Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ दुसमा 2601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुस्सील पूइज्जति, गुरुसु जणो मिच्छं पमिवण्णो अमणुण्णा सद्दा० जाव फासा।'' किं बहुगा-- बहवे भंडा अप्पे समणा होहिंति, पुवायरियपरंपरागयं स्था० 10 ठा०। (अस्य वक्तव्यता कलिजुग' शब्दे तृ० भागे 380 पृष्ठ) सामायारि मुत्तूण नियगमइविगप्पियं सामायारि सम्भचारित्तं ति रचावित्ता नवरं "तओ गोयमसामी जाणगपुव्वं पुच्छइ-भयवं! तुम्ह निव्वाणानंतरं तहाविह मुसजनं मोहम्मि पामित्ता उस्सुत्तभासिणो अप्पथुइपरनिदापराकिं किं भविस्सइ? पहुणा भणियं सोम! मम मुक्खगयस्स तिहिं वासेहि यणा य केइ होहिंति, बलवंता अनिट्ठनिवा, अप्पबला पूअनिवा अद्धनवमेहि य मासेहिं पंचम अरओ दूसमा लगिस्सइ / मह मुक्खगम- भविरसंति।" ती० 20 कल्प। णाओ वाराणं चउसट्टीए अपच्छिमकेवली जंबूसामी सिद्धिं गमिही। तेणं दुसमाकाल-पुं०(दुःषमाकाल) अवसर्पिण्याः पञ्चमे उत्सर्पिण्या द्वितीये समरणं पजवनाणं, परमोही, पुलायलद्धी, आहारगसरीरखवगसेढी, च समये, ज०२ वक्षः। 'एक्वीस वाससहस्साई कालो दुसमा।' भ०६ उवसमगसेढी, जिणकप्पो, परिहारविसुद्धि–सुहमसंपराय-अहक्खाय श०७ उ०। आचार्याणामुपाध्यायानां धर्माचार्याणां साधुसाध्वीश्रावकचारित्ताणि, केवलनाणं, सिद्धिगमणं च त्ति दुवालस ठाणाई भारहे वारसे श्राविकाणा वा दुःप्रसह यावद् दुःषमाया या संख्या दीपालिकाकल्पा:वुच्छिजिहिति। "अजसुहम्मप्पमुडा, होहिति जुगप्पहाण -आयरिया / ऽदिषु उक्ताऽस्ति, सा कया विवक्षया? पञ्चमारके दिनानि स्तोकानि दुप्पसहो जा सूरी, चउरहिया दोणि य सहस्सा / / 1 / / " सत्तरिसमाऽहिए / जायन्ते, संख्या च बहीति लोकाः पृच्छन्ति, तत्र किमुत्तरं दीयत इति वाससए मूलभद्दगि रागगए चरमाणि चत्तारि पुव्वाणि, सम्मचउरंस प्रश्ने, उत्तरम्-- अत्र भरतक्षेत्रे दुःषमाया अल्पकालत्वेऽपि भूमेः प्राचुर्याद् संठाण, राजरिसहनारायं संघयण, महापाणज्झाणं च बुच्छिजिहिइ। बहुषु देशेषु साध्वादिसंभवेन दीपालिकाकल्पाऽऽद्युक्तयुगप्रधानाऽऽदिवासपंच-एहिं अजवइरे दसमं पुवं संघयणं चउक्कं च अवगच्छिही। मह संख्याऽर्थतः संगच्छते, नत्वात्मज्ञातसाध्वादिनेति बोध्यम्।३८ प्र०। मुक्खगमणाओ पालयनंदचंदगुत्ताइराइसु वोलीणेसु चउसयसत्तरेहि सेन०२ उल्ला०। विकमाइयोराया होही। तत्थ सद्विवरिसाणं पालगस्स रज, पणपण्णसम दुसह-पुं०(दुःसह)"लुकि दुरो वा'"||१|११|दुर उपसर्गस्य रेफलोपे नंदाणं, अट्टोत्तरं सयं मोरियवंसाणं, तीसं दूस मित्तस्स, सट्ठी राति उतऊत्ववा।"दूसहो, दुसहो।' रेफलोपाभावे ''दुस्सहो।' प्रा०१ बलमित्तभाणु मिशाणं, वालीसं नरवाहणरस, तेरस गद्दभिल्बस्स, पाद / "निर्दुराा"।२१११३। इति दुरस्य व्यञ्जनस्य वा लुक् / चत्तारि-गरस, तओ विकमाइयो / सो साहियसुवण्णपुरिसो पुहविं अरिणं "दुरसहो।" प्रा० 1 पाद। चित्राङ्गापरनामके कल्पवृक्षभेदे, तिक काउंनियसंवच्छर पवत्तेही। तह गद्दभिल्लरजस्स छायगो कालिगारियो दुसुमिण-न०(दुःस्वप्न) अशुभसूचके स्वप्ने, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। होही। तेवण्णचउसएहि. गुणसयकलिओ सुअपउत्तो / / 1 / / " दूसमाए दुस्संचार-त्रि०(दुःसंचार) दुर्गमार्गे , दशा० 10 अ०। वट्टमाणीए नयराणि गामभूयाणि होहिंति, मसाण रूवा गामा, जसदंडसमा / रायाणो,दासप्पाया कुडबिणो, लंचगहणपरा निओगिणो, सामिदाहिणो दुस्संबोह-पु०(दुःसम्बोध) दुःखेन सम्बोध्यते धर्मचरणप्रतिपत्तिः कार्यत भिचा, कालरत्तितुल्लाओ सासूओ, सप्पिणीतुल्लाओ बहूओ, णिलज्जया इति दुःसम्बोधः / दुःखेन धर्माऽऽचरणं प्रतिपाद्यमाने, बोधयितुमशक्ये क डक्खपिक्खियाईहिं सिक्खिया वेसाचरियाओ कुलंगणाओ, च। आचा०।१ श्रु०१ अ० १उ०। सच्छदवारिणो पुत्ता य, सीसा य अकालवासिणो कालअवासिणो य, दुस्समाण-पु०(दुष्यमाण) द्वेष कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ महासुहिया रिद्धि-संमाणभायणा च दुजणा, दुहिआ-ऽवमाणपत्ता / दुस्सरणाम-न०(दुःस्वरनाम) यदुदयवशात्खरः श्रोतृणां कर्णकटुः अप्पिडिया य सज्जणा, परचक्कडमरदुभिक्खजुया देसा, खुद्दमत्तबहुला प्रादुर्भवति तद् दुःस्वरनामा नामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म। पं० सं० मेइणी, असज्झायपरा अत्थसुलु विप्पा, गुरुकुलवासचाइणो मंदधम्मा प्रव० श्रा०) कर्महीनस्वरे, कर्म०१ कर्म०। कसायकलु-सियमणा समणा, अप्पबला सम्मदिट्टिणो सुरनरा, ते चेव दुस्सल-स्त्री०(दुःशल) दुहे, दुर्विनीते, बृ०६ उ०। पउरबला मिच्छदिट्टिणो होहिंति / देवा न दाहिति दरिसण, न तहा दुस्सह-पुं०(दुःषह) 'दुसह' शब्दार्थे , प्रश्न०१आश्र० द्वार। फुरतपढावा विज्जामंता, ओसहीणं गोरसकप्पूरसक्कराइदव्याण च दुस्सहिय-त्रि०(दुःसहित) दुःखेनाधिसहिते, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०१ उ०। रसवणणगधहाणी, नराणं बलमेहाआऊणि हाइस्संति, मासकप्पा उ दुस्साहड-त्रि०(दुःसंहत) दुःखेन सहियते मील्यते स्मेति दुःसंहृतम्। पाउग्गाणि खित्ताणि न भविस्संति, पडिमारूवो सावयधम्मो वुच्छिज्जि दुर्मिले, उत्त० 7 अग हइ, आयरिया वि सीसाणं सम्मं सुयं न दाहिति। दुस्सिज्जा-स्त्री०(दुःशय्या) विषमभ्रमाऽऽदिरूपायां शय्यायाम, दश०८ "कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुइकराय। दुस्सील-त्रि० (दुःशील) दुष्ट रागद्वेषाऽऽदिदोषविकृतं शील स्वभावः हाहिति इत्थ समणा, दससु वि खित्तेसु सयराई।।१।। समाधिराचारो वा यस्वासौ दुःशीलः / उत्त० 1 अ० दशा० / विपा०। ववहारऍ मंताइएँ, मुनिविज्जयाण य मुनीण। शुभस्वभावहीने, विपा० 1 श्रु०१ अा दुष्टाऽऽचारे, ग०१ अधि० प्रश्नका गलिहिंति आगमत्था, अणस्थलुद्धा य तद्दियहं / / 2 / / उत्ताला दुःसमाधौ च। पिण्डोलके च।"दुस्सीलेणरगाओण मुच्चइ।" उवगरणवत्थपत्ता-इयाण वसहीण सड्ढयाणं च। सूत्र० 1 श्रु० 10 अ०। 'दुस्सीलाओ खरो विव / '' खरवद् उज्झिरसंति कारण जह नरवइणो कुडुबीणं // 3 // " विष्ठाभक्षकगर्दभवत् दुःशीला दुष्टाचारा निर्लज्जत्वेन यत्र तत्र ग्रामनगराऽs

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