Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ दुवई दुवई 2564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तणुसोल्लियसिंदुवारं कुंदेंदुसन्निगासं निययस्स बलस्स हरि- तथा त भीमम, (संगामिआओग्ग) संग्रामिक आयोगःपरिकरो यस्य स सजणणं रिउसेणाविणासकरं पंचजण्णं संखं परामुसति, तथा तम। (आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेति, पडिकप्पेना उवणेति परामुसइत्ता मुहवाउपूरियं करेति। तए णं तस्स पउमणाभस्स त्ति) (हयमहियपवरविवडियचिंधद्धयपडागे) हतमथिता अत्यर्थ हताः, तेणं संखसद्देणं बलतिभाए हए०जाव पडिसेहिए। अथवा हताः प्रहारतो, मथिता मानमथनाद् हतमथिताः, तथा प्रवरा (सुई कत्ति) श्रूयत इति श्रुतिः शब्दस्ताम् (खुतिं व त्ति) क्षवणं क्षुतिः विपतिताश्चिह्नध्वजाः कपिध्वजाऽऽदयः, पताकाश्च तदन्या येषां ते तथा / छीत्काराऽऽदिः शब्दविशेष एव, ताम्, प्रयुक्तिं वार्ता, वार्तापर्यायाश्चैत ततः कर्मधारयोऽतस्तान् / यावत्करणात्- "किच्छोवगयपाणे त्ति'' इति : (हिया व ति) हा प्रदेशान्तरे स्थापिता, नीता नेत्रा स्वस्थानं दृश्यम् / कष्टगतजीवितव्यानीत्यर्थः / (अम्हे वा पउमनाभे वा राय त्ति प्रापिता, आक्षिप्ता आकृष्टैवेति / (इमा अन्नेत्यादि) इयमन्या अपरा कट टु इति) अरमाकं पद्मनाभस्य च बलवत्त्वादिह संग्रामे वयं वा भवामः, मदीयस्वामिनः संबन्धिनी, विनयप्रतिपत्तिरिति वर्तते / (समुहाणत्ति पद्मनाभा वा, नोभयेषाम-पीह संयुगे त्राणमस्तीति कृत्वा इति नित्रयं कटु) स्वमुखेन स्वकीयवदनेन भणिता आज्ञप्तिरादेशः स्वमुखाऽऽज्ञप्ति- विधाय संप्रलग्राः, योद्धमिति शेषः। (अम्हे नो पउमनाभे राय त्ति कटु रिति कृत्वा, एवमभिधाय (आसुरुत्ते त्ति) क्रुद्धः(बलवाउए त्ति) त्ति) वयमेवेह रणे जयामोन पद्मनाभो राजेतियदि स्वविषये विजयनिश्चय बलव्यापृतः, सैन्यव्यापारवान्। (आभिसेक्वं ति) अभिषेकमर्हतीत्या- कृत्या पानाभेन सार्द्ध योद्धं संप्रालगिष्यथ , ततो न पराजयं प्राप्स्यथ, भिषेक्यं, मूर्धाभिषिक्तमित्यर्थः / (छेयायरियउवएसमइविगप्पणाविग- निश्चयसारत्वात्फलप्राप्तेः / आह चरुपेहि ति) छेको निपुणो य आचार्यः कलाचार्यः, तस्योपदेशात्तत्पूर्विकाया "शुभाशुभानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः। मतेर्बुद्धेर्याः कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदास्ते तथा तैरिति। इहयावया एकतस्तु मनो याति, तद्विशुद्ध जयाऽऽवहम् // 1 // वत्करणादिदं दृश्यम्-"सुनिउणेहिं ति'' सुनिपुणैर्नरः (उज्जलने तथावत्थहत्थपरिवच्छियं ति) उज्ज्वलनेपथ्येन निर्भलवेषेण (हत्थं ति) स्यान्निचयैकनिष्ठानां, कर्यसिद्धिः परा नृणाम्। शीघ्र, परिपक्षितः परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा। तम्। (सुसज्जं) सुष्टु प्रगुणं (वम्मियसन्नद्वबद्धकवचिय उप्पीलियकच्छ-वच्छबद्धगेवेज्जग संशयक्षुण्णचित्ताना, कार्ये संशीतिरेव हि ॥सा" लपवरभूसणविरायंत) वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः सन्नद्धः कृतसन्नाहो शड खविशेषणानि क्वचिद् दृश्यन्ते-(सेयं गोखीरहारधवलं त-- यः स वार्मिकसन्नद्धः, बद्ध कवचं सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकवचः, स गुसोल्लियसिंदुवार कुदेंदुसन्निगासं) (तणुसोल्लिय ति) मल्लिका, एवं बद्धकवचिकः / अथवा-वमितः सन्नद्धो बद्धस्त्वक त्राणबन्धनात् सिन्दुवारो निर्गुण्डिः (निययस्स बलस्स हरिसजणणं रिउसेणाविकवचितच यः स तथा, भेदश्चैतेषालोकतोऽवसेयः / एकार्थाश्चैते शब्दाः, णासकर पंचजण्णं ति) पाञ्चजन्याभिधानम्। संनद्धता प्रकर्षाभिधानायोक्ता इति / तथा उत्पीडिता गाढीकृता कक्षा तए णं से कण्हे वासुदेवे धगुं परामुसति, वेढो धणुं पूरेइ,पूरे-- हृदयरज्जुर्वक्षसि यस्य स तथा। ग्रैवेयकं ग्रीवाऽऽभरणं बद्धंगले कण्ठे यस्य इत्ता धणुसदं करेइ। तए णं तस्स पउमणाभस्स दोच्चे बलतिस तथा। प्रवरभूषणैर्विराजमानो यः स तथा। ततो वर्मिताऽऽदिपदानां भाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय०जाव पडिसेहेति / तए णं से कर्मधारयोऽतस्तम् / (अहियतेयजुत्तं सललितवरकण्णपुरविराइतं पउमणाभे राया तिभागबलादसे से अथामे अबले अवीरिए पलंबओचूलमहुयरकयधगारं) प्रलम्बानि अवचूलानि कटकन्यस्ता- अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्ज मिति कट्ट सिग्धं तुरियं चवलं धोमुखकूर्चका यस्य स प्रलम्बावचूलः, मधुकरैर्भमरैर्मदजलगन्धा जेणेव अवरकं का रायहाणी तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता ऽऽकृष्टै: कृतमन्धकरं येन स तथा / ततः कर्मधारयोऽतस्तम् अवरक कं रायहाणिं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता दुवाराई (चित्तपरिच्छेयपच्छदं) चित्रो विचित्रः परिच्छेको लघुः प्रच्छदो वस्त्रविशेषो / पिहेति, रोहसज्जे चिट्ठइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव यस्य स तथा तम् / (पहरणावरणभरियजुद्ध-सज्ज) प्रहरणाना अवरकंका णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता रहं ठवेइ, कुन्ताऽऽदीनामावरणानां च कड् कटानां भृतो यः स तथा / स च ठवेइत्ता रहाओ पचोरुहेति, पचोरुहिता वेउव्वियसमुग्धाएणं युद्धसज्जश्चेति कर्मधारयोऽतस्तम्। (सच्छत्तं सच्छायं सज्झयं सघंट समोहणइ, एग महं नरसीहरूवं विउव्वति, विउव्वइत्ता महया पंचामेलयपरिमंडियाभिराम) पञ्चभिरापीडैः शेखरैः परिमण्डतोऽत महया सद्देणं पाददद्दरं करेति / तए णं से कण्हेणं वासुदेवेणं एवाभिरामश्च रम्यो यः स तथा। (ओसा-रियजमलजुयलघट) महया महया सद्देणं पाददद्दरेणं करणं समाणेणं अवरकंका अवसारितमवलम्बितं यमलं समं युगलं द्वयोर्घण्टयोर्यत्र स तथा तम्। रायहाणी संभग्गपायापुरट्टालयचरियतोरणपल्हस्थियपवरभ(विजुपिणद्ध व कालमेहं) घण्टाप्रहरणाऽऽदीनामुज्ज्वलत्वेनवद्युत्क- वणसिरिघराओ सरसरस्स धरणियले सण्णिवाइया / ल्पत्वात, हस्तिदेहस्य च कालत्वेन महत्वेन च मेघकल्पवादिति / / तए णं से पउमणाभे राया अवरक कं रायहाणिं संभग्गं (उप्पाइयपय्वय व चक्कमत) चड् क्रममाणमिवौत्पातिकपर्वतम् / जाव पासित्ता भीए तसिए उव्विग्गे दोवई देवि सरणं पाठान्तरेण औत्पातिक पर्वतमिव (सक्खं ति) साक्षात् (मत्तं ति) उवेइ / तए णं सा दोवई देवी पउमणाभं रायं एवं बयासीमदवन्तं (गुलुगुलुगुलेंतं मणपवणजइणवेग) मनःपवनजयी वेगो यस्य स किं णं तुम देवाणु प्पिया ! ण जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स

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