Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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( ६ ) चारित्र छत्तीसी-पथ-३६ । रचयिता-मानसार ( नारन ), पादि
झान धरी किरिया कगै, मन राखा विश्राम । पै चारित्र के लेण के, मत रावी परिणाम ॥ १ ॥
कोध मान माया तजे, लोम मोह अरु मार । सोइ सुर सुख अनुभवी, 'नारन' उतरै पार ॥ ३५ ॥ विन विवहारै निश्चई, निष्फन्न कयौं जिनेश । सो तो इन विवहार में, वाको नहीं लवलेश ॥ ३६ ॥
[ अभय जैन प्रन्थालय, बीकानेर ] (७) ज्ञान छत्तीसी । रचयिता- कान्ह । मादि
श्री गुरु के पद पंकज की रज, जकि अंजकि नैननि के । जाति ज- तम दरि भनें, परखें सु पदारप नैननि कं ॥ नहि नक रूप अनूप, धरूं उर नाही के बैननि कू । काहजी झानछतीमी करें,सुम ममत है शिव जैननि कं ॥ १ ॥ जल मांभि थल माझि पर्वत की गुफा माझि , जहां तहां विष्णु व्यायौ कहाँ ही न छेहग । ऐसे कयो शारत्र गोता मन माझी प्रानि मीता , होइ रह्यो कहा अब मूरख को मेहरा । जात्रा काज काहे जावो परे परे दम्ब पावो , बोरि देहु पाठसाठ (६८) तीरथ ते नेहरा । काहजी कह रे यारो, बात ग्यान की विचारो , प्रातम. सौ देव नाही, देह जैसो देहरा ॥ २ ॥
३१ वें पा से ( तीसरा पत्र प्राप्त न होने से ) अधूरी रह गई है। प्रति-पत्र २ ।
[अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ]