Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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विशेष- इसकी पूरी प्रति अभी प्राप्त नही हुई । खवि गांव के यतिवय बालचंद्रचार्य के कथनानुसार बीकानेर में प्रति मोहनलालजी के पास उन्होंने इसकी प्रति स्वयं देखी थी। उनके पास जो थोड़े से दोहे नकल किये हुए मुझे भेजे थे उसी से ऊपर उद्धत किये गये हैं ।
लेखनकाल सं० १८३६
आदि
जिन वानी हिरदै घरी, करहुं गच्छ हितकार । जिहि ते कर्म कषाय का नाश होत ततकार ॥ २ ॥ ज्ञानचंद्र गुण गण रमण भए सन्त श्रुत धार / उनके चरनन में रही, चहु मतसई सार ॥ ३ ॥
[ स्थान- यति मोहनलालजी, श्रीकानेर ] ( ६ ) चतुर्विंशति जिन स्तवन सर्वेयादि - रचयिता- विनोदीलाल, प ७१
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जाके चरणारविंद पूजित मुरिद इद देवन के वृद चंद शोभा जाके नख पर रवि कौटिन किरया बारे मुख देखे कामदेव सोमा जाकी देह उत्तम है दर्पन सी देखीयत अपनों सरूप भव सातको विचारी 1 कहत विनोदीलाल मन वचन त्रिकाल ऐमे नामिनंदन कृ वंदना हमारी हैं ।
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श्रतिभारी है ।
बिहारी है ।
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अन्त
मे मतिहीन अधीन दीन की श्रस्तुत इतनी करें कहां ते अधिक हो जाकी मति जितनी | वर्णहीन तुक मंग होइ सो फेर बनावहु ! पंडित जन कविराज मोहि मत श्रंक लगावहु ||
यह लालपचीसी वन करि बुद्धि हीन ठादौ दई ।
जिनराज नाम चौबीस भजि, श्रुत ते मति कंचन भई || ७ ||
इति चतुर्विंशतिम्लवनं । इति विनोदीलाल कृठ कवित्त संपूर्णम् ।
लिखतं वेणीप्रसाद श्रावक वाचणार्थ ।
लो० श्री सवत् १८३६ भाद्रपद कृष्णा तृतीया सुक्रवार, पत्र १४, पं० १२,
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