Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1333
________________ धणमित्त 2655 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणमित्त धनभित्रचरित्रं पुनरेवम"गुरुसत्तगणसमेयं, गाहाइमदलमिवऽस्थि विणयपुरं। तत्थाऽऽसि वसु सिट्ठी, भद्दा नामेण से भज्जा / / 1 / / ताण सुओ धणमित्तो, बालस्स वि तस्स उवरया पियरो। पुन्ने घणे पणट्टे, नट्टो विहयो नइरवुव्व / / 2 / / परिवडिओ दुहेणं, सो कमसो परियणेण वि विमुक्को। परिणयणत्थं अधणु-त्ति को विनय देइसे कन्नं / / 3 / / तो लजिंतो नयराउ णिग्गओ दविणअञ्जणसयण्हे। पिच्छइ कत्थ वि मग्गे, पारोह किंसुयतरुम्मि।।४।। तो सरइ खत्तवार्य, सो सुयपुव्वं जहा अखीरदुडे। जइ दीसइ पारोहो, ता तस्स अहे धणं मुणसु / / 5 / / विल्लपलासेसु धुवं, पारोहे थूलए बहुदव्यं। तणुए थोवं तह निसि, जलरे बहु थोवमियरम्मि।।६।। विद्धे पुण पारोहे,रत्तरसे निग्गयम्मि रयणाई। सेए रययं पीए, कणगं न हुनीरसे कि पि॥७|| जत्तियमिते देसे, पारोहो उच्चओ भवे उवरि। तत्तियभित्ते देसे, अहे विनिहियं धणं मुणसु / / 8|| तणुए उवरि परोहे, हिट्ठा पिहुले धुवं धणं मुणसु। विवरीए तयभावो, इय निच्छेऊण धणमित्तो 6* "नमो धनदाय नमो धरणेन्द्राय नमो धनपालाय'' इति मन्त्रं पञ्च खनति स्म तं प्रदेशम्। किंतु अपुन्नवसेणं, केवलअंगारपूरियं नियइ। तं बमयकलसजुयलं, तओ हमो चिंतइ विसन्नो।।१०।। पारोहपीयरसदसणेण कणयम्मि निच्छिए विधुवं / इंगाल चिय पिच्छेसि केवलेही विगयपुन्नो॥११॥ दविणस्थिणा नरेणं,नहु कायव्यो तहा वि निव्वेओ। जसव्वत्थ वि गिज्झइ, सिरीइ मूलं अनिव्वेओ।।१२।। इय चिंतिय पुरओ विहु, बहुभुभागे खणेइ दविणकए। नय पावइ काणवराडियं पिकत्थइ अपन्नवसा / / 13 / / सिक्खेइधाउवायं, मुत्तु किलेस लहेइ नहु अन्न। होउ वणिओ तो चडइ, पवहणे भज्जइ तयं तो।।१४।। अह थलमग्गवणिज्जं, करेइ अज्जेइ कहंवि किं पि धणं / तं पिनरेसरतकर-पमुहेहि धिप्पए तस्स // 15 // तो सव्यपयत्तेणं, ओलग्गं कुणइ निवइपभिईणं। तह वि तदपुन्नवसओ, न ते वि किं पिहुपसीयंति|१६|| एवं दुहं सहतो, परिभमिरो महियले कया पि इमो। केवलकलियं गुणसायरं गुयं गयउरे नियइ / / 17 / / संजायकम्मविवरो, बहुबहुमाणेण नमइ गुरुचरणे। तो कहइ मुणिवरो तस्स समुचियं धम्मकहमेवं / / 18 / / धम्मेण धणसमिद्धी, जम्मो धम्मेण उत्तमकलम्मि। धम्मेण दीहमाउं, धम्मेण उदग्गमारगं / / 16 / / सयलचउजलहिवलयम्मि निम्मला भमइ धम्मओ कित्ती। हसियरइरमणरूवं, रूवं धम्माउ इह होइ / / 20 / / ज भुजति सुहाई, मणिरयणपहापहासियदिसेसु / भवणेसु भवणवइणो, तं सव्वं धम्ममाहप्पं // 21 // जं हरिसभरुभंत, निवचक्क चक्किणो नमइ चलणे। तं सुद्धधम्मकप्पट-दमस्स कसमग्गमं मन्ने / / 2 / / सरहससुरसुंदरिकर-चालियचलचारुचामरुप्पीलो। सुरलोए सुरनाहो, हवेइ धम्मप्पभावेण // 23 / / किं बहुणा भणिएणं,-धम्मेण हवंति सयलसिद्धीओ। धम्मेण विमुक्काण उ, जियाण न कया वि फलसिद्धी॥२४॥ तं सोउं धणमित्तो, कयंजली जपए नमिय सूरि। एवमिणं मुणिपुंगव ! जंतुब्भेहिं समाइट्ठ॥२५॥ जम्माउ वि मह दुक्खं, मुणह चिय पहु! तुमे सनाणेण / को होऊ पुण इहयं, तो कहइ गुरू सुणसु भद्द! / / 26 / / इह भरहे विजयपुरम्भि गंगदत्तु त्ति गिहवई आसि / मगहा से दइया सो-उधम्मनाम पिन हमणइ॥२७|| धम्मकरणुज्जुयाणं, अन्नेसिं पि हुकरेइ बहुविग्छ / मज्झरभरिओ कस्स वि, लाभन हुसक्कए दटुं।२८॥ जइ पुण कह पि से पिच्छिरस्स बवहरइ कोइ बहुलाभ। एइ जरो सत्तमुहे हि तस्स इय वासरा जंति॥२६ / / अन्नदिणे करुणाए, सुंदरनामेण सावरण इमो। नीओ मुणीण पासे, कहिओ तेहिं पिइय धम्मो // 30 // उवसमविवेगसवर-सारो जहसत्ति नियमतवपवरो। जिणधम्मो कायव्वो, अतुच्छलच्छीइ कुलभवणं / / 31 / / इय सुणिय किंचि भावेण किं पि दक्खिन्नओ वि गिण्हेइ। सो पइदिणचिइवंदण-करणजुएऽभिग्गहे के वि॥३२।। मुणिणो नमित्तु पत्तो, सगिहम्मि पमायपरवसो धणियं / भंजइ अभिग्गहे के, वि के वि अइयरइ मूढमणो।३३।। इक्क पुण चिइवंदण-अभिग्गह पालए निरइयारं। कालक्कमेण मरिउं, संपइ सो एस तं जाओ॥३४॥ पुवकयदुक्कयवसा, तए इस एरिसं फलं पत्तं। जिणवदंणप्पभावा, जायं निहिदंसणाईयं / / 3 / / इय सोउधणमित्तो, संवेयगओ नमित्तुं मुणिनाहं। बहुदुक्खलक्खदलणं, गिहिधम्म गिण्हए सम्म।।३६।। दिवसनिसिपढमपहरे, मुत्तुं धम्मक्खणं अहं सेसं। सहसाणाभोगेणं, विणा पओसंच यज्जिस्सं // 37 // एवं गिव्हिय घोर, अभिग्गह वंदिउंच गुराचरणे। पुरमझे कस्सइ सा-वगस्स गेहम्मि उत्तरइ।।३८|| सूरुदए भोगेण, उच्चिणिउं मालिणा समं कुसुमे। घरजिणहरजिणपडिमाउ निच्चमच्चेइ भत्तीए॥३६।। वीए पहरे लोयागमाविरोहेण कुणइ ववसायं। संपज्जइ अकिलेसेण तेण खलु भोयणं तस्स / / 4 / / जह जह धम्मम्मि थिरो, हवेइ तह तह पवड्डए विहवो। विच्चेइ बहुंधम्मे, वीसुं गिण्हेइ तो गेहं / / 4 / / एमेण महिड्डियसा-बएण दिन्ना य तस्स नियधूया। अइधम्मिउत्ति काउं, दुन्नि वि चिट्ठति धम्मपरा / / 42 / / पत्तो, कया वि सोगो, उलम्मि गुलतिल्लमाइ विक्किणिउं / तं बेल पुण तं गुमन्नगिह गंतुमुच्चलियं / / 43|| त मेहरो य निहिठविय तंबकलसे तओ गहिउकामो। उज्झावइ इंगाले,तं कणयं नियइ धणमित्तो॥४४|| किमिण उज्झाविज्जइ,इय पुढे तेण मेहरो भणइ। कणग ति कहिय पिउणा, पवंचिया इच्चिरं अम्हे ||45 / / संपइ उज्झावेमो, एए इंगालए निएऊणं। तो सुट्टी सुद्धमणो, भणेइ भो भद्द ! सुवन्नमिणं / / 46 / / जपेइ मेहरो दढ-विमूढ ! किं वाउलो सि मत्तो सि। धत्तूरिओ सि अहवा, सव्वं सुन्नं दरिहस्स॥४७|| जइ कणगमिणं ता मज्झ दाउ मुलतिल्लमाइयं किं पि। गिण्हसु इम तुम चिय, तह चेव करेइ सिट्टी वि॥४८||

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