Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 04
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1306
________________ देवी 2628 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसकहा धूनाम्। पञ्चा०२ विव०। प्रव०। राजाग्रमहिष्याम्, व्य०३ उ०। सू०प्र०। | सूरिगुरौ, एतेन जैनमेघदूताऽऽद्या ग्रन्था रचिताः। विक्रमसंवत्-१३७१ प्रश्न। "तस्सणं सेणियरस रण्णो धारणी नामं देवी होत्था।'' ज्ञा०१ वर्षेऽयं स्वरगमत्। जै०३०॥ श्रु० 1 अ०। (देवीवर्णकः 'राज' शब्दे वक्ष्यते) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे | देवेंदसूरि-पुं०(देवेन्द्रसूरिन्) श्रीमज्जगचन्द्रसूरितपागच्छस्थापकशिष्ये अस्यामेवोत्सप्पण्या सप्तमस्यारनाम्नश्चक्रवर्तिनः स्वनामख्यातायां स्वनामख्याते सूरौ, कर्म० 1 कर्म०1 अयमाचार्यः विक्रम संवत्मातरि, सका आव० / अत्रैव दशमस्य हरिषेणचक्रवर्तिनः स्वनाम- 1270-1327 वर्षाणामन्तराले आसीत्, तेन च सटीकः कर्मग्रन्थः, ख्यातायां पत्ल्याम, स०। अस्यामेवोत्सर्पिण्यामष्टादशमस्याऽरस्था- श्राद्धदिनकृत्यटीकावृत्तिः, नव्यकर्मग्रन्थपञ्चाशकवृत्तिः, सिद्धपश्चाशकमिनस्तीर्थकरस्य स्वनामख्यातायां मातरि, स०। प्रव०। आव०॥ वृत्तिः, धर्मरत्नवृत्तिः, सुदर्शनश्रेष्ठिचरित्रं, देववन्दन भाष्य, गुरुवन्द(देवीनामाशातना 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 483 पृष्ठे द्रष्टव्या) | नभाष्य, प्रत्याख्यानभाष्यमृषभाऽऽदिवर्द्धमानान्तस्तुतिः, पाक्षिकविप्रस्त्रीणामुपधौ च। "देव्यस्ता विप्रयोषितः।" इत्युक्ते। वाच०। तथेशाने प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिरित्याद्यनेके ग्रन्था विरचिताः। विक्रमसंवत्-१३२७ सौधर्मे ज्योतिश्चक्रे व्यन्तरनिकाये असुराऽऽदिनि-काये च प्रत्येकं देवेभ्यो वर्षेऽयं स्वर्गतः। जै०इ० स्वनामख्याते सूरौ च / 'कहं पुण देविंदसूरीहिं देवीवर्गो द्वात्रिंशदधिकद्वात्रिंशद्गुण इति प्रज्ञापनायां महादण्डके चत्तारि विवाणि अउज्झापुराओ आणीयाणि।" ती० 12 कल्प। प्रोक्तमस्त्यन्यत्र तु "तिगुणातिरूवअहिआ" इत्यादिवचनात्सर्वसुरेभ्यः / देवेसरवंदिय-पुं०(देवेश्वरवन्दित) देवेन्द्रवन्दिते, "देवेसरवंदियं च सर्वदेवीवर्गो द्वात्रिंशद्रूपाधिकद्वात्रिंशद्गुण इत्यत्रोत्तरवचनं कथं संगच्छते / मरुदेव।' स०/ प्रज्ञापनायां सनत्कुमाराऽऽदिदेवेभ्यो देवीनामधिकत्वप्रतिपादाना- देव्व-पुं०(देव) चतुर्थे विवाहभेदे,धा यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव ऽऽदिप्रश्ने, उत्तरम्-ईशानाऽऽदिषु यद्देवापेक्षया देवीनां द्वात्रिंशद्गुणत्वं | दक्षिणा स दैवः / ध०१ अधिक तदीशानाऽऽदिदेवभोग्यदेव्यपेक्षयाऽवगन्तव्यं, तेनाधिका अपि तत्र देव्यः / देवोववाय-पुं०(देवोपपात) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुसंभाव्यन्ते, ताश्च सनत्कुमाराऽऽदिदेवापेक्षया गण्यमाना द्वात्रिंशदधिक- / त्सर्पिण्या त्रयोविंशतितमे स्वनामख्याते भविष्यति तीर्थकरे, सा द्वात्रिंशद्गुणा भवन्तीतिन कश्चन प्रज्ञापनोपाङ्गे 'तिगुणा तिरूवअहिअ देस-पुं०(देश) जनपदे, बृ०४ उ०। जीता स्था०। आव०नि००! त्ति गाथोक्तभावार्थयोर्भेद इति। 41 प्र०ा सेन०१ उ० रा०। मण्डले, स्था०५ ठा०३ उ०ा जन्मक्षेत्राऽऽदौ, स्था० ३ठा०३ उ०। देवीपडिमा-स्त्री०(देवीप्रतिमा) देव्या मूर्ती, "तत्थ रण्णो देवीओ य / प्रदेशे, स्था० 3 ठा०३ उ०। भ०। अनु० / प्रकारे, विशेष स्थाol पडिमा कया।" आ०म०१अ०२ खण्ड। अवयवविशेषे, स्था० 1 ठा०। जी०। अंशे, आतु० / प्रश्र० / पूर्वाऽs-- देवुक्कलिया-स्त्री०(देवोत्कलिका) देवाना वा तस्यैवोत्कलिका | दिदिक्षु,स्था०७ ठा०। एकदेशे, उपा०१ अ० प्रस्तावे, विशे०। देशः देवोत्कलिका / आ०म० अ०१ खण्ड / प्रश्नका तत्समवायविशेषे, प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्। दश०१अ० आ० म०| स्था०३ ठा०१ उ०। रा०ा देवलहरौ च / स्था०४ ठा०३ उ०। (देवो- 1 विशे०। ग्रामनगराऽऽदौ, हा०१२अष्टा देशनं देशः। कथने, विशे०। त्कलिका कुत्र भवति इति लोगुज्जोय' शब्दे वक्ष्यते) आ०म० देवज्जोय-पुं०(देवोद्योत) देवप्रकाशे, स्था०। देसकहा-स्त्री०(देशकथा) तृतीये विकथाभेदे, ग०१ अधि० तिहिं ठाणेहिं देवुज्जोओ सिया। तं जहा-अरहंतेहिं जाय- देसकहा चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-देसविहिकहा, देसविमाणे हिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणे हिं, अरहंताणं णाणुप्पाय- अप्पकहा, देसच्छंदकहा, देसनेवत्थकहा। महिमासु / स्था० ३ठा०१ उ०। आम० रा०| तथा देशे मगधाऽऽदौ विधिर्विरचना भोजनमणिभूमिकाऽऽदीना, (अर्हता परिनिर्वाणमहिमासु देवोद्योतो भवति इति लोगुज्जोय' शब्दे / भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्तत्कथा देशविधिकथा / वक्ष्यते) एवमन्यत्रापि, नवरं विकल्पः सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकूपाऽऽदिदेवकुलदेवेंदगणि(ण)-पुं०(देवेन्द्रगणिन्) देवभद्रगणिशिष्ये तपागच्छस्थे भवनाऽऽदिविशेषश्चेति / छन्दो गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे स्वनामख्याते गणिनि, देवभद्रगणिमधिकृत्य - "तेषामुभी विनेयो, भातुलभगिनी गम्या, अन्यत्राऽगम्येति / नेपथ्यं स्त्रीपुरुषाणां वेषः देवेन्द्रगणीन्द्रविजयचन्द्राह्रौ।" ग०४ अधि०। वृद्धगच्छीये आम्रदेव स्वभाविको विभूषाप्रत्ययश्चेति इह दोषाः / स्था०४ ठा०२ उ०। आवा सूरिगुरौ, स च विक्रमसंवत्- 1126 मिते विद्यमान आसीत् / दर्शा नि० चू०। औ०। स०। प्रश्नाआ०चू०। उत्तराध्ययनसूत्रोपरि टीका प्रवचनसारोद्धारग्रन्थ आख्यानमणिकोश इयाणिं देसकहाश्वेत्यादिका ग्रन्था अनेन चक्रिरे, अयमाचार्यः सैद्धान्तिकशिरोमणिनाम्ना छंदं विधी विकप्पं, णेवत्थं बाहुविहं जणवयाणं / प्रसिद्धः। जै०३० एता कधा कधिंते, चतु जमला सुकिला चउरो // 125 / / देवेंदवंदिय-पुं०(देवेन्द्रवन्दित) देवानां भुवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क- गाहापच्छद्धं तदेव वैमानिकानामिन्द्राः स्वामिनो देवेन्द्रास्तैर्वन्दितेऽर्हति, कर्म०२ कम०॥ अग्गद्धस्स इमा वक्खादेवेंदसीहसू रि-पुं०(देवेन्द्रसिंहसूरि) अञ्चलगच्छीये अजितसिंह- | छंदो गंमं विधि रयणा चेव य भुजते य जं पुव्दं /

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