Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 1336
________________ धणिट्ठासंवच्छर 2658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणेसर पच्चत) धणिट्ठासंवच्छर-पुं०(धनिष्ठासंवत्सर) यस्मिन्संवत्सरे धनिष्ठानक्षत्रण | धणुत्तासणा-स्त्री०(धनुस्त्रासना) धनुषा भयजनने, "सरोवओगो सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सधनिष्ठासम्वत्सरः / इत्युलक्षणे शनैश्चरसं- धणुत्तासणा य।' धानुष्कर्वा पाषाणैर्वा पक्षिणस्वासनां कुर्वन्ति भयमुपवत्सरभेदे,ज०७ वक्षा जनयन्तीत्यर्थः / बृ०२ उ०) धणिय-न०(धणिय) अत्यर्थे , प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। 'धणियं अप्पा | धणुद्धय-पु०(धनुर्ध्वज) भविष्यदुत्सर्पिण्यां महापद्मस्य प्रथगतीर्थकरस्य निजो तचो।' धणियमत्यर्थमिति / व्य०२ उ०। आव०। 'धणियं पि / सकाशे प्रव्रजिष्यति स्वनामख्याते नृपे, स्था० 8 ठा०। समत्थचित्तेन / धणियमत्यर्थमिति। आतु०। अत्यन्ते, उत्त०१ अ० | धणुद्धर-पुं०(धनुर्धर) धनुर्धारयतिधृ-अच्। धानुष्के, वाच०। धनुर्द्धराः *धनिक-न० अत्यर्थे, “धीइधणियणिप्पकंपे" धनिकमत्यर्थमिति। कोदण्डप्रहरणा इति। स० औ०। "धणियमाणपहाणो य / " धनिकमत्यर्थम् / ध०२ अधि० | धणुपिट्ठ-न०(धनुष्पृष्ठ) मण्डलखण्डाऽऽकारे क्षेत्रे, स०५७ सम०। धनिवत् कायति-कै-कः। धन्याके, पु० न०। धने, पुं०। धनं जम्बूद्वीपलक्षणवृत्त क्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताऽऽदिवर्षावच्छिन्नस्याऽऽविद्यतेऽस्त्यस्य ठन् / धनस्वामिनि, वाच०। स०६ अङ्गा उत्तमणे च / रोपितज्याधनुष्पृष्ठाकारे परिधिखण्डे च / हैमवतैरण्यवतोरधिकारे त्रिका 'धनिकस्य यथारुचि।" इति स्मृतिः। रित्रया टाप। प्रियङगुवृक्ष, जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठवर्षाभ्यामवध्वां च / वाच०। वच्छिन्नस्याऽऽरोपितज्याधनुष्पृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुष्पृष्ठे, उच्यते, *धनित-न०। अत्यर्थे, 'धीइधणियबद्धकच्छा / " संथा। तत्पर्यन्तभूते सरलप्रदेशपङ्क्ती तुजीवे इव जीवे इति। स०३७ सम०। *ध्यनित-त्रि० / शब्दिते, वाचा (तच्च कस्य वर्षस्य वर्षधरपर्वतस्य कियत्प्रमाणमिति 'वासहर' शब्दे धणी-(देशी) भार्याप्राप्तिबद्धे, निःशड़े च / देवना०५ वर्ग 62 गाथा। वक्ष्यते) धणु-न०(धभुष) धन्-उस्।"धनुषो वा" ||८/१।२शप्राकृतसूत्रेण | धणुपुहत्तिया-खी०(धनुष्पृथक्त्विका) गव्यूते,"धणुपुहत्तिया वि गाउयं धनुः शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य वा हः। कार्मुके, प्रा०१ पाद / भियाल वि।'' गव्यूत द्विधनुः सहस्रप्रमाणमिति। प्रज्ञा० १पद। वृक्षे, धनुर्द्धर, त्रिका वाच० भ०। चापे, आ० म०१ अ०२ खण्ड / स० धणुबल-न०(धनुर्बल) धनुर्द्धरबले, "धणुबलं वा आलिंगति / " भ० जं०। विपा०। "जावं च णं से पुरिसे धणु परामुसइ।' धनुर्दण्डगुणा- ३श०२ उ०। ऽऽदिसमुदायः / भ०५श०६ उ०। चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्ने अवमानविशेष. | धणुय-न०(धनुष्क) धणुक्क' शब्दार्थे, स०। अनु०। 'दंडं धणू य जूबं, नालिया य अवखो मुसलं च घणुध्वेय-पुं०(धनुर्वेद) धनुष उपचारात् तत्प्रक्षेपणीयास्व-प्रयोगाऽऽचउहत्थं / " ज्यो०२ पाहु०। प्रव०। जी०। प्रज्ञा०ा तं० ज०। स्था०| देरेपयोगी वेदः / यजुर्वेदस्योपवेदे, शस्त्रास्त्रप्रयोगोप-संहारप्रतिपादक"छण्णउइअंगुलाणि से एगे दंडेइ वा धणूइ वा जूएइ वा नालियाइ वा मन्त्रसहिते शास्त्रभेदे, वाचा धनुःशास्त्रे. जं०२ वक्ष०ा इषुशास्त्र, तच अक्खेइ वा मुसलेइ वा / " भ०६ श०७ उ०। स०। 'धणु च भगवत ऋषभदेवस्य समये आसीत्। "इसुसत्थंधणुव्वेओ।" इषुशास्त्रं पंयंम्मिा" पथि मार्गविधौ धनुरेव मानं मार्गगव्यूताऽऽदिपरिच्छेदो धनुः नाम धनुर्वेदः, स च तदैव राजधर्मे सति प्रावर्तत / आ०म०१ अ०१ संज्ञाप्रसिद्धेनैवावमानविशेषेण क्रियते, न तु दण्डाऽऽदिभिरिति। अनु०॥ खण्ड / शिक्षाशास्त्र, "कुलपुत्रक एकोऽत्र, धनुर्वेदविशारदः। कस्यापि मेषावधिके नवमे राशौ च / न०ा वाच०। यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्राऽऽदि- धानिनःपुत्रान, धनुर्वेदमशिक्षयत्।।१।।" आ०का आ० म०। तदात्मके भिर्वाणैः कर्णाऽऽदीनां च्छेदनभेदनाऽऽदि करोति स धनुः। नारकाणां द्वासप्ततिकलान्तर्गते कलाभेदे, औ०। स०। ज्ञा०। सूत्र०ा तदात्मके कदर्थक दशमे परमाधार्मिकभेदे, पुं० प्रव० 180 द्वार। भ०ा अनु०। पापश्रुतभेदे च। आव०४ अ० समका ('असिपत्त' शब्दे प्रथमभागे 846 पृष्ठे 76 गाथा गता) घणुस्संड-न०(धनुःखण्ड) धनुःशकले. "सषोः संयोगे सोऽग्रीष्मे" घणुकुमल-न०(कुटिलधनुष)कुटिले धनुषि, “धणुकुडिलबंक- / ||8/4/286 // इति सूत्रेण मागध्यां संयोगे वर्तमानयोः सकारषकापागारपरिविखत्ता।" धनुष्कुटिल कुटिलं धनुः। ततोऽपि वक्रेण प्रकारेण रयोरु लोपाऽऽद्यपवादः सः। प्रा०४ पाद। परिक्षिता या सा तथा। रा०ा ज्ञा०| धणुस्सग्ग-पुं०(धनोत्सर्ग) धनसम्पत्तौ, स्था०३ ठा०३ उ०। धणुक्क-न०(धनुष्क) चापे, स०। चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्ने अवमानविशेष च। / धणुह-पुं०(धनुष) धणु' शब्दार्थ , प्रा०१ पाद। न०। अनु०। पा०। पाञ्चालदेशस्थकाम्पिल्यपुरनृपतेर्ब्रह्मदत्तपितुर्बहा- घणेसर-पुं०(धनेश्वर) भरुकच्छस्थे स्वनामख्याते वणिजि, ती० 6 कल्प। राजस्य स्वनामख्याते सेनापतौ, उत्त०१३ अा आ०का (तद्वक्तव्यता कान्तीनगरवास्तव्ये स्वनामख्यातेसार्थवाहे, येन द्वारावत्यांकृष्णवासुदेवेन 'बंभदत्त' शब्दे वक्ष्यते) प्रतिष्ठापिता पार्श्वनाथप्रतिमा द्वारावतीदाहानन्तरं समुद्रण द्वारावत्यां धणुग्गह-पुं०(धनुर्ग्रह) वातव्याधिविशेष, धनुर्गह इति वा / जी०३ प्रति०४ | प्लावितायां समुद्रमध्ये स्थिता सिंहलद्वीपगमने स्वयानपात्रे स्तम्भिते उधनुर्गहोऽपि वातविशेषो, यः शरीरं कुब्जीकरोति। बृ० ३उ०। व्या | पद्मावतीदेव्यावाक्येन समुद्रमध्यादुद्धृत्य स्वनगरप्रासादेस्थापितेति। ती०

Loading...

Page Navigation
1 ... 1334 1335 1336 1337 1338 1339 1340 1341 1342 1343 1344 1345 1346 1347 1348 1349 1350 1351 1352 1353 1354 1355 1356 1357 1358 1359 1360 1361 1362 1363 1364 1365 1366 1367 1368 1369 1370 1371 1372 1373 1374 1375 1376 1377 1378 1379 1380 1381 1382 1383 1384 1385 1386 1387 1388 1389 1390 1391 1392 1393 1394 1395 1396 1397 1398 1399 1400 1401 1402 1403 1404 1405 1406 1407 1408 1409 1410 1411 1412 1413 1414 1415 1416 1417 1418 1419 1420 1421 1422 1423 1424 1425 1426 1427 1428 1429 1430 1431 1432 1433 1434 1435 1436 1437 1438 1439 1440 1441 1442 1443 1444 1445 1446 1447 1448 1449 1450 1451 1452 1453 1454 1455 1456