Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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प्रति-पत्र ४८२ । पंक्ति १५ । अक्षर ४४ से १५ ।
[स्थान-सुराणा लाइमेरी, धूरू (बीकानेर)] विशेष-स्कंध और १२ नहीं हैं।
माण्डारकर ओरियन्टल रिचर्स इन्स्टिट्यूट पूना में इसकी पूर्ण प्रति है, उसके अन्त में निम्नोक्त पद्य है
परम गूढ मागक्त यह, मूरख मति अति हीन । कहा कहूं निकाय हरि, हो प्रभु प्रेम प्रवीन ॥२६॥ दंडन मथुरादास सुत, श्रीकिसोर मामाग | हो दग बगल किशोर को, वल्लमसौं अनुराग ॥३०॥ भाषा श्री मागवत की, तिनकै उपजी चाह । हरिवल्लभ निज बुद्धि सम, कीनो ताहि निबाह ॥ ३१ ॥ चतुर चतुग्भुज को तनय, कमल नैन थिर चित्त । वंध्यो नेह गुण सो रहै, हरिवल्लभ संग नित्त ॥ ३२ ॥ गुरु की कृपा प्रताप से, कविन में सुप्रवीन । माषा मागवत की करत, कछु सहाय तिन कीन ॥ ३३ ॥ यह द्वादस माषा रथ्यौ, हरिवल्लभ सज्ञान । त्रयोदसी अध्याय मैं, आश्रय सहित बखान ॥ ३४ ॥ कविजन सौ विनती करू, मति मन मानो रीस । भाषा कृत दूषन जिमें, छमियो मेरे सीस ॥ ३५ ॥ द्वादस स्कंध प्रण भये, हरि किरपा निरधार । श्लोक गिन्नत या अन्य के, हैं सब तीस हजार ॥ ३ ॥ वंद मंग अक्षर करत, धर्म विषद जो हो ।
दूषन ने भूषन करें, कोविद कहिए सोई ।। ३०॥ इति श्री मागवते महापुराणे द्वादश स्कंधे हरिवल्लभ-भाषाकृते त्रयोदसो. प्यायः इदं पुस्तकं । ले० संवत् १८२६ असाद सुदी १४ चंद्रवासरे लिखित ।
राडूराम प्रोड पुरामध्ये लिखईत महारानी जी लाडकुंवरजी पत्र ७४६