Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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(८) विरह शतं । दौडा ११ बादि
बो उच्चरिय , नाम तुश्र, पस बुडियै च परस्थ । सोर करता अक्षर सरिस, मंजन गटन समत्थ ॥ १ ॥ सम कहुं कहन ही कहा तहहि, २ पवित्र कहि मोहि । माया मुद्रित नगन मम, क् करि देखू तोहि ॥ २ ॥ इन नैनन देख नहीं, इहि विधि दट्यो जग्ग । सोइ उपदेसो लान महि, निहि पायौ तृष मग ॥ ३ ॥ विरह उपावन विरहमैं, विरह हग्न सावंत । विरह तेज तन नहिं सकत, व्याकुल महि जावत ॥ ४ ॥
मन्त
हि माव सुधा कि पाये, मीत तनु पन लेहि ।
दजन यादि मलप्पनउ, मूचि श्वानह का केह ॥ ११८ ॥ इति विरह शतं ।
प्रति-प्रनि में प्रेम शतक माथ में लिया हश्रा है। पत्र ३ । पंक्ति २३ ॥ अक्षर ८० । साइज-१०॥ x ५, १७ वी म०
[ स्थान-अभय जैन पंथालय ] (8) भुंगार शतक । रचयिता-महाराज देवोसिंह । रचनाकाल-सं० १७२१ जेठ वदि ।।
वैनी भुजंग लसै कटि सिंह , परन्छ पयोधर दोऊ बने । तीधन उमजल वन समान ने, पातिन सोहतु दंत धनै । कंजल चाल कहो यह पाउत, मनहि देखि गए हैं बने । तीर से तेरे गे नैन वली, इते पगए सब मो है मनै ।
महाराजधिराज माहित्यार्णकर्णधर श्री महाराज श्री देवीसिंह देव विरचिते अंगार शतकं ।
१चंद न हय भूमिजूत, जेन नवै वदि जान ।
देवीसिंह महीप किय, सत सिंगार निरमानु || प्रति-विकीर्ण पत्र । पत्रांक एवं पाक नहीं लिखे हैं।
( स्थान- अनूप मंस्कृत पुस्तकालय । )