Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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रूपाँ सरूप रति सीरची धनी प्रीति चित मैं भरि
सत सील सुजस करि बेसु थिर कठिन कार मन ते करिय ॥ ५१ ॥ प्रति परिचय-पत्र : साइज ८ x४ प्रति पृ० पं० १३ प्रति पं० अ० ३८
[ राजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] (४) महारावल मूलराज समुद्र बद्ध काव्य वचनिका रचयिता-शिवचन्द्र । सं० १८५१ काती वदि ३, सोजत आदि
अथ यादव वंश गगनांगण वासर मणि श्रमन्या धावतार राणराजेश्वर श्रीमान महाराजाधिराज महारावल श्री १०८ श्री मूलराज जिज्जगन्मण्डल विसारि सकल कला कलित ललित विमल शरच्चंद्र चंद्रिकानुकारि यशो वर्णन मय समुद्र बंध समुद्भव चतुर्दश रत्ननानि तद्दोधकानिच विलख्यते । [१ संस्कृत श्लोक है वदनंतर]
परिहांधरियै पासा एन खरी महाराज की, और न करिय चाह कहो किमकाजरी साहिब पूरणहार जहां-तहां पूरि है, दो गो चून अचिंत्यो चिंता चूरि है। फिर कवित्त, दोहा, फारमी वेत, संस्कृत, प्राकृत श्लोक श्रादि १४ . . . है
अथ सिंधु बंध दोध का नायर्थ शुभाकार कौशिक त्रिदिव, अंतरिक्ष दिनकार ।
महाराज इम धर तपौ मूलराज छत्र धार अरुण अर्थ लेश:- जैसे शुभाकार कहि है भलो है श्राकार जिनको एसै कौशिक कहिये इंद्रमो त्रिदिव क. स्वर्ग में प्रतपै पुनः दिनकार अंतरिछ क. जितनै ताह सूर्य श्राकाश में तपै महा. क. इन रीतै छत्र के धरनहार महाराज श्री मूलराज धर तपो क. पृथ्वी विर्षे प्रतपौ ।। १ ।।
वरस वसति कर करन नाग छिति कार्तिक वदि दल तृतीया तर निजवार । गच्छ खरतर तर गुन निम्मल सुम पाठक पद धार ।