Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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( ८८ )
श्रादि
ॐकार नमामि सौ है अगम अपार, प्रति यहै तनसार मंत्रन को मुख्य मान्यो है । इनही ते जौग सिद्धि साधवैको मिद्वि जान, साधु भए सिद्ध तिन धुर उर धान्यो है । पूरन परम पर सिद्ध परसिद्ध रूप, बुद्धि अनुमान याको विषय बखान्यो है । जपै जिनरंग असो अक्षर अनादि श्रादि, जाको हीय सुद्धि तिन याको भेट जान्यो है ॥ १ ॥
हेतबन्त खरतर गम्छ जिनचंद्र मरि सिंह मरि राज सूर मा लानधारी हैं । ताके पाट जंग पग्धान निरंग सूरि ज्ञाता गनवंत यैसी माल सुधारी है । शशि' गुन मनि शशि' संवत् शुक्ल पक्ष, मगसर बोज गरुवार अवतारी है । खल दुरुबुद्धि को प्रगम माँ ति भाँति करि, सजन सुबुद्धि को सुगम मुम्वकारी है ॥ ५४ ॥
इति प्रबोध बावनी ममात।
लग्वन काल-संवत् १८०० रा अपाढ़ सुदि २, श्री मरोटे लि० ५० भुवन विशालश्च । प्रति--पत्र १८ के चार पत्रो में । पंक्ति १८ | अक्षर ६० । माइज ||४६
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] (११ ) ब्रह्म बावनी । पय-५२ । रचयिता-निहालचंद । रचनाकाल मंबत १८०१, कार्तिक शुकता ! मकसदाबाद। श्रादि
श्रादि ॐकार थाप परमेमा परम न्योति, अगम अगोचर अलम्ब रूप गायौ है । द्रव्य तामैं अंक में अनेक मैट पर जी में, जाका जसबाम मन बहेन मैं टायौ है । त्रिगुन निकाल भेव तीनो लोक तीन दव, अष्ट मिदि नवों निद्धि दायक कहायों है ।
श्रन्तर के रूप में स्वरूप भून लीक है, को, अमो उकार हपचन्द्र मुनि ध्यायौ है । अन्त
संवत अठास अधिक श्रेक काती मास, पख उजियारे तिथि द्वितीया सुहावनी । पुरमे प्रसिद्ध मखसुदाबाद बंग देस, जहाँ जैन धर्म दया पतित को पावनी । वासचंद् गच्छ स्वच्छ वाचक हरखचंद, कीरतें प्रसिद्ध जाको साधु मन भावनी । ताके चरणारविंद पुन्यते निहालचद्, कीन्हीं निज मति में पुनीत ब्रह्म बावनीं ॥ ५१ ॥ हम दयाल हो के सज्जन विशाल वित, मेरो अंक वीनता प्रभान करि लीजियौ ।