Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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( ५ ) जसराज बावनी । सर्वगा-५७ । रचयिता-जिनहर्ष । रचना. काल-संवत १७३८ फाल्गुन माम । आदि
ऊंकार अपार जगत्र अधार. मत्रै नर नारि संसार जप है । बावन अक्षर माहि धरतर, ज्योति प्रधानन कोटि त है । सिद्ध निरंजन भस्व अन्तव, सप न रूप जोगेंद्र, थपे है । ऐसी महातम है कार की, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥ १ ॥
श्रन्त
संवन सनर अप तसे माम फागुणमे, बहुत मातिम दिन हार गुरु पाए है । वाचक शांतिहरख ताह के प्रथम शिष्य, मल के अक्षर पार कवित्त बनाए हैं । अवसर के विचारे बैटिके ममा मंमार, कहे नरनारीके मनमे सुमाए हैं । कहे जिनहर्ष प्रताप प्रभुजी के. भई, पूरण भावनि गुणी वित्त के रिझाए है ।। ५७ ॥
लम्बनकाल-मंबन १-४६ वर्ष शाके १७०५ प्रवृत्तमाने ज्येष्ट सिन १० । श्री प्रताप मागर पठन कृते श्री कोटड़ी माये । प्रति- पत्र १३ । प्रति के अन्त के तीन पत्रों में यह यावनी है । पंक्ति १६ ॥ अक्षर ५२ । माइज ?' X ।
[ग्थान- अभय जैन ग्रंथ लय ] ( ६ ) जनसार बावनी । पद्य- ५८ । रचयिता-मघपति । रचनाकालमंवत १८० भाद्रपद सद । । नापामर । श्रादि
ॐकार बढी मत्र अक्षम्मे, इग यता प्रोपम यार नहीं । ऊकारनिके गुण आरिफ, दिल उजवन्त रावत जाणदही । उँकार उचार बद बड़े पंडित, होति है माननि लोक यही । ॐकार सदामद ध्यावत है, सुख पावत है मघनाथ सही ॥१॥
अन्न
संवत सार अार विडोतरै, मादव पूनम के दिन भाई । किंद चौमास नापासर में, तहाँ स्वामी अजित जिणंद सदाई ।