Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 1283
________________ 2605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दूरालइय पुत्रो बलिष्टा, दुहिता रेवती। सा च गोकुलग्रामे संगमेन परिणीता, प्रियमती दूतविज्जा-रत्री०(दूतविद्या) विद्याभेदे, व्य०१ उ०। काचिद दूतविद्या स्वाऽऽयुःक्षयात् पञ्चत्वमुपगता, धनदत्तोऽपि संसारभयभीतः प्रव्रज्याम- भवति, तया च दूतविद्यया यो दूत आगच्छति, तस्य दंशस्थानमापद्यते, ग्रहीत. गुरुभिश्च सार्द्ध विहरति। ततः कालान्तरे पुनरपि यथाविहारक्रम सेनेतरस्य दशस्थानमुपशाम्यति। व्य०५ उ०। तत्रैव ग्रामे समागतो निजदुहितुर्देवक्या वसतावस्थात् / तदानीं च दूभगसत्ता-रत्री० (दुर्भगसत्त्वा) दुर्भगः सत्त्वः प्राणी यस्याः सा तथा / तयोर्द्वयोरपि ग्रामयोः परस्परं नरं वर्तते स्म / विस्तीर्णग्रामवासिना च दुर्भगप्राणिकायां योषिति, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ गोकुलेन गाकुलग्रामस्योपरि धाटी सूत्रिता, धनदत्तश्व तन्निवारणाय ग्रामे दूभगनिंबोलिया-स्त्री०(दुर्भगनिम्बगुलिका) निम्बगुलिकेव निम्बभिक्षायै व्रजितवास्ततो देवक्या दुहित्र्या शय्यातर्या भणितः यथा हे पितः ! फलमिन अत्यनादेयत्वसाधाद् दुर्भगानां मध्ये निम्बगुलिका त्वं गोकुलग्रामे यास्यसि, ततो निजदौहित्र्या रेवत्याः कथययथा तव दुर्भगनिम्बगुलिका। दुर्भगत्वाग्निम्बगुलिकावदनादेयायाम, ज्ञा० 1 श्रु० जनन्या सदिष्टम-अयं ग्रामस्योपरि छन्त्रधाट्या सभागमिष्यति, ततः १६अ। सकलमपि स्वकीयभकान्ते स्थापयेरिति / ततः साधुना मिव तस्यै *दुर्भगनिर्वोलिता-स्त्री० / दुर्भगानां मध्ये निर्वोलिता निर्मथिता कथितं, त्या च निजभतुः तेन च सकलग्रामस्य कथितम्। ततः सर्वोऽपि निमज्जिता दुर्भगनिर्वोलिता। दुर्भगाना मध्ये निमज्जितायाम, ज्ञा०१ श्रु० गामः सनद्धबद्धक वचो ऽभवत्, आगतश्च द्वितीय दिने धाट्या 16 अ०॥ विस्तीर्णन मो, जातं परस्परं महद्युद्धम् तत्र सुन्दरो बलिष्ठश्च धाट्या सह दूमग-वि० (दाबक) उपतापके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। गता, संगमश्च गोकुलगामे वसति, त्रयोऽपि च युद्धे पञ्चत्वमुपजग्मुः, देवकी च पतिपुत्रनाभातृमरणमाकर्ण्य विलपितुं प्रावर्तिष्ट, लोकश्च तन्निवारणाय दूमण-न०(दवन) उपतापने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / समागतोऽवादीत्-यदि गोकुलग्रामो धाटीमागच्छन्ती नाज्ञास्यत, *धक्लन-न० / श्वेतकिरणे, व्य०४ उ०। तताऽस-बद्धो वायोत्स्यत् / तथा च न पत्यादयो मियेरन् / ततः केन *दुर्मनस्-त्रि० ।न०। दुष्टमनसि, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० २उ०। दुरात्मना गाकुलग्रामो ज्ञापितः? एतच्च लोकस्य वचः श्रुत्वा संजातकोपा दूमिअ-त्रि०(धवलित)"धवलेर्दुमः" ||14|24|| इति धवलयतेरौवगवादीन मया अजानन्त्या पितादुहितुः संदिष्ट ततस्तेन साधुवेष- पर्यन्तस्य दुमादेश "स्वराणां स्वरा बहुलम्' ||8||238 // इति विडम्बकेन मत्पतिपुत्रजामातृमारकेण पित्रा ज्ञापितः / ततः स लोके दीर्घत्वम्। 'दूमिआ प्रा०४ पाद। सेट्यादिना श्वेतीकृते,ध०३ अधि०। रथाने स्थाने धिक्कार लभते, प्रवचनस्य च मालिन्यमुदपादि। सूत्र सुगगग। कल्प। ज्ञा०ा निचूलादूमिया नाम सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या, पिंगा पञ्चा०। ध० ग०। दर्शा नि००दूतनिश्रायां च / व०१ उ०। सेटिकया धवलीकृता वा। बृ०१ उ०॥ दूईपिंड-पुं०(दूतीपिण्ड) कार्वसङ्घटनाय दूत्यं विधत इति दूतीपिण्डः। दूमिय-वि०(धवलित) 'दूमिअ' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। द्वितीये उत्पादनादोषे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०) दूय-पुं०(दूत) अन्येषां गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, भ०७ श०६उ०। औ०। जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ // 6 // दूयकम्म-न०(दूतकर्म) द्वितीये उत्पादनादोषे, उत्त० 24 अ०। यदा गिहिसंदे सगं णेति, आणेति वा, जं तण्णिमित्तं पिड लभति, सो | गृहस्थगृहे गुप्तप्रकटसमाचारान् स्वजनाऽऽदीनां कथयित्वाऽऽहारं गृह्णाति दूतीपिंडा तदा दूत्तकर्माऽऽख्यो द्वितीयो दोषः / उत्त०। 24 अ०। गाहा दूयपलास-न०(दूतपलाश) वाणिजक ग्रामनगरस्येशानकोणे स्वजे भिक्खू दूतिपिंडं, गेण्हेज सयं तु अहव सातिज्जे / नामख्याते चैत्ये, उपा० 110 सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे।।१३६|| दूयविज्जा-स्त्री०(दूतविद्या) विद्याभेदे, व्य०१ उ०। अप्पणा गेण्हति, अण्णं वा गेण्हतं अणुजाणाति, तस्रा आणादिया | दूर-त्रि०(दूर) विप्रकृष्टे, भ०१ श०१उ०। नि०चू०। अगोचरे च / भ०२ दोसा, चउलहुं च पच्छित्त। श०१ उ०ा विप्रकर्षे , ज्ञा०१ श्रु०१ श्रु०१ अ० नि०। अत्यर्थे च / स०। (अवेतन्पाठस्तु पिण्डनियुक्तिपाटतो गतार्थः) दीर्घकाले, दूरवर्तित्वान्मोक्षे च। पुं०। सूत्र०१ श्रु०२अ०२उ०। नवरं विनियपदे इमेहि कारणेहि करेज्जा दूरगइय-वि०(दूरगतिक) सौधर्माऽऽदिगतिकेषु , स्था०८ ठा०। असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे / दूरपाय-न०(दूरपात) दूरात्पतने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अद्धाणरोहए वा, कुजा तं वा वि जयणाए।१४२।। दूरय-त्रि०(दूरग) असमीपवर्तिनि, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२०॥ पूर्ववत कण्ट्धः / नि०यू०१३ उ०॥ दूरसुचंत-त्रि०(दूरश्रूयमाण) दूरे श्रूयमाणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दूण-(देशी हस्तिनि, देना०५ वर्ग 44 गाथा। दूरालइय-त्रि०(दूरालयिक) दूरालयो मोक्षस्तन्मार्गो वा, स विद्यते दूत-पुं०(दूरा) अन्येषां ज्ञात्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, औला रा०कल्पा यस्येति मत्वर्थीयष्ठन्, दूरालयिकः / मोक्षगामिनि, आचा०१ श्रु०३ ज्ञा०म० अ०३ उन

Loading...

Page Navigation
1 ... 1281 1282 1283 1284 1285 1286 1287 1288 1289 1290 1291 1292 1293 1294 1295 1296 1297 1298 1299 1300 1301 1302 1303 1304 1305 1306 1307 1308 1309 1310 1311 1312 1313 1314 1315 1316 1317 1318 1319 1320 1321 1322 1323 1324 1325 1326 1327 1328 1329 1330 1331 1332 1333 1334 1335 1336 1337 1338 1339 1340 1341 1342 1343 1344 1345 1346 1347 1348 1349 1350 1351 1352 1353 1354 1355 1356 1357 1358 1359 1360 1361 1362 1363 1364 1365 1366 1367 1368 1369 1370 1371 1372 1373 1374 1375 1376 1377 1378 1379 1380 1381 1382 1383 1384 1385 1386 1387 1388 1389 1390 1391 1392 1393 1394 1395 1396 1397 1398 1399 1400 1401 1402 1403 1404 1405 1406 1407 1408 1409 1410 1411 1412 1413 1414 1415 1416 1417 1418 1419 1420 1421 1422 1423 1424 1425 1426 1427 1428 1429 1430 1431 1432 1433 1434 1435 1436 1437 1438 1439 1440 1441 1442 1443 1444 1445 1446 1447 1448 1449 1450 1451 1452 1453 1454 1455 1456