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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम संख्या
2122
५४.६
कालनं
खगर
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२१. दरियागंज, देहली
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राजस्थान में हिन्दी के हस्त लिखित
ग्रन्थों की खोज (चतुर्थ भाग)
लेखकःअगरचन्द नाहटा
विश्वविद्यापीठ उदयपुर
साहित्य-संस्थान राजस्थान विश्व विद्यापीठ उदयपुर (राजस्थान)
प्रथम संस्करण
सन् १९५४
[ मूल्य ५)
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प्रकाशक:
साहित्य-संस्थान राजस्थान विश्व विद्यापीठ
उदयपुर
मुद्रक:
विद्यापीठ प्रेस
उदयपुर
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प्रकाशकीय निवेदन
राजस्थान में प्राचीन साहित्य, लोक साहित्य, इतिहास एवं कला विषयक प्रचुर मामग्री यत्र-तत्र बिखरी हुई है। आवश्यकता है, उसे खोज कर संग्रह
और संपादित करने की। राजस्थान विश्व विद्यापीठ ( तत्कालीन हिन्दी विद्यापीठ ) उदयपुर ने इस आवश्यकता को अनिवार्य अनुभव का विक्रम सं० १९६८ में "साहित्य-संस्थान" ( उस समय प्राचीन साहित्य शोध संस्थान ) की स्थापना की और एक योजना बनाकर राजस्थान की इस साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक निधि को एकत्रित करने का काम हाथ में लिया। योजना के अनुसार "साहित्य-संस्थान" के अंतर्गत विभिन्न प्रवृत्तियाँ निम्न छः स्वतन्त्र विभागों में विकसित हो रही हैं:-- (१) प्राचीन साहित्य विभाग, (२) लोक साहित्य विभाग, (३) पुरातत्व विभाग, (४) नव साहित्य-सृजन विभाग, (५) अध्ययन गृह और संग्रहालय विभाग एवं, (६) सामान्य विभाग ।
१-'साहित्य-संस्थान द्वारा सर्व प्रथम राजस्थान में यत्र तत्र बिखरे हुए हस्तलिखित हिन्दी के प्रथों की खोज और संग्रह का काम प्रारंभ किया गया। प्रारंभ में विद्वानों को इस प्रकार के ग्रंथालयों को देखने में बड़ी कठिनाइयां उठानी पड़ी। राजकीय पुस्तकालय, जागीरदारों के ऐसे संग्रहालय एवं जहाँ भी ऐसी पुस्तकें थीं, देखने नहीं दी जाती थी, धीरे २ इसके लिये बातावरण बनाकर काम कराया जाने लगा। सबसे पहले साहित्य-संस्थान ने पं० मोतीलालजी मेनारिया द्वारा सम्पादित “राजस्थान में हिन्दी के हस्त लिखित प्रन्थों की खोज प्रथम भाग, प्रकाशित कराया और उसके बाद बीकानेर के प्रसिद्ध विद्वान श्री अगरचंद नाहटा द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ का दूसरा भाग छपवाया, तथा श्री उदयसिंहजी भटनागर से तृतीय
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भाग सम्पादित करा प्रकाशित कराया,एवं प्रस्तुन चतुर्थभाग श्री अगरचद जी द्वारा संपा दित किया गया और संस्थान द्वारा प्रकाशित करवाया है। जो आपके हाथ में है । इसी प्रकार पांचवा और छठा भाग भी क्रमशः श्री नाथूलाल जी व्यास एवं श्री डॉ० भोलाः शङ्करजी व्यास द्वारा सम्पादित किये जा चुके हैं। इनका प्रकारान शीघ्र ही किया जाने वाला है।
प्राचीन साहित्य विभाग में हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज के अतिरिक्त १८००० राजस्थानी प्राचीन चारण गीत विभिन्न विषयों के एकत्रित किये जा चुके हैं।
२-लोक साहित्य विभाग द्वारा हजारों कहावते, लोक गोत, मुहावरे, लोककहानियां, बात-ख्यात, पहेलियाँ, बैठकों के गीत आदि संग्रह किये जा चुके हैं । पं० लक्ष्मीलालजी जोशी द्वारा सम्मादित-मेवाड़ी कहावत, श्रीरतनलालजी मेहता द्वारा सम्पादित मालवी कहावतें पुस्तक रूप में प्रकाशित की जा चुकी है। लोक साहित्य के अंतर्गत श्री जोधसिंहजी मेहता द्वारा सम्पादित 'आदि निवासी भील" भी पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी है तथा "भीलों की कहावतें एवं भीलों के गीत भी इसी विभाग के अंतर्गत प्रकाशित किये जा चुके हैं । "भीलों के गीत" नामक दो पुस्तके, लोक वार्ताओं के दो संग्रह प्रेस कॉपी के रूप में तैयार हैं । आर्थिक सुविधा होते हो इन्हें प्रकाशित करा दिया जायगा।
___३-पुरातत्व विभाग के अन्तर्गत पट्ट', परवाने, ताम्रपत्र, और ऐतिहासिक महत्व के अन्य काराज पत्रों का संग्रह किया जाता है । प्राचीन मूर्तियाँ, सिक्के, शिलालेख, चित्र तथा अन्य कलाकृतियाँ एकत्रित की जाती हैं। इनमें अच्छी सामग्री एकत्रित कर ली गई हैं।
४-नव साहित्य-सृजन विभाग से अब तक तीन पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। पं० जनार्दनरायजी नागर द्वारा लिखित "आचार्य चाणक्य" नाटक, पंडित सन्हैयालाल ओझा द्वारा रचित "तुलसीदास" ब्रजभाषा काव्य, एवं श्री हुक्मराज मेहता द्वारा लिखी गई "नया चीन" आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । अन्य महत्व पूर्ण पुस्तके अधिकारी विद्वानों द्वारा लिखवाई जा रही हैं।
५-अध्ययन गृह और संग्रहालय विभाग में अबतक १२०० हस्तलिखित महत्वपूर्ण पुस्तकें एवं २२०० मुद्रित ग्रन्थ एकत्रित किये जा चुके हैं । यह धीरे २ एक विशाल संग्रहालय का रूप ले सकेगा ऐसी आशा है ।
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(
३ )
६-सामान्य विभाग के अंतर्गत राजस्थानी के प्रसिद्ध महाकवि श्री सूर्यमल की स्मृति में "सूर्यमल आसन" और राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहास तथा पुरातत्ववेत्ता ख० डॉ गौरीशङ्कर होराचंद ओझा की पुण्य स्मृति में “ओझा आसन' स्थापित किये गये हैं। इन आसनों से प्रति वर्ष सम्बन्धित विषयों पर अधिकारी विद्वानों के तीन भाषण समायोजित किये जाते हैं और उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशिन किया जाता है। सूर्यमल आसन से अब तक डॉ. सुनीतिकुमार चाटुज्यो, नरोत्तमदास स्वामी, अगरचंद नाहटा, तथा रा० ब० राम देवजी चोखानी के भाषण कराये जा चुके हैं,
और डॉ० चाटुा के भाषणों की "राजस्थानी भाषा" नामक पुस्तक 'संस्थान' से प्रकाशित हो चुकी है।
_ 'अोमा आसन' से प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता सीतामऊ के महाराज कुमार डॉ. रघुवीरसिंह जी के तीन भाषण 'पूर्व आधुनिक राजस्थान' विषय पर हो चुके हे और यह पुस्तक प्रकाशित की जा चुकी है। दूसरे अभिभाषक डॉ. दशरथ शर्मा थे; जिनके भाषण शीघ्र ही प्रकाशित होने वाले हैं। श्री ओझाजी द्वारा लिखित निबन्ध भी "ओझा निबन्ध सग्रह" भाग १, २, ३, ४, प्रकाशित कर दिये हैं।
माहित्य-संस्थान से शोध सम्बन्धी एक त्रैमासिक "शोध-पत्रिक" श्री डॉ. रघुबोरसिंह जी, श्री अगरचंद नाहटा, श्री कन्हैयालाल महल, एवं श्री गिरिधारीलाल शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित होती है। हिन्दी के समस्त शोध-विद्वानों का सहयोग इम पत्रिका को प्राप्त है, इसलिये यह शोध जगत में अपना महत्व पूर्ण स्थान बना चुकी है।
इस प्रकार साहित्य-संस्थान अपनी बहुमुखी कार्य योजना द्वारा राजस्थान के बिबरे हुए साहित्य को एकत्रित कर प्रकाश में लाने का नम्र प्रयत्न कर रहा है लेकिन यह काम इतना व्यय और परिश्रम साध्य है कि कोई एक संस्था इसे पूरा करना चाहे तो असम्भव है । हमारे देश की प्राचीन साहित्यिक, सांस्कृतिक
और सामाजिक परम्पराओं तथा चिन्तन स्रोतों को सदैव गतिशील एवं श्रमर बनाये रखना है तो इस काम को निरन्तर आगे बढ़ाना होगा। देश के धनिमानी सेठ-साहुकारों, राजा-महाराजाओं, जागीर दारों तथा जमीदारों को ऐसे शुभ मरस्वती के यज्ञ में सहायता एवं सहयोग देना ही चाहिये । राजस्थान और भारत
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के विद्वानों, विचारकों और साहित्यकारों का इस प्रकार के शोध-पूर्ण कार्यों की ओर अधिकाधिक प्रवृत्त होना आवश्यक है।
साहित्य-संस्थान, हिन्दी के आदि ग्रंथ "पृथ्वीराज रसौ" का प्रामाणिक संस्करण अर्थ और भूमिका सहित "प्रथम भाग" प्रकाशित कर चुका है तथा द्वितीय भाग प्रेस कॉपी के रूप में तैयार है। "रासौ" का सम्पादन कार्य इस विषय के मर्मज्ञ विद्वान श्री कविराव मोहनसिंह, उदयपुर कर रहे हैं। इसके प्रकाशन से हिन्दी साहित्य की एक ऐतिहासिक कमी की पूर्ति होगी।
आशा है विद्वानों, कलाकारों, और धनी मानी सज्जनों द्वारा संस्थान को इस कार्य में पूरा सहयोग प्राप्त होगा। इसी आशा के साथविक्रमी सं० २०१२)
गिरिधारीलाल शर्मा गुरु पूर्णिमा
अध्यत साहित्य-संस्थान
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प्रस्तावना हिन्दी साहित्य बहुत समृद्ध एवं विशाल है । गत ५०० वर्षो से तो निरन्तर बड़े वेग से उसको अभि वृद्धि हो रही है । विशेषतः सम्राट अकबर के शासन समय से नो विविध विषयक हिन्दी माहित्य बहुत अधिक सृजित हुआ है। १८ वीं शताब्दी में सैकड़ों कवियों ने हिन्दी साहित्य की सेवा कर सर्वागीण उन्नति की। हिन्दी भाषा मूलतः मध्य देश की भाषा होने पर भी उसका प्रभाव बहुत दूर २ चारों और फैला । हिन्दू व मुसलमान, संत एवं जनता सभी ने इसको अपनाया । फलतः हिन्दी का प्राचीन साहित्य बहुत विशाल हैं व अनेक प्रदेशों में बिखरा हुआ है । गत ५५ वर्षों से हिन्दी साहित्य की शोध का कार्य निरन्तर चलने पर भी वह बहुत सीमित प्रदेश व स्थानों में ही हो सका है। अतएव अभी हजारों ग्रन्थ
और मैंकड़ों कवि अज्ञात अवस्था में पड़े हैं उनकी शोध की जाकर उन्हें प्रकाश में लाना और हस्तलिखित प्रतियों की सुरक्षा का प्रयत्न करना प्रत्येक हिन्दी प्रेमी का परमावश्यक कर्तव्य है।
हिन्दी-साहित्य का वृहद् इतिहास अव तैयार होने जा रहा है। उसमें अभी तक जो शोध कार्य हुआ है उसका तो उपयोग होना ही चाहिए, साथ ही शोध के अभाव में अभी जो उल्लेखनीय सामग्री अज्ञात अवस्था में पड़ी है उसकी खोज की जाकर उसका उल्लेख होना ही चाहिए अन्यथा वह इतिहास अपूर्ण ही रहेगा। अज्ञात सामग्री के प्रकाश में आने पर अनेकों नवीन तथ्य प्रकाश में आयेंगे बहुत सी भूल भ्रांतियां व धारणा र स भाएल हस्तलिम्वित हिन्दी ग्रन्थों के शोध का कार्य बहुत तेजी से होना चाहिए, केवल मरकार के भरोसे बैठे न रह कर हर प्रदेश की संस्था एवं हिन्दी प्रेमियों को इस ओर ध्यान देकर, जो अज्ञात कवि और अन्य उनकी जानकारी में आयें, उन्हें 21 में जाने का प्रयत्न करना चाहिए।
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राजस्थान ने अपने प्रान्त की मरु राजस्थानी भाषा में विशाल माहित्य-सृजन करने के साथ हिन्दी-साहित्य की भी बहुत बड़ी सेवा की है। यहाँ के राजाओं, राज्याश्रित कवियों, संतों, जैन विद्वानों ने हजारों छोटी-मोटी रचनाएं हिन्दी में बनाकर हिन्दी साहित्य की सद्धि में हाथ बंटाया है । उनकी उस सेवा का मूल्यांकन तभी हो सकेगा जबकि राजस्थान के हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों की भली भाँति शोध की जाकर उनका विवरण प्रकाश में लाया जायगा।
राजस्थान में हस्तलिखित प्रतियों की संख्या बहुत अधिक है। क्योंकि साहित्य मंरक्षण की दृष्टि से राजस्थान अन्य सभी प्रान्तों से उल्लेखनीय रहा है। यहाँ के स्वातंत्र्य प्रेमी वीरों ने विधर्मियों से बड़ा लोहा लिया और अपने प्रदेश को सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक हीनता से बचाया । पर गत १००-१५० वर्षों में मुसलमानी साम्राज्य के समय से भी अधिक यहाँ के हस्तलिखित साहित्य को धक्का पहुंचा। एक ओर तो अन्य प्रान्तों व विदेशों में यहां की हजारों हस्तलिखत प्रतियां कोड़ी के मोल चली गई दूसरी ओर मुद्रण युग के प्रभाव व प्रचार और शिक्षण की कमी के कारण उस साहित्य के संरक्षण की ओर उदासीनता ला दी । फलतः लोगों के घरों एवं उपाश्रयों आदि में जो हजारों हस्तलिखिन प्रतियाँ थी वे सर्दी व उदेयी के कारण नष्ट हो गई । उससे भी अधिक प्रतियाँ रद्दी कागजों से भी कम मूल्य में बिक कर पूड़ियाँ आदि बांधने के काम में समाप्त हो गई। फिर भो राजस्थान में प्राज लाखो हस्तलिग्यित प्रतियाँ यत्र तत्र विखरी पड़ी थी है, जिनका पता लगाना भी बड़ा दुरूह कार्य है । राजकीय संग्रहालय एवं जैन ज्ञान भंडार ही अधिक सुरक्षित रह सके हैं, व्यक्तिगत संग्रह बहुत अधिक नष्ट हो चुके हैं। जैन-ज्ञान-भंडारों में बहुत ही मूल्यवान जैन जैने तर विविध विषयक विविध भापाओं के ग्रन्थ सुरक्षित है। हिन्दी की जननी अपभ्रंश भाषा का साहित्य, सबसे अधिक जैनों का ही है और राजस्थान के जैन- ज्ञान - भण्डारों में वह बहुत अच्छे परिमाण में प्राप्त है । आमेर, जयपुर और नागौर के दिगम्बर भंडार इम दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । अभी २ इन भंडारों से पचालों अज्ञात अपभ्रश रचनाएं जानने में आई । हिन्दी के जैन ग्रंथों के भी इन भंडारों से जो सूचो पत्र बने उन से बहुत मी नवीन जानकारी मिली है। हर्ष की बात है कि महावीरजी तोर्थ क्षेत्र कमेटी की ओर से आमेर, और जयपुर के दिगम्बर सरस्वतं भंडारों की सूची के दो भाग और प्रशस्ति संग्रह का एक
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भाग प्रकाशित हो चुका है। सूची का तीसरा भाग भी तैयार होने की सूचना मिली है।
राजकीय संग्रहालयों में से अनूप संस्कृत लाइब्रेरी के हस्तलिखित संस्कृत प्रतियों की सूचियों के पांच भाग और छः भाग राजस्थानी ग्रंथों की सूची के प्रकाशित हो चुके हैं । यहाँ हिन्दी ग्रंथों की सूची भी छपी हुई वर्षों से प्रेस में पड़ी है पर
खेद है वह अभी तक प्रकाशित न हो पाई। उदयपुर के सरस्वती भंडार का सूची पत्र छप ही चुका है और अलवर के संग्रह की विवरणात्मक सूची बहुत वर्षों पूर्व प्रकाशित हुई थी। अन्य किसी राजकीय संग्रहालय के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचि प्रकाशित हुई जानने में नहीं आई राजकीय संग्रहालयों में से जयपुर-पोथी खाना तो अपने विशाल संग्रहालय के कारण विख्यात है ही पर अभी तक उसकी सूची छपने की तो बात दूर, अभी उसको बन भी नहीं पाई । हिन्दी के हस्तलिखित प्रतियों की दृष्टि से यह संग्रहालय बहुत ही मूल्यवान होना चाहिए । इस दृष्टि से दूसरा महत्वपूर्ण संग्रह कांकरोली के विद्याविभाग का है। उसकी सूची तो बन गई है पर अभी तक प्रकाशित नहीं हुई।
श्वेताम्बर जैन भंडारों की संख्या राजस्थान में सबसे अधिक हैं पर सूची केवल जैसलमेर के भंडार को ही प्रकाशित हुई थी। मुनि पुन्य विजयजी ने वहाँ के भंडार को अब बहुन ही सुव्यवस्थित करके नया विवरणात्मक सूची पत्र तैयार किया है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इसके अतिरिक्त ऑमियां के जैन ग्रंथालय के हस्तलिखित प्रथों की एक लघु सूची बहुत वर्षों पूर्व छपी थी अन्य किसी भी राजस्थानी श्वेताम्बर भंडार की सूची प्रकाशित हुई जानने में नही आई । राजस्थान के जैन-ज्ञान-भण्डारों की नामावली में मरू भारतो वर्ष १ , अंक १ में प्रकाशित कर ही चुका हूँ।
राजस्थान में संत संप्रदाय के अनेकों मठ व गुरुद्वारे आदि हैं उनमें सांप्रदायिक साहित्य की ही अधिकता है । राजस्थान के संतों ने हिन्दी की बहुत बड़ी सेवा की है अतः इन संग्रहालयों के हस्तलिम्वित प्रतियों की शोध भी हमें बहुत नवीन जानकारी देगी। अभी तक केवल दादू-विद्यालय के कुछ हस्तलिखित प्रतियों की सूची संतवाणी पत्र के दो अंकों में निकली थी। इसके अतिरिक्त अन्य किसी संघ संग्रहालय की सूची प्रकाश में नहीं आई।
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राजस्थान विश्व विद्यापीठ उदयपुर ने राजस्थान के हस्तलिखित हिन्दी ग्रंथों के विवरण का प्रकाशन कार्य हाथ में लेकर बहुत ही आवश्यक उपयोगी कार्य किया है। अभी तक इस विवरण संग्रह के तीन भाग प्रकाशित हो चुके है और चौथा यह पाठकों के हाथ में है। प्रथम भाग का संकलन श्री मोतीलाल मेनारिया और तीसरे भाग का श्री उदयसिंह भटनागर ने किया है। प्रथम भाग के प्रकाशन के साथ ही मैंने यह विवरण संग्रह का कार्य हाथ में लिया था और केवल अज्ञात हिन्दी ग्रन्थों का विवरण ही छांटे गये तो उनकी संख्या ५०० के करीब जा पहुँची। अतः उन्हें दो भागों में विभाजित करना पड़ा, जिनमें से पहला भाग सं० २००४ में प्रकाशित हुआ जिसमें १ नाममाला, २ चन्द, ३ अलंकार, ४ वैद्यक ५ रत्न परीक्षा, ६ संगीत, ७ नाटक ८, कथा, ऐतिहासिक काव्य, १० नगर वर्णन, ११ शकुन सामुद्रिक ज्योतिप स्वरोदय रमल, इन्द्रपाल १२ हिन्दी प्रन्थों की टीकाएँ। इन १२ विपयों के १८६ ग्रंथों का विवरण प्रकाशित हुए थे। सात वर्ष बी। जाने पर इस प्रन्थ का आगे का भाग प्रकाशित हो रहा है इसमें ११ विषयों के हिन्दी ग्रन्थों का विवरण है और तत्पश्चात इस भाग की पूर्ति के साथ पूर्ववर्ती भाग की पूर्ति उन ३ विषयों के नवीन ज्ञात ग्रन्थों के विवरण देकर की गई है। इस भाग के विषयों की नामावली इस प्रकार है:
१ पुराण, २ रामकथा, ३ कृष्ण काव्य, ४ संत माहित्य, ५ वेदान्त ६ नीति, ७ शतक, ८ बावनी, बारबड़ी बत्तीसी, ६ अष्टोत्तरी-छत्तोमी, पचीसी श्रादि १० जैन साहित्य, ११ बारहमासा ! इन विषयों के विवरण लिये गये ग्रन्थों की संख्या क्रमशः १५, ६, १६-१, १५,११-२,१०-१,१०-२, २०-३, ४.२३-५४,२० हैं, इस प्रकार कुल २१३ पंथों का विवरण है तत्पश्चात् पूर्व प्रकाशित द्वितीय भाग के ४८ ग्रन्थों का विवरण है । कुल २६१ ग्रंथों के विवरण इस पंथ में दिये गये है। अनुक्रमणिका से यह स्पष्ट ही है । हिन्दी साहित्य में किस किस विषय के कितने प्राचीन अंथ है इसकी जानकारी के लिये विवरण का विषय विभाजन कर दिया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में लिये गये विवरण बीकानेर, जयपुर, जैसलमेर, रतननगर, चूरू, भोनागर, मथानिया, चितौड़ आदि स्थानों के ३१ संग्रहालयों को प्रतियों के हैं। उनकी पूनि ३.१ प्रकार है:
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१ बीकानेर--१ अनूप संस्कृन लाइन रो, २ समय जैम अन्याय, ३ मोतीचंद जी मान्बी समझ, ४ जिन चारित्र सूरे संपह, ५ मामी नरोत्तमदानी का संग्रह ६बह शान मंडार (वह भी वृहद शान भंडार का ही एक विभाग है। गोविन्द पुस्तकालय, ६ स्व. कविराज सुखदानजी चारण संग्रह, १० जवचन नी भंडार, ११ मानमलजी कोठारी संग्रह, १२ सेठिया जैन प्रथालय, १३ यति मोहनलालजी १४ भाचार्य शाखा भण्डार १५ सजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्टा र १६ महो० रामलाल जी संग्रह, १७ मानमलजी कोठारी संग्रह।
२ भीनासर-१ स्व० यति सुमेरमल जो का संग्रह,
३ जयपुर, १ राजस्थान पुरातत्त्त मंदिर लाइब्ररी ४ रतननगर १ श्री काशीराम शर्मा का विद्याभवन संग्रह, ५ राजुलदेशर कंवला गच्छीय गतिजी को एक प्रति ५ चूरू सुप्रसिद्ध सुराणा लाइब्रेरी।
जैसलमेर-१ बड़ा खान भण्डार, २ लोकागच्छ उपासरा, ३ माह धम्पतजी का संग्रह, ४ पति डुगरसी भण्डार ( का एक पत्र गुटका ) ।
८ चित्तौड़-यति बालचन्दजी का संग्रह। ६ मथानियां-श्री सीतारामजी लालस का संग्रह ।
१० कोटा-उपाध्याय विनय सागरजी संग्रह जो पहिले हमारे यहाँ था भव कोटा में स्थापित किया है।
११ आमेर-यह दिगम्बर भट्टारकजी का संग्रह है । इसकी सूची प्रकाशित हो चुकी है।
१२---मुनि कांति सागरजी का संग्रह जो उनके पास देखा गया था ।
इनमें से अनूप संस्कृत लाइब्ररी, हमारे एवं खजान्ची संग्रहादि में और भी ही अज्ञात हिन्दी ग्रंथ हैं जिनका विवरण ग्रंथ विस्तार भय से नहीं दिया गया।
प्रस्तुत ग्रन्थ में दो सौ से भी अधिक कवियों की उल्लेखनीय' रचनाओं का विवरण प्रकाशित है। इनमें से बहुत से कवि अभी तक ज्ञात नहीं थे।
१ श्रमी तक ग्रंथों की शोध हुई उनकी की गई पूरी सूची प्रकाशित नहीं । अतः कुछ अन्य
पूर्व प्राप्त मी पाये हैं यथापि ऐसे ग्रन्थ हैं बहुत थोड़े ही।
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दूसरे भाग की भाँति ग्रन्थ के अन्त में कवि परिचय देने का विचार था पर समयाभाव से नहीं दिया जा सका। कवियों के नामों की सूचि आगे दी हो जा रही है। साथ ही ग्रन्थों के नामों की अनुक्रमणिका भी दी जा रही है। कनक कुशल, कुशलादि कुछ कवियों के और भी कई अज्ञात व महत्वपूर्ण ग्रंथ पीछे से प्राप्त हुए हैं।
इस ग्रन्थ का प्रफ स्वयं न देख सकने के कारण अशुद्धियाँ अधिक रह गई हैं, जिसका मुझे बड़ा खेद है।
प्रूफ संशोधन विद्यापीठ के विद्वानों द्वारा ही हुआ है इस श्रम के लिये वे धन्यवाद के पात्र है।
इस ग्रंथ के लिये विवरणों के वर्गीकरण में स्वामी नरोत्तमदास जी का सहयोग उल्लेखनीय है । श्री बदरीप्रसाद जी साकरिया पुरुषोत्तम मेनारिया आदि अन्य जिन २ सज्जनों से इस ग्रंथ के तैयार करने में सहायता मिली है उन सभी का से आभारी हूँ।
प्रस्तुत ग्रंथ और इसके पूर्व वर्ती मेरे संपादित द्वितीय भाग से यह स्पष्ट है कि जैन विद्वानों ने भी विविध विषयक हिन्दी ग्रंथों के निर्माण में पर्याप्त योग दिया है। हिन्दी जैन साहित्य बहुत विशाल है पर अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में उसको उचित स्थान नहीं मिला। दिगम्बर विद्वानों ने तो हिन्दी साहित्य की काफी सेवा की है केवल राजस्थान के जयपुर में ही पचीसों विद्वान हिन्दी प्रन्थकार हो गये हैं जिनकी परिचायक लेखमाला जयपुर से प्रकाशित वीरवाणी नामक पत्र में लंबे अरसे तक निकली थी। जयपुर और अमेर के भंडारों के जो सूची प्रकाशित हुई हैं उनमें बहुत से हिन्दी ग्रंथ भी हैं। प्रकाशित संपह में अपभ्रंश ग्रंथों के साथ हिन्दी (राजस्थानी गुजराती सह जैन प्रन्थों के विवरण भी प्रकाशित हुआ है उनकी ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया जाता है। प्रस्तुत प्रयत्न द्वारा अज्ञात ग्रंथों व कवियों को प्रवाह में जाने का जो प्रयत्न दिया गया है उनका हिन्दी साहित्य के इतिहास में यथोचित उल्लेख हुआ शोध कार्य की प्रेरणा मिली तो मैं उनका प्रयत्न सफल समझूगा ।
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कवि नामानुक्रमणिका
१२०
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३
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१ अकबर २ अवराज श्रीमाल ३ अजीतसिंघ ४ अमर विजय ५ आनंद राम ६ आनंद वर्धन ७ आलम चन्द ८ आलू ६. उदय १० उद्योत सागर ११ उमेदराम बारहट १२ कनक कुशल १३ कबीर १४ कल्याण १५ कल्यागती १६ कान्ह १७ किसन १८ कुशल १६. कुशल चन्द २० कुशल लाभ २१ कुशल विजय २२ कृष्णदास २३ कृष्णदास २४ केशर कीर्ति २५ केशवदास २६ केशवदास
२७ केशव राई २८ कुंअर कुशल १८१,१८३, २१० २६ कुअर पास
५०८ ३० कुंभ कर्ण
२२८ ३१ दमा कल्याण १८८, १२५ ३२ गिरधर मिश्र
२०५ ३३ गुण विलास ३४ गोकुल नाथ ३५ गोरम्ब नाथ ३६ गगादास ३७ घासीराम ३८ चतुर्भुज २६ चिदात्माराम ४. चिदानंद ४१ चेतन ४२ चेतनचद ४३ चंद ४४ छजू ४५ जगतनंद ४६ जगतराई ४७ जगन्नाथ ४८ जटमल ४६ जनार्दन भद्र ५० बयचंद ५१ नयतराम ५२ जसूराम
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,
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१०३,११०
३
२०
१३
११७
५५
६७
१६६
८३, १६४
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१५५
५३ जान कवि ५४ जान पुहकरण १०७ ५५ जिनदास
१२६ ५६ जिन रत्न सूरि . १२० ५७ जिन रंग सूरि ८७, १०० ५८ जिन समुद्र सूरि ७४, १३५
१६३, २२६
२०३, २२६ ५६ जिन हर्ष
८५, १०१, (जसराज)
१२३,१६१,
११६
११
२५
१५६
७५ द्विज तीर्थ७६ धर्मदास ७७ धर्म वर्धन (धर्मसी) ८७,११६,
१६३ ७८ नय रंग ७६ नरसिंघ ८० नवलराम ८१ नागरी दाम ८२ नारायण दास ८३ निहाल चंद ८४ नैनचन्द यति ८५ नन्दलाल ८६ पोथल (पृथ्वीसींच) ८७ पुरुषोत्तम
२१, ७० ८८ प्रज्ञानानन्द २प्रवीणदास
२०० ६० फकीरचंद
१८५ ६१ फतेसिंघ राठौड़ ६२ बद्री ६३ बालचंद ६४ बालदास
३८, १६८ ६५ बीरबल
રૂર १६ ब्रह्मरुप १७ भगवान दास निरंजनी ५३,७६ ६८ भाडई
१४६ EE भावना दास १७४,१७५ १०० मकरंद
२३१ १८१ मगनलाल १२१,१५५
२३
१४७
६० जेठमल ६१ जेमल ६२ ज्ञान सागर ६३ ज्ञान सार ३, ४, २४, २५,
४७,८४, १००,
१०१,२१७,२२५ ६४ ज्ञाना नंद ६५ ठकुरसी ६६ दत्त
६६ ६७ दयाल ६८ दलपतराय
१३७ ६६ दामोदर
१६७ ७० दीपचद
११५ ७१ देवचंद्र
१३७ ७२ देवीदास व्यास ७३ देवी सिंघ
८० ७४ दौलत खान
२०२
१६७
१३
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(३)
SO
१६४
१३० लक्ष्मी वल्लभ ८२,६६,१२३,
१४३,१५२,१६३ १३१ लखपति
२१६ १३२ लच्छलाल १३३ लच्छीराम ५४,१७२,२०७ १३४ लब्धि वर्धन १३५ लब्धि विमल १३२ १३६ लालचंद १३७ लाल चंद १११, ११४ १३६ लालदास १३६ विनय चंद १४० विनय भक्ति (वस्त) २,१२६ १४१ विनोदी लाल ११३,११८.१४५
२२७
१०२ मनोहरदास १८३ मलूकचंद १०४ मलूकदास १०५ मलूकदास लाहोरी १०६ मस्तराम १०७ महमद कुरमरी १०८ महासिंघ १०६ मापक ११० माधवदास १११ माधोराम
२८,१०२ ११२ माम ११३ मान ११४ मीरा मेदन गृहर २२६ ११५ मोहनदास ११६ मोहनदास श्रीमाल ११७ यशोधीर ११८ यशो विजय ८१,१३६ ११६ रघुपति
८५,८६,१५४
Ps
CE
१६७
१६५
११२
२३४
५७१
१४३ विष्णुदास १४४ शिव चंद १४५ शिवा जी १४६ शिवचन्द्र १४७ शंकराचार्य १४८ सतोदास १ साधन १५० सारंगधर १५१ साहिबसिंह १५२ सीताराम १५३ सूरज १५४ सूरत १५५ सूरत मिश्र १५६. संतदास
७६
१२१ राम कवि
५७,५६ १२२ रामचंद १२३ रामविजय (रुपचंद) १२७,
१५८,२३५ १२४ रामशरन १२५ रामाधीन १२६ रामानंद
३४ १२७ रूप
१६८ १२८ रुपचंद १४६,१४६ १२६ लक्ष्मी कुशल
१६,२४
२७
.
२१६
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________________
१५७ हरिवल्लभ ५५८ ६ष कीर्ति १५६ हामद काजी
१६. हीराचन्द्र १६१ हुलाम १६२ हंसर ज
विशेप:
इनके अतिरिक्त संतवाणी संग्रह के गुटकों और पद-संग्रह की प्रतियों में अनेक संतों आदि की रचनाएँ हैं। जिनकी नामावली बहुत लम्बी है और उन रा. नाओं का विवरण नहीं लिया गया केवन सूची मात्र देदी गई है । इसलिये इसके रचयिताओं के नाम उपयुक्त कवि नामानुक्रमणिका में सम्मिलित नहीं कर यहाँ अलग से दिये जा रहे हैं।
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संतवाणी संग्रह'गुटकों में उल्लिखित कवि
१ अग्रदास २ अजय पाल ३ अनाथ ४ अनंत ५ आत्माराम ६ आसानद
इमन
४१, ४२
३७, ४१, ४६
८ अगंद है कणेस पाल १० कबीर ११ कमाल १२ काजी महम्मद १३ कान्ह १४ कोता १५ कुमारी पात्र १६ कृष्णा नंद १७ कंवलदास • १८ खेमजी १६ गरीब २० गरीब दास २१ गोपाल २२ गोपी चन्द २१ गोरखनाथ २४ घोड़ा चोली २५ चतुरनाथ २६ चत्रदास
२७ चर्पद
४१,४६ २८ चुणकनाथ (चोणकनाथ)४१.४७ २६ चोरगनाथ (चौरंगीनाथ)४१,४६ ३० चोणकनाथ ३१ चन्द्रनाथ ३२ छोता ३३ जग जीवण ३४ जगजोवन दाम
४७ ३५ जन गोपाल ३६ जनकचरा ३७ जन मनोहरदास ३८ जन हरी दास ३६ जाल हीयाव (जलंबी) ४१,४६ ४. जैमल ४१ ज्ञान तिलोक ४२ टीकम ४३ टाकरनाथ ४४ तिलोचन ४५ तुलसीदास ४६ दन्तजी ४७ दयाल हरी पुरस ४८ दादू ४६ दास ५० देवल नाथ
४१,४७ ५१ देवो ५२ धन्ना
४२
४१,४६ ४०,४१,४६
४२
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________________
*४४४:४४
४३
५३ चूंधलीमल ४१,४७ ५४ ध्यान दास ४१, ४५,४६ ५५ नरसी ২৪ লাগান ५७ नामा ५८ नामदेव
३७, ४१ ५६ नेणादास ६. नेत ६१ नंददास
३७, ४१ ६२ परमानंद ६३ पारवती
४१,४७ ६४ पीथल ६५ पीपा
४१, ४७ ६६ पूरन दास ६७ पृथ्वीनाथ ४१, ४२ ६८ प्रसजी ६६ प्रहलाद ७० प्रिथीनाथ
४१, ४६ ७१ प्रेमदास ७२ प्रेमानद ७३ फरीद (शेख) ४२,४६ ७४ बरवणा
४२ ७५ बरत्र
४२ ७६ बहावदी (शेख) ७७ बालक ७८ बालकदास ७६ बाल गोसाई ८० बालनाथ
४२
८१ बिहारीदाम ८२ बुधानंद ८३ भवनाजी ८४ भरथरी ८५ भर्तृहरि ८६ मति सुन्दर ८७ मनसूर ८८ महरदान ८६ महादेव १० माधोदास ६१ मानीयावजी (सिध) ६२ मीरां ६३ मुकद भारथी ४१, ३२ ६४ मांडकी पाव ४१, ३६ ६५ राणा ६६ रामचंद ३७, ४६ ६७ राम सुखदास ६८ रामानंद ६६ रेदास १०० रंगीजी १०१ वन वैकुठ १०२ वाजींद १०३ विद्यादास १०४ व्यास १०५ ब्रजानंद १०६ शंकराचार्य १०७ श्री रंग १०८ सपना
४२
.
४१, ४७
::::::::
४१,४७
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________________
( ३ )
४१,४६ ४१,४६
३७,४२
१०६ साधुराम ११० सीहाजी १११ सुकन हंस १२ सुखानंद ११३ सूर ११४ सेवजी ११५ सेवदासजी ११६ सैनजी ११७ सैना ११८ सोमाजी ११६ सोमनाथ
१२० सांवलिया १२१ सुन्दरदास १२२ हणवंत (जती) १२३ हरताली (सिध) १२४ हरदास १२५ हरिदास १२६ हरिरामदास १२७ हालीपाव १२८ हुसैनजी साह १२६ हाड़ियाई सिंध
३७,४२,४६
४२
४१,४२
-
-
-
-
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________________
ग्रन्थ नामानुक्रमणिका
وی ؟
१ अक्षर बत्तीसी २ अद्भुत विलास ३ अध्यात्म बारहखड़ी ४ अध्यात्म रामायण ५ अन्योक्ति बावनी ६ अनुभव प्रकाश ७ अमर सार नाम माला ८ अमरु शतक भापा ६ अलक बत्तीसी १० अवधू कीर्ति ११ आत्म प्रबोध छत्तीसी १०१ १२ आत्म विचार माणक बोध ५२ १३ उद्धव का वित्त १४ उपदेश छत्तीसी १५ उपदेश बत्तीसी १६ उपदेश बावनी १७ एकाक्षरी नाम माला १८ एकादशी कथा भाषा १६ कका बत्तीसी २० कबीर गोरख के पदों पर टीका ३८ २१ करुणा छत्तीसी १०२ २२ कल्याण मन्दिर ध्रपदानी ११६ २३ कामोद्दीपन पद्य १७७(२१६) २४ कुब्जा पच्चीसी २५ कुरीति तिमिर मार्तड नाटक, २०६ २६ कुशल विलास
११७
२७ कुशल सतसई २८ कृष्ण लीला २६ कृष्ण विलास ३० केशव बावनी ३१ कोतुक पच्चीसी ३२ गज उधार ३३ गज मोक्ष ३४ गणेशजी की कथा २१० ३५ गीता महात्म्य भाषा टीका ५ ३६ गीता सुबोध प्रकाशिनी ३७ गूढा बावनी ३८ गोकलेश विवाह २१८ ३६ गोपी कृष्ण चरित्र २४ ४० चतुर्विशति जिन
स्तवन सवैया ४१ चाणक्य नीति दोहे ६१ ४२ चाणक्य भापा टीका १७४ ४३ चाणक्य राजनीति भाषा ६१ ४४ चारित्र छत्तोसो १०३ ४५ चोबीस जिने पद ५१६ ४६ चोबीस जिन सवैया ११६ ४७ चोवीस स्तवन ४८ चौवीसी १२०,१२३,१२४ ४६ चंद चौपाई समालोचना १२५ ५० छिताई वार्ता ५१ छिनाल पचीसी ५२ छंद माला
११८
१२२
१०६
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________________
२१ दलात विनोदसार संवह २०२ ८२.दान शील तप भावना रास
१६०
१३८
१४२
१४३
१५
२२५
१२६
५३ छन्द रवायतो ५४ बंद भंगार ५४ जन्म लीला ५६ जयति हुमण स्तोत्र भाषा १२५ ५७ जसराज बावनी १८ जिन लाम सूरि द्वावेत १२६ ५६ जिन सुख सूरि मजलस १२७ ६० जीव विचार भाषा ६१ जुगल विलास ६२ जैन बारहम्बड़ी ६३ जैन सार बावनी ६४ जैमल अन्ध संग्रह ६४ जैसलमेर गजल ६६ जोगी रातो ६७ ज्ञान गुटका ६८ ज्ञान चिंतामण ६६ ज्ञान चौपाई ७० ज्ञान छत्तीसी ७१ ज्ञान तिलक । ३८ ७२ ज्ञान प्रकाश १३१ ७३ शान बत्तीसी ७४ ज्ञान अंगार ७५ ज्ञान सार ७६ झाना नंर नाटक २०७ ७७ ज्ञानार्णव
१३२ ७८ तत्व प्रबोध नाटक ७६ तत्व पनिका ५० त्रिलोक दीपक
८३ दिन पट खण्डन ८४ दूहा बावनी sk , সঙ্কায়
१३६ ८६ द्रव्य संग्रह भाषा ८७ द्वादश अनुपेक्षा ८८ द्वादश महा वाक्य - ८६ धर्म बावनी ६. नरसिंह प्रथावलो ६१ नव तत्व भाषा बंध १४३ ६२ नव वाड़ के भूलने ६३ नसीयत नामा ६४ नाम रत्नाकर कोष १७६ ६५ नाम सार १६ नारीगजल
२२० १७ नासोत पुगण १८ नासकेतो पाख्यान ६६ नोति मजरी १०. नेमजी रेग्क्ता
१४५ १.१ नेमि राजि मति बारह मासा १६४ १०२ नेमि राजी मति बारह मासा १६५ १.३ नेमिनाथ चंदारा गीत १४६, १०४ नेमिनाथ बारह मासा १६१,
१६२, १६३
१६४, १६५ १०५ बर बहुतरी . २१३
४६
१३५
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________________
( ३ )
१०६ पद संग्रह
१४७ १८७ पद संग्रह १०८ पद संग्रह १०६ पारसी पार सात नाम माला
. १७१
१००
१४६
११० प्रथीराज विवाह महोत्सव २१६ १११ प्रबोध चन्द्रोदय नाटक २०८ ११२ प्रबोध बाबनी ११३ प्रस्ताविक अष्टोत्तरी ११४ प्रेम शतक ११५ पंच इन्द्रिय वेलि ११६ पंच गति बेलि ११७ पंच मंगल ११८ पंचाख्यान ११६ पंचाख्यान भाषा १२० पंचाख्यान वार्तिक १२१ पांडव विजय ५२२ पिंगल अकबरी १६१ १२३ पिंगन दर्शन १२४ बारहखड़ी पद्य ७४.-६६ १२५ बत्तीसी
१०६ १२६ बारह मासा १६६ १२७ बारह मासा १२८ बारह मासा
१६७ १२६ बारह मासा १३० बारह मासा १६८ १३१ बारह मासा १६८ १३२ बारह मासा
१७०
१३३ बारह मासी ५३४ बारा मासी ५३५ बारह व्रत टोप १३६ बावनी १३७ बावनी . १३८ बावनी पच ५४ १३६ बावनी १४० बिहार मंजरी १४१ बीकानेर गजल १४२ बुधि बाल कथन १४३ ब्रह्म जिज्ञासा १४४ ब्रह्म तरंग १४५ ब्रह्म बावनी १४६ भक्तामर भाषा २४७ भगवद् गीता भाषा १३ १४८ भगवद् गीता भाषा टीका २ १४६ भरम विहडंम १५१ १५० भर्तृहरि वैराग्यशतक ७८
(वैराग्य वृक्ष) १५१ भर्तृहरि वैराग्य शतक टीका ७४ १५२ भर्तृहरि शतक पद्यानुवाद ७७ १५३ मत हरि शतक भापा ७२ १५४ भतृहरि शतक भाषा टीका १५ १५५ भागवत पच्चीसी १५६ भावना विलास १५७ भाव शतक १५८ भाव षट् त्रिशिका १५६ भाषा कल्प सूत्र
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________________
१६० भीष्म पर्व १६१ भोगल पुराण १६२ भोजन विधि . १६३ मति प्रबोध छत्तीसी १६४ मदन युद्ध
१५५ १६५ मनन विनोद १६६ मधुकर कला निधि १६७ १६७ महारावल मूलराज समुद्र २२२
बद्ध काव्य पनिका
३७
१८५ राम सीता द्वानिशिका १८७ १८६ रामायण १८७ रावण मंदोदरी संवाद १८८ रासलीला दान लीला १८६ रुक्मणी मंगल १६० रंग बहुत्तरी १६१ लखपत काम रसिया २२० १९२ लखपत मंजरी १६३ लघु ब्रह्म बावनी १६४ वन यात्रा १६५ वसंत नतिका १६६ विरह शत १६७ विवेक विलास दोहरा . १५५ १६८ विंशति स्थानक तप विधि १५६ १६ वेदान्त निर्णय
२०० वैद्यक चिंतामणि • २०१ शन रंजिनी
२०२ शाली होत्र २०३ शिक्षा सागर २०४ शिव रात्रि २०५ शिव व्याह २०६ शुकनावली २०७ श्याम लीला २०८ अंगार शतक २०६ अंगार सार लिख्यते २१० षट् शास्त्र २११ षड ऋतु वर्णन २१२ सभा पर्वनी भाषा टीका ६६
१६८ माधव चरित्र १६६ मूरख सोलही १७० मोहनदासजी की वाणी १७१ मोहनीत प्रतापसिंह री
पच्चीसी १७२ मोह विवेक युद्ध १७३ योग चूड़ामणि १७४ योग वशिष्ट भाषा १७५ व्योहार निर्भय १७६ रतन रासौ १७७ रस मोह अंगार ५७८ रस विनोद १७६ राग माला १० राजनीति १८१ राजुल पच्चीसी १८२ राधाकृष्ण विलास १८३ राम चरित्र १८४ राम विलास
११८
१६७
२०५
११३
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________________
२१३ समषित बासीसी
२२४ सुदामा जी की कका पसीसी ३३ २१४ समता शतक . १५८ १२५ सुबोध चन्द्रिका १८५ २१५ समन जी की परची ८१ २२६ संतवाणी संग्रह २१६ समय सार बाना व बोध २२७ संतवाणी संग्रह २१७ समेसार .
२२८ संतवाणी २१८ सबैया बावनी
२२६ सतवाणी संग्रह २१६ साया बावनी
३० संयम तरंग २२० साखी
२३१ स्थूनि मा बत्तीसी १०५ २२१ सुख मार .
२३२ हनुमान दूत २२२ सुदामा चरित्र
२३३ हित शिक्षा द्वात्रिंशिका १०८ २२३ सुदामा चरित्र ( दोनों एक ही) २३४ हेमराज धावनी पद्य ६७६४
३२,३३ २ ३५ हंसराज-बावनी पद्य ५२,६४ विशेष:___उपयुक्त प्रन्थ नामानुक्रमणिका में संतवाणी-संग्रह के दो गुटकों के ग्रंथों को सम्मिलित नहीं किया गया है। क्योंकि इन ग्रन्थों का विवरण नहीं लिया गया, केवल नामावली ही दी गई है। अतः जिज्ञासुओं को पृष्ट ४० से ४८ में उन प्रन्यों के नाम देख लेना चाहिये। उनमें सब्दी, शास्त्री, पद, पाणी, परची ही प्रधान है। बैसे कुछ चरित्र प्रादि अन्य भी है, जिनमें से कुछ तो काफी प्रसिद्ध है और कुछ प्रकाशित भी हो चुके हैं।
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राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज
(चतुर्थ भाग)
(क) पुराण-इतिहास ( १ ) अध्यात्म रामायण- रचयिता-माधोदास
.............''जा उणि अत्रये दोउ दसरथ के पुत्र । जेष्ठ राम लखमण दी नी ज्व, श्रीदामोदर के सिखि मधुवातव । यो प्राकृत बांधे विश्राम, गायो श्रापणों जस श्रापे राम ॥ ८ ॥ ब्रह्मांड पुराण को खंड इह, उत्तर उत्तरकाण्ड रामायण कौ सूत्र । वकता सित्र श्रोता पारवती, तिनकू सीताराम प्यारे मति ॥ १० ॥ बार हौ विश्राम सरब सुख बत्रे, चौपई तोनि प्रागली बवै । एक एक अतर तणो उचार, जीवन कू' करै मुकत निरमाय ॥ ६१ ॥ बालमीकि रामायण जपे सलोक सत्रहसै तिनके भये । माधवदास कहै जयराम, मेरौ दौड रामायण सन काम ॥ १२ ॥ संवत् सोलह से असी एक कार्तिक वदि दसमी सुविवेक । श्राव सुखवरता शशिवार जपो सीताराम जगत कू' अाधार || ६३ ॥ इति श्री अध्यात्म रामायणे उत्तरकांडे द्वादसो विश्राम समास;
इति संवत् १७८१ वर्षे पोपमासे कृष्णपखे नवम्यां तिथौ बुधवासरे श्रीश्रीश्री. रामायण लिखितम् । ब्राह्मण पारीक व्यास गोलवाल सुन्दरलाल ज्येष्ठात्मज
शुभं मूयात् प्रति पत्र २७० व. १४ अ.४० साईज १३४७
[ स्थान- अनूपसंस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ]
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(२) अकादशी कथा भाषा । रचयिता- पानंदराम । रचना संवत् १४२ शुरुचि०० १०। आदि
गुरु गणेश गिरि कन्यका, गौरी गिरिश गुहेस । वासुदेव की याद करि, पद पंकज रजतेश ॥ १ ॥
कादशी प्रमुख कथा, कृत की विविध पुरान । तिनकी भाषा चौपई, रचयितु सुगम निदान ॥२॥ विविध निदान सुधा उदधि,विक्रमपुर अभिधान । राजत तिहाँ अनूप सुत, नृपमनि नृपति सुजान ॥ ३ ॥ नृप अनूप मंत्री वरण, शेखर बुद्धि निधान । नाजर आनदराम यह, विरचत भाषा ज्ञान ॥ ४ ॥ संस्कृत वानि बजान जन, बिमल ज्ञान के हैत । आनंदराम प्रमान करि, रथ्यौ अरथ संकेत ॥ ५ ॥
अन्त
कथा युधिष्ठिर सौ कयौ, प्रत कामद परकार । जा सेवत नर कामना, फल पावै विस्तार ॥ १५ ॥ ताको माषा चौपई, मुख समुझन के हेत । नाजर पानंदराम यह, रच्यो धरथ संकेत ॥ १६ ॥
इति श्री भविष्योत्तर पुराणे, कृष्ण युधिष्ठिर संवादे, पुरुषोत्तम मास कृष्णा कामदा नामकादशी व्रत कथा भाषा संपूर्ण ।
युग पुनि शैल हिमांशु ' मिली संबन्सर शुचि मास ।
कृष्णपक्ष दशमी दिनै, मयौ ग्रन्थ परकाश ॥ १ ॥ लेखन काल संवत् १८७२ वि० प्रति-गुटकाकार
(२) कार्तिक माहात्म्य- रचयिता-कवि द्विजतीर्थ-रचना सम्वत् १७२६ ।
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मंगल बदन प्रशन्न सदा, मुख बानकारी । घेक रदन गज बदन, जाहि सेवत नरनारी ॥ पितु शंकर मा गोर, ताहि कर लादु लद (41) यो । तीन लोक के काज, धारि वपु जग में पायौ । गवरीनंद नाम तुम, वेद चारि जसु गाईयो । दिजनीरथ ताको मजे, चर्ण कंवल चितु लाइयौ ॥१॥
चौपई संवतु सतरह शिवीसा, तिथि एकम तह मंघर वीसा । सूरज मिश्चक रासहिं पायौ, तब कनीन श्रानंद बटायौ ॥ गुरु दिनमौ मोको मति बाई, सुतो वेद भाषा प्रगटाई । श्रालमगीर राज तहँ कर हो, दुख दानिदु समहन को हरही ॥ दिजु तीरथ फिरि जाति मखाने, माज देऊ सम कोई जाने । गुजामाली गुरु है मेरा, कीवे दर परम पनेरा ।।
पिता निहालु मेरो कहिए, चार पदारथ निश्चै पईए ॥ ६ ॥ अन्त
आलमगीर राज सुखदाई, मूलचक्र मो कथा बनाई। दिजतीरथ यह कथा बखानी, जइसी मति तैसी कछु नानी ॥ कवि करनी निंदक महा, मनुज न माखे कोई ।
गोविंद चरचा हम करी, चंडीवर दियौ मोहि ॥ इति पद्मपुराणे, कार्तिक महात्म्ये कृष्ण सत्यो संवादे इकोनत्रिसउध्याय
लेखनकाल- १८३६ वैसु० २ रवि । खरतर कीर्ति विजें लि० प्रति पत्र ४७ पंक्ति १५। अक्षर ३२
[स्थान-जिनचारित्यसूरिसंग्रह] ( ४ ) गजउधर-रचयिता अजितसिंह (१८ वीं शताब्दी) आदि
अथ गज उधार प्रन्थ श्रीजी क्रित लिख्यते ।
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गवरी मत गणपतं, मन सागर दीजै मो पतं ।। तुझ पसाय तुरतं, सारंगधर गाऊ सुंडाला ॥१॥ गजमुख गणपत राय, मागी मुझ करो मो मायं । गुण राधे वर गायं, पावू बुद्धि रावले पसायं ॥ २ ॥ लंबोदर गणपत सुंडाला, एक रदन बहो धुद्धि बिसाला | लाल बरण सोहे कर माला, मतवाला तुभ्यो नमः ॥ ३ ॥
अविरल वाणी प्रापिये, मुझ दे अक्खर सार । तुझ किपा त मैं कहूँ, हरि गुण ग्रंथ अपार ॥ गणपती तु ईसगण, गुण दातार गहीर । मो मत देहु महेस मुत, उमयासुत वर वीर ॥
धन्त
गज उधार यह प्रन्थ है, धारै चित कर लेत । ताकी प्रमु रिचा कर, प्यार पदास्थ देत ॥ गुण अजीत पण विध कयौ, रामकृष्ण निजदास । नित प्रत प्रभु के संग रहै, यह मन धरके श्रास ॥
कलस कचित्र राज गरीब निवाज जाय प्रहलाद उबारे । , , , द्रौपदी चीर बधारे ॥ "" , कुरंद सुदामा कप्पे । " , , ध्रुव इव चल कर थप्पेये ॥ गज प्राह चिन्हे ही तारीया, रीझे खोजे लाछ कर ।
अजमाल चरण वंदन करे, धन तौ लीला चक्रधर ।। ७६ ॥ इति श्री श्री थी जी क्रित गजउधार ग्रन्थ लिख्यते ( समात)
प्रति-गुटकाकार पत्र २६, पं० २२, अ० २२, प्रति कुछ जल से भी जी, भाषा में राजस्थानी का प्रभाव
[स्थान-ॉ० मोतीचन्द्रजी संग्रह]
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(५) गजमोक्ष । आदि
अथ गज मोख लिख्यते। सुनत सुनावत परम सुख, दूरि होत सब दोष । कृष्ण कथा मंगल करण, मुणो सु अब गज मोख ॥ १ ॥
शिव सनकादिक सेसही, पायौ गुणां न पार । तोई गुण हरि का गाइये, आपा मति अनुसार ॥ मैं वरण्यौ गजमोल यह थापा मति सविचारि ।
जहाँ घटि वधि वर्णन कियौ, तहां कवि लेहु सुधारि ॥ लम्बनकाल १८ वीं शताब्दी
प्रति-पत्र २, पंक्ति २६, अक्षर ६५ साईज : विशेष:-कत्ता का नाम एवं पद्य संख्या लिखी हुई नहीं है। पद्य भुजंगी प्रयात भी प्रयुक्त है।
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ६ ) गीता महात्म्य भाषा टीका । रचयिता आनंदराम नाजर। (आनंद विलाम ) रचना सम्बन १७६१ मि. व० १३ मो० श्रादिअथ गीता माहात्म्य आनंदराम कृत लिख्यते
मुकटि लटकि कटिकी लचकि, लसत हियै बनमाल । पीत बसन मुरलीधरन, विपति हरन गोपाल || नमि करिकै गिरधरन के, चरण कमल सुखधाम | गीता महातम करत, भाषा आनन्द राम ॥ मनमोहन मनमें वस्यौ, तब उपज्यौ चितचाई । गीता महातम करौं, माषा सरस बनाई ॥ कमध (ज) वंस अवतंस मनि, सफल भूप कुलरूप । राज करत विक्रम नगर,, अवनी इन्द्र अनूप ॥ तिहा पाप्यौ परधान थिर, नाजर आनंदराम । गीता महातम करत, उर घर गिरधर नाम ॥ ५ ॥
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________________
( ६ )
जाको जस सब जगत में, हैं भूपति अनुरूप । arat आनंदराम को, थाप्यौ नृपति अनूप ॥ १ ॥ नाजर आनंदराम को, कौरति चन्द प्रकाश 1 श्राखंड के लोक लगि, परगट कियौ उजास ॥ ७ ॥ घर्यो चित्त हरि मक्ति में, कयौ कृष्ण परनाम । गीता माहातम रख्यौ, भाषा श्रानंदराम ॥ ८ ॥ है यह वेद पुरान ग्रस, सकल शास्त्र को सार । गीता माहातम कर्यो, कृप्या ध्यान उर बार ॥ ६ ॥
गद्य
एक समै सदाशिव कृपा करिकै गीता माहात्म्य पार्वती सु कहत हो । ईश्वरोवाच- पार्वती सुनो, मैं गीता महातम कहतु हो ।
मध्य
अथ नवमाध्याय की महिमा पार्वती मोथे सुनी। नर्मदा के तीर एक माहेष्मती नाम नगरी, तहाँ एक माधव एसे नांव ब्राह्मण बसे । अपने धर्म में सावधान भयो । वेद शास्त्र को वेत्ता, अतिथि को पूजक । तिहिं एक बड़ों जग्य को आरम्भ कयौ | तब जग्य निमित्त मोटौ नीको करो श्रान्यो । तब वह बकरा वध करवै समै इसके, अचरज सी बानी बोल्यौ । हे ब्राह्मनो ! ऐसे विधपूर्वक कीते जग्य को कहा फल है । तातै विनित्यमान है, श्ररु जरा जन्म, मरन इनतै मिटै नहीं। ऐसे जन करतु है मैं पशु जोनि पाई। ऐसे बकरा की बानी सुनकै ब्राह्मन को और ऊचा जाप मंडप में श्रनि मिले । तिनि सबको परम अचरज भयौ ।
अन्त
गीता माहातम सकल, बस्न्यौ श्रानंदराम | सुनत पाप सबही नसे, बहुरि हाय आराम ॥ १३ ॥ लखि परमारथ जगत को, करबौ ग्रन्थ परकास । वरन्यौ आनंदराम नै, यह आनंद विलास ॥ १४ ॥ धारा धरणि इंदु रवि, धरणि धरण समीर 1 गीता माहातम कहौं, ता लगी सुधर सुधीर ॥ १५ ॥ धरनि' रस' नीरधिमयक संमत अगहनमास ।
૧
कृष्ण पक्ष तिथि त्रयोदशी, वार मोम परकास ॥ १६ ॥
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इति श्रीपापुराणे, उत्तर खडे, उमा महेश्वर संवादे, नाजर प्रानंदाम कती गीता महातम अष्टादशोभ्याय ॥
लेखनकाल-१ संवत् १८०७ वर्षे प्रासु सुदि ११ । लिपिकर्ता-परमानंद भोजरवास मध्ये।
२ सं० १८२१ आश्विन वदी १० गुलालचंद्रेण सांडवा मध्ये । प्रति-१ गुटकाकार-पत्र ४०, पंक्ति १६, अक्षर ३०, थाकार ||४६ २ गुटकाकार-पत्र ४३, पंक्ति १६ से १८, अक्षर २४, श्राकार ६x६
[ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय । ] (७ ) गीता सुबोध प्रकाशिनी भाषाटीका । रचयिता-जयतराम ।
श्रादि
प्रथम सीस गुरु चरननि नाऊं, सियाराम पद पंकज ध्याऊ ।
दौं वानी अरु गणनायक, मम उर बसौ अमल बुद्धि दायक ॥ १ ॥ श्रीगुरु को प्राझा मई, जयतराम उरधारि ।
कहीं सुबोध प्रकाशिनी, श्रीधर के अनुसारि ॥ २ ॥ ( महातम सहित, मूल श्लोक, टीका भापापद्य,क्वचित् गण, सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए।)
याको पद्मपुराण के, माही है विस्तार । जयतराम संक्षेप करि, कही ज माषा सार ॥ ४२ ॥ जो कछु मैं घट बधि कयौ, मेरी मति अनुसार । सब संतन सौ बीनती, नीको लेहु सुधारि ॥ ४३ ॥ श्री वृदावन पुलन मधि, वास हमारी सोई । जहां जैत माषा करि, सुनत सबै सुख होई ॥ रासस्थली याही कू कहिये, प्रेम पीठ नाम सो लहिये ।
शान गूदरी प्रसिद्ध मानो, ताके मधि स्थान सुजानौ ।। प्रति-गुटकाकार, पत्र २७३, पंक्ति १६-२०, अक्षर १२
[ स्थान-नरोत्तमदासजी स्वामी का संग्रह ]
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(८) नासकेत पुराण । रचयिता- दयाल । सं०१७३४ फासु०५।
अब नासकेत पुराण लिख्यते आदि
श्रीगुरु श्रीहरि संत सब, रिष जन नाऊ सीस । गुरु गोविंद अरु संत सब, ए विद्या के ईस ॥१॥ विद्वद जनन सूवीनती, कविसु बंदु पाय । सहस कृत माषा करूं, हे प्रभु करो सहाय ॥ २ ॥
चौपई राजा जनमेजय बड भागी, पुनि संग्रह पाप को त्यागी । गंगा तटि जल धारंम कीयो । द्वादस वष नेम व्रत लीयो ।
नासकेन आख्यान इह, सुत उदालिक विख्यात । सदा काल सुमिरण कर, जमके लीक न जात ॥ १२२ ।। वैसंपायन वरनियौ, नासकेत अतिहास । जनमेजय राजा सुनै, गंगा तीर निवास ॥ १२३ ॥ सहसकृत श्लोक ते. सुगम सुमाषा कीन । जगनाथ श्राग्या दई, दयाल सीस धरि लीन ॥ १२४ ।। घटि वधि अखिर मात्रा, अरह सुध न होय । बाल बुद्धिः सम जानि सब, क्षमा करो मुनि सोय ॥ १२५ ।। सोला उपरि सात से, चौपई दोहा जान । पंच कवित्त पुनि श्री रचिन, नासकेत पाख्यान ॥ १२६ ॥ सलोक बत्तीसा गिन कर, संख्या यैक हजार । पनि पैंतीसफ जानियै, नासकेत विचार ॥ १२७॥ संवत् सतरासै भयौ, पनि परि चौतीस । फागुण सुदि तिथि पंचमी, प्राख्यौ विस्वा वीस ॥१२८॥ जनदयाल गुरु ग्यान दें, माख्यौ मुन उपदेश । जो श्रवनन वृत्ति (नीक) करें, ताकौ मिटे संदेश || १२६ ॥
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बक्ता मन दिदि राखि के, कहे अन्ध के वैन ।
सुरता मुनि निश्चै करै, तब ही तिनकू चैन ॥ १३० ॥ इति श्रीनासिकेतपुराणे ज्ञानभक्ति वैराग्य व्याख्याने पंथसंज्ञावरनननाम सप्तदशोध्याय ।। १७ ।। ७ चौपई ११६, कुल (प्रन्थ) १०३५ इति श्रीनासकेत प्रन्थ सम्पूर्ण।
लेखकसंवत् अठारह सै सही, वरस तीयासीयो जान । वैसाख सुदी २ श्रखी, दिन वार भोम पुन्न । ता दिन पोधो लिखीत सांडवा मध्ये । क्रमण हरदेवजी कवेट पीहाजल ।
वाचे मग जा (चा ) ने राम राम । प्रति- पत्र ४४ । पंक्ति १६ । अक्षर २३ । श्राकार १० x ६।।
[स्थान- विद्याभवन, रतन-नगर ] ( 8 ) नागकेतोपाख्यान । ( गदा ) आदि
अथ श्रीनासकेत कथा लिख्यतेएक ममै श्रीगंगाजी के उपकंठ राजा जनमेजय बैठे हुते। सो मनमें यह उपजी । होइ श्रावै तौ यज्ञ की प्रारंभ कीजै। बारह वर्ष की दीक्षा ले बैठो यह उपजी । हे महर्षिश्वर, वैशंपायन महापुरुष! सर्वशास्त्र के जान दया करिके श्रीभगवानजू की कथा सुनायौ । ज्यों मेरे पाप मोचित होई। मो पर दया करो । तुह्मों श्रीकृष्ण दीपायन के शिष्य हो। वैशम्पायन कहतु है। हे राजा जनमेजय. तुम सावधान होई सुरणो । तोहि दिव्य कथा पुराण की सुनाऊं जा सुने ते तेरे पाप मोचित होहि ।
भावे एति बात करै । भावे नासकेत सुने बार बार ( बिरावर ) । फल यह नासकेतु अरू उदालिक मुनि की कथा । प्रात उठि एक अध्याय तथा एक श्लोक जू पढे । सनावे ताको जमको डर नाही । अरू किंकरन को डर नाही ।
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इति श्रीनासकेतोपाख्याने नासकेत ऋषि संवादे जमपुरो धर्म अधर्म विचारण যুমায়ুন ফকি জন্ম নমুনার সাহায্য | সখ স্কী ?
प्रति-१पत्र१से १४१ । पंक्ति १३ | अक्षर १७। चाकार III सं०१७६३ ई०
प्रति-२ पत्र ५ सं ५६ । श्राकार sixy
संवत् १७६४ पोष वदी । पुस्तक छांगाणी मुरलीधरेण । मूधडा नथमल पुत्र वखतमल वाचनार्थ ।
[स्थान- स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह ] (१०) पाण्डव विजय-मलूगादास सं० १६१३ चैःशु० १० इसे जोधपुर
अथ पाण्डव विजय सरोज कृष्ण प्रभाकर लिख्यते । पादि
ब्रह्म निवाण, अगम अनादि अनूपं । निराकार निरलेप सदा, श्रानंद सरुपं । जहि विभु सत्य प्रकाम, चंद रवि सबहि प्रकासत । सकल धष्ठि प्राधार विस्वति न तै आभासत । सुख सिंधु सदा ईस्वर सुखद, विधन हरन मंगल करन । अनमंत सदा प्रेरक सकल, करहु कृपा असरन सरन ।
दोहा गननायक के नाम से विधन होत सब नास । काहु अनुग्रह मोहिप (ह) सब मंगल की रास ।
वैण सगाई मात्र रस, कछु न ताहि मध जान । खिमा करहु कविजन सकल, भूहि तुछि बुद्धि पिधान । अस्टमास के श्रासरे, धनता भय विनीत । ये ते माहि प्रन्थ यह, प्रण मयौ प्रतीत । ग्वैडापो निज धाम है रामो संत धीर । सिख धाल (क्याल ) ताके सघर, महामुख्य की सीर । छरल शिष्य पूरन मयी, तहि सिख उरजनदास । जाहि समै यह ग्रन्थ मौ, पांडव विजय प्रकारा ।
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छप्पय खंडापो निजधाम, संत रामा विसालवर । वखतराम तहि सिष्य, मक्ति जहि पर मंत्र उर । ता सिष्य तुस्सीदास, विसद मुइ गुन के प्रागर । जन ठूलै सिख जाहि ताहि को कहियत अनुचर । तहि चग्न कज रजदास लखि, सुदृढ़ यंत्र शिव प्यान घर । वर प्रन्थ येह पांडव विजय, दास मलूक बस्लाण कर ।
दोहा
संवत् उगणीसो सरस तेरौ वरष निहार । चैत्रमास तिथ दस्मि सद वर मृगांक है वार । मरु देस के बीच में, नगर जोधपुर जान | भयौ संपूरन ग्रन्थ यह पंडव विजय प्रमान ॥
मोरठा अष्टवीस हजार माग्थ की टोकाकी अनुपश्लोक उचार । संख्या पांडव विजय की मनहर भादस मान ! श्री विराट है उधोग वर भीष्म द्रोण कर्ण सल्य सोप्तिक
लखानिये । प्रव्व-मांतिक अनुमासन अस्वमेध आश्रमवास मुद्वल ता महाप्रस्त जानिये ।
श्रगारोहण सार कमा श्रष्ठादशाह प्रव सुचत विसाल पंड विजय प्रमानिये । अष्टवीस हज़र है तास पासै जानियत अनुष्टप श्लोक सष संख्या बखानिये ।
इति श्रीश्रीमत्पुलोत्तमचरणारविंद कृपामकरन्द बिन्दुः प्रोन्मीलन विवेक नै मुझ मलूकदास कृत महा भारथ महाधवल पंडवविजय सरोज कृष्ण प्रभाकरे अष्टादसमो गारोहण प्रव समासिरस्तु । १८।
अक्षर श्लोक ८ । उभय सत बोत्तर लखहु श्लोक अनुष्टु (प) विधान, भूगारोहण प्रव यह (२७२)
इति श्रीग्रन्थ पंडव विजय सरोज कृष्णप्रभाकरे मलूकदास हित भाषणं जम्बूद्वीपे भरथखंडे मुरघरदेशे ना जोधपुर मध्ये संवत् १६ वरष तेरा, मास चैत्र
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तिथदसमी चंद्रावार सौ ग्रंथ संपूरण । ल संवत् १६२८ काति फागण यदि ३० बार बुधवार श्रीरन्तु । पत्र ३६२ । पं० ३४ । अक्षर ३६ । साइज १६॥x१२॥
[स्थान- अनूपसंस्कृत पुस्तकालय ] ( ११ ) भगवद्गीता भाषा टीका पद्यानुवाद । र०- मलूकदास लाहौरी सं० १५५१- माघ १० २ रवि । आदि
नमो निरंजन त्रिगुण पर, गुणनिधि गोविंदराय । नमो गुरूडधुज कमल नैन धनस्याम जदुराय । नमो नमो गुरुदेवको पुनि पुनि बारंबार । नमो नमो सब संत को, जिन घर वसत मुरार । श्रीमग्व जो गीता कही. अर्जुन सौं समझाय । ताकी भाखा जथामति कहो, कव्यवहरि गुनगाय । तातपर्जी या ग्रन्थ को, जानन श्री भगवान । श्लोक श्लोक का अगार्थ, कहीं सनो जुस) सजान । गीता के श्लोक सब, से सात अरु इक जान । श्रीमुख भाषौ पांचसौ, अर चौहत्तर श्रान । अर्जुन असी दोह कहे, संजएच चालिस तीन । एक और कहो दो इकु, मिलई धृतराष्ट्र परवीन | ४ संवत् सत्रह मैं धरष, इकावन रविवार ।। माधो दुतिया कृष्णापध, भाषा मति अनुसार । ५ कही मलूक के दास, दास लाहौरी निजु नाम ।। जादौ सुत छत्री वरन, रसना पावन काम । ६ अछर घरबट होय जो, ले हे संत सुधार । सब संतनके चरणपर, लाहोरी बलिहार । ७
इति थीभगवद्गीता भाषा टीका समाप्ता । संवत् १७८६ वर्षे मिती काती सुदि ११ दिने सोमवारे पं० प्रवर हर्षवल्लम
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किसी पर खार वारा मध्ये ।
प्रति-गुटकाकार पत्र ३५ पं० १३ म० ३४ (इसी गुटके में हिन्दी भाषा में भोतल पुराण भी गद्य में है)
[स्थान-मोतीचंद्रजी खजानची संग्रह ] (१२) भागवत भाषा। रचयिता-हरिवल्लभ । ले० सं० १८५३ आदि
श्री भागवत भाषा हरिवल्लभ कृत लिख्यतेबायतु दियौ किमौर , कारजु भाषा में रची । (स) हरिजसु गावन काज, मोह मति है लची ॥ प्रभु कौं करि प्रनाम, भगति तामैं खची । मव लूटन के काज, जु बलभ-यौं रची ॥१॥ प्रथमहिं प्रथम स्कंद, जु मनमैं श्रानि कै । श्लोक समान जू अर्थ, कीयौ मैं बानि कै ॥ र हंसत (बह) बादी किसोर मलौ बहु मानिकै । हरिवलम मो मौत, सुनायौ पानि के ॥२॥ अमृत समान जुभक्ति रस, वल्लभ कीन्हौं मानि । हरख सुनि जु किसोरजु, लीन्हो बहु सुख मानि ॥ ३ ॥ मुख पायौ जु किसोर छ, मागवत जसु मनि कोना। हरिवल्लभ भाषा रची, श्राप बुधि उनमान ॥ ४ ॥
ताते है करि एक मन, भगति नाथ भगवान ।
नितही मुनिये पूजिये, कहिये, कहिये गुन धरि ध्यान ॥१२॥
चौ० कर्मग्रन्ध बंथन निरखरै । को हरजस सौं प्रीति न करे । इति श्रीभागवत महापुराणे एकादश स्कंध भाषा टीका संपूर्ण समाप्तम् ।
लेखनकाल संवत् १८५३का .....मासे कृष्णपक्षे तिथौ षष्टभ्यां ॥६॥श्रादित्यबारे । लिख्यसं व्यास जै किसन पोकरण शुभं भवतु । विसनोई साध गंगाराम ताजेजी का शिष्य ।
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प्रति-पत्र ४८२ । पंक्ति १५ । अक्षर ४४ से १५ ।
[स्थान-सुराणा लाइमेरी, धूरू (बीकानेर)] विशेष-स्कंध और १२ नहीं हैं।
माण्डारकर ओरियन्टल रिचर्स इन्स्टिट्यूट पूना में इसकी पूर्ण प्रति है, उसके अन्त में निम्नोक्त पद्य है
परम गूढ मागक्त यह, मूरख मति अति हीन । कहा कहूं निकाय हरि, हो प्रभु प्रेम प्रवीन ॥२६॥ दंडन मथुरादास सुत, श्रीकिसोर मामाग | हो दग बगल किशोर को, वल्लमसौं अनुराग ॥३०॥ भाषा श्री मागवत की, तिनकै उपजी चाह । हरिवल्लभ निज बुद्धि सम, कीनो ताहि निबाह ॥ ३१ ॥ चतुर चतुग्भुज को तनय, कमल नैन थिर चित्त । वंध्यो नेह गुण सो रहै, हरिवल्लभ संग नित्त ॥ ३२ ॥ गुरु की कृपा प्रताप से, कविन में सुप्रवीन । माषा मागवत की करत, कछु सहाय तिन कीन ॥ ३३ ॥ यह द्वादस माषा रथ्यौ, हरिवल्लभ सज्ञान । त्रयोदसी अध्याय मैं, आश्रय सहित बखान ॥ ३४ ॥ कविजन सौ विनती करू, मति मन मानो रीस । भाषा कृत दूषन जिमें, छमियो मेरे सीस ॥ ३५ ॥ द्वादस स्कंध प्रण भये, हरि किरपा निरधार । श्लोक गिन्नत या अन्य के, हैं सब तीस हजार ॥ ३ ॥ वंद मंग अक्षर करत, धर्म विषद जो हो ।
दूषन ने भूषन करें, कोविद कहिए सोई ।। ३०॥ इति श्री मागवते महापुराणे द्वादश स्कंधे हरिवल्लभ-भाषाकृते त्रयोदसो. प्यायः इदं पुस्तकं । ले० संवत् १८२६ असाद सुदी १४ चंद्रवासरे लिखित ।
राडूराम प्रोड पुरामध्ये लिखईत महारानी जी लाडकुंवरजी पत्र ७४६
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(१३) भीम पर्व-रचयिता गंगादास । सं० १६७१
लिख्यते भीस्म पर्व गंगादास कृत । आदि
सेवा प्रादि पुरुष मनुलाइ, ये हि संवत् उतमा गति पाए । पदन्ह घदन्द्र मइ सो हरि, रहरि मैसे पागि काठ बह बहई ॥ तिस मह तेनुयो है समान, यै सुवास फूल मह जान ।
अव गनपति प्रनवौ कर जोरि, ये हिते युधि होह नहि पोरी । सरस्वती के सेवा करहु, श्रादि कुमारी ग्यान मन हरहु । सारद माता परसनि होड, सुरनर मुनि सेवै सब कोई ।
संकर चग्न मनावौ, सुमति हि के मोहि पास । बिस्तर कथा होई जेहि दिन करि गंगादास । संवत नाम कहा अब चहउ, मालह से एक हत्तर कह । मादत्र वदि दसमी बुधवार, हस्तु नखतु दडन विस्तार । ता दिन मैं यह कथा विचारि, मीस्म पर्व सौ अहै हरसारी । वरनत कवि यो पदवा कहा, राजा दुयोधन तह रहा ।
कहु के खाउ लगे धर टूटा, कहु के सगी हिए मो फुटा । कहु के नान दुटिगे पार, कहु के सीसा गुरीदा का घाडो । कहु के कटि गार प्रश्रा डंडा, कोऊ मारी कीन्ह सतखंडा ।
अपूर्ण-गुटकाकार-प्रति ४४, पं० १३ से १६, अ० १० से १३ आकार
४||xxin
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ]
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आदि
मध्य
अन्त
आदि
( 14 )
(१४) मोगलपुराण- लेखनकाल सं० १७६२
को स्वामी भूमंडल कथं प्रवाय ।
उत्पत्ति षष्ट (ष्टि) का क्यू कर हुवा वखाय ।
केनी परती केवा
श्राकाश |
केना
मंदिर
मेघ
कैलास |
नाम एक वृक्ष है ।
सुमेर पर्वत के दक्षिणे भाग जम्बू जैसे अरु एक लाख जोजन जम्बू वृक्ष का विस्तार है ।
महाराजा नांही राजा अधर्मी हों हिगे । प्रथम प्रमाण इति कलजुग एते धणीरौ निरणौ ।
प्रति- पत्र ६ । ले० सं० १७६२
( १५ ) शिवरात्रि -
[ स्थान- स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह ]
अथ सीवरात्रिनी पोथी लिख्यते ।
इसवर वरत सामल चित घरी जामें पाय जनम ना हरि । सुतां छूटे भवनां पाप, सुणतां सयल टले संताप | गणपती प्रसिद्ध बुध धणी मागु सुबध दीजो सुख घणी । पुजू अगर कपूर घनसार, वीध सं धरचु ं पूजा अपार |२|
X
X
X
ब्रह्मा पुत्री सारदमाय सुख सेवा करे सुमाय । हंसवाहणी मृगलोची मात, कासमोर केलास विख्यात । X X
X
goat मांडव नगर सुभंग, सोमनाथ तिहां तीरथ गंग । वसे नगर ते अति विस्तार, वरया वरण न लामे पार |१६|
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जेह नगर थी पूरब दिसे सामंतसी एक पारयो बसे । तेहना माय बाप डीकरा नाना बालक छोर पकिरा । सतवंती वामे लसनार माणस पाठ तणो परिवार (२६॥ नीत उठी बाहेडो करे इणि परे पेट घणो दुख भरे । केता एकदिवस इणी परे गया, दूसर दिवस परत पालीया ।३. तेरस दिवस फागण सोमवार, वीस दिवस फागण सोमवार । बीस दिवस चोदस अंधार...
इस संजोग लहे नरनार, तेह ना गुण तो अंत न पार ।३१। प्रति-गुटका-पत्र ३०, पय ४४५ के बाद अपूर्ण पं० १२, १० २५,
[ स्थान-मोतीचंद खजानची संग्रह ]
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(ख) राम-काव्य (१) अंगद पर्व-रचयिता-लालदास ।
अंगद प्रचलिख्यतेपादि
पतित उधारण गमु है, रघुनाथ बली । प्रथम वंदि गुरुचरण, पिता उधो सिर नाऊँ । साधु कृपा जो होई, राम पाणंद गुण गाऊँ । रावण रामु पावन कथा, मनोहु चितु समुभाइ ॥१॥
अंगद पचन रामजी के चरित है मुणि पाणंद उर न समाहि । जामुवंत सुग्रीव हनू, अंगद अधिकारी ! पक्ष अठारह जुरे तहाँ, कपि दल भयो भारी ॥ २ ॥
पन्त
करहु बड़ाई रामकी, मेरे धागे बायि ।
निग विसाल धनु धरै, करहि पीतांबर बाथै । तू प्रचंड के डंड तहाँ छ असुर सुर साथै ॥३१॥ जो निसपति अति राजई, सूरिज ज्योति प्रगास ।
श्री रामचन्द्र उदार राय पर पलि बलि लालादास । श्री श्री रामचन्द्र चरितु अंगद प्रव समाप्त।
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प्रति-गुटकाकार | प्र०८शा, पत्र र से८०, ५०६, अ० १९, लेखनकाल १८ वीं शताब्दी
विशेष-इसमें बाल लीला पद्य ४४ कल्याण, जन्म लीला पद्य ६०, सूर श्याम लीला पद्य ५३ कल्याण, सुदामा चरित पद्य ५६, कवलानंद गुरुचरित्र गा० ३७, कल्याण पद्य १, अन्त में नरहरि नाम आदि है।
[ स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ] (२) रामचरित्र-रचयिता रामाधीन
पादि
अथ श्री रामचरित्र लिख्यतेरघुकुल प्रगटै रघुवीरा ।
देस देस तै टीकौ श्रायौ, स्तन कनक मणि हीरा । घर घर मंगल होत बधाये, अति पुरवासिनु भीरा ।
आनंद मगन मये सब डोलत. कछुवन सुधी सरीरा । हाटक बहु लल लुटायेगो, गयंद हये चीरा ।
देत असीस सर चिर जीवहु, रामचंद रणधीरा । पद्य ५० के बाद अपूर्ण-पत्र २७, पं० १४, १० १५, साइज शाxlll
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] ( ३ ) राम विलास- रचयिता-मु० साहिब सिंध । रचना-संवत् १८८ बै० सु० ३। मरोठ पादि
वाग वणेहि श्रत ही अधिक, अवधपुरी के बेन । कमलनैन क्रीडा करे, सीता को सुख देन ॥
अठार से श्रोतरे, सुदि तृतीया वैसाख ।
रामविलासमरोठ मधि, मलौ रथ्यौ सुध भाख ॥ इति राम विलास मुहता साहिब सिंध कृत: संपूर्ण । प्रति-पत्र २, पद्य ३३,
[स्थान-वृहद्झान भाण्डार]
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(४) रामायण । रचयिता-चंद । पद्य-दोहा ५६, छप्पय १, झूलना १, सबैया १०१ । लेखन काल १८ वीं शताब्दी । मादि
गुरु गणेस अरु सारदा, समरे हीत अानंद । कछु हकीकत राम की, अरज करत है चंद ॥१॥ श्रादि अनादि जुगादि है, जाहि जपे सम.कोड । रामचरित्र अद्भुत कथा, सुनौ पुन्य फल होइ ॥ २ ॥
पारस न चाहुं पर जीते कोन न धाउ अनदेव कोन धावत कहत हौ सुमाव की । बाहु न कुमेर को सुमेर सोनों दान देह कामना न करो कामधेनु के उपावन की । चाहु ना रमाइन जोता मैं तो सोना होई, रावत न तमा नेक अन्य के सहान को । जाच के काज हाथ श्रोझता सकल दिसि चंद जीय चाहता हो किपा सुनाथ की ॥ १५ ॥ इति श्रीरामायण चन्द्र क्रित संपूर्ण । प्रति- पत्र २४ । पंक्ति १० । अक्षर ३३ । आकार ८४४॥
[स्थान- जिनचरित्रसूरि संग्रह ] (५) रावण मंदोदरी संवाद । रचयिता- राज ( जिनराजसूरि ) ।
रचनाकाल- १७ वीं शताब्दी। भादि
राग-जइतसिरी अाज पर सोचत रमणि गई। नायक निपुण धमई काजि काहे आणि ठई ॥१॥ मेरह कहिइ विलगि जिन मानउ, हइविल बेलिवई । विरारह काम कह उगे मोकुं, किनहुं न खबरि दई ॥२॥ मणीयत हा गद लंक लयंण क', होवत राम तई । न कहत बरत राजिस बोऊ, कनक न बात मई ॥ ३॥या
इति मंदोदरी वाक्य । राग-सामेरी। 'पोरवाई।
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( २१ )
जलधि उलंधि कटक लंका गड, धैर्यउ पडी लवाई ॥१॥या लूट त्रिकूट हरम सब लूटी, बेटी गढ की खाई । लपकि लंगूर काँगुरइ बइठे, फेरी राम दुहाई ॥२॥ जऊ दस सीस वीस भुज चाहर, तउ तजि नारि पराई ।
राज पदत हुणिहार न टरिहई,कोटि करऊ चतुराई ॥ ३ ॥ अन्त
केवल प्रथम पत्र अपाप्त है । ग्रंथ पदों में होने से सुन्दर संगीतमय है । पर अपूर्ण उपलब्ध है।
प्रति- पत्र १, पंक्ति १५, अक्षर ४० से ४५, साइज ||४४ एक पत्र और भी मिला है, व एक गुटके में भी कई पद मिले हैं।
[स्थान- अभय जैन ग्रन्थालय] ( ६ ) हनु ( मान )दत । पन्ध १०४, रचयिता-पुरुषोत्तम, सं०१७०१ माह व०६। आदि
श्रीगम जाके ताके बुधि बटै, जोके ताकै श्राइ । पुरुषोत्तम गहि प्रथम ही, गवरिपूत के पाई ॥ १ ॥ पुरुषोत्तम कत्रि कपिला, वासी मानिक नंदु । कृपा करै परवत-पती, बाज वहादुर चंदु ॥ २ ॥ वामन वरन हौं मने दिया कहावतु हौ । गोकरन गोतु सब तै अगाऊ को । रामु परदादो दादो गदाधर जानियतु । केपिला मैं टाऊ नाऊ मानिकु पिताऊ को । नंद नीलचंद के करी है कृपा वाजचंद् । वाही हैं अधिक हितु, हितू श्रौ वटाऊ कौ । जे सुने कवितु सोह चितु दे के बुझनु है । कौनु पुरुषोत्तमु जु, कवि है कुमाऊ क्यौ ॥ ३ ॥
+
पराक्रम पुरो पौन पूत को मुनि के मन, इन्छा मइ बरनौं जिसतै राजी रामु है ! संवतु हो दस-सात सत उरू एक जहां,
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( २२ )
माष बदि बाट जो महीना पुनि पाम है। सुम बुधवासह मुपलु सुम घरी पुनि, महा सुम नखतु निपट सुम नाम है। करो तहा ख्यालु पुरुषोत्तम बनाइ करि । भरो याको नीको हनुमानदूतु नाम है ।
सीता की ताकी अधिक, सीता की सुधि पाई । वाज बहादुर चंद को, मो दयाल रखुराई ॥ १०० रामायनु कीनौ हुतौ, वालमीकि बुधि लाइ । पुरुषोत्तम सुनि कह कथा, कीनी भाषा मा ॥ १०१ साहसकृत सौं कहत है, सुरवानी सब कोई । ताने भाषा मैं कथा, की प्रसिद्ध जग होइ ॥ १०२ हनुदूत को जो मुने, केधौ पदे बनाइ । तासौं कविता सौं सदा, राजी रहे रखगई ॥ १०३ कवि पुरुषोत्तम है कियो, रामायन को नतु ।
इति श्री सिगरी है भयौ, हनुमान दुत्ततु ।। १०४ . इति-संपूर्ण । प्रति-पत्र १३, पं०११, अक्षर ३५, साइज १०४४
[स्थान- अनूपसंस्कृत पुस्तकालय ]
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(ग) कृष्ण-काव्य ( १ ) उछत्र का कवित्त ५७, लेखनकाल १६ वीं शताब्दी
श्रथ उछव का कवित्त लिख्यते । प्रादिप्रथम हिंडोरा के कवित्त ।
जमूना के तीर मार भई है हिंडोग्ना पै, दूर ही तैं गहगड गति दरमनु है । गांन धनि मंद मंद गावत काननि में बीच बीच वंशी प्रान पैठि परसतु है । देखि कारे द्रम कोल तान मादि दामिनी सौ, पट फहरात पीत सामा सरसतु है। हा हा भाग्न नागर पे हियो तरसत है ली, याज वा कदंब तरै रंग बरसतु है ।
कवित्त ७ के बाद फाग विहार के १२ तक, प्रीतम प्रति व्रज बलम वीन वचन के नं० १७ तक, मांझी के नं० २० तक, रास के नं० २४ तक, कृष्ण जन्म उत्सव नं० ३२ तक, लाड़िली राधे जन्मोत्सव के नं० ४२ तक, पवित्रा के १. राखी उत्सव का १, दिवारी उत्सव के नं०४७ तक। श्रीकृष्ण गिरधार्यो जी समै के नं० ५२ तक, पारायन भागवत समै का नं०५७ तक है।
अन्त
• उदर उभार सुनि पावन जगत होत, किरनि विविध लीला नंदलाल लहिये । परम पुनीत मनको कदन प्रफुलित, विमुषक मोद समा देखत हो दहिये । यह श्रुतिसार मधि नागर सुखद रूप, नवधा प्रकास रस पीवत उमहिये । तिमर अशान कलि काल के मिटायबै को, प्रगट प्रभाकर श्रीभागवत कहिये ।। ५७ । इति श्रीभागवत परायण समै के कवित्त संपूर्णम् । प्रति-गुटकाकार । पत्र-१०, पंक्ति-२०, अक्षर-२०, साइज ७५ १०,
[स्थान-मोतीचंदजी खजांची का संग्रह ]
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(२) कृष्ण लीलाआदि-प्रथम पत्र नहीं है।
अष्टोत्तर शतपद नेमनीया निस दिन मुख थाके रोजी । राधा गोपी गिरधर संगे, क्रीडा अनुदिन हे रोजो । दासी सुन्दर जब न बिगरी, प्रेम हरखि सुख गाएजी ।
ध्यान पियारो सुन्दर बनोगी जोडो । प्रति-पत्र २ से १२, पं० १५, अ० १२, साइज ७४५
( ३ ) कृष्ण विलास । पद्य ३६ । रचयिता-मु० साहिब सिंध । रचनाकाल संवत्-१८०८, मगसर सुदी ३ रवि० ( मरोठा ) पादि
कृष्ण पधारौ कृपा कर, पाणंद भये अपार । काम पग माडकर, निरख रूक्मणी नार || १ ॥
मोटो कोट मरोट को, जूनौ तीरथ जान । साहिब सिंध सुखसौं वसै, मजन करे भगवान् ॥ ३५ ॥ श्राठार सै अठौतरै, मगसर सुद रविवार ।
तिथ तृतीया सुभ दिवस ., कृष्ण बिलास बतार ॥ ३६ ॥ इति कृष्ण विलास मु० साहिब सिंध कृत संपूर्णम् ।।
लेखन काल-संवत् १८४८ वैसाख सुद् ४ सनि । नोखा मध्ये । प्रति-पत्र ४ । राम विलास के साथ लिखिता।
[ स्थान-बृहद् ज्ञान भाण्डार ] ( ४ ) गोपीकृष्ण चरित्र (बारहखडी)। पद्य ३७, रचयिता-संतदास । लेखनकाल-संवत् १६१७
पादि
कका कमल नैन जबतें गये, तब ते चित नहिं चैन । व्याकुल जलबिन्दु मीन यो, पल नहीं लागत नैन ॥ १ ॥
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()
ओ गादै सोखे उनै, गोपी कृष्ण सनेह ।
प्रीति परस्पर प्रति बढे, उपजै हरि पद नह ॥ ३७॥ स्वामी नारायणदास लिखितम्। प्रति-गुटकाकार । पत्र ५। पंक्ति १० । अक्षर १२ श्राकार ६४॥
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] (५) जन्म लीला-रचयिता-कल्यानजी । आदि
साधु सध की सुनो परीश्रित सकल देव मुनि साखी हो । कालिंदी के निकट श्रत इक मधुपुरी नगर रसाला । कालनेमु उग्रसेन बस कुल उपज्यो कंस भुवाला ।
अन्त
नाचत महर मऊण मनु कीनै मौ पार बजावै तारी ।
दास कल्यान श्याम गोकुल में प्रगट्यो गर्व पहारी ॥ इति श्री जन्मलीला संपूर्ण। प्रति-पत्र १५,
[ स्थान-अनूप सस्कृत पुस्तकालय ] ( ६ ) जुगल विलास पद्य-७६ । रचयिता पीथन ( पृथ्वीसिंघ) २० सं० १८०
अथ जुगल-विलास लिख्यते । . आदि
सुचि रूचि मन च कर्म सों, जयतु यदुपति जीव । प्रमु को नाम पीयूस रस, पीथल नित प्रति पीव ॥ १ ॥ श्रीसरसति गनपति सदा, दीजे बुद्धि बहु ज्ञान । कर जोरै वीनति करौं, सिरं नाऊं धरि भ्यान ॥ २॥ नंदलाल वृषमानुजा, ब्रज कीने रस रास । धुद्धि माफक बस्नौं वही, जाहर जुगए ॥३॥
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दूलह लाल गोपाल लखि, दुलहिन बाल रसाल । पीपल पल पल नाम लहि, अगल हरे जंजाल ॥ राधा नंदकुमार कौं, सुमिरन को दिन रैन ।
ताते सष संकट टरै, चित उपजै अति चैन ॥ प्रति-गुटकाकार-पत्र ५६, पंक्ति १३, अक्षर १४, साइज ५॥ x ६"
विशेष-पद्यों की संख्या का अंक २३ के बाद लगा हुआ नहीं है। समाप्ति वाक्य भी नहीं है। अतः अपूर्ण मालूम पड़ता है। नायक नायिकाओं का वर्णन भी है।
स्थान-अनूप संस्कृल पुस्तकालय, बीकानेर इस ग्रन्थ की एक प्रनि खटरतर प्राचार्य शाखा के भंडार मे प्राप्त हुई है जो पूरी है। मिलाने पर विदित हुआ कि उसों उपयुक्त आदि एवं अंत का पहला पच नहीं है, कहीं २ पाठ भेद भी है। अन्त के दोहे से पूर्व एक छप्पय है और पीछे एक दोहा ओर है जिनसे ग्रन्थकार व रचनाकाल पर प्रकाश पड़ता है. अतः उन्हें यहाँ दिये जारहे हैं:
छप्पय ब्रज भुव करत विलास रास रस रसिक विहारिय । सीस मुकट छवि देत श्रवन कुंडल दुति मारिय । गलि मोतिन की माल, पीत पर निपट जुगल छबि । नीकी बाजे यह रूप धारि हिय मैं सदा, जातै सब कारज सरै । सुभ अगल चरण नृप मांन संत, प्रथीसिंघ
• प्रणपति करै ।। ७४ ॥ ७५ वां उपर के अंत वाला है।
मुर तक नम बम ससि बरस, भादौ सुदि तिथ गार । पूरन युगंल-विलास किय, माय युत मर गुरुवार || ७६ ॥
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इति भी युगल विलास मन्थ महाराजाधिराज प्रथीसिंघजी कृत संपूर्ण ।
ले संवत् १८४६ मिति महाशुक्ल एकादश्यां तिथौ लिखितं । पं०अमरविलासेन । श्री कुशनगढ़ मध्ये रा० श्री जिनकुशलजी प्रसादात् ।
[प्रतिलिपि-अभयजैनग्रन्थालय ] (७) बारहखडी-रचयिता-मस्तरामजी । अथ-मस्तराम की बारहखडी लिख्यते ।
धादि
दोहा
कका करना करत राजकामनी, धरत कंत की त्रास ।
मन तन चात्रिग ज्यौ रदै, श्री करण मिलन की श्रास । कवित्त रेखता चाल
कका कवर कान के हाथ में बांसुरी रे खडा जमुना तट बजावता था । पडी गेद जो दहम करि पड्या काली नाग कुनाथ करि ल्यावता था। संत महंत जोगेश्वर ध्यान धरै, वाका अंत कोई नहीं पावता था । मसतराम जालिम मया कंस कारे खडा कुज गेली बिचि गावता था।
हा हा हरि नांव की बात अगाध है रे संत बिना बुधि नाहीं श्रावै । गोपाल ज्यौ नंद के लालजी सू, बारू बार गुलाम की मेरे पावै । मैं तो अतिरा को बल नाहि जानु, और बुधि नहीं कृष्ण नाव जावै ।
मसतराम गुलामै ज्यो श्राप ही को बुधि दीजिये तो चरनो चितरल्या रहौ । ३४ । इति बारहखडी संपूर्ण । प्रति-गुटकाकार-पत्र ५, ६-१८, साइज मा ६
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय] (८) बिहार मंजरी ( पद ) रचयिता-सूरज
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विधन हरन गनपति हिम नाऊँ गरिनंद जगवंद चंद
इत सिंधुर बदन निरखि सुख पाऊं । सजि सुगंध उपचार अमित गति निरमल सलिल
उपरिचन्हबाऊं। श्री सिरवार शिरोमणि सूरज पद पंकज चित हित
नित लाऊं ।
संत पुराण निगम बागम सब नेति नेति कहि गावें । शिव ब्रह्मादि सकल के कर्ता भर्ता अपना ।
करहु रूपा गुण गण नित पाऊँ सूरज उगणि सवायौ । इति श्री सूरज सिरदार बिहार मंजरी नाम्ने अन्थे भक्त पक्षवर्णनं नाम सप्तम स्तबकः समाप्तः ।
दोहा संवत् राखि शशि निधि ...."माघ मास तम पक्षा ।
पंचमि गुरुबास विमल..........."पद सुददा ॥ १ ॥ प्रनि-गुटकाकार-पत्र ६१, पं० १५, अ० १२, माइज ६x६ll
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] (6) राधाकृष्ण विलास ( दान लीला )। पद्य ६४ रचयिता-माधोराम । रचनाकाल संवत् १७८४ श्राश्विन ।
अथ राधाकृष्ण विलास दानलीला लिख्यते । पादि
दोहा प्रकृति पुरुष शिव सकत है, भेद रटत निरधार । बहै प्रकृति वृषमान न्यू, पुरुष सुनंद कुमार ॥१॥
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(a)
राणा मामय एक है, जैसे सुमन सुगंध भाष मेद ने कम है, महा मूढ मति अंध ॥
भगत इगति संपत खरे, पदै सुने जो कान । लीला जुगल किशोर को, सबको करै कल्यान ॥९॥ सतरहसै चौरासिय, पाश्विन पूरणमास ।
माधोराम को इन्हें, राधाकृष्ण विलास ॥१४॥ इति श्रीदानलीला संपूर्णम् । लेखन काल-प्रति १-१६ वीं शताब्दी पंचभद्रा मध्ये काती वदी ७
प्रति-२-संवत् १७६६, मि० सु०१५ । प्रति-१, पत्र ४, पंक्ति २०, अक्षर ४०, आकार Ex॥, प्रति-२, गुटकाकार, पत्र ७, पंक्ति १८, .. ( १० ) रुक्मणी मंगल-रचयिता-विष्णुदास-रचनाकाल सं०१८३४ आदिएक पत्र नहीं।
..." रुक्मण करो सगाई। अगले शहर के लोक बुलावो, सबही के मन माइ ।
रुक्मण व्याह सुनत रस वरसत, तनमन चित्त लगाय । -
या मुख कू जाने सो जाने, विष्णुदास गुन गावे । इति श्रीरुक्मणी मंगल संपूरन । प्रति- गुटकाकार पत्र २ से २५, पं०१५, १०८ से १४, साइज ||४७
[स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] रासलीला-दानलीला-रचयिता- सूरत मिश्र
अथ रासलीला लिख्यते
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आदि
अन्त
( 20 )
दोहा
बृजरानी वृजराज के चरण कमल सिरनाइ । वृजलीला कुछु कहत हैं, लखी हानि जिहि भाइ ॥ १ ॥ मादव सुदि छठ के दिनां, सांत न कुड ज न्हाइ । संतन संग सब जातरी, वसत करमला जाइ ॥ २ ॥ तहां पावली निसि लख्यौ, इक मंडल पर रास ।
दंपति छबि संपति निशेखि, कहि सके विलास ॥ ३ ॥
X
X
X
वरी होहु ग्वारिनि कहा जू हम खोटी देखी, सुमो नेक बैन सो तौ और ठाँव जाइये 1 दीजो हमें दान सो तौ और ज न परब कछु, गोरस दें सो रस हमारे कहां पाहयै । महा यह दीजै सो तौ महीपति दे है कोऊ, दह्यौ जो पै दहै हौ तो सीरौ कछु खाइयो ।
सूरत सुकवि एसें, सुनि हँसि री लाल ।
दीनी उस्माल सोना कहाँ लगि जाइये ॥ ४६ ॥
दोहा
तब हंसिहंसि ग्वारिनि दियौ, ग्वारिनि दधि बहु माह ।
लीला जुगल किसोर की, कहत सुनत सुखदाह ||५०||
इति दानलीला मिश्र सूरतजी कृत संपूर्णम् । मं० १८३४ फा०सु० १३ बुधवार, प्रति- पत्र ५, पं० १६, अक्षर १६ से १६
[ स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ]
(११) वनयात्रा (परिक्रमा व्रज चौरासी कोस की ) रचयिता - गोकुलनाथ (१) लेखनकाल - २० वीं शताब्दी
आदि
ताके धागे मधुवन है । तहाँ श्रीठाकुरजी ने गऊ धारण लीला करी है । तहाँ मधुकुण्ड है। तहां मधु-दैत्य को मायौ
है ।
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अन्त
वन जात्रा परिक्रमा श्रीगुसांईजी करी । सो श्री गोकुलनाथजी अपने सेवकन सों कहते हैं । जो वैष्णव होन ब्रज की परिक्रमा करें तब ब्रज को सरूप जान्यौ परे ।
श्रादि
अन्त
( ३१ )
प्रति-गुटकाकार | पत्र २२ । पंक्ति १७ । अक्षर १८ । आकार ८४६ । विशेष- श्रादि अन्त नहीं है ।
[ स्थान - अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ]
( १२ ) श्याम लीला
आदि
रागु मलार (टेक)
गोकलानाथा गोविननाथा खेलत ऋजु की खोली । जब गोकुल गोपाल जन्म भयो कंस काल में बीत्यो । बहुविध करत उपाय हरनकू बल बल जानु न जीत्यो ।
जो या कथा सुनै अरू गावै, है पुनीत बडभागी । दासु कल्यान रयन दिन गावै, गुन गोपाल तियागी । इति श्याम तीला समाप्ता । पत्र ७२ से ८६ ।
[ स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ]
(१३) सुदामा चरित्र
श्रथ सुदामा चरित्र सवईया इकतीसा लिख्यते । माधू जू के गुन गाई गाह गाइ सुखपार |
और न सुनाइ सेष महिमा न जानौ सुक ता कहने को कहा मानस जैसी मति मेरी कथा सुनी है पुरान मति जिहि मांति सुदामा जू द्वारिका सिधारे हैं । तंदुल ले चलै कैसे हरि जूं तू मिलें पुनि कैसे फेर पाए निज हारद विचारे हैं ।
नाग हू से
नारद श्री
हारे हैं ।
बालमीक |
विचारे है ।
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जाकै दरबारि कवि नस न्यास बालमीक हा हा हुं हुं गाइन कैसे के रिभाइवौं । रुद्रप्तेन महासिगास नारद जैनधारी रंभासी निरतकारी मुफ सौं पटाहवौं । बैंकण्ठ निवासी अब भयौ घृजवासी ध्यानु हिरदै में प्रकासी स्याम निसि दिन गाइवौ । सुदामा चरित्र चिंतामनि सामी सावधान
कंठ ते खलीता राखि साधन सुनाइबौ । इति श्री सुदामा चरित्र सवईया पद्य संपूर्ण समान । प्रति- पत्र ६ । पं०६। अक्षर ४४ ।
[स्थान-मोतीचन्दजी खजानची संग्रह ] (१४ ) सुदामा चरित्र
अथ सुदामा चरित्र वीरबलकृत लिख्यते । आदि
कवित्त माधौजी के गुन गाय गाय सुख पाय पाय और नि सुनाय
हंस नागहू से हारे हैं। महिमा न जानै सुफ नारद श्री बालमोक ताके
कहिब के कौन मानस विचारे हैं । जैसी मति मेरी कथा सुनी है पुरान करि ज्यौकर सुदामा तम द्वारिका सिधारे हैं। तंदुल ले चले के हैं हरि जू सो मिले पुनि कैसे फिरि पाए निद्ध दारिद विडारे हैं।
मन्त
जाके दरबार कवि ब्रह्म व्यास नालमीकि कहाँ हा हा हूह गायत सु कैसे के रिझायदें ।
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छ से महासिंगारी नारद से वीनधारी रंभासी निरतकारी मुक से पदायवे । वैकुंठ निवासी श्राप मयो ब्रजवासी स्याम गधिका रमन कवि परन सोइ गाइवौ । सुदामा चरित्र चिंतामणि सब सावधान
कंठ के पियार राखि साधनि सुनायवौ ॥ इति श्री वीरबल कृत सुदामा चरित्र संपूर्ण । प्रति-गुटकाकार । पत्र २३ । १० १३ । अक्षर ११ साइज ४॥४६ ।
[स्थान- अनूपसंस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर] (१५) सुदामाचरित
कहत त्रीया समुझाई दीनको मधुहरी ॥ टेक द्वारामतिलों जात कहा पीय तुमरो लागे । जाके हरि से बंध कहा धरि धरकन माग । २ ।
दीनबन्धु बिस्दावली प्रगट इह कलिवाल ।
कवलानन्द मुदित चित गावै, कीरति मदनगोपाल । ५८ | इति सुदामा चरित समाप्त पत्र ६५ से १०० ।
[स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ] (१६) सुदामाजी की ककाबत्तीसी ।
आदि- पद्य २१ से
क्षक्षा छूटा जो दिप आदि नहीं थे तो चरन सरन सद्गुरु की रहियो । नांव मधुरी रस पिया सुजान जसु गुर वास नहीं होय पनाना ।
इति श्रीसुदामाजी की ककाबत्तीसी । आदि
कका कहि जुग नाम उधारा, प्रभु हमरो मत्र उतारो पारा । साधु संगति करि हरि रस पीजै, जीवा जन्म, सफल करि लीजै ।
[स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय, ई.कानेर ]
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(घ) सन्त-साहित्य ( १ ) कबीर गोरख के पदों पर टीका ।
लेखन-काल १६ वीं शताब्दी।
सहजै मानसी भजन द्वंद रहित फल पाप पुन्न फूल कामनान्तर प्राण तत्वरूप है रह्या । गुण उदै नहीं। पल्लव पर कीरति नहीं । आहे अंकुर नहीं। बीज वासना नहीं। परगट परस्या ब्रह्म गुर गमतें गुरु पारसादि ब्रह्म अग्नि पर जारी । पुजारी । प्रकीरति । सासे सूर मनोपवन । तानी सोलि दूर कहिये । इनते आगे जोग कहिये । जुगतारी आत्मा परमात्मा जुगल सोई जोग तारी ॥ १ ॥ प्रति- पत्र ४७ । पंक्ति १५ से १६ । अक्षर ३६ । श्राकार ॥ ११+६ ॥
[स्थान- स्वामी नरोत्तमदास जी का संग्रह, ] ( २ ) कबीर जी का ज्ञानतिलक । रचयिता-रामानन्द । श्रादि
ॐकार अवगत पुरुसोत्तम निजसार, रामनाम मजि उतरो पार । ॐगुरु रामानंदजी नीमानंदजी विष्णुश्यामजी माधवाचार्यजी । चार दिसा चारों गुरुमाई, चारों न्ये चार संप्रदाय चलाई । ॐकोन डारते मूल बनाया, कोन सब्द प्रस्थूल बनाया । ॐ डार ते मूल बनाया, सोहं सब्द ते अस्थूल बनाया ।
भक्ति दिलावर उपजी ल्याये गुरु रामानंद । दास कबीर ने प्रगट किया सप्तदीप नवखंड ।।
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(३५)
इति रामानंदजी का कबीरजी का शानतिलक संपूर्ण ।
लेखनकाल-लिखितं गंगादास। जैसा देख्या तैसा लिख्या छै । मम दोषो न दीयते।
प्रति-पन्न । | पंक्ति ११ । अक्षर २६ । आकार Ex५| विशेष- गुरु चेला के प्रश्नोत्तर संवाद के रूप में है। आदि अन्त का १-१ पत्र रिक्त ।
[स्थान- अभय जैन पुस्तकालय] ( ३ ) जैमल ग्रन्थ संग्रह। रचयिता-जैमल । लेखनकाल-१८ वीं शताब्दी ।
श्रादि
आदि के पत्र नहीं मिले हैं।
मध्य
वैरागी को रूप धरि, वैरागिणी चालै लार । जैमल उनकू गुरु करे, अन्ध सबै संसार ॥ २५ ॥ जोग जहां जोर नहीं, भगति जहाँ मग नाहि । श्रविगति प्रापै पाप है, जैमल हिरदा माहि ॥ २६ ॥
का करि भया निरंजनि, हमकू कहि समझाहि । गांडा चूखे रस पीचे,भूखा है तब खाहि ।। ८१ ॥ क्यू' करि भया निरंजनि, कोण समरणि सार । पेट भरण के कारण, रोकि रह्या पर द्वार ॥ २ ॥
अन्त
अन्त के पत्र भी प्राप्त नहीं हुए । प्रति-पत्र १२६ । पंक्ति १७ । अक्षर ३२ । श्राकार ७/xशा, विशेष-कुछ अंगों के नाम इस प्रकार हैं
सुमिरन अंग, चौपदै, निवाण पदै,भगति वृदावली, विधान पदै, सूरात को छंद, सीतमहातम को अंग श्रादि ।
[ स्थान-अभय जैन प्रन्यालय ]
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( ४ ) नरसिंह ग्रन्थावली । रचयिता-नरसिंह ।
आदि
सरीर सरबंग नाटक । गुरु दादू वंदो प्रथमि, नमस्कार निरकार । रचना श्रादि अनादि को, विधिसों कहौं विचार ॥ १ ॥ दादु गुरु प्रसाद सब, जो कुछ कहिये मान । बीज भ्रम विस्तार जगू, सो अब करों बखान ॥ २ ॥ बुधि समानसों कहतु हों, या तनके जो अंग । दादू गुरु प्रसाद ते, रची सरीर सर्वग ।
जन्म मरण ऐसे मिटे, पावे पूरण अंग ।
नरसिंह मन वच कर्म करि, मुने सरीर सर्वग ॥१३॥१५७।। इति श्रीनरसिंहदासेन कृतं सरीर सर्वग नाटक संपूर्णम् ।
केवल ब्राह्मण लिखितम् प्रति- पुस्तकाकार । पत्र २५ । पंक्ति १२ । अक्षर १० । प्राकार ४४६ । विशेष- इम प्रति में नरसिंहद्वारस के बनाए हुए अन्य निम्नोक्त ग्रंथ हैं( १ ) चतुर्समाधि
पत्र २६ से ३२ तक ( ३ ) (ना) मन्निणय
३७ तक (४) सप्तवार
३८ तक (५) विरहिणी विलाप
४१ तक (६) बारहमासाजी, ब्रह्म विल स
४५ तक (७) त्रिकाल संध्या
४३ तक (८) साखी स्पुष्ट ग्रन्थ
७२ तक (E) अतीय अवस्था अंग
१०७ तक (१०) मांझ, त्रोटक, कुंडलिया, कवित्त २२७ तक हन्दव छन्द, अज्ञानता को अंग, विश्नपद, विविधरागिनियों के पद ।
[स्थान- अभय जैन ग्रन्थालय]
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सुखमनी समाप्तम् । लेखनकाल १८ वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार-पत्र ३५। पंक्ति १५, १६॥ अक्षर २५ साइज ४
[स्थान-अभय जैन प्रन्थालय, बीकानेर ] (६) पद-संग्रह । इसमें कबीर, मोरां, सेवादास, नामदेव, जनहरिदास, तुलसी, सूर, साधूराम, नंददास, माधोदास, आदि अनेक कवियों के पदों का विशाल संग्रह है। पत्र १८६ तक विविध कवियों के तथा उसके बाद केवल रामचरणजी के दो पद हैं। उनका एक पद नीचे दिया जाता हैपादि
मज रे मन राम निरंजण कू', जन्म मरण दुख भेजण कु। अर्धनाम मिल सादर पायो रामचन्द्र दल त्यारन कों ॥१॥ जल दृबत गज के फंद काटे, अजामेल अध जाग्न । राम कहत गिनका निस्तारी, जुरा जग अधम 'उधारन कुं ।। ऊंच नीच को भांति, न राखे । शरणा की प्रतिपालन कुं। रामचरण हरि ऐसे दीरघ,
श्रीगुण घणां निवारण कु॥ लेखनकाल-२० वीं शताब्दी । प्रति-पत्र २३६ अपूर्ण । पंक्ति १२ । अक्षर ४० । साइज १०x४॥
[ स्थान-स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह ] (७) मोहनदासजी की वाणी । रचयिता- मोहनदास ।
लेखनकान- संवत १८८२, माघ सुदि, ४ शुक । आदि
नमो निरंजनराय, नमो देवन (के ) देवा । निराकार निर्लेप, नमो अलख अमेवा ॥
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(३८)
नमो सर्वव्यापीक, थूल सूधिम सब माही । नमो जगत प्राधार, नमो जगदीश गुसाई ॥ सचराचर मरपूर हो, घाट बांधि नहिं कोय । मोहनदास वन्दन करे, सदा पाणंद घन तोय ॥१॥
झूठी छोडी खेंचा ताणी, मोहन करों हरी सों नेह ॥ ४३ ॥ लिखितं रामजीनाथ पठनार्थ । प्रति- गुटकाकार । पत्र १५१ । पंक्ति है । अक्षर १६ । साईज ६४४ । विशेष- अंग, शब्द, सवैया, रेखता, श्रादि सबका जोड २००० लिखा है।
[स्थान- स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह । ] (८) मोह विवेक युद्ध । रचयिता- लालदास । रचनाकाल-संयन १७६७ से पूर्व । फागुनसुदी ६। प्रादि
श्रादि अन्त अमृत ए स्वामी, एई अविगत है अंतरजामी । सकल सहज सम सदा प्रमान, सुख सागर सोई साध समान | सकता साथ गुरां के पग पगैं, रामचरत हिरदै पर धरौं । गुरु परमानंद को सिर नाऊं, निर्मल बुद्धि दै हरि गुन गाऊं ॥६॥ मन क्रम वचन प्रथम गुरु, वंदौं कल्पदत्त अक संत ।। सुफ नारद के पग परौं, प्रगटै बुद्धि अनन्त ॥७॥ तुम ही दीन दयानिधि रामु, होहु प्रसन्न प्रेम मुखधाम । होहु प्रसन्न देहु मत सार, जानों मोह विवेक विचार ॥ ८ ॥
अन्त
लालदास परकास रस, सफल भये सब काज । विष्णु भक्ति आनंद मस्यौ, अति विवेक कै राजि । तब लगु जोगी जगत गुरु, जब लग रहै उदास ।
सब जोगी श्रासा लग्यौ, जगगुरु जोगीदास ॥ इति मोह विवेक का जुद्ध संपूर्ण ।
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(३)
प्रति-पत्र-।।। पंक्ति-११ । अक्षर-३४ से ४० । साईज १०॥४५
[स्थान-अभय जैन मन्थालय, बीकानेर ] (8) योग चूडामणि । पद्य १८५ । रचयिता-गोरखनाथ ।
अथ गोरखनाथजी कृत योग चूडामणि लिखसे
आदि
सुनजो माई सनजो बाप, सूत निरंजन पापो श्राप । सून्य के भये अस्थीर, निहचल जोगिन्द्र गहर गंमीर ॥ १ ॥ अकू चंकू चिया विगसिया, पुहासिधरि लागि
__उठि लागि गधूवा । कहै गोरखनाथ धुवा ऐसा घडिका, परचा जाणे प्राण ॥ २ ॥
अन्त
पंथ चालै तूट, तन छीजै तन जाइ ।
काया थी कल्लु अागम बतावै, तिसकी मटौ माह ॥ ८५ ॥ इति गोरखनाथ की सार्ख समाप्ता । प्रति-पत्र- ११ । पंक्ति १३ । अक्षर ३० करीब । साइज १०i x५ विशेष-कई पद्यों का भाव बेड़ा ही सुंदर है। यथा
गोरख कहै सुणो रे अवध, जगमे इसि विधि रहणां । अख्यिा देखवा काना मुणिमा, मुखि करि कछुन कहणां ॥४६॥
दंडी सोई जु पापा उंद, धावत जाती मनसा खंडै । पांच इंद्री का मरदै मान, सो दंडी कहियो तत्व समान ॥५०॥
x
उनमन रहिवा भेद न कहिवा, बोलिया अमृत वाणी । भागिला आग होगा तो, श्राप होइबा पाणी ॥४७॥
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर, ]
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(१०) अथ ग्रन्थ श्रवंगसार लिख्यते--
कुंडलियासतगुर पुझि परि महरि करि, बगसो बुधि विचार । श्रवंगसार एह पन्थ जो, ताको करूं उचार । ताको कर्म उचार सतसिव साखि ल्याऊ । उफति अकति परमाण ओर अति पास सुनाऊ । नवलराम सरणै सदा, वृम पद हिरदै धारि ।
सतगुर मुझि पर महरि कर, वगसो बुधि विचार ॥ खंडसंत विचार ब्रह्म गुरु संत निरूपण, पयं ७८
गुरु मिलाप महिमा शब्द १५८ गुरु लस्वरण निरूपण शब्द २६२
१३ वाँ उसमें भक्ति निरूपण शब्द १०६८२ रचने दशम प्रनि-पत्र ३८ अपूर्ण । पंक्ति १७ । अनर ४८ से ५४
[स्थान-अनृप संस्कृत पुस्तकालय (११) सन्तवाणी संग्रह
सूची(१) गोरग्वनाथजी की शब्दो २२४ । (२) दयालजी हरि पुरसजी की साखी- ३१८ अंग, ३५ श्लोक, ४ कुड
लिया, १११ अंग, २५ चंद्रायणा, ६४ अंग, १४ कवित्त, ६ पद, २०६ राग, २२ रेखता पद, ८ राग, १ कडरया, १३१ राग, २ पद
रेखता कडरवा, सर्व ३१७, राग २४, ग्रंथ ४७ । (३) श्री स्वामीजी हरिरामदासजी की बाणी-दहा-कुण्डलिया, छंद,
चौपई, रेखता पद, अरिल्ल सर्व ८४६ । महमा का मनहर छंद १ ॥ (४) श्री स्वामीजी श्रीआत्माराम जी की कुंडलिया, ३३ चंद्रायणा,
७ रेखता, ४ शब्दी, २ पद, १४ मनहर, १ ईदव, २ साखी, १३ गौपई, सर्व ७७१ ग्रंथ, अवंगसार का शब्द । ३८६३ । विध्यन ४१ ।
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(५) कबीर साहिबजी की वाणी- ५१ अंग, ७० पंथ, रैमणी १५, १
फूलना, ६०२ पद, २४ राग । (६) नामदेवजी की साखी १०, पद १६१, १६ राग । (७) रैदासजी की साखी ७०, ८४ पद, १३ राग । (८) पीपाजी की साखी ११. पद २१, राग । (1) गुसाई जी श्री तुलसीदास जी को कृत साखी, चौपई, सोरठा,
४२१४ परिकम २०० ग्रंथ ४, पद ४६०, ३० राग, ३० श्लोक, १०
शब्दी । (१०) जोगेश्वरा की शादी ३२७, २ ग्रंथ, ६ पद, योगेश्वरों के नाम
१ मछिंद्रनाथजी, २ गोरखनाथ जी, ३ दत्त जी, ४चर्पटजी, ५भरथरी, ६ गोपीचंद, ७ जलंधीपावजी, पृथ्वीनाथजी, १ चोरंगनाथजी, १० कणेरीपावजी, ११ हाली पावजी, १२ भीडकीपावजी, १३ जती हणवंतजी, १४ नाग अरजनजी, १५ सिध हरतालीजी, १६ सिध गरीबजी, १७ धूधलीमलजी, ८ बालनाथजी, १६ बालगुसाई जी, २० चुणकनाथ जी, २१ चंद्रनाथजी, २२ चतुरनाथजी, २३ सोमनाथजी २४ देवलनाथजी, २५ सिध इंडियाईजी, २६ कुभारीपावजी, २७ मुकुंदभारजी, २८ अजैपालजी, २६ महादेवजी, ३० पारवतीजी, ३१ सिधमाजीपावजी, ३२ सुकलहंसजी, ३३ घोडाचौलीजी, ३४ ठीकरनाथजी, ३५
इति । ४५ । सिध का नांव-प्रेमदासजी कौ ग्रंथ-सिध वंदना । ४६ दत्तस्तोत्र, श्लोक १०। ४७ सुखा समाधि, ४८ महरदानजी, कल्याणदासजी का पद १०, राग ४, जगजीवणजी का ग्रन्थ २, चंद्रायणा १५, पद ५६, राग ६ । ५० । ध्यानदासजी का प्रन्थ २ (५१), दादजी का पद ३७, राग १६ (५२), वाजीदजी को ग्रन्थ १, माखी १७,
जखडी ५। पद मंग्रह-रामानं (द) जी का पद २ । अासानंदजी को पद १, सुखानंदजी
का पद २, कृष्णानंदजी का पद ३, ब्रजानंदजी को पद १, नेणादास को पद १, कमालजी का पद २, रेखतो १, चवदासजी को पद १, अप्रदासजी का पद २, नंददासजी को पद १,
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(
४२
)
प्रेमानंदजी को पद १, माधोदासजी का पद १, बालश्रीकजी का पद २, पृथ्वीनाथजी कापद २, पूरणदासजी का पद २, वनवकुठजी को पद १, जनकचराजी को पद १, मुकुदभारथीजी का पद २, व्यासजी को पद १, रंगीजी को पद १, अंगरजी का पद २, भवनाजी का पद ३, धनाजी का पद ३,कीताजी को पद १, सधनाजी का पद २, नरसीजी का पद २, सनजी का पद २, ग्रंथ १,प्रसजाकी साखी ५,किवत ४, पद ५, तिलोचनजी को पद १, ज्ञान निलादक जी का पद १, बुधानंदजी का पद १, राणाजी का पद २, मीहाजी को पद १, पीथलजी को पद १, छीनाजी का पद २, नापाजी का पद ११, विद्यादासजी को पद १, सांवलियाजी को पद १, देवजी को पद १, मतिसुन्दरजी को पद ५, सोमनाथजी को पद १, कान्हजी का पद १०, हरदासजी का पद ५, बखतांजी का पद २, संदरदामजी का पद ३, दासजीदास का पद ४, जैमलजी को पद १, केवलदासजी का पद २, जनगोपालजी का पद १३, गरीबदासजी का पद १, नेतजी का पद ३, परमानदजी का पद ६, सूरदासजी का पद १६, श्रीरंगजी का पद २, जनमनोहरदास का पद १, बिहारीदासजी को पद १, सोमाजी का पद ७, शेख फरीदजी का पद २, ईसनजी को पद १, माह हुसैनी को पद १, वहलजी का पद ४, शेव बहावदीजी का पद ४, काजी महम्मदजी का पद १६, मनसूरजी का पद १, झूलगौ १, सेवादासजी का सवैय्या ४, कुंडलिया २, पद ४५, प्रल्हादजी का पद ५, फुटकर पद २६, मर्व पद २६२, संत १२०, लघुतानाम ग्रंथ, टीकमजी का सवैया १०, अनाथ कृत विचारमाला का शब्द २०६, ग्रन्थ : (सं०१७२६ माधव )। हरिरामकृत दयाल जी हरिप्ररमजी की परची का शब्द ३६. गोपालकृन ग्रंथ प्रल्हाद चरित्र २४४, दोहा ३७, चौपाई २०१, छंद ६ । जनगोपाल कृत ग्रन्थ जडभरथ चरित्र शब्द ६२, रामचरण कृत ग्रन्थ चिंतामणी शब्द १२७, दोहा २५, चौपई १००, सोरठा २, सतपुरसां का नाम १२७ । लेखनकाल-संवत् १८५६, वैसाखवदी · शनिवार लिखी परवतसर मध्ये स्वामीजी श्री बालकदासजी तच्छिष्य हरिराम शिष्य
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आत्मारामजी शिष्य खानांपाद रामसुखदास । प्रति- गुटकाकार-पत्र १०६ । पंक्ति १७ से २०। बशर २६ से ४२ तक साइज ||४५
[स्थान- स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह ] (१२) संतवाणी संग्रहश्रादि
__ पहला पत्र नहीं है, २ से ५४ तक है, फिर ६२८ मे ६८५ तक के पन्ने हैं अंत के ६७७, ६८०, ६८१, ६८३, ६८५ के नहीं हैं, अंत में सूची का पहला पत्र नहीं। पीछे २ पत्र हैं. अर्थात गुटके के बीच का हिस्सा कहीं अलग रह गया है। प्राप्त प्रति से इन रचनाओं के नामादि का पता चलता है। उनकी सूची इस प्रकार है
१ गुरुदेव को अंग पद्य १७० पत्रांक ४ अ
अंत
जन सेवदास सतगुरु . इहा, गरवा गुण अछेह ।
मुवति करें गुर पलक मैं अभै उमर पद देह ॥ १७० ॥ २ गुर ( सिख ) पारिग्व को अंग पद्य ६० जनसेवादास- पत्रांक ५ ब
,, १७ अ
१८ ब
१८
१
३ सुमिरण के अंग पद्य ५०५ ४ विरह के अंग पद्य ५० ५ बानविरह अंग पद्य १० ६ परचा के अंग पद्य ७७ ७ सजीवन के अंग पा ३० ८ वीनति को अंग ,, ६६ ६ जरया को अंग ,, १० साध को , ,,३३० ११ साध महिमा को अंग पद्य १६ १२ साधु संगति , , ४६ १३ साध परिख , , , २५
,, २० य
२६
श्र
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(४४)
१४ धीरज को अंग पद्य १५ जीवित मृतक को अंग पथ २५ १६ दया के अंग पद्य ३४ १७ सम किटी अंग पथ .
,,३० ब , ३१ भ
"४६
१६ चाइनिक , , २० चिंतावणि , , ३४०
,४१ ब २१ मनको
, १२६ २२ माया को अंग पद्य ७० २३ सूखिम माया बंग पद्य २४ कामीनर को , , १०० २५ लोभी ,, २६ किरपाण नर ,, २७ कासको
,, ४२ २८ सुरातन , , ' कुल पद्यांक २४६४
पहा १२१ के बाद त्रुटित इसके पश्चात पत्रांक २८६ तक कौन २ से अन्य थे, पता नहीं चलता, पर सूची से पत्रांक २८७ से ६८५ तक में जो ग्रन्थ थे, उनकी नामावली नीचे दे दी जारही है। सूची के २ पत्रों के नीचे का कुछ अंश टूट जाने से कई प्रन्थों के नाम प्राप्त नहीं हो सके। पत्रांक
पद्यसंख्या १ वारजोग ग्रन्थ २ हंसपरमोध ३ बडी तिथि जोग २८६ ४ लहुडी तिथि ५ चालीस पदी जोग ६ वषदा पदी , ७ तीस पदी , ८ बारा पदी ,
प्रन्थनाम
२६०
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( ४
)
६ बावनी
२६३ १२ १० सूर समाधि ,
२६५ ११ , , , की अर्थ
२६६ २० १२ नृवर्ति प्रवृति जोग
२६६४२ १३ माघो छन्द जोगप्रन्थ
२६७ १ १४ जोगमूल सुख , ,
२६७ ४० १५ ज्ञान प्रज्ञान परिख .,
२६६ पद भिन्न भिन्न रागों के पत्र २६६ से ३२० में है इसके पश्चात् पत्रांक ३२१ से कवित्त १६, कुलिया १११, चंद्राइण ६४, साखी ३१४, श्लोक स्तुति ४, फुटकर शब्द २-२ ध्यानदासजी का प्रन्थ ३४३-२ स्वामी हरिदासजी की प्रति ३४५-३४८
(पत्र ३५३ तक) इसके पश्चात् पत्रांक ३५४ से गोरखवाणी स्वामी गोरखनाथजी की वाणी१ गोरखबोध
३५४ २ दत्त गुटि
३५८ ३ गणेश गुटि
३६० ४ ज्ञानतिलक . ५ अभै मात्रा
६ बत्तीस लछन ७ सिद्धि पुराण ८ चौबीस सिद्धि ६ आत्मबोध १० षडचिरी ११ रहरासि
३६३ १२ दयाबोध
३६३ १३ गिनान माला
३६४ १४ रोमावली
३६४
३६२
३६२
३६२
३६३
३६३
३६३
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३६५
२४
३६६
३७०
३७३
३७६
३८२
१५ पंचमात्रा १६ पंच प्रगति १७ तिथि जोग १८ सदा बार १६ बारनौ पत्र का किनारा टूटने में कई अन्थनाम नष्ट२० बखै बोध २१ निरंजन पुराण २२ राम बोध २३ अवसि-श्लोक २४ पद राग पासावर सबदी१ गोरखनाथजी की सबदी भरथरीजी चरपट गोपीचन्दजी जलंधर पाषजी प्रिथीनाथ चोरंगीनाथ करणेरीपाव हालीपाव मीको पाव इलवंत नागाश्ररजुन सिद्ध हरताली सिद्ध गरीब सिद्ध धूधलीमाल
३८८ ३१८
३६१
३८१
३६८
૨૯૨ ३१२ ३६३
३६३
३६३
३६३
३६३
३६४
३६४
३६४
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६५
x 68 x am
पाल गोवाई
३६४ भोपाल चौखकनाथ
३६५४ दैदलनाथ महादेव
३६५ २० पारवती
३६६ ..........."जी की सबदी
३६६ ......"जी की सबदी
,३६६ ........"जी की सबदी
३६६ पत्रके किनारे टूटने से कई नाम नष्टपीपाजी की वाणी
४२२ रामानंदजी का पद रामरक्षा
४२५ जगजीवनदासजी
४२६ साध को ब्यौरी
४३७ गुसाई तुरसीदासजी कृत
पत्र ४३६ से गुरुदेव को परिकरनादि
४ ग्रन्थ ५४३ पद विभिन्न रागों के पत्रांक
५६५ तक महापुर्णा का पद सवैया रेखता कवित्त
६१४ আৰু স্কী ৰাষী
६१६ जन्मबोध पत्रका की रमेणी
६२५ परचई ( रमणी ५ पद्य १८५) नामदेवजी की प्रचई
६३०
(अनंत कुत) तिलोचंद
६३५ कबीर
६३२ रदास
var
११७ से
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६७५
कबीर अरु रैदास संवाद (सैनाकत ) ६४२ सुख संवाद (खेम)
६४४ २०६ हरिचंद सत (ज्यानवास)
६५० धूचिरत (जनगोपाल)
६५७
२२४ प्रहलाद चिरत ( जनगोपाल)
६६३ १८८ जरपरथ " "
१०४ विचारमाला (सखनाथ १७२६)
६७० नावमाला दत्तस्तोत्र (शंकराचार्य)
६७४ ब्रह्म जग्यासा , फरीदजी का परितनाम खेमजी की चितावनी
६७७ कबीरजी का प्रन्थ
६७८ (चितावणी, बत्तीसी) राममंत्र गुन श्रीभूलना
६७६ उतपति नामा
६८० अस्तुति का पद सेवजी प्रिथीनाथजी का प्रन्य साध प्रच्छा भक्तिब
६८२ नामदेवजी की महमा
६८४ गोरखनाथ का व्रत अस्तुति का सबद साखी
६८५ किवत सबईया इति बीजक सर्व बाण्या को संपूर्ण प्रति परिचय पत्र ६८५६०३५, १०२४,
(कुल अन्य ३६०००)
[स्थान-मोतीचंदजी खजांनी संग्रह ]
६७६
६८२
६८५
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(४६
)
(१३) समनजी की परची
पादि
साधू पाये भागमतें पुहमी किया सोन ।
ठौर ठौर बूझत फिरत समन का घर कोन ॥ १ ॥ प्रति-पत्र २ अपूर्ण, पय ४७ तक
[ स्थान-स्वामी नरोत्तमदासजी के संग्रह से ] (१४) साखी
मण्य
नाथ
ओर हमारी रक्षा कार सोभा भी पावेगा पर हमारी कीर्ति गायेगा जो ए हमारा वालिक है। अब उनका ए कैसे त्याग करेगा। जो इसमें किहो का कमान के उनका त्याग कर दिया. फिर निंदा तो इसको नहीं वपती, एक तो हम निंदा द्वारा सोभा न पाएगा, और लोक भी इमको भला न कहेंगे और पाव भी इसको भारी होवेगा।
ब्रह्म तो श्राप सर्व जाण प्रवीन हैं, ऐसे खेद में संसार को रचकै फिर प्रवेश क्यों किया, जिसे संसार किये जन्म मणे दुःख हैं और रोग, दोस शरीर की पीड़ा के दुख है और अनेक प्रकार के हुए है ।
पत्र ३५ से ७३ त्रुटित, मध्यपत्र पंक्ति १२ अक्षर ३०
[ विद्याभवन, रतन नगर ] (१५) ज्ञानबत्तीसी-रचयिता-कधीरजी
श्रादि
अथ ज्ञान बत्तीसी लिख्यते । अवधू मेरा राम कबीरा उदभुत अजर पायाला पीया ।
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अहे निरा कथा गंभीरा । । अगन मोम सुं चालकर अोछा, मैं अवगति का ऐधी । पणमे तरक करू तलवाना चौहौरि नर राखी बांधी ।
कहै कबीरा मसतफकीरा लीया सार फटकाई । .
निरमै झंडा जरि को भूषण संधै संघ मिलाई ॥ प्रति-छोटीसी गुटका पत्र ६ से १६, पं०६, अ० १६, साइज ४|| ३
[ स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ]
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(ङ) वेदान्त (१) अवधू कीरति ।
अथ अवधू कीरति लिख्यते
दोहा भूव वसु निश्चल सदा, बंधू माव दर जाव । स्कंध रूप जो देखियह, पुदगल तपउ द्विमाव ॥ १॥
जीव मुलक्षण हो मो प्रति मासियो अाज परिगह परतणा हो, तासों को नहीं काज कोई काज नाही परहु सेती सदा अइसौ जानियह । चैतन्य रूप अनूप निज धन तास सौ सुख मानियह ॥ पिय पुत्र बंधव सयल परियण पथिक संगी पेखणा । सम स्यउं चरित दैरहइ जीव सुलक्षणा ॥ २ ॥ असण वस्तु जु परिणवन सरण सहाइ न कोय ।
अपनी अपनी सकति के, सवै विलासी जोय ॥ ३ ॥ लेखनकाल-१८वीं शताब्दी प्रति-पत्र १ । पंक्ति १८ । अक्षर ४८ से ५८१ साइज १०४४।।
विशेष-केवल प्रथम पत्र प्राप्त है अत: ग्रंथ अधूरा रह गया व कर्ता का नाम भी अज्ञात है।
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ]]
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(
५२ )
( २ ) आत्म विचार-माणक बोध आदि
अथ माणक बोध लिख्यते मंगला एने करुणायतन सर्व कल्याणगु धाम ।
मन मानस सरहंस वतरग ! म ! ण करहु सियाराम ॥ ध्यान पूर्वक इष्ट देवता की प्रार्थना करे है
सवैया स्याम शरीर पीताम्बर सोहत दामनी जनौधन माहि सुहाई । सौस मुकट अति सोहत है धन उपर क्यों रवि देत दिखाई । कंठि माहि मणि मलवनी मानु नीलगिरि मांहि गंगजु भाई । मायक मन मोहि असो ऐसो नंद के नंदन फल कनाई ॥
टीका श्याम शरीर के धन की उपमा, फुरकता पीताम्बर कू दामनी की उपमासीस कूधनकी उपमा, मणि जटत मुकुट कू रवि की उपमा, कंठ रूप सिखर मू लेकरि वक्षः स्थल ऊपर प्रपति भई जो मोतियन की माला तांकू गंगाकी उपमा, वक्षः स्थल कू नीलगिरी की उपमा ।
अथ गग
ज्ञानवान के बाहुल करिके बहोत हो तो अहं तदि भ्रमको उदे नहिं होत है, क्योंकि उनके सदा ही स्वरूपानुमंधान को दृष्ट उपाय है अरु बाह्य प्रवृत्ति के उपराम है। अतः भ्रम है, ताने भ्रम को घणो सो अवकाश नाहि ।
अन्त
यमुना तट केलि करे विहरे संग बाल गोपाल बने बल भईया । गावत हैंक कवि वंसी बजावत धावत हैं कबहु संग गईया ॥ कोकिल मोर कीन नाइवे बोलत कूदत है कपि मृग की नईया ।
माणक के मन बहिन सो एसो नंद के नंद यशोदा के कई या ॥ इति आत्मविचार प्रन्थ मोक्षहेतु संपूरण समाप्तम् ।
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बैसाख पदी ५ सुक्रवार लखतं गांव भादासरमध्ये वैष्णु श्री चत्रभुजदासजी, लिखावतं श्रीखुदाइजी श्रीपरमजी स्ववाषनार्थम् सं० १६०२ श्रीरस्तु कल्याणमस्तुशुभं भूयात प्रति-पत्र ७५ । पं०१२। अ० ३० । साइजहाशा
[स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय]
(३ ) द्वादस महावाक्य । रचयिता-प्रज्ञानानंद । पद्य १२१ ।
पादि
मीमांसा प्रतिपादक कर्म विन करनी सर्व वाते मर्म । देह वीच सौ करै म पाय, मीमांसा धैसे ठहरावे । विन बोये कैसे फलपावै, विन खाये कोऊ न अधावै ॥१॥
म-य
वेद वेद प्रति है पद तीन, तिनको अरथ मुनी प्रवीन । द्वादश महावाक्य सिंघात, सुनित ही जाय वीजकी भांति ॥३१॥ ग्रेह लैयो रपवेद सुनायौं, प्रधानानंद ब्रह्म कहि गावै । तीन पद रघुवेद वखान्यो, प्रज्ञानानंद ब्रह्म सत्य करि मानौ ॥३६॥
अन्त
सोहं रुपा सर्व प्रकासी, कवल अज सुक्रिय | अविनासी श्रेक साचो पायो, अर्थ विवेकी जाने सही ॥१२१॥
इति द्वादस महावाक्य ममाता ।। ( उपरोक्त गुटके में पत्रांक ५१ से ५६५ )
नोट-इस गुटके में अक भगवानदास निरंजनी रचित अमृतधारा, अनाथकृत बिचारमाला, कथीर की साखी, जगजीवनदासजी की बाणी, चतुरदास कृत भागवत अकादश स्कंध भाषा, तुलसीदाम ग्रंथ संग्रह, लालदास कृत इतिहास भाषा, मनोहरदास निरंजनी रचित ज्ञान मंजरी (पद्य ४०४), वेदान्त महावाक्य, ज्ञान चूर्ण वचनिका, शत प्रश्नोत्तरी, ग्रंथ चतुष्टय, सुंदरदास कृत ज्ञान समुद्र के अतिरिक्त निम्नोक्त संतों के पद हैं
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पीपाजी के पद १७, गुसांई रामानंदजी के पद २, आसानंदजी का पद १, कृष्णानंदजी के पद ४, धनाजी २, सैनजी १, फरीदजी का पदित नामा, भरथरी पद
लेखन काल-गुटका-संवत् १८२२ से १८२५ में लिखित पोकरणा व्यास मोहन, निरंजनी स्वामी मयाराम शिष्य भगतराम के पठनार्थ ।
[स्थान-स्वामी नरोत्तमदासजीका संग्रह ] ( ४ ) ब्रह्म जिज्ञासा । रचयिता-शंकराचार्य ( ? ) आदि
ओम् ब्रह्म श्रेक सुभ चेतन । माया चेतन । जड़माया ब्रह्म को संजोग जैसे वृच्छ की छाया। वृच्छ सर जीव माया सरजीव नाही। वृन्छ विना छाया होय नाहि । माया की अोट ब्रह्म नाहि सृझे। ब्रह्म की ओट माया नाहि सूझे। ब्रह्म माया को असी संजोग।
अरट घट का न्याह । कुलाल चक्र न्याइ ।। जम चक्र न्याइ । कीटी भ्रग न्यांइ। लोहा चंधक न्याइ । गलफी ध्यान न्याइ । । इसि ब्रह्म माया को निर्णय । पिंड ब्रह्मण्ड को विचार । परमहंस गिनान ।
इति शंकराचार्य विरचित ब्रह्म जिज्ञासा संपूर्ण । प्रति-(१) पूर्ण । पत्र । पंक्ति ८ से १२ । अक्षर २२ । साइज ||४||
(२) अपूर्ण-गुटकाकार । स्थान-प्रति (१) अनूप संस्कृत लायब्रगे।
, (२) अभय जैन ग्रंथालय।
( ५ ) ब्रह्म तरंग । रचयिता- लछीराम । पद्य ६१ । आदि
मोख लहन को मग यहै, सब तजि सेवो संत । जिनके वर प्रसाद, इजत अलख अनंत ॥ १ ॥
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लखीराम यह कहिये काही । नानारूप सु पवनही पाही । त्यों सब जगत अकेलो धापू ।
आयु कहे जग लागे पापू ॥ ६१ ॥ लेखनकाल-संवत् १७८४ । प्रति- गुटकाकार।
[स्थान- कविराज सुखदानजी चारण का संग्रह ] ( ६ ) योग वाशिष्ठ भाषा । रचयिता-छजू ।
श्रादि
आदि के पत्र नहीं हैं।
अन्त
गहज भने मन भावही, उपजे सहज विचार । भाषा जोग वाशिष्ठकी, मून दिखावै सार ॥ १ ॥ जन्म मरया ते छूटही,सब दुख कबहु न होइ ।
सह जि तत्व पिछानिये, हरि पद पावै सोह ॥ २ ॥ इति श्री जोग वाशिष्ठ भाषा छजू क्रिति दसमोण्यायः ।। प्रति- पत्र २ से २५ । पंक्ति ७ । अक्षर २५ । साइज 1 x ३||
[स्थान- अभय जैन ग्रंथालय } ( ७ ) वेदान्त निर्णय । रचयिता-चिदात्मराम । गद्य । आदि
प्रनम्य परमात्मानं सदगुरु चरण नमामिहं । त्रिधा पद निर्णयं च बुद्धया अनुसार रंच प्रोक्त ।। प्रथम प्रम सुन्यं निरलंभ वट बाजस्वयं ब्रह्मा
अद्वैत्या तां ब्रह्माश्रिता माया गुणस्यां । माया ते अति शूक्ष्म है गुणस्यांम माया का है ते कहिये जाविषैतीनि गुण
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समान है । ते गुण कौन कौन - सतगुण, रजगुण, तमगुण, ता माया विसै समि है तीन गुण तातें स्योम माया कहिये ।
अन्त
अमरं करं अचलं श्रकल्पं अचलं श्रारोग्यं श्रगाहं अकाटं मनो वाचा गोचरं । इति असी पद निर्णय | स्यामवेद वचन प्रमाणं। श्री गुरु सिख सौं । इति श्री चिदात्मराम विरचितायां त्रिपद वेदांत निर्णय संपूर्ण । लेखनकाल - संवत् १८२५ भादवा सुदि ९४ रविवारे लिखितं । प्रति-गुटकाकार | पत्र ३३ से ५० ।
[ स्थान- स्वामी नरोत्तमदासजी का संग्रह ]
आदि
अन्त
( ५६ )
८ ) पट शास्त्र |
आदि
परमातम को करो प्रणाम । जाकी महिमा है सब ठाम । प्यार वेद षट शास्त्र भये । अपनी महिमामें निर्भये ॥
योम नहीं नर कोम वत, परम हंस सब ठौर । अन्दर बाहर अस परे, बली नहीं कोइ और || लेखनकाल- संवत् १७८०
[ स्थान- सुराणा लायब्ररी चूक ( बीकानेर ) ]
( ६ ) ज्ञान चौपई । पद्य--६७ |
गुरु गोविंद गौरीश कौं, गनपति गिरा मनाय |
करौं प्रनाम कर जोरि के, सबके लागौं पाय ॥ १ ॥
चौपई कोविद नाम करि स्थ्यौ खेल करि ज्ञान |
भ्रमै मूढ़ परि खेल में खेलै चतुर सुजान ॥ २ ॥ मन बुद्धि वित श्रहंकार, पासे डारि विचारि के ।
लखिस्यु पंथ पग धार, खेल जीति घरको चल ॥ ३ ॥
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(
५७ )
रज तम टारि प्रयास करि, तन पासो दे छारि । चलो जीत घरफौं अवै, हरि सर्वत्र निहारि ॥ ६७ ॥
चोप उ ( र १) घर द्वेषात की पापो, पूर्व पुन्य प्रकास समाप्त। लेखनकाल-संवत् १८४१ कार्तिक कृष्णा ७ भौ' ( म ) वासरे शुभम् । प्रति-पत्र ६ । पंक्ति ६, १०। अक्षर २५। साइज ७ix ४||
विशेष-ग्रन्थ का नाम सष्ट नहीं है। पत्रों के हामिये पर 'ज्ञान' शब्द लिखा है और ग्रंथ के प्रारंभ में चौपई का उल्लेख है अतः इसका नाम ज्ञान चौपई उचित समझ के लिखा गया है।
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ]
(१० ) ज्ञानसार । रचयिता-रामवि । मं० १७३४
आदि -
हंसवाहिनी सारदा, गनपति मति के धाम । बुद्धि करन वकसन उकति, सरन तुम कवि राम ॥ १ ॥ गुर गोवरधन नाथ पुनि, तारन तरन दयाल । उनही के परताप करि, लही बुद्धि यह माल ॥ २ ॥ करम कुल वरनौं सुनो, कुल्लि(बुद्धि) कुली सिरमौर । सूरज के परताप मैं, ज्यों दीपक कुल और ॥ ३ ॥ प्रथीराज सुवपाल के, भीष भीव समि जानि । तिनके श्राहाकरन मया, धरम मूल गुन जानि ॥ ४ ॥ राजसिंघ तिनकै भए,पृथ्वीपाल भुवपाल । परिहरन करनी करनत्र, विप्रन को धनमाल ॥ ५ ॥ गउ विप्र को दास पुनि, रामदास वलि वंड | फतेसिंघ तिनिके भए, लए ऊडंडी डंड ॥ ६ ॥ श्रमरसिंघ तिनिके भए, सुहर धीर सरदार । नउ खंड महि मै प्रगट, पूरौ सार पहार ॥ ७ ॥ जगतसिंघ जगमें प्रगट, जगतसिंग बसि वंड ।
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डिल्लीपुर सौ रोपि पग, करी खडग की मंड | ८ || तिनके श्रानंदसिंध भए, सूर दानि गुन जानि । गउ विप्र के पास पुनि, गहे वेद की वानि ॥ ६ ॥ गोपाचल नल दुर्ग प्रति, सुतों राइके थान । कुलदेवत युटवाइ पुनि, रघुवंसी जग जान ॥१०॥ श्रब कविकुल वरनन सुनौ, ताको कहै विचार । जोधा जोसी प्रगट महि, वेद कम गहै सार ॥ ११ ॥ तिनके जोसीदास मय, धरम तनौ अवतार । चलै वेद विधि को गहै, श्रांक तिनि पुनिवार ॥१२॥ तिनके मृत गोपाल भए, दांनि जानि जसवंत । रीति गहै सत जुगत नी, हरि चरनिनि मे संत ॥ १३ ॥ हरिजी पातीराम भट्ट, तिनके सत मतिधीर । क-रनी कर'वतनी करै हरे और के पीर ॥ १४ ॥ हरिजी के सुत प्रगट महि तास नाम कविराम ।। देहि देहि लागी है, ताकै श्राठी जाम ॥ १५ ॥ ब्रह्मपुरी सम स्यौपुरी तिहां विप्रको धाम । रूपवंत जराह पनि, न म विष कविराम ॥ १६ ॥ निनि अपने बुद्धि बरा प्रगट, म्यानमार किय सार । क्यों द करि नचियोभीया, चौरासी की धार ॥ १७ ॥ गावन की मति मममी, बार बृहस्पतिवार । शत्रहमै चौतीम मग, ग्यानसार तत्मार ॥ १८ ॥ पठन गुनत पनि सनत , मारग मक्ति विचार । गम मिलन को गम किया, म्यानसा-र निजमार | |
अन्त
ग्यानसार निजसार है, कठिन खट्ग की धार ।
रामकहें पगधार धरि. धार कहे जै पार ॥ २२ ॥ सुर-नर-नाग मजस्नवर, सुनौ वात इकसार । राम पार पहुंचाइ है, सनि यर उपति पार ॥ २३॥
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इति श्रीग्यानसार संपूर्ण।
प्रति-गुटकाकार-पत्र ३०, पं० १७, १० ११, कई पत्र एक तरफ लिखितसाइज ६x६
[ स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] समसार । रचयिता-रामकवि । संवत १७३५
श्रादि
सारद गनपति मतिदियन, सिधि बुधि दियन सपूर । कृपाकरछ कीसुनो, ग्रन्थ निवांचे कूर ॥ १ ॥ काल वंचनी कालिका, कुलदेव्या वलि वंड । गुरु गोरधननाथने, फरी बुद्धि की मंड ॥ २ ॥ श्रमरपुरी मी सिवपुरी करम अमर . नरेश । जगतसिंह हीरा भयौ, औरग कसियो जेसु ॥ ३ ॥ जिनके श्रानंदसिंघ भए, धरममूल जसवंत ।. गम कहे अरि दल्न दलन, स्वर्गदानमै-संत ॥ ४ ॥ निनि के विप्र गुपाल मुनि, नाकै है मुत जानि । हरिजी पानीराम पुनि, गहै येद की वानि ॥ ५ ॥ हरिजी के सत प्रग? महि, विप्रराम मतिधाम । यहीं वरन पानन करन, चौसठि बाठी जाम || || निनि बुधि बन्न करिक कथ्यौ, ममैमार निजसार । राम किसन अवतार के समाए कई अपार ॥ ७ ॥ श्रगहन की मुनि अष्ठमी, कर वग्नान रजनीस | सत्रहसे पैतीस भय समेसार निजसार ॥ ८ ॥ कविकोविद परवान' सब, देखें करि सुविचार । राम कहै समझो मौया, समसार निजसार || ६ | रामकिसन अवतार के, समऐ कहै विचारि । राम नाम यात धयौं, समसार निजसार ॥१०॥
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अन्त
( ६० )
जानि जानि सब जानि है, या कौ सुनौ विचार । सबै सबै के अंग सुनि, समैसार निजसार ॥ ३ ॥ विचार |
सुनिसार ॥ ८४ ॥
राम दोष जिनि दीजियो, सुणिन कयौ
समये सगरे जानि है, ममैसार
इति समैसार संपूरन ।
प्रति- गुटकाकार | पत्र ३१ से ५६, पं० १४, अक्षर ११,
वि० राम कृष्ण, गंगाजी का वर्णन है। साइज ६ x ६ ( पूर्व ३० पत्र
में ज्ञानमार भी इसी कवि का 1
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(च) नीति
( १ ) चाणक्य नीति दोहे । आदिप्रथम पत्र नहीं मिलने से दूसरे प्रस्ताव का ५ वां पद्य यह है:
धर्म मूल राजाम्दे, तप के करि ब्राह्मण कोई । वित्र जहां पूजे तहां, धर्म सनातन होई ॥ ५ ॥ धर्मष्टि राजा होत्रे, अथवा पापी होई । नीह पीछे सब लोक ही, राजा प्रजा सब दोई ॥ ६ ॥
अन्त
पंगी फल श्रम पत्र आदि राजा हंस हयराज । पंडित गज अम सिंह, ए थान भ्रष्ट शुचि राज ॥ ११ ॥
इनि चाणका नीति संपूर्ण ।
लेखन काल-लि. पं० धर्मचन्द मंवत् १६०७ मिगसर सुदी ७ विक्रम पुर मध्ये । प्रति-पत्र-२१५, पंक्ति-६, अक्षर-२४, माइज-६४४ ।
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( २ ) चाणक्य राजनीति भाषा । पद्य १२२, बारहट उमेदराम सं० १८७२ भादि
श्रीगुरुदेव प्रताप से सुकवि सुमत अनुसार । रचत नीत चाणक रुची, सब अन्धन को सार ॥
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स्वर ते नर भाषा कही, जो समझ सब कोय । ताके ज्ञान प्रताप ते, जाट पंडित होय ॥
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कवी उमेद सुखपाय के, दिन निस या सुख देत । राजनीत भाषा रची, विनयसिंघ नृप हेत ॥ ११ ॥ मंवत् हग रिष वसु ससी, मास पोष मध्यान |
सूरबार तिथ सप्तमी, पूरण मन्थ प्रमाण ॥ १२२ ॥ इति श्री बारहट उमेदराम कुन भाषा चाणिक्य संपूर्णम् । पत्र ३॥, पं० १८, श्र०५३, ले० २० शताब्दी।
स्थान-गोविंद पुस्तकालय ] (३) पंचाख्यान | काल-सं० (१८) ८०, मा० सु० ६ गुन । मेड़ता श्रादि
प्रथम चार पत्र न होने से प्रारम्भ त्रुटित है ।
परदेश में और सरब बात भली पै मब जाति देख सकें नहीं । जबलौं घर में पेट भरे, तब लौं बाहर निकरिये नही। परदेश को रहनो अति कठिन है। तेरी दृष्ट पत्नी तो गई और तू मकाम है। नयो व्याह करि जात कह्यो है। कुवां को पानी । बड़ की छाया। तुरत बिलोवना हो घृत । वीर को भोजन । बाल स्त्री। ये प्राण के पोषक हैं। अवस्था परमाग कारज कीजे तामें दोष नाही । यह उपदेश सुनि मगर अपने घर चल्यो ग्रह मांड्यौ। मनोरथ भयो। हां विसन शर्मा राज पुत्रिणि म कहीं। अमी विध नीति की है मो काहुको परपंच देखि ठगाइये नहीं। अरु तुम्हारी जै कल्याण होछ । निकंटक राज होहु । इति श्री हितोपदेश पंचान्यान नाम्ने प्रन्थे लब्ध प्रकामन नाम. पंचमों तंत्र ।
समंत असीये माघ सुदि, तिथि नौमि गुरु होहि । मारुधर पुर मेड़ते, गच्छ खरतर हित जोहि ॥ ४ ॥ पंडित बहुत प्रवीण अनि, लायक तपसी जानि ।
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पाठक पद धारिक प्रसिध, श्री आनन्द निधानि ॥ ५ ॥ तसु पद अंबुज रज जिसी, विषा कुशल विनीत । लोक कहत जयचन्द मुनि, लिख्यौ ग्रंथ धरि प्रीत ॥ ६ ॥ चतुर गंभीर उदार चित, सुन्दर तनु सुकमार । नाम भगौतीदास यह, कयौ लिख्यौ म विचार ॥ ७ ॥ वेद गोत को प्रामान, श्रोस वंस सिग्दार । परगट सचियादास को, सत जानत संसार || ८ || रवि ससि गिरि दधि गिरा, राम नाम अधिकार ।
तो लौ पोधी रमिक मिलि, चिरंजीत्र रहु सार ॥ ६ इति श्री पचाख्यान ग्रन्थस्य पीठिका ।
लेखन काल-या । लिखितु। अमरदास गांव-धावड़ी माह संवत् १९३६ रा भादवा वदि १२ बुधवार, पुख नखत्रे पोथी मुहूंता टोडरमल वचनार्थं । प्रति-१, पत्र-६० । पंक्ति-१५ । अक्षर-२०, ६।। ४ ।।
२ पत्र-४३ । पंक्ति-२६ । अक्षर-२८, साइज ६|| XE|
अन्त-इति हितोपदेश अन्य ग्बालेरी भाषा लब्ध प्रकासन नाम पंचमां पाख्यानं ।
[स्थान-अभय जैन प्रन्थालय ] ( ४ ) पंचाख्यान भाषा ( गद्य ) श्रादि
अथ पंचाल्यानरी बा ५ भाषा लिख्यते ।
श्री महादेव जिन के प्रमादत माधु पुरुष हैं तिनकौं सकल कारिज की सिध होय, कैले हैं श्री महादेव जिनके माथे चंद्रमा की कला, गंगाजी के फेन की सी रेखा लागी है । अरू यह हितोपदेश सुनें ने पुरप मैमकिरत वचन मांहि प्रवीन होय । नीत विद्या जाने ।
___ इहां बिसनु-सरमा राजपुत्रन सूपासीस दीवी अरू कही तुमारी जय होय, मित्र को लाभ होय । ऐसौ सुनि गुरु के पाय लागा। अपने नीति मारग में सुख सू राज कियो।
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( ६४ )
इति श्री लब्ध प्रकासन पंचम संत्र संपूर्ण । पंचाख्यान वारता संपूरणं ।
लेखन काल-संवत् १८५३ वर्ष मिति पोह वदि १२ दिने लिखतुं श्री विक्रमपुर मध्ये कौचर मुहता श्री लिछमणदासजी लिखायितं । श्रीस्तु । प्रति-गुटकाकार । पत्र-६० । पंक्ति-२४ । अक्षर-१५, साइज ७४१०
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ५ ) पंचाख्यान वार्तिक । रचयिता-यशोधीर । मादि
पंचाख्यानम्य शास्त्रस्य, भाषेयं क्रीयते शुभा । यशोधीरेय विदुषां, सर्व सर्व शास्त्र प्रकाशिका
यह हितोपदेश ग्रन्थ सुणे ते सर्व बालन में प्रवीण होई । सर्व बासन में विचित्र होई।
___ जो लौ श्री गोविन्दजी के वक्षस्थल में लिखमी रहे । जो लौ मेघ में विजुलता । जो लौ सुमेर दावानल मौं भूमंडल में विराजे । तो लौं श्री नारायण नामें करि कीर्तिकियो। लेखनकाल-संवत १७५०
[ स्थान-वृहद् ज्ञान भण्डार ] ( ६ ) राजनीति । पा १३० | श्री जसूराम कवि । १८१४ आसोज सुदी १, शुक्रवार ।
श्रपर अगम अपार गति, किन पार न पाइ । सो मोनू दीजै सकति, जै जै जै जगराय ॥ १ ॥
छप्पय
बरनी उज्जल बरन सरन जग असरन सरनी । करनी करुना करन तरन सब तारन तारनी ॥ सिर पर धरनी छत्र भरन सुष संपत मरनी । भरनी अमृत झरन हरन दुष दारिद्र हरनी ॥
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भावी त्रिस्त बप्पर बस्न, मौ मौ हरनी सकस भय । जगदेव पावि पानी असू, जै जग परनी मात जय ॥ ३ ॥
दोहा अय जग धरनी भात जय, दीजै पति अपार । करि प्रनाम प्रारम्भ करों, राजनीति विस्तार ॥ ३ ॥ जिन वषतन में पातमा, राजत पालमगीर । निन मखतन पैदा कियो, गुन गुनीयन गंमीर ॥ ४ ॥ मौलंकी जगमाल मृत, उदयासंघ अनेक । गुन दीनो तातें गुनी, बायो ग्रंथ विमेक ॥ ५ ॥ जैसे बेद बिरंचिको, अपरम दीये उपाय ।। गजनीति राजान क, से दर्द मनाय ॥६॥
छप्पय
प्रथम अंग भूषाल, राजरानी अंग दजै । तीजे राजकुमार, मंत्रि चोथे गनि लीजै ।। पंचमु साहिब अंग, अंग षट राउत मान । सातू रहित यत धंग, कवी अठ अंग बषान् ॥ जग जीत रीत जाने जगत विविध विवेक विचार का । जे करत सदा समरन जसू पाठ अंग परने म यह ॥ - ॥
पन्त
दहा
पदिय ते मालिम परत पानीति अनीति । जसूराम चारन कही, राजनीत की रीत ॥ २६ ॥ संवत नाम पठारसे, बरष चऊदन माह ।
बासौ मुदि नवमी युकर, गुन बरन्यौ चित चाहि ॥३०॥ इति भी जसूराम कवि विरचिता, राजनीति सम्पूर्ण
सम्बत् १८८१ ना वर्षे माधव मासे कृष्ण पक्षे त्रियोदशी तिथी रविवासरे संपूर्ण निखितं सकल पंभित शिरोमणी पंडितोचम पं० श्री १०८ श्री पं० शानशाजी
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गणी तत् शिष्य पं० ॥ श्री ॥ पंकीतिकुशलजी गणी तत् शिष्य मुनी गुलालकुशज स्व यांचनार्थ । श्री मान कूत्रा प्रामे श्री सु पार्श्वजिनः प्रशादात् ॥ प्रति परिचय-पत्र १६ साइज: x ४|| प्रति पृष्ठ पं० १२. पंक्ति ३६
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर ] (७ ) नसियत नामा । रचयिता-अकबर पातसाह । धादि
अथ नसीयत नामा अकबर पातमाहा की लीखते।
अकबर पातसाह आपकि बातसाई भीतर दस्कर लग अमल लिखके मिजवा दिया सो लिखी। श्रवल सहजादा के नाम, दूसरा वजीरी का नाम, तीसरा अमीरु का नाम, चौथा जगीरदार का नाम, पाँचवां हाकम का नाम, छठा सायर का नाम, सातम कुटवाला के नाम, इस मुलर अवल सब कामसे सायब कु याद रखणा । अपना पराया बराबर जानके नि (इत ) साफ करणा।
मध्य
पूच्या जीनब मैं वृथा कौन ? कार भलाई कर सकै अरु ना करें । । पूछयाबुरा मैं भला कौन ? वह्या-अंधे मे काणा, चुगलखोर से घहरा भला, लेपटी में ममक, चोरी करण से भीख मांग स्वाना मना १० ।
अन्त
असा काम कीजै उसमे खधारी न होय, लोक हंस नहीं, पाँच आदमी कह सोमानीजै, ईज्जत मब की राचीज, मो अपनी है। किमका मान भंग करणा नहीं, भोजन आदर विना जिमना नहीं । आपणो द्रव्य बेटा कुदिखावणों नहीं। इन्व देखावै तौ बेटा मम्त हुय जावै, अपनो हुनर सीखे नहीं, द्रव्य देख नजर ऊँची रखै, कुसंगत मीग्व जावै जिस वा..... .. ......
प्रति-पत्र-११ । पंक्ति-११ । अक्षर-१७ । साइज-६॥४४॥ विशेष १-अन्त का पत्र प्राप्त न होने से प्रन्थ असमाप्त रह गया है।
इसमें नीति एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े महत्व की बातें हैं।
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२-प्रति २०वीं शताब्दि लिखित है। अतः अकबर रचित रोने में
संदेह है। प्राचीन प्रति मिलने से निर्णय हो सकता है। ३-इसी ( या असे ही ) अन्य की एक अन्य प्रति मा हमारे
संग्रह में है। उसका प्रथम पत्र नहीं है फिर भी बीच का हिस्सा मिलाने पर कहीं अकसा पाठ है कहीं भिन्न, पर यह प्रति करीब २०० वर्ष पुरानी है। सम्भव है ऊपर वाली प्रति में लेखक ने भाषा श्रादि का परिवर्तन कर दिया हो। दूसरी प्रति का अन्त का भाग इस प्रकार है---
"और जीमतां भला ही वात करिये। आपण दरबछिपाइय, किसी ही कु कहिये नहीं, बेटै ही सुछिपाइये । लिपाइय में दोइ बात, घटि होइ तो अपनी हलकाई, और बहुत होइ तौ लोक लागू हुवे। और से बात कही तिन माफक मनी, दुनियां भला दीसै। इति संपूर्ण ।
४-प्रन्थ के मध्य में लुकमान हकीम का भी नाम पाता है और उसको नसियत नाम का प्रन्थ भी अन्यत्र उपलब्ध है। पता नहीं इमस यह कैसी भिन्नता रखता है या अभिन्न है । दोनों के मिलने पर ही निर्णय हो सकता है।
[ स्थान-अमय जैन प्रन्थालय ] ( 2 ) व्योहार निनय-रचयिता-जनार्दनभट्ट
आदि
श्रीगनपति को ध्यान करि, पून बहुत प्रकार । कहित भालक बोध कू, अब माषा न्योहार ॥ नृप देखे व्योहार सब, द्विज पंडित के संग । धरमरीति गहि छोडि के, कोप लोम पर संग ॥
सत्रहसे सीस बदि, कातिक पर रविवार । तिथ षधी पूरन भयो, यह भाषा न्योहार ॥
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इति श्रीगोस्वामि श्रीनिवास पौत्र मोस्वामि जगन्निवास पुत्र गोस्वामि बनार्दनभट्ट विरचित भाषा व्योहार निर्णय संपूर्ण। पद्य संख्या ६५०, पत्र ३३,
[अनूप संस्कृत लाहोरी } (8) शिक्षा सागर । रचयिता-जान । रचना काल-संवत् १६५५ रोहा-२४३ । पादिअब सिख्या सागर लिख्यते ।
प्रथम करता समरिये, दूजे नवी रसूल । पीले प्रत्यर कीजिय, सो जय होइ कबूल ॥ १ ॥ मन्धनि के मति जान करि, देउ सबनि को सील । विष सम लगै भ्यान की, म्यानी जैसी इस ॥ १ ॥
कोउ ना ठहराम है, लग काल की बार । जग हैं केते चलि गये, राजे राया राइ || २४२ ॥ सोलसे पंचान, अन्ध कायौ या जान ।
"सिख्या सागर" नाम धरि, बहु विधि कियौ पनि ॥ २४ ॥ इति श्री कृषि जान कृत सिख्या सागर संपूर्ण। लेखनकाल-संवन् १७८६ वर्षे फाल्गुन मासे कृष्ण पक्ष १२ कर्मवाट्या लिखित पं० भवानी दासेन श्री रिणिपुरे । प्रति-पत्र पंक्ति-१७ | अक्षर-५० माइज १०४५ विशेष प्रस्तुत ग्रंथ के कई दोहे बडे शिक्षा प्रद हैं.
निरमल राखो मन पुकर, पचल भ्यान करतार । पाप मल ते मंजि है, दे लालच पुख बार ॥ २२ ॥ पान पुन्य निस दिन करे, हित सो गहै पुरान । नहिं छुए पर नार को, यहु सेवा है पान |॥ २५ ॥
[अभय जैन प्रन्यालय ]
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(१०) सभा पर्वणी भाषा टीका । रचयिता-व्यास देवीदास । रचना काल-संवत १७२० । अनूपसिंह कारित । श्रादि
विप्न गज पद विमल, नमो चित्रय धरि चित्त । करूं नीत भाषा परथ, नारद कहै कवित ॥
महाराज करणेस मुथ, अनघ अनूप साधार । हुकम कीयो टीका रची, भाषा व्यास विचार ॥ ५ ॥ संमत् सतरै सै सम, बीसै कर्ण विवेक ।
रसिकराज कारण रची, टीका अर्थ अनेक ॥ ६ ॥ प्रति-गुटकाकारविशेष-टीका गद्य में है।
[ स्थान-कविराज सुखदानजी चारण के संग्रह में ]
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(छ) शतक साहित्य-मूल व टीकाएँ
( १ ) अमरु शतक भाषा । पद्य १२२ । रचयिता - पुरुषोत्तम । रचनाकाल संवत् १७२० पो० ब० । कुमाऊं नरेश बाजचंद के लिए ।
भाषि
पूजै को सरवर गुननि, पूजै जाके दान गर्ने सु को, जैसो
जाहि महेसु ।
देव गनेसु || १ |
तारा बलु तौ चंद्र बलु, चंदू
तो
सभवानी मानु ॥ २ ॥ नगर कंपिला नांउ ।
जो सु भवानी होइ सुम सकल पुहमि परसिद्ध हैं. बड़े बड़े कविता (कविजन) तहां, कविताई को ठांउ || ३ || सहसकृतु पटिकै कछु भाषा कवि | पुरुषोत्तम कवि नाम है, सकल कविनि को मित्तु ॥ ४ ॥ पुरुषोत्तम कवि चाकरी, करी कुमाऊं चाह । वाज बाहदुरचन्द नृप, कौनी कृपा बनाह ॥ ५ ॥ चंदवंस अवतंस जे, कीरति प्रंस वि-साल 1 सोभए, बंड पड़े सुखपाल || ६ || ताही कुल में हैं लयो, घाजचन्द अवतार |
कूरम परबत
तंग त्याग भरू माग की, भाषतु हो व्यवहार ॥ ७ ॥
भलें मलौ मानु |
पाउस ही राजू पाउ तहाँ गेषि अंग दलों, उमराव दखिनी उठाइ यो चाहियो । बहुरि कीवार है पहार जीतेपूरव के, मिलो हो पहारसाहि सूरी जो सिपाहियो । मिनी कौ द्वारिके जारि यो नीपादौ धान, लुद बाद मारि ते कहा लौं सराहियौ ।
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नर नीलचंद के कमा पति बाजचंद, सवरे बसंत की सपपकियो चाहिये ।
x
बरननु करि सब परन को, परषु सकल समुझाई । अमर शत सम रूप के, भाषा अन्धु बनाइ ॥ १५ ॥ पास जब प्रैसो भयो, मासु बैठी चित्त । तब अमरु शत के करे, माषा प्रगट कवित्त ॥ १५ ॥ संवत् सत्रह बरस, बीती है जहं वील । द्वैज पोष वदि पास रवि. पृथ्य नक्षत्र को ईस ॥ २१ ॥
अन्न
पुरुषोत्तम भाषा करयो, लखि मरवानी पंध ।
इति भी सिगरथी है भयो, अमरु शतक यह ग्रन्थ ॥ १३२ ॥
लेखन काल-संवत् १७२६, वर्षे फागुण वदि १०, हिने शनिवारे, महाराजाधिराज महाराज श्री अनूपसिंहजी विजय राज्ये, मथेन राखेना लिखनं । प्रति-पत्र १८ पं० -- अ० --- माइज
[स्थान- संस्कृत लाइब्ररी] (२) (प्रेम ) शतक । दो। १०४। श्रादि
ॐ नमो त्रैलोक्यमै, प्रानाकर करतार | प्रेमरूप उद्धरन । जग, दयासिंधु अवतार ॥ १॥ इक्क लहे पति लोक विस, सचेव बहि निसि जनिन । धाउंबर मचि प्रेम को, रग्यौ महम्मद लगि ॥ २ ॥
उर समद मथि शान वर, काटे सात रतन्न । फेम हेम कुदन करत, पुरे जतन जतन्न ॥ ४ ॥
इति शुमम ।। लेखनकाल-१७ वीं शताब्दी ।
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प्रति-प्रति परिचय विरह शतक के विवरण में दिया गया है।
[ स्थान-अभय जैन अन्धालय ] (३) महरि शतक त्रय भाषा (प्रानंदप्रबोध ) रचयिता-नैनचंद. सं० १७८६ विजयदशमीआदि
अगनित सुख सम्मति सदन, सेषित नर सुर वृद । वह नित कर जोर करि, सरस्वति पद अरविंद ॥ कहत करन श्रापद हरन, गनपति अरु गुरुदेव । करि प्रणाम रचना रचै, भाषामय बहुभव ॥ कमधश श्रादित सम, लायनि पुन्न मुखकंद । श्री अनूप भूपेस मुत, यु घोपति ज्यु इंद ॥ करि बादर कविसं कयों, यों श्री पाणंद भूप । भाषा भर्तृहरि शतक की, करौ सवैया रूप ॥ रचना श्रम या प्रन्थ की, मुनीयो चतुर सुजान । प्रगट होत या भनतही, अमित चातुरी ग्यान ॥
वार्ता उज्जैणी नगरी के वि राजा मत हरिजी राज करतु है, ताहि एक समै एक महापुरुष योगीश्वरै एक महा गुणवंत फन-भेंट कीनी ।
___फल की महिमा कही जो यह स्वाय । मो अजर अमर होई । तब राजा ये स्वकीय राणी पिंगला कु भेन्यो । नब गणी अत्यंत कामातुर अन्य पर पुरुष ते रक्त है, ताहि पुरुष को, फल दे भेजी अरु महिमा कही वह जन वेश्या तें प्रासक्त है, तिन धाको फल दीनो, निहि समै बैश्याते फल लेके अद्भुत गुन सुनि के विचार्यो जो यह फल खाये है बहुत जीवी तो कहा, तातै प्रजापालक, दुष्ट प्राहक, शिष्ट सत्कार कारक, षट दर्शन रक्षक, ऐसो राज भत हरजी राज बहुत करै अजर अमर हू तो भलै । यौ विचारि राजा सुफल की भेंट करिनी । राजाय पूर्व दृष्ट फल देखित पाउस करिकै राजा संसार ते विरत भयो, तब यह श्लोक पदि के जोग अंगीकार कीनो। पादि
सुख स है रिझावत नाहि बसाधि स, बङ्ग सबै गुन भेद गहे हैं। प्रति ही खसे रिझावन जोग, विशेष मुनह समेद लहे है।
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पुनि श्री कछु पंडित मान के लेखिने, पंडित है अमिमान बहै है । नर नाहि रिझे तऊ सो विधि ज विधि, सो जहजार विचार कहै है ।
अंत
पर के घर बहु धन निरखि, पर प्रिय दर जोई । याने सुकत सो रहित मन, चित प्राकुल होई ॥ १६ ॥ संत सहन अरु नीति मग, दाता लाता मान । मस्व निरदय सदय के, वरने गुन इह वानि ॥ ११ ॥
प्रशस्ति
विक्रमनगर २ विगाह, अलकापुर अनुहार । मुथिर वास मंदर सम्स, रिद्धि मिद्वि मंडार ॥ कमधवंश गठौरपति, श्री अनूप महाराज । गों जीते परिदल सकल, ज्यों हरि प्रसार समान ।। ता को नंदन सम्वसदन, गजति यों करनेम । प्रबल तंज साहस प्रबल, आनंदसिंघ नरेम ॥
मकान समा जाकी चतुर, सकल मर मामंत । • मकल लोक दातार पनि, साहसीक मतिमंत ॥
याकी पति मति गति उकति, परन मकै कवि कौन । स्वाग त्याग निकलंक • नप, मजस मरे बिहुँमौन ॥ कवि कवि सुंअति ही अरघ, बह आदर धरिटेन । ग्रन्थ ग्चायो तिन सगम, मकान लोक मुम्ब देत ॥ नीतिसतक संम्झतमय, नगई को ठाम ! करि भाषा ग्चना धर्यो, प्रानंद भूषण नाम ||
संवत स वस रिषि रसा, उजल श्राम मास ! विजयदसमी वर वार रवि, कीनो अन्य परकास ॥ खरनर गछ पाठक महा, श्रीक्षमालाम गृह राज । तास शिष्य वाचक विदुर, ज्ञानसागर सु समाज ।।
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(७४)
तास शिष्य पंडितप्रवर, पाठक श्रीजससील । हाको अतेवासि है, नैनसिंह मुखलील ॥ नैनसिंह खरतर जती, सती सदा सुखदाय ।
प्रन्थ बनायो सित सुगम, श्रीमहाराज सहाय ॥ इनि प्रानंदसिंह महाराज विरचिते नीतिशतक संपूर्णम् । सं०१७EE ज्ये. सु०१,
[ अनुप संस्कृत साइबरी] द्वि० गारशतक
गनपतिय बहु गजवदन, एक रदन गुन खोनि । विधन विनामन स्वसदन, हरनंदन हित हानि ॥
नासु अनुग्रह पाईक, करि कविसर प्रन्थ ।
दतीय शनक सिंगार भया, मगम रसिक को पंध ॥ ६ ॥ अंत
सुबधि दुसरै सतक की, रचना अति सुखदाइ ।
नेनचंद खुरतर जती, भाषा लिखी बनाई ॥ तृतीय वैराग्य शतक
चिदानंद श्रानंद मय, मासति है तिहु काल ।
अति विभूति बनभूति मय, जय जय भव प्रतिपाल । अंत
जगन प्रसिद्ध धग्नीस वर, प्रानंदसिंध अपार ।
नयन जती यौ प्रीति कर, दई श्रमीस मधार ॥ ७ ॥ ( ४ ) भर्तहरि वैराग्य शतक सटीक (चौथा प्रकाश) रचयिता- जिनसमुद्रसरि सं० १७४० । श्रादि
স্য গলিঘৰীযুত মি: ল সখিনাখন ৰহমাপ্পি श्रतोच मा प्रकाशोथ चतुर्थ मंश १,
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अब श्रीवैराग्य शतक के विष वतीय प्रकाश पखान्यौ तो अब अनंतरि पोषा प्रकाश गुवालेरी भाषा करि वखानता हूं । प्रथम शास्त्रीक पदाषा बोडि करि या अपनश भाखा वीचि असा पन्थ की टीका करणी परी सु कौन बासला ताका भेद बतावता है जु उर भाखा बट है ताका नाम कहता है-संस्कृतं प्राकृतं चैव मागधं शौरिसैनक, पैशाचिकं चापंभ्रंशं च षट सु माथं प्रकीर्तितं १ यह घट देश की घट भाषा है सु शास्त्र निबद्ध है सुतौ व्याकरणादि काध्य कोष पढे हौवं नाकी प्रबोधज्ञान होवह परं अल्प परिचर्य नूतन वेषधारी तिसकी वे भाषा षट कठिन हौवै ता भगति लोक रामजन मुहित बैरागी तिन्हूं के प्रबोध के वास्ते उन्हीं यह ग्रंथ बंधायौ ताथै उन्हीं के उपगार के वाम्नै यह श्री भतृहरि नामा शास्त्र दूजा शतक वैराग्यनामा तिमकी टीका सर्वार्थ सिद्धि मणिमाला तिसको चोथौ प्रकाश वग्वाणता हु नत्रादिम काव्यं ॥ छः ॥ प्राणाघातत्यादि अब कविजन कहता है श्रयमामेवपंथा श्रेय कहावे मोक्ष कल्याण विणको यौही पंथ ई-गोही कौण मौई यनावता है
अन्त
वैराग्य शतकं नाम प्रथं विश्वमहोत्तमं सटीक सार्थक पूर्णकृतं जैनाश्विना शुभं ५ इति श्री वैराग्य शतकं शास्त्रं ॥ महावैराग्य कारणं सुभाष सुगमं धक श्री समुद्राद्यतसूरिया ॥ ६ ।। श्री मत्सर्वार्थसिम्याः मशिनजि मतिनारन्नकानिधृ. तानि । नाना शास्त्रागरेभ्यः श्रत प्रत विधिना । मध्यतानि स्थितानि । प्रोद्यश्री वेगडाख्यगगन दिनमणिना गणीनां मु शिष्यः शिष्यानामर्थ मिध्ये। जिन दधि रविभिः । शोधनीयानिविद्भिः ।। ७ ।।
शीघ्र गत्या यथा पत्री लिख्यत भाष्य मौमया लिखिता शतक टीकाच शौथ्याविद्भिः मतां गुणैः ॥ ८ ॥
वैराग्य शतकाव्यस्य टीकायां श्रीसमुद्रभिः मार्थ सिद्ध मालायां प्रकाश मुरीयो मतः ॥६॥
इति श्री श्वेतांबरसूरि शिरोमणिनां परमाव्यहच्छासन गगनां दिनमणि भट्टारक श्रीजिनेश्वरसूरि सूरीणां पट्टे युग प्रधान पूज्य परम पूज्य परमदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वराणां शिष्येण भट्टारक श्री जिनसमुद्रसूरिणा विरचितायां
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भी मरी हरि नाम बराग्य शतक टीकायां सर्वार्थ सिद्धि मणिमालायां चतुर्य प्रकाशोयं समाप्तः । श्रेयसेस्तात् कल्याणं भूयात् सौ धर्म गच्छे गगनांगणेस्मिन् भी बजरिभवच्चसूरिः युग प्रधानाचयके प्रभाकदुद्योतनोद्योतकरोगणींद्रः१ श्री बर्द्धमानाभिध बर्द्धमानः सूरीश्वरो भूळचरमा प्रधान: तत्पट्टधारी भुवनैकवीरो जिनेश्वरंसूरिगुणः मधीरो २ जिनाद्यचंद्रोभयदेवसूरिः क्रमेण सूरिर्जिनवल्लभारुयः तत्पधारी कृत विद्यभूरियुगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ३ पत्तिर्जिनादास्तस्पट्टचंद्रः श्रीचंद्रपट्टे प्रबरो गणींद्रजिनेश्वरः श्रीकुशलादिमूरिः क्रमेणतु श्रीजिनचंद्रमूरिः ४ श्रीवेगडेत्याख्य गणम्य कर्ता संपूर्ण वृद्धाख्य खरम्यधर्तातरांत्य शब्दाभिध गच्छ नेता जिनेश्वरमरिरभूज्जानेता ५ श्री शेखरायो जिन धम्मसूरिः तत: परं श्री जिनचद्रमूरिः श्रो मेरूपट्टे मुगुणावतागं गुणप्रभः मूरि गुणरूदारो ६ जिनेश्वरतम्य विनेय एवं तत्पट्टधारी जिनचन्द्रदेवः युग प्रधानः सुगुणेः प्रधानः तत्पट्टधारी मुविराज्यमानः ७ मुरेः जिनचंद्रा...गुरोः शिष्येणचाग्रहात टीका शन प्रबंधम्य कृता भाषा मयी शुभा ८ शिष्याणां मेवकाणांच सूर्योतः श्रीजिना श्विनान सर्वार्थसिम्याश्चाख्यायाः मणिमाला मनोहरा ॥ ६ ॥ युग्मं पूर्ण चन्द्राश्वि पक्षाल्य २२१० प्रमिते वीर व सरे पूर्ण वेद समुद्रेदु वत्सरे विक्रमाद्वये १७४० ११ कार्तिक्यां शुल्क पूर्णायां दिने जोवेसु योगकेगंगा कस्य साहस्यवादे कर्णपुरे तथा १२ तत्राधीशेड्य नृपेम्मिन बलवंशेजयदुकं नार्थ श्री वीरनाथस्य पार्श्वदेवगिरे स्तथा १३ भारचातुमयातत्र संपूणा पितृता तथा चतुषष्टि दिनैरेषा मर्व सिद्धार्थ दायिनी १४ नीति सिंगार वैराग्याधिकारैस्त्रि शतैः शुभैः त्रिवी चित त्रिस्कंधा रचितषामय १५ धर्मार्थ काम मंमिद्धा निबद्धावत्रकैम्बिकैः धारयतिहि कंठे तेषां मार्थ साधिनी १६.१५ संस्कृता प्राकृता देशी याचदन्यापिकीर्तिता ग्वालेर देशजा जाता मन्नतोस्यां धृता बजि १६, पुन: पाठांतर क्वचितसंस्कृता प्राकृता चान्यदेशी परं सवतो देश ग्वालेर जाता बुधै ग्यज्ञात्वामयाप्रथिताभिःगले घार्यतां मव भूपार्थ मि १७ यावद्धराभ्रचन्द्रार्क ध्रुव सागर पठवता: ताव भद्रंतुप्रन्योयं मन्वार्थ माग मालिक १८ । श्री सौधर्मेग रणे पट्टधारी श्री वीरशासने युग प्रधान श्रेण्यान्तु सूरिः श्री जिनवल्लभः १६ । गच्छस्तु युग प्रधानानां श्री सौ धम्भिक मंशिक पूर्ण मायनशंकंच वेगडामुख शोधनं २० । वेदाधिक द्विकसाहन्त्री मख्या तेषां प्रवर्तशे युगे स्मिन् युग प्रधानानां श्री जिनागम संग्रहे २१ । शासने वीर
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(
७७ )
नाथस्य प्रमिते पंचमारके स्य बन चंद्राश्वि वार्षियां, भविष्यति कलोयुगे ॥ २२ ॥ प्रसिद्धोयं ममाख्यातः, समाचार्यत्रवर्तते । स्वयं सर्वेषु गफलेषु, झातव्यो ज्ञान संग्रहात् । २३ । पट्टे श्री जिनचंद्रस्य, सूरेः श्री विजयीगुरुः । तत्प्रसादात कृता पूर्णा, श्री जिनाध्यादि सूरिया ॥२४॥ वाच्यमाना पठ्यमाना, श्रयमाणारुचहन्निशंक्षमारोग्याय कल्याण, प्रदा भवतु सर्वदा ॥ २ ॥ श्री सर्वार्थ सिध्यागा मणिमाला महोत्तमाया-- घच्च शासनं जैनं, तावरुवनंदताकिचरं ॥२६॥ मागमेष्वोधिष्टाता, तज्ञाश्रदेवता । न्यूनाधिकमिहा या तृतमम्व महेश्वरि ।। २७ ॥ सचमगलमंगल्यं ॥२८॥ मंगल सर्व भूतानां, मंधानां मंगल मदा मिंगल सव्व लोकाना,भूयात्सर्वत्र मंगल । १ सर्व मं० २ मंगलं म० ३ शिवम ॥ १ ॥ मंगल लेखक म्यापि, पाठक स्यापि मगलं मंगले शुभंमवतुकल्यागा, कल्यागा लेखक मालिका । अन्य प्राणिनां पाठकानांच, श्री जिनेश प्रभाषतः।६।
( ५ ) भन हरि शतक त्रय पद्यानुवाद । + चयिता-विनयलाभ ।
१ नीति शतक पद्यानुवाद -प] १८२ श्रादि
जाहि कु राखत ही मन में नित, सो तिय मोमौं रहै विरची । वा जिन को नित ध्यान धरै, तिन तो पुनि और सो रास रची। हमसौं नित चाह घरै कोई और, तौ विरहानल में इनकी । विग ताहि कु, ताक, मदनक, मोकु, इते पर बात कछु न वची ॥ १ ॥
अन्त
प्रथम शतक यह नीति के, विनय लाभ सम वैन । माषा करि गुन वरणियौ, सर वानी न ॥ २ ॥ नीति पंथ धर सत्त मग, दाना यानी और । पाम दयाल कपाल के, गुन बरणे इरिठौर ॥ ३ ॥
२ अंगार शतक भाषा । पग १०३ ।
आदि
मंभु के गोश में चंद्र कला, कलिका किधौं दोपह की धुति निर्मल । लोल पतंग दहयौ किधी काम, लम सुदसा सुम्बकी बू महाबल ।
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७८
)
दूर करे चितको पमान, सोइ बन्यौ दीपक तम मंडल । सेही योगिन के मन मौन में, सोमित है हरदीप सिरमबल ॥
यह सिंगार की वामना, सतक दूसरे माहि । विनयलाम शुम बैन सौं, बरन्यौ विविध पनाहि ॥ १.२ ।। सुम मति कविना चित्त मे, हरख धरे यहु देखि । क्रमति दुरजन तिन्नको, हरष हरे यह पति ॥ १०३॥
३ पैराग्य शतकआदि
मानी नर मत्सर मरे, प्रभु दषित अहंकार ।
और प्रशान भरे बहुत, कौन सुभाषित सार ॥ १ ॥ है कछु नाहि असार संसार मैं, जो हित हेत भली मन हो को । सभ कर्म किये . .. "ल अद्रत, ताके विपाक भये दुखही की । पुन्य के जोर 4 पावतु है मुभ, भोग मंजोग विषय रस है। फो ।
यो दिम्य यार सहें विष तुल्य, विचार को यह बात सही की ॥ ॥ अन्त
पा ६१ के बाद का अन्तिम पत्र खो जाने से प्रति अपूर्ण रह गई है। लेखन काल-१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ६। पंक्ति २६ से ३० । अक्षर २ से १०० ।
[ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] ( ६ ) भर्तृहरि वैराग्य शतक वैराग्य वृन्द । रचियता-भगवानदास निरंजनी।
गणनायक गनेश को, वंदो सीम् नमा । बुद्धि सुध प्रकाश होड, विधन नाश सब जाह ॥ १ ॥ पुनि प्रनाम गुरु को करी, नासे विधन अपार । गुरु ईश्वर सम तुल्य है, से पुनि पापु विचार ॥ २ ॥
सोरठा
अन्य नाम प्रमान, "वैराग्य वृन्द" मो जानिये ।
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माखों बुदि उनमान, मूल भूत्यहरि मासते ।। इति भृत्यहरि भणित वैराग सत मूल तत भसित वैराग्य "वृन्द" नाम भाषकोम खंडनो भगवानदास निरंजनी कथ्यते प्रथमो परिकरन । पद्य हि० ६२६ सं०२४ । ग्रन्थ में ५ प्रकाश है पत्र ३०, पं० ११ अ०४४)
अन्त
भूल भतृहरि शत रहै, ताको धरि मन पाश । ता परिभाषा नाम यह, "वैराग्य वृन्द" परकाश ॥
मल हानि कीन्ही नहीं, करि सुधाक विकास । बान बुद्धि भाषा लहै, परित सधी प्रकास ॥
[ स्वामी नरोत्तमदासजी मंप्रह, गुटका अनूप मम्फत लाइबरी ] ( ७ ) भाव शतक । रचयिता-मारंगधर दोहा १०६ । श्रादि
नायक थातुर काम वम, यमन उधास्त वाम । मुग्धा मय नम्रित कियौं, करि सुजान किहि काम ॥ १ ॥
अर्थसप्त समर काग हो, पायो श्रानुर पंत । मन मुगधा बूझत कुचनि. सुबह कान बलवन्त ॥ ३ ॥
अन्त
होइ अजान मुजान मुनि, रीझे राज समाज । सारंगधर मुनि भाषशन, मनहि खिलावत काज || १२४ ॥
जाकउ मनरप ते विरस, सरस करण को पास । सारंगधर ता तोष को, बिरचित विविध विलास || १२५ ॥ दुख गंच (ज) न रंजन हदय, भंजन नित चित ताप । सारंगधर सुनि भाषशत, विधि विचारनु पाप ॥ १२६ ॥
इति भावशतक हा समाप्त । लेखनकाल-संवत् १६७२ श्रावण यदि १० । पं० मोहन लिखितं । स्थान-मानमलजी कोठारी संग्रह । प्रतिलिपि अभय जैन ग्रंथालय ।
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(
)
(८) विरह शतं । दौडा ११ बादि
बो उच्चरिय , नाम तुश्र, पस बुडियै च परस्थ । सोर करता अक्षर सरिस, मंजन गटन समत्थ ॥ १ ॥ सम कहुं कहन ही कहा तहहि, २ पवित्र कहि मोहि । माया मुद्रित नगन मम, क् करि देखू तोहि ॥ २ ॥ इन नैनन देख नहीं, इहि विधि दट्यो जग्ग । सोइ उपदेसो लान महि, निहि पायौ तृष मग ॥ ३ ॥ विरह उपावन विरहमैं, विरह हग्न सावंत । विरह तेज तन नहिं सकत, व्याकुल महि जावत ॥ ४ ॥
मन्त
हि माव सुधा कि पाये, मीत तनु पन लेहि ।
दजन यादि मलप्पनउ, मूचि श्वानह का केह ॥ ११८ ॥ इति विरह शतं ।
प्रति-प्रनि में प्रेम शतक माथ में लिया हश्रा है। पत्र ३ । पंक्ति २३ ॥ अक्षर ८० । साइज-१०॥ x ५, १७ वी म०
[ स्थान-अभय जैन पंथालय ] (8) भुंगार शतक । रचयिता-महाराज देवोसिंह । रचनाकाल-सं० १७२१ जेठ वदि ।।
वैनी भुजंग लसै कटि सिंह , परन्छ पयोधर दोऊ बने । तीधन उमजल वन समान ने, पातिन सोहतु दंत धनै । कंजल चाल कहो यह पाउत, मनहि देखि गए हैं बने । तीर से तेरे गे नैन वली, इते पगए सब मो है मनै ।
महाराजधिराज माहित्यार्णकर्णधर श्री महाराज श्री देवीसिंह देव विरचिते अंगार शतकं ।
१चंद न हय भूमिजूत, जेन नवै वदि जान ।
देवीसिंह महीप किय, सत सिंगार निरमानु || प्रति-विकीर्ण पत्र । पत्रांक एवं पाक नहीं लिखे हैं।
( स्थान- अनूप मंस्कृत पुस्तकालय । )
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(१० ) समता शतक । पद्य-१०५ । रचयिता-यशोविजय । आदि
समना गंगा मगनता, उदासीनता जात । चिदानंद जयवंत हो, केवल मानु प्रभात ॥ १ ॥
बहुत ग्रन्थ नय देखि के, महा पुरुष कृत सार । विजयसिंह सूरि कियौ, समताशत को हार ॥१०३॥ भावन जाकू तत्व मन, हो समता रस लीन । ज्य प्रगटे तुझ सहज सुख, अनुमव गम्य अहीन ॥१०४।। कवि यशविजय म सीखए, आप आपकू देत ।
साम्य शतक उद्धार करि, हेमविजय मुनि हेत ॥१०॥ प्रति-प्रतिलिपि
[अभय जैन ग्रंथालय
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(ज) बावनी बारखडी व अक्षर बत्तीसी साहित्य
( १ ) अन्यौक्ति-बावनी । पय-६२ । रचयिता-विनय यत्ति । मादि
ॐकार वर्गामेद, पायो तिन पागी सब, याकू' जो न पायौ, तोलु कहाँ और पायी है । अंग षट वेद चार, विद्या पार वारही मैं, जहाँ तहां पंडितन, याको जम गायो है ॥ नहीं जाकी श्रादि यात, भयो सनबीर श्रादि, जे हैं बुद्धिमान वान , अति ही सुहायो है। मुम्बको करण हार, विश्व विश्व वशीकार, सबहानै टोरी, याही कू बताया है ॥ १ ॥
ग्यरतरे गए भूरि, भाग्य जिनभद्र मरि, भये गगज बाकी, साखा विस्तार मै ॥ पाठक प्रवीन नगमन्दर, मुगुरुजू के, शिभ्य सावधान सुद्ध, साधके प्रचार मैं ॥ वाचक प्रधान भक्ति-भद्र गा विद्यमान, पाइ के प्रसाद वाकी, कपा अनुसार मैं ॥ भावन करण श्रादि, दे दे विनैभक्ति कवि, करियह युक्ति, नाना भाव के विचारमैं ॥ ६१॥ महाकविराज की बनाई, रीति पाई धुरि, प्याई माई पावती, म्या नकी जगावनी ।
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( ३ )
नौट रस भेद कीया, मइ उदमावनीसी, यानें लगी संतन के, चित्त सुहावनी ॥ गैन पर भूचर के. नाम परिंद दे दे, भाव बनी यहु युक्ति, (कुल) विश्व समझावनी । याने मन नूप कैरि, विनय सुकवि याको, यथारय नाम धरथौ, अन्योक्ति पावनी ।। ६२ ॥
[स्थान-प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय ] (२) उपदेश बावनी ( कृष्ण बावनी )। रचयिता-किसन । रचनाकाल-संवत् १७६७ विजय दसमी। आदि
ॐकार अपर अपार अविकार अज अजरतु हे उदार, दादन हुस्न को । कुंजर ने कीट परत जग जंतु ताके, अंतर को जामी बहु नामी मामी मंत को । चिंता को हरन हार चिता को करनहार, पोषन भरन हार किसन अनंत को ।। श्रत कहे अंत दिन गांव को अनंत विन, ताके नंत अंतको भगेसी भगवंत को ॥ ॥
अन्त
मिरि सिधगज लोकां गछ सिग्नाज, थान तिनकी कृपा जू कविताई पाई पावन । संवत सतर सनस विजैदसमी की, अंथ की समापत मई है मन भावनी ।। माधवी सुनान मांकी जाई श्री रतनबाई, त जी देह ता परि रची है विगतावनी । मत कीनो मन लोनी नतर्हि पे रन दीनी, वाचक किमान कीनी उपटेम बावनी ॥ ६ ॥
लेखन काल-१६ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र-७ । पंक्ति-१३ । अन्तर-४२ । माईज-१०x४॥।
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ३ ) केशव बावनी । पद्य ५७ । रचयिता-केशवदाम । रचना कालसंवत १७३६ श्रावण शुक्ला ५ । आदि
ऊंकार सदासुख देवत ही नित, सेवत वाछित इलित पावै । बावन अक्षर माहि सिरोमणि, योग योगीसर ही इस ज्यावै ।
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ध्यानमें शानमें वेद पुराणमें, कीरति जाकी सबै मन भावे । केसवदास के दीजो दौलति, मावसौं साहिब के गुण गावै ॥ १ ॥
पावन अक्षर जोर करि भैया, गांउ पच्याख ही में मल पावै । सत्तर सोत छतीस को श्रावण, सुद पाषु भृगुवार कहावै । सुख सोमागनी को तिनको हुवै, बावन अक्षर जो गुण गावै ।
लावन्यरत्न गुरु सु पसाव सों, केशवदास सदा ( मुख ) पावै ॥ ५६ ॥ लेखन काल-१६ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र ५ । पंक्ति १५ । अक्षर ४ । साइज १०x४||
[ अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ४ ) गूढा बावनी (निहाल वावनी) । पद्य-५४ । रचयिताज्ञानसार ।
रचना काल-संवत १८८१ मिगसर वदी १ । श्रादि
टोहा
चाँच श्रोध पर पार बग, ठाटो अंब नि डान । हिलत चलत नहि नभ उडत, कारण कौन निहाल ॥ ५ ॥
नित्रित ।
अन्त
मध्ये प्रवचन माय दुग, मचा प्राद' अंत । भिगसर वदि तेरस भई, गृढ बावनी कत ।। ५३ ।। खरतर भट्टारक गन, रत्नराज गणि शीस ।
श्रामह में दोधक रचे, ज्ञानसार मन हींस ।। ५४ ॥ यह गूढा बावनी पंडित वीरचंदजी के शिष्य निहालचंद को उद्देश्य करके कही गई है अतः इस का नाम निहाल बावनी रखा गया। प्रति-प्रतिलिपि
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ]
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( ५ ) जसराज बावनी । सर्वगा-५७ । रचयिता-जिनहर्ष । रचना. काल-संवत १७३८ फाल्गुन माम । आदि
ऊंकार अपार जगत्र अधार. मत्रै नर नारि संसार जप है । बावन अक्षर माहि धरतर, ज्योति प्रधानन कोटि त है । सिद्ध निरंजन भस्व अन्तव, सप न रूप जोगेंद्र, थपे है । ऐसी महातम है कार की, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥ १ ॥
श्रन्त
संवन सनर अप तसे माम फागुणमे, बहुत मातिम दिन हार गुरु पाए है । वाचक शांतिहरख ताह के प्रथम शिष्य, मल के अक्षर पार कवित्त बनाए हैं । अवसर के विचारे बैटिके ममा मंमार, कहे नरनारीके मनमे सुमाए हैं । कहे जिनहर्ष प्रताप प्रभुजी के. भई, पूरण भावनि गुणी वित्त के रिझाए है ।। ५७ ॥
लम्बनकाल-मंबन १-४६ वर्ष शाके १७०५ प्रवृत्तमाने ज्येष्ट सिन १० । श्री प्रताप मागर पठन कृते श्री कोटड़ी माये । प्रति- पत्र १३ । प्रति के अन्त के तीन पत्रों में यह यावनी है । पंक्ति १६ ॥ अक्षर ५२ । माइज ?' X ।
[ग्थान- अभय जैन ग्रंथ लय ] ( ६ ) जनसार बावनी । पद्य- ५८ । रचयिता-मघपति । रचनाकालमंवत १८० भाद्रपद सद । । नापामर । श्रादि
ॐकार बढी मत्र अक्षम्मे, इग यता प्रोपम यार नहीं । ऊकारनिके गुण आरिफ, दिल उजवन्त रावत जाणदही । उँकार उचार बद बड़े पंडित, होति है माननि लोक यही । ॐकार सदामद ध्यावत है, सुख पावत है मघनाथ सही ॥१॥
अन्न
संवत सार अार विडोतरै, मादव पूनम के दिन भाई । किंद चौमास नापासर में, तहाँ स्वामी अजित जिणंद सदाई ।
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श्री जिनसुख यतिसर के, सविनीति विद्या के निधान सदाई ।
पाय नमी रुघपति पयंपित, बावन अक्षर थादि बुलाई ॥ ५ ॥ इति श्री जैन सार बावनी। लेखनकाल- १६ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र । पंक्ति १६ । अक्षर ५५ साइज १०x४। ।
[स्थान- अभय जैन ग्रंथालय ] वि० इसमें चौबीस तीर्थंकरों के २४ पग नाम वार है। ( ७ ) दहा बावनी । दोहा ५३ । रचयिता-जिनहर्ष (मूल नाम जसगज।।
रचनाकाल-संवत् १७३० श्रापाद शुक्ला । । आदि
ॐ अक्षर सार है, ऐमा अवर न कोय । शिव सरूप भगवान शिव,सिरमा वह सोय ॥ १ ॥
अन्त
सतसे वीस सम, नवमी शुक्न भाषाट । दोधक बावनी जमा. पूरण करी कृत गाद ॥ ॥ ३ ॥
[ स्थान-पदिलिप प्रभय जैन ग्रथालय ]
( 2 ) दहा बावनी । दोहा-५८ । रचयिता-सक्षमीवल्लभ ( उपनामगजकवि )। श्रादि
उ. अक्षर अन्नग्य गति, धर्म, सदा तम्, चांन ।
सुम्वर सिध माधक सुपरि, जाकु जपन जहान ॥ १ ॥ श्रन्त
दहा बावन्नी करी, ग्रातम पर हितु काज ।
पटत गुणत वाचत लिम्वत, नर होवत कविराज ॥ ५ ॥ इति श्री दूहा बावनी ममाप्त । लेखन काल-संवत् १७४१ वर्षे पोष सुदी १ । लिम्वितं हीरानंद मुनि । प्रति-१. पत्र ६ के प्रथम पत्र मे। पं० १६ । अक्षर ५३ । साइज १०४४।।
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अन्त
(८७ >
२. संवत् १८२४, आश्विन वदी ७ कर्मवाक्यां श्री देशनोक पध्ये भुवनविशाल गणि तत् शिष्य फहदचंद दित्त
पत्र २ । पंक्ति १५ | अक्षर ३८ | साइज ६ ||४|| |
[ स्थान - अभय जैन ग्रन्थालय ]
( ६ ) धर्म- बावनी । पय ५७ । रचयिता - धर्मवर्द्धन । रचनाकाल -
संवत् १७२५ कार्तिक कृष्णा | रिणी ।
आदि
ॐकार उदार गम्म अवार, संसार में सार पदारथ नामी |
सिद्धि समृद्ध सरूप अनूप,
भयो सबही सिर भूष सुधामी । जाऊं कियो धुरि अंतर-जामी ।
मंत्र में, जंत्र में, ग्रन्थ के पथमं पंच हीं इष्ट वसें परमिन्द्र, सदा धर्मसी कहै तामु सलामी ॥ १ ॥
ज्ञान के महा निधान, बावन बरन जान, कीनी,
पाठत पठन
ताकी जोरि यह ज्ञान की जगावनी । नोन संत सुख पावे मोह, निमलकीरति होइ, सारे ही सुहामणी ।
सौत सतरे पचीस, काती वदी नोमी दीम,
चार है विमलचन्द, श्रानन्द वधामयो । नेर विणी तु निरख, नित ही विजैहरख,
कोनी तहाँ घर मसीह,नाम धर्मबावनी ॥ ५७ ॥
इति श्री धर्म बावनी ।
लिपिकाल लि० सि० कुशल सुन्दर मेड़ता नगरे । संवत् १७६८ श्रावण मुदि ११ दिने ।
प्रति-पत्र | पंक्ति ११ । अक्षर ३६ । साहज ६ || x ४ | पाँच प्रतियाँ ।
[ स्थान- अभय जैन प्रन्थालय ]
( १० ) प्रबोध - बावनी । पद्य ५४ । रचयिता - जिनरंग सूरि । रचनाकाल संवत् १७३१ मिगसर सुदि २ गुरुवार |
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( ८८ )
श्रादि
ॐकार नमामि सौ है अगम अपार, प्रति यहै तनसार मंत्रन को मुख्य मान्यो है । इनही ते जौग सिद्धि साधवैको मिद्वि जान, साधु भए सिद्ध तिन धुर उर धान्यो है । पूरन परम पर सिद्ध परसिद्ध रूप, बुद्धि अनुमान याको विषय बखान्यो है । जपै जिनरंग असो अक्षर अनादि श्रादि, जाको हीय सुद्धि तिन याको भेट जान्यो है ॥ १ ॥
हेतबन्त खरतर गम्छ जिनचंद्र मरि सिंह मरि राज सूर मा लानधारी हैं । ताके पाट जंग पग्धान निरंग सूरि ज्ञाता गनवंत यैसी माल सुधारी है । शशि' गुन मनि शशि' संवत् शुक्ल पक्ष, मगसर बोज गरुवार अवतारी है । खल दुरुबुद्धि को प्रगम माँ ति भाँति करि, सजन सुबुद्धि को सुगम मुम्वकारी है ॥ ५४ ॥
इति प्रबोध बावनी ममात।
लग्वन काल-संवत् १८०० रा अपाढ़ सुदि २, श्री मरोटे लि० ५० भुवन विशालश्च । प्रति--पत्र १८ के चार पत्रो में । पंक्ति १८ | अक्षर ६० । माइज ||४६
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] (११ ) ब्रह्म बावनी । पय-५२ । रचयिता-निहालचंद । रचनाकाल मंबत १८०१, कार्तिक शुकता ! मकसदाबाद। श्रादि
श्रादि ॐकार थाप परमेमा परम न्योति, अगम अगोचर अलम्ब रूप गायौ है । द्रव्य तामैं अंक में अनेक मैट पर जी में, जाका जसबाम मन बहेन मैं टायौ है । त्रिगुन निकाल भेव तीनो लोक तीन दव, अष्ट मिदि नवों निद्धि दायक कहायों है ।
श्रन्तर के रूप में स्वरूप भून लीक है, को, अमो उकार हपचन्द्र मुनि ध्यायौ है । अन्त
संवत अठास अधिक श्रेक काती मास, पख उजियारे तिथि द्वितीया सुहावनी । पुरमे प्रसिद्ध मखसुदाबाद बंग देस, जहाँ जैन धर्म दया पतित को पावनी । वासचंद् गच्छ स्वच्छ वाचक हरखचंद, कीरतें प्रसिद्ध जाको साधु मन भावनी । ताके चरणारविंद पुन्यते निहालचद्, कीन्हीं निज मति में पुनीत ब्रह्म बावनीं ॥ ५१ ॥ हम दयाल हो के सज्जन विशाल वित, मेरो अंक वीनता प्रभान करि लीजियौ ।
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(
E
)
मेरी मति हीन तातें कीन्हो बाल व्याल इहु, धपनी बुद्धि ते सुधार तुम दीजियी । पौन के स्वमाव ते प्रसिद्ध कोज्यौ ठौर ठौर, पन्नग स्वमाव घेक चित्त में मुणोजियो । बालि के स्वभावतें सुगंध लीज्यो घरथ की, हंसके स्वभाव होके गुनको प्रहीजियो ॥ ५२ ॥
[स्थान-अभय जैन प्रन्थालय ] (१२ ) बावनी। पढ़ा ५४ मान ।
श्रथ मानकृत बावनी लिख्यते । छरपय छन्द ॥ आदि
णमा देव अरिहंत, सिद्ध सरूप पयासण । णमा साधु गुरु चरण, परम पंथहि दरसावगा ॥ णमो धरम दस भेद, श्रादि उत्तम खमयुत्तौ । कर जोडिवि अनुभवै, साध मन राज पवितौ ।। हो जीव अनंतो काल तुव,टिप्प जाण धण हुव किरण । इम परम तत्व मन रहसि करि, हो बाद भी भौ सरण ।।
सदा काल सु पत्रित्त, एह बावनि मन रंजय । कछु पापण कछु परह, करि बुधि दर्पण मंजणा ॥ ना कछु कीरति हेतु न, कछु धन पार निवंचन ।
यथा सकति मति मंडि, रची पद पद रस रंचन ॥ मम हमउ मित्त कारण लहिवि, यदि यह अर्थ निथिया । धर्म सनेहु मन मांहि धरि , मान तगा गुण गुधिया ॥५४॥
इति मान कृत बावनी। प्रति-गुटका। मं० १७०४ लि० पत्र ८६ मे १४ पं० २१, अतर २४
[ अभय जैन ग्रन्थालय ] (१३) बावनी । मोहनदास श्रीमाल। अथ बावनी मोहनदास कृत लिख्यते । सबईया ३१ ।
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( १० )
आदि
धूल साल देखें मूल सालन नहित उर,
मान खम देखे मान जाइ महा मानी कौ । कोई के निकट गई कोटिक कलेस कटे,
मेरे परताप परताप जिन वानी को ॥ बेदी के दिलों के श्राप वेदी पर बेदी होइ,
निवेद पद पावै याते है कहानी को । बाजै देव बाजै सुनि होंहि रिषि राज मुनि,
बाजै पावै राजि जिन राजी राजधानी को ॥ १ ॥
X
अन्त
जैनी को मन जैन में, जैनी के उरझाए । सो मन सों मन को भयौ, टरै न टारयो जाइ ।। टरै न टारयो पाइ, अपने रस रसिया । चंचल चाल मिटाइ ग्यांन सुख सागर बसिया । सुपर भेद, को खेद, दुहत ता कारज फीकौ । एकी भाव सुभाव, मिल्यौ मनुवां जैनी को ॥ ४३ ॥
इति कवित्त प्रस्तावी कवि मोहनदास सिरीमाल कृति समाप्तम् !
विशेप-ये पद्य अ, आ पर वों पर नहीं, पर फुटकर, आध्यात्मिक ४३ पद्य ही हैं। इसके बाद इस ही के रचित बारह भावना लिखित है
दोहरा
प्रथम अथिर असरन जगत, एक पान असुमान । श्राश्रय सेवर निर्जरा, लोक बोध' दुर्लमान १२ एई पारह मावना, कथे नाम सामान || अम कछु विवरन सौ कही, को उप सम परिमान ॥ २ ॥
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(
१ )
पंत
घिर भई शुद्धि अनुभूति की, ग्यान भोग मोगी भयौ ।
अनुभाग बंध निड भागते, माग राग दारिद गयौ ॥१७॥ इति बारह भावना कृता मोहनदास सिरीमाल कृति संपूर्णम् ॥ प्रति-गुटकाकार । पत्र-१-८८ से १५ पं० १७, अक्षर २६ ।
[अभय जैन प्रन्थालय ] ( १४ ) बावनी। पद्य-५४ । रचयिता-जटमल। . आदि
ॐ ॐकार अपेही श्रापे दिगर न कोई दुजा, जो नर बाबर गा सम तारा, अजय बनाइ सचूजा । वजै वाउ अावाज इलाही, जटमल समझण मूजा, श्राखण जोगा वचन न ए है, समझ्या अमरत कूजा ॥१॥
अन्त
लंघण लरक करै धरि लाल्या, पढि पदि लोक सुणावे । नागा होइ नगर सब दूं है, अंग विभूति वणाझे । जां जो ग्यान न दीपा अंदरि, ताकुंभ नजरि न श्रावै । जटमल सफल कमाई मस्मा, शान समेत कमावै ॥५३॥ हाल स्वराति मैं दा खा सा, जो नर होवई रहित । क्या होया जेधीषा कवीसर, टाटी वांग कहिता । धाप न सूग लोक लड़ा, माम न मूरख लहता ।
जटमल साहब मो लहसी, कहत रहत हुह सहिता ॥५४॥ इति जटमल कृत बावन्नी संपूर्ण । श्रीरस्तु लेखक पाठकयो । श्री।
लेखन काल-संवत् १७३३ वर्षे भाद्रषा सुदि ६ गुरुवार सवाई जुगप्रधान भट्टारक श्री मच्छी जिनचंन्द्र सूरि राजानां महोपाध्याय श्री श्री सुमति शेखर गणि मखीनांमंते वसी वाचनार्थ श्री ५ चरित्र विजय गणि पंडित महिमा कुशल गणि पंडित रन विमल मुनि पंडित महिमा विमल सहितेन चतुर्मासी चक्र । एक्की प्रामे लिखितं महिमा कुशल गणि जती ॥ दो० रंगापठनार्थ
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(१२ )
प्रति-पत्र ८ । पंक्ति । अक्षर ३५। साइज १०x४॥
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय] ( १५ ) बावनी । रचियता-सुन्दरदास ( वगारस ) ।
वणारम सुन्दरदास कृत बावना लिख्यते । श्रादि
ॐकार अपार संसार श्राधार है, द्वेक्षर तंत संता सुख धामो । ब्रह्मा कर जाकी चौमुख क्रीत, उमापति श्रीपति हुं अभिरामी । मंत्र में जंत्र में याग योगारम्भ, जाप अजपा को अन्तरजामो । सुंदर वेद पुराण को जात है, तानै नमु नित को सिरनामी ॥१॥
२६ वां पद्य लिखते छोड़ दिया गया-अपूर्ण । प्रति-पत्र ३ । पंक्ति १५ । अक्षर ३७ साइज-१०४४।।
[ स्थान-अभय जैन प्रन्थालय ] ( १६ ) लघु ब्रह्म बावनी । पद्य ५४ । रचयिता-ब्राम रूप ( चन्द ) आदिॐकार है अपार पारावार को न पावे, कछुगने सार पावै जाइ ना ध्यावेगी । गुगण वय उपजत विनसत थिर रहै, मिश्रित सुमाव माही सुद्ध कसे श्रावेगी । श्राम अगोचर अनादि अादि जाकी नहीं, असौ भेद वचन विलास कैसे पावेगी । नय विवहार रूप भामै है अनंद भेद, ब्रह्मा रूप निश्चै श्रेक अंक द्रव्य थावेगो ॥ १ ॥
अन्त
लिंगाधार सार पक्ष कवेतांबर कम्यो दान, धार विवहार स्यादवाद शुद्ध ब्रह्म की । ताहीमें प्रगट भयो,पासचन्द मूरि जयो,थाप्यो पासचन्द गच्छ श्रास जिन धर्म की । तिहुनमें म.चित्रंत साधक अनुपचन्द, साध सुसबेगधारी शक्ति सुख शर्म की । जिनकी महंत कीर्ति ताही को निकटवर्ती, शिष्य ब्रह्मरूप बूझो रीति ब्रह्म कर्म को ॥ ५४ ॥ प्रति-प्रतिलिपि
[अभय जैन ग्रन्थालय } (१७) सबैया बावनी। पथ-५२ । रचयिता-चिदानन्द । रचनाकाल१६०५ लगभग।
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आदिॐकार अगम अपार प्रवचन सार, महा बीज पंच पद गर्मित जाणिए । सान ध्यान परम निधान मुखथान रूप, सिद्धि बुद्धि दायक बनूपए बखाथिए । गुण दरियाव भव जल निघि माहे नात्र, तत्वको दिखाव हिये ज्योति रूप ठाणिए । कोनो है उच्चार प्राद आदिवाथ ताते वाको, चितानंद प्यारे चित्त अनुभव प्राणिए ॥ १ ॥
अन्तहंस यो सुमात्र धार कीजो गुण अंगीकार, पन्नग सुमाव अक ध्यान से सुयोजिए । धारके समीरको सुमाव ज्यू सुगंध याकी, ठौर ठौर माता वृन्द में प्रकाश कीजिए । पर उपगार गुणवंत श्रीनति हमारी, हिरदै मैं धार याकुथिर करि दीजिए । चिदानंद केवै अरु सुणवै को सार एहि, जिण प्राणाधार नर भव लाहो लीजिए ॥ ५२ ॥ प्रति-प्रतिलिपि
[अभय जैन ग्रन्थालय ] (१८) सवैया बावनी । पद्य ५६ । रचयिता-बालचंद्र ।
आदि
अकल अनंत ज्योति जाणी है यनेक रूप, असे इष्ट देवकू समरि सुख पावनी । हृदय कमल जम्) अति ही .. ..सा सुनत सब संत महावनी ॥ सुगम सबोध या देखें ही ने बुद्धिं बरै, होत सब सिद्धि दुर बुद्धि की नसावनी । .............ति कवि कवित्त की नमन के श्रानंदकु करति चंद बावनी ॥ १ ॥
इह विधि बावन वरण अधिकार सार, विविध प्रकार रची रचना बनाइकै । बुद्धि रिद्धि सिद्धि को अपार पंथ जानौ याते, भूलि परि सोधिये सुकवि मन लाइकै । विनयप्रमोद गुरु पाठक प्रसाद पाइ, निज मति चातुरी सो सुजन मुहाइकै । अवसर रसको सरस मेघमाला सम, बालचंद्र बावनी को परम प्रभाइक ॥ ५६ ॥ इति सवैया बंध यावनी पं० बालचंद विरचिता संपूर्ण । लेखनकाल-१८वीं शताब्दी । प्रति-पत्र ४ पंक्ति १७ । अक्षर ६० साइज १०॥४॥
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ]
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( १६ ) हेमराज बावनी । पद्य-५७। रचयिया-लक्ष्मीवल्लभ (राज)
आदि
अन्त
( ६४ )
ऊँकार अपार अगम्म अनादि, अनंत महंत घरे मन में । ईह ध्यान समान न थान है ध्यान किये श्रघ कोटि कटै छिनमें । करता हरता भरता धरता, जगदीस है राज त्रिलोकन में । सब वेद के श्रादि विरंचि पढ़यौ, ऊँकार चढ्यौ धुरि बावन में ॥ १ ॥
X
X
अन्त
÷
श्रागम ज्योतिष वैदकु वेद जु, शास्त्र शब्द संगीत सुधावन । की ये करेंगे कहै है सु पंडित, आपने थापने नाउं रहावन || भारतीजू को श्रपार भंडार हैं, कौन समर्थ है पार के पावन । राज कह कर जोरि कै प्याइये, अक्षर
ब्रह्म सरूप है बावन || ५७ ||
लेखनकाल- १८ वीं शताब्दी |
प्रति- १ । पत्र ४ । पंक्ति १५ | अक्षर ५२ | साइज ६x४/ 1
[ स्थान- अभय जैन ग्रंथालय ]
( २० ) हंसराज बावनी । पच-५२ । रचयिता- हंसराज | श्रादि
ऊँकार घरम ज्ञेय है न जाने, परतत मत मत छोहि मोहि गायो हैं । जाको भेद पात्रै स्यादवादी वादी और कहा जाने माने जाते थापा पर उरकायो है | दरत्र सरबत लोक हैं अनेक तो भी, पर जे प्रवान परि परि ठहरायो है ।
सो जिनराज राज राजा जाके पांय पूजे, परम पुनीत हंसराज मन मायो है ॥ १ ॥
ज्ञान को निधान सुविधान सूरि बर्द्धमान, सो विराजमान सूरि रत्नपाट उयू | परम प्रवीन मीन केतन नवीन जग, साधु गुण धारी अपहारी कलिकाट ज्यू ।
ताको प्रसाद पाय हंसराज उपजाय, बावन कवित्त मनिपोये गुनपाट व्यू | ate विचार सार जाको बुध अब धारि, डोले न संसार खोले करम कपाट ज्यू ॥ ५२ ॥
विशेष- ३
- इसका नाम ज्ञान बावनी भी है।
[ स्थान-जयचंन्द्रजी भंडार ]
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(६५)
(१) अध्यात्म बारहखड़ी । पद्य ४३६ । रचयिता-चेतन । सं० १८. ३ जेठ सु०३ आदि
करम भरम सब छोड़ के, धर्म ध्यान मन लाव । क्रोधादि प्यारो तजी, हो अविचल सुखपात्र ॥१॥
अध्यातम बारहम्बड़ी, पूरी भई सुजान । सब सेनालीस अंक के, चेतन भाख्यो ज्ञान । अंक अंक दोहे धरे, बार बार गुन खान । सब च्यार से बतीस है, बारहखड़ीके जान ॥ संवत् ठारे वेपने, सुकल तीज गुरुवार । जेठमास को झान यह, चेतन कियो विचार ॥ यामै जो कछु चूक है, ते बकसो अपराध । पंडित धरी सुधार के, तो गुण होई अगाध ॥ ज्ञान हीन जानी नहीं, मन में उठी तरंग । धरम ध्यान के कारगणे, चेतन रच सचंग ॥४२५॥
[ अभय जैन ग्रंथालय ] ( २ ) जैन बारहखड़ी । २० सूरत श्रादि
प्रथम नमो अरिहंत को, नमो सिद्ध श्राचार । उपाध्याय सर्व साध कुं, नमतां पंच प्रकार ॥ भजन करो श्री श्रादि को, अंत नाम महावीर । तीर्थकर चौवीस कू', नमो ध्यान पर पीर ॥ २ ॥ तिन धुन सुंवानी खिरी, प्रगट मई संसार । नमस्कार ताकौ करौं, इकचित इकमन धार ॥ ३ ॥
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जा वानी के हनत ही, बाभ्यो परमानंद ।
मई सूरत कछु कहन कुं, बारहखड़ी के छंद ॥ ४ ॥ नं०५ से ३६ तक कुडलियों हैं। अन्त
भारहखड़ी हित मु कही, लही गुनियन का रीस ।
दोहे तो चालीस है, छन्द कहे अत्तीस || ४१ ॥ प्रति-पत्र ३।
[अभय जैन ग्रंथालय ] ( ३ ) बारहखड़ी । पद्य ७४ । रचयिता-दत्त । सं० १७३० जे० व० २
आदि
संवत् सतरह से साठे समै, जेठ वदी तिथि दूज । रवि स्वाति बारहखड़ी, करि कालिका पूज ॥ १ ॥ करी कालिका पूज, भवानी धवलागढ की रानी । असुर निकंदन सिंध चटी, मईया तीन लोक में जानी ॥ सुर तेतासौ महादेव लौं, ब्रह्मा विष्णु बखानी । नमस्कार करि दत्त कहै, मोहि दीजो अागम वानी ॥ २ ॥
अन्त
जंबू दीप याको कहै, गंग जमना परवाह । भरथ खेडा बलवड मु, नरपति नवरंग साह ॥ ७३ ॥ हरयाण मै मइल मैं, दिल्ली तखत गुलयारा । वार सहरि विचि नगरु लालपुर, जिति है रहन हमारा ॥ दयारामजी करी दास है, इगवड जन्म द्विज यारा ।
दानो वंस दत्त की चरण, पगनीयां पर बलहारा ॥ ७४ ।। इति बारहखड़ी समप्तं। सं०
ले० संवत् १८५८ वर्षे फाल्गुन सुदी २ शनि दिने पूज किर पारिख लिखतु। वेरोवाल मध्ये। प्रति-पत्र २
[अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर )
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( १ ) अक्षर बत्तीसी ( बराबड़ी ;-कृष्ण लीला । पद्य-३८ । रचयिता-उछलाल । रचना काल-संवत १८०६ में पूर्व । प्रादि
ॐ नमो मु सारदा, वरदानी माहा माया । अपने गुरु की कृपा , पूजू हरके पाय ॥ १ ॥ पूजहर के पाय, बनाय वगम्बड़ी । संति भगत मन भाय, मबद सभ्यां खंगे । पहें मुनी जन कोई महा सुख पाव है । 'हरी हरी हरदे बहही, गुण जो गाव हैं ॥ १ ॥ कका केवल गम कहु, कही सत गुरु बात । अवसर के पागपति, फिर पोर पछतात ।
अन्त
मा कन्ट्र बराह धार श्रौतार गिणजै देवाज दान मले प्रेम संतन बसिधि में । पगा मई नर्मिध जेन हरनाकम मास्थौ वाबन बुध बल छल्यौ मा द्विजगज निदा” ॥
श्री रामचन्द मघवंम पनि, कि- नाम सोमा सरस ।
बुधा अवतार निकनं. कवि, लच्छलान कू देदवस ॥ २ ॥ इति श्री अक्षार बनोम कृष्ण लीला समान ।। बराखरी ।
लम्बन काल-संवत् १८०६ वर्ष मिनि जेठ यदि ५ दिने बुधवारे पं० हरचन्द स्तिग्यंत । श्री भूकरका मध्ये। प्रति-पत्र ३ । पंक्कि १६ । अत्तर ४५ । माइत १०४५
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( २ ) अक्षर बतीसी । रचयिता-अमरविजय । श्रादि
ॐकार ग्राराधीये, जाम मंगल पंच । जिस गुण पारन पावही, वासत्र सेस बिरंच ॥१॥
१ पाठा दुख दरिद अध मिटै हरे हर गाइये ।
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(६८)
छन्द वासव सेस विरंच नपावै, मैं मूरख किण गानो । पूत हेत जिम हरिणी थावे, हरि सनमुख हित यांनो ॥ त्युमै जिणगण्य भक्ति तणे वस, पाव अक्षर बत्तीसी । अमर कहै कविजन मति हसीयो, मैं हूँ मंदमतीसी ॥ १ ॥
प्रखर बतीसी छंद वणाये, पढीयो नीकी धारणा । शाना बरणी रूप के कारण, यातम पर उपगारणा ।। अमर विजै विनवै संतनि सौं, यसुध जिहां सुध कीजौ ।
श्री जिण वाणि सुधा सुं अधिकी, मणत श्रवण भर पीजो ॥३०॥ इति श्री अखर बतीसी संपूर्ण । प्रति- पत्र १० की, जिसमें इसी कवि की स्यादवाद बतीसी, उपदेश यतीमी है। पं० १२, १०४०।
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( ३ ) कका बत्तीसी लिख्यते-रचियता-मिवजी सं० १८७० पादि
प्रथम विंदायक सुभरिय, रिध सिधि दातार । मन वंछित की कामना, पूरै पूरन हार ॥ पूरे पूग्नहार, छन्द कुंटलिया माहि । कीजे मिवजी चित लाइ बनाऊ कका गिर थम । हंस चदी सरसती बिंदाय गुरु प्रमथ ।
अन्त:
बाद छा अांबेरि का, अब जैपुर के बीचि । जोबनेर में थापियो, कको मनकृ' खेचि ॥ कको मनकु बैंचि, हारिनाथ से ठीकी । जवालादेवी प्रताप, श्रोर रछप्त-सब ही को । कहै सिवजी चित लाय देखि, लीजो धरि बाहु । कुल श्रावग प्राचार जाति, सोगाणी श्राद् ॥
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(
E
)
खारी खदरू ओर, जोबनेर में काज । अटल तेज रविड तनु, प्रतापसिंघ के राज । प्रतापसिंघ के राज श्रादि बिरि कही जे । मिती पोष सुदी तीज, बिहसपतिवार कही जे । ठारा सै तीस फही स्पोजी ये धारि ।
सांभरी की पैदासि होत, इबरु पर खारि ॥ पं०५ सं० १९७० वि० नागरीदास इश्कचमन और चत्र मुकट वात आदि भी इसमें है।
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] ( ४ ) कका बत्तीसी । श्रादिअथ कका बत्तीसी लिख्यते ।
कका कहा कहुं किरतार कु. मेरी घरज सुनलेय । चतुरनार संदर कहै हीण पुरख मत देइ ॥ १॥ खखा खेलत २ में फिरी चेल कहा की साथ । अब दिन के भरूं वरस बराबर जात ॥ २ ॥
अन्त
हहा हरसु वेमुख हुई करेन कोई मार । मुरख के पले पडी मोरन पूजी वार |॥ ३३ ॥ कका बतिसी एक ही ग्राम मास मझार ।
ससी श्रांक के योग में भानु शुक्ल गुरुवार ॥ ३४ ॥ इति श्री कका बत्तीसी संपूर्णम् ।।
लेखन-संवत् १९२६ ग मिति भीगसर सुदि १२ दिने लिखितं श्री चंदनगर मध्ये ।। श्री ।।
प्रति-गूटकाकार । पत्र-२। पंक्ति-२३ । अक्षर १८ के करीब। साइन॥x ७।।
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(झ) अष्टोतरी, छत्तीसी, पच्चीसी आदि ( १ ) प्रस्ताविक अष्टोत्तरी । पद्य- ११२ । रचयिता- ज्ञानमार । रचनाकाल १८८१ श्राम । विक्रमपुर । आदि
श्रामता परमात्मता, लक्षणता एक । यातें शुद्धातम नगे, सिद्ध नमन मुविवेकः || १
मना प्रवर्चनमाय 'ग, त्यो याकांश समास । संवत यासू माम पुर, विक्रम दम चौमास ||११|| इक सय नय दोहे सुगम, प्रस्ताविक नवान् ।
बस्तर मारक गर,ज्ञानसार पनि कान || १२|| इनि प्रस्ताविक अष्टोत्तरी संपूर्ण ।।
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( २ ) रंग बहतरी । म० ७१ रचयिता-जिनरंग मृरि । श्राहिअथरंग बहतरी लिग्यत ।
लोचन प्यारे पलक कों, कर दोऊं वल्लभ गान । जिनरंग सजन ते कहथा, और बात की बात ॥ १॥ भानी को मत फिकट सौ, जिनरंग सम्जन दाख । मन कपटी पर नारि को, गहरना की लाख ॥ २ ॥ अपनों अपनों क्या करै, अपनो नहि सरीर ।
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जिनरंग माया जगत की, ज्यू अंजल को मार ॥ ३ ॥
जिनरंगसूर कही सही, गा खरतर मुख जोस ।
दूहा बंध बहुसरी, बाँचें चतुर समाय ॥७॥ इति श्री जिनरंगकृत। पत्र-२
[अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ]
छत्तीसी ( ३ ) प्रात्म-प्रबोध छत्तीसी । पद्य ३६ । रचयिता-ज्ञानसार । आदि
अब मंगल कथन ग दोहराश्री परमातम परम पद, रहे अनंत समाय । ताको ई वंदन करूं, हाथ जोर मिर नाय ॥ १ ॥
अन्त
श्रावक भामह सौ करे, दोहादिक पट नीस । शान सार दधि'सार, लौ, ए बातम बतीस ॥३६॥
[अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ] ( ४ ) उपदेश छत्तीसी । रचयिता-जिनहर्ष । सं०१७१३ ।
जिन स्तुति कथन इकतीसा
जिन
श्रादि
सकल सरूप या प्रभुता अनूप भूप, धूप छाया माया है न चैन जगदीश सू । पुण्य है न पाप है न शीत है न ताप है, जाप के प्रज्ञा प्रगर्दै काम प्रतीस ज॥ शान को अंगज पंज मुख वृक्ष को निकज, अतिशय चौतीस या बच्चन पैतीस जू । सो जिनगज जिनहरम प्रथमि, उपदेश की छत्तीसी कहूँ सवाये छत्तीस ज् ॥ १ ॥
भई उपदेश की छत्तीसी परिपूर्ण, चतुर नर जे याको मभ्य रस पीजियौ । मेरी है अलप मति तो भी मैं किए कवित, कविता हूँ सौ हूं जिन अंध मानि लीजियौ । सरस द्वे हे वलाण जाऊ अबसर जाण, यह तीन याके भैया सबैया कहीलियौ । कहि जिनहर्ष संवत् गुरु मसि भक, कीनि है तु मुणत शाबास मोकू पीमियौ ॥ ३६॥
[अभय जैन प्रन्यासय, बीकानेर]
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( ५ ) करुणा छत्तीसी । माधोराम । पादि
श्री गणेशायनमः ॥ अथ करुणा छत्तीमी लिख्यते ।
कवित्तऐरे मेरे मन काहे विकल बिहाल होत, पत्रभुज चिंतामनि तेरी चिंत हरि हैं । धारको घर अंथर विसमा कहावत है , भोमे दीन दुरबल को कैमे विसरि है ।। असरन सरन जैसो विरद जो धरावत है , भीर परे भगतन को कैसी भात टरि हैं । बार न की बार कछु करी नहीं कार मौष कैपे के अंबार वे हमारी बारि करि हो ॥ १ ॥
करन अपराध मोर मामकोर कोर नित , अनहीक गेर मन और की निकाम छ। अरचा न जान कह चरचा न बझत हूँ , कब रेत प्रीत सौं न लेत हरि नाम है। सबै तकवीर बलवीर मेरी छीमा करी , * माधोगंभ प्रभु तुहागे गुलाम हूं ॥ ३६ ॥
या करणा छत्तीसी को, पदै सनै नर नार ।
ताकै सत्र दुख दंद को, काट किसन मुरार ॥१॥ इति श्री करणा छतीमी लिखतं संपूरणं ॥ लेखन-संवत् १७६६ रा मिती मिगसर बद । भोम । प्रति-गुटकाकार । पत्र। पंक्ति १६ । अक्षर २० । माइज-ex
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( ६ ) चारित्र छत्तीसी-पथ-३६ । रचयिता-मानसार ( नारन ), पादि
झान धरी किरिया कगै, मन राखा विश्राम । पै चारित्र के लेण के, मत रावी परिणाम ॥ १ ॥
कोध मान माया तजे, लोम मोह अरु मार । सोइ सुर सुख अनुभवी, 'नारन' उतरै पार ॥ ३५ ॥ विन विवहारै निश्चई, निष्फन्न कयौं जिनेश । सो तो इन विवहार में, वाको नहीं लवलेश ॥ ३६ ॥
[ अभय जैन प्रन्थालय, बीकानेर ] (७) ज्ञान छत्तीसी । रचयिता- कान्ह । मादि
श्री गुरु के पद पंकज की रज, जकि अंजकि नैननि के । जाति ज- तम दरि भनें, परखें सु पदारप नैननि कं ॥ नहि नक रूप अनूप, धरूं उर नाही के बैननि कू । काहजी झानछतीमी करें,सुम ममत है शिव जैननि कं ॥ १ ॥ जल मांभि थल माझि पर्वत की गुफा माझि , जहां तहां विष्णु व्यायौ कहाँ ही न छेहग । ऐसे कयो शारत्र गोता मन माझी प्रानि मीता , होइ रह्यो कहा अब मूरख को मेहरा । जात्रा काज काहे जावो परे परे दम्ब पावो , बोरि देहु पाठसाठ (६८) तीरथ ते नेहरा । काहजी कह रे यारो, बात ग्यान की विचारो , प्रातम. सौ देव नाही, देह जैसो देहरा ॥ २ ॥
३१ वें पा से ( तीसरा पत्र प्राप्त न होने से ) अधूरी रह गई है। प्रति-पत्र २ ।
[अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ]
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(८) माव पटनिशिका-पद्य-३६ । रचयिता-बानसार ।
रचनाकाल-संवत् १८६५ का० सु०१। किशनगद । प्रादि
শিক্ষা মন্তব্য কন্তু না, গণ অণু গীত। मरि सम नरके गौ, तन्दुस सच विशेष ॥१॥
सर" रस गज- शशि' संक्तै, गौतम केवल लोन । किसनगई चउभास कर, संप्रण रस पीन ॥ ३८ ॥ , प्रति रति भावक आग्रहै, विरची नाव संबंध ।
रत्नराज गणि शोस मुनि, ज्ञानसार मति मंद ॥ ३९ ॥ अति श्री भाष पट त्रिंशिका समातागतम् ।
ले०प्र० संवत् १८७५ वर्षे ज्येष्ठ वदि ६ दिवापति वासरे श्री खंभनयर मध्ये हार बाटके लिपिकृतं शीघ्रतरम मुनि रत्नचंद्राय पठनार्थम् ।
[अभय जैन प्रन्थालय. बीकानेर ]
(6) मति प्रबोध छत्तीसी । दोहा-३६ । रचयिता-ज्ञानसार । आदि
तप तप तप नप क्यो करै, क तप बातम ताप । बिन नप संयमता भजी, कूर गहने बाप ॥ १ ॥
पहि जिनमत कौ रहिस, दया पूज निममत्व । ममत सहित निम्फल दऊ, यहै जिनागम तत्व ॥ ३५ ॥ मतमबोध पत्रिंशिका, जिन पागम अनुसार।
झानसार भाषा मई, रची बुद्ध प्राधार ॥ ३६॥ इति मतिप्रभोध छत्तीसी समाप्ता ॥
[अमव जैन प्रबालब, बीकानेर ]
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(१० । स्थूलि भद्र छतीसी । पं० ३७ रचयिता-कुशतालाभ । आदि
साद शरद चंद्र कर निर्मल, ताके चरण कमल चितलाइकि । सुरणात संतोष दोइ अमण कू, नागर चतुर सुनहु चितचाहकि ॥ कुशललाम ति मानन्द मरि, सुगुरु प्रसाद परम सुन्ध पाइकि । करिहं थूलभद्र छत्तीमी प्रति मन्दर पदबंध बनाइकि । । ।
वमा वाइक मुधी भयर लजित मुग्छि, मोच करि मुगुरु कर पाम पाई । चूक अब मोहि परी चण ताद सिर धरि, ঋণ ও আখ মা ।। धन्य धूलिभद्र रिषि निर्मल पाव, नाहि कर सारस पूण नर कहाव । घरति जे अहम तप सुजस तिनका,
गृवन कुशाल कवि परम श्रानन्द पावर । ३.७ ।। प्रनि-गुटकाकार पत्र में ६८ ! पं० १३, २४ !
[ अनूप संस्कृन लाइब्रेरी
(११) अलक बत्तीसी-रचयिता-मीतारामजी अथ मीतारामजी कृत अनक बसीमी लिख्यते ।
देह सारदा बरपते, सीपत करत प्रनाम । पतीमी दोहा कहाँ, पलक बसीसो नाम ।
कमल फूल विधिना रच्यो, निय पानन मतिमूल । मनोपान मकादं करि, अलक अलि उनिल ॥
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( १०६)
श्रलक पोप बरनी कहा, जानी सिंधु समान ।
जहं बहं पहुंची मोहि मति, तह तह कियो बखान । इति श्रीसीताराम कृत अलख बत्तीसी संपूर्णम । प्रति-पत्र २, पत्राकार, पं० ३२, अक्षर ३८, माइज ५१x१॥
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय (१२) उपदेश बत्तीसी-पय-२३-रचयिता-लामी बल्लभ । श्रादि
श्रातम राम सयाने मूठे मरम भुलाना । झते २ कर, किसके माई किसके भाई, किसके लोग लुगाई ।। वून किमीका को नहीं तेरा, पापो श्राप महाई ।। ३१ ।। {
४स काया पाया कर लीहा, मुफत कमाई कीजै ।
गज करें उपदेश बत्तीमी, सतगुभ सीव हणीजे ॥ ३२ ॥ इति उपदेश बत्तीमी लक्ष्मी वल्लभजारी कीधी । लेखक-विहारीदाम लिस्वितं । प्रति-पत्र-३
| स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] । ( १३ ) बतीसी । रचयिता-यालचन्द (लौका गंगादाम शिष्य ) गाथा
३३ । सं० १६८५ दावाली ! अहमदाबाद ।।
बालचंद कृत बत्तीसी लिग्न्यतःपादि
अजर अमर पद परमेश्वर कुं ध्याये । सकल पतिकहर विमल केवलधर, जाको वास शिवपुर तास सब लाइए । नाद, किंतु, कप, रंग, पाणि पाद. उत्तमांग.
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धादि अंत मध्य भंग जाको नहीं पाइयो । संघण संद्राण जाण नहि कोई अनुमान, ताही कुं करत ध्यान शिवपुर जाइए । मणे मुनि बालचंद, मुसोहो मविक वृक्ष अजर श्रमर पद परमेश्वर कुं भ्याइऐ ॥ ५ ॥
महामंद सुखद रूप मंद जाति । श्रीया रूप जीव गणि कुंवर श्री मलिल पनि रतनमी जम धणि त्रिभुवन मानी ई विमल शासनजास. मुनिश्रीय गंगदाम
रन दीक्षित तास बत्रीमी सम्माणि ये । वाण वस रमचंद दीवाली मगान वद
श्रहम्मदाबाद दंग, रंग मन प्राधिये ॥ ३३ ।। अनि श्री बालाचंद मुनिकृत बाग्मी मयुगा ! म० परनापसागर पठन कृत ।। १ ।। म० १८५६ लि. कोटई। पति-पत्र में १० । पं. १३ । अ. ४५ ।
[ समय जैन ग्रंथालय (१४) राममीता द्वात्रिंशिका । रचयिना- जगन पुहकरगा श्रादिमरसति मभर सरिम बुधि दीजें मोहि, न पाय गणपति गुगाह गंभीर के ।
चित हुइ के गरु छल्ल कुं प्रणाम करू, जाके गुण अहसे जइसे गुण दधि वीरके । जेने कवि कलिमइ कल्लोल करै कविता के, वचन रचन र पवित्र गंग नीरके । तिनके प्रसाद कीने जगन मगत देन, सबाये छत्रीस राना राम रघुबीर के ॥ १ ॥
सणिये अ श्रति पारि तरिय दधि संसार, जाइये त जम लोक जम्म ते न डरना । मील न पाईयत नरक न पाईयत, अनम पवित्र होत पाप में न परना ।
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भनेक तीरथ पल कटन काया के मन, मन बच म करि ध्यान जाप करना । सवाया उत्रीस राजा सम रघुबीर जू के, जपति जगन कवि जाति पडु करना ॥ ३३ ॥
इनि राम सीता द्वात्रिंशिका ममाता"
लेखनकाल-१८वीं शताब्दी। प्रति-प्रति नं०१-पत्र-३, पंक्ति १७, अक्षर-५०, साहस १०४४||
प्रति नं० २-पत्र-३, पंक्कि १८, अक्षर-५०, माइज १०x१|| ___इम प्रति में लेखक ने प्रारम्भ मे 'अथ रामचन्द्रजीरा मबइया लिन्यते लिम्बा है और अन्त में, इनि श्री जगन बनीमी संपूर्ण" लिखा है।
[ स्थान-अभय जैन पुस्तकालय ] । १५ ) समकित बतीसी । पन्ध ३३ । रचयिता-कंवरपाल । श्रादि
केवल रूम अनूप बातम कृप, संसार अनादि अझर । परगन रचर तत्र वलित फल, मुचित मान उनमान न बूझर ।। अब इलाज जिनराज वचन मह, धरम जिहाज तरया कुं तूझ । कंवरपाल सुध दिष्टि प्राणा, काय मुदिद करुणाकर मुझद ॥
हुनी उछार सुजस बातम सुनि, उत्तम जौके पदम रस मिन्ने । जिम सरहि विण चरहि दूध हुइ, ग्याता तेम वचन गुण गिन्ने । नित्र बुद्धि सार विचार अध्यातम, कबित पत्तींसी मेट कवि किन्न ।
कवरपाल अमरेम तनोत्तम, अति हित चित यादर कर लिन्नै ॥ ३३ ॥ इति कंवरपाल बत्तोमी समाप्त । प्रति-गुटका कार ! पत्र २०२ मे २०५।
[अभय जैन ग्रंथालय] (१६) हित शिक्षा प्रात्रिशिका । पद्य-३३ । रचयिता-क्षमा कल्याणा । प्रावि
मंगलाचरण रूप ऋषभ जिनस्तुति सवैया ३२,
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(१०)
सकल बिमल गुन कलित ललित तन, मदन महिम बन दहन दहन सम | अमित सुमति पति दलित दृरित मति, निशित विरति रति रमन दमन दम । सधन विधन गन हग्न मधुर पनि, धरन धनि नल अमल अमम सम । जयतु जगति पति ऋषम ऋषम गति, कनक चरन दुति परम परम गम ||१||
दोहा श्रातम गुण झाता सुगन, निरगुण नाहि प्रवीन । जो शाता सो जगत में, कब होत न दीन ।। २ ।।
निज पर हित हेतें रची, वतीसी सुखकंद ।
जाके चिंतन से अधिक, प्रग, ज्ञानानंद ।। ३२ ।। पूग्णा ब्रह्म स्वरूप अनुपम, लोक त्रयो किव पाप निकंदन । सुन्दर रूप सुमंदिर मोहन, सोवन बान सरीर अनिन्दन । श्री जिनराज सदा मुस्व साज, सु भूपति रूप सिद्धारथ नन्दन । शुद्ध निरंजन देव पिछान, करत क्षमादिकल्याण सुवन्दन ||१||
स्थान- प्रतिलिपि अभय जैन प्रन्थालय । (१७) कुब्जा पच्चीसी । रचीयता -- मलूकचंद पादिअथ कुछता पच्चीमी लिख्यते ।
दोहा धनपति की संपति लहै, फनपति सीतम हो । चाहत नो धनपति भयो, नित गनपति मुल जोइ ।। १ ॥ जग में देवी देवता सबै करै अगवान । बेद पुराननि में मुनि, सर्वमयी भगवान ।। २ ।
अन्त
१- धन,
२- सीमति
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( ११०)
गुन तिनको सूझत नहीं, प्रौगुन पकरे दौर । कही मलुक तिन नरन को,हरले नाही ठौर ॥ ६३ ।।
आके भ्यान सदा यहै, ताकी हो बल जान ।
कुब्जा पच्चीसी सनौ यह प्रन्थ को नाब ।। ६६ ।। गोपिन को उगहनो उद्धव प्रति-इसके बाद २६ पद और है जिनमें से अन्त का इस प्रकार है।
क्यों कर पाऊ' पार, इनके प्रेम समुद्र कौ।
अपनी मत अनुमार, को सूचिम यो सकल कवि ।। १ ।। इनि श्री मालूकचद्र कृते कुछजा पच्चीमी संपूर्ण श्रीस्तु।। लेखन काल-भवन १७८६ वर्षे मिनि फाल्गुन सुदी ४ बुधवार प्रति- १. गुटकाकार पत्र ८२ से १०३ । पंक्ति ११ । अक्षर- १५ माइज x ६
२. पत्र.४.पंक्ति- १६, अक्षर-४२, माइज-- १०॥४५
३. पत्र-- ३, पक्ति-- १८, अक्षर-- १४. विशेष- इम गुटके (१) में इस प्रति मे पहिले ऋतुओं के वर्णन में हिन्दी कवित है। स्थान- प्रति (१) अनृप संस्कृन पुस्तकालय।
प्रति (२) अभय जैन ग्रंथालय । इस प्रति मे " श्रीमान महाराज कुमर मलूकचन्द विरचिताय" कुब्जा पच्चीमी समाप्तम लिम्बा है। (१८) कौतुक पच्चीसी। पद्य २७ । रचयिता-काल, मंबन १७६१
पाति-- कामत दायक कल्पतरू, गनपति गुन को गेहु ।
कुमति अन्धेरे हरणक, दीपक सी बुधि देहु, ।१।। प्रारंभ--- मत रमा विपरीत रति, नामि कमल विधि देखि ।
नारायन दबंधन नगन, मदत केल विशेष ।।१।। अन्त -- मत से इगमति समैं; उत्तम माहा श्रसाद ।
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दुरस दोहरे दोहरे, गुप्त वर्ष करि गाद ।।२।। सदगुरु श्रीध्रमसिंहज, पाठक गुणे प्रधान । कौतुक पच्चीसी कही, कवि वणाम काल ॥२७॥
इति कौतुक पच्चीमी समानः । ले० मं० १८२२ माधव शुक्ला पचभ्यां । श्री मेहता नगरे । प्रति-पत्र २, पंक्ति १६, अक्षर ४३ ।
१- दानसागर भंडार ।
२- अभय जैन ग्रन्थालय। ( १६) छिनाल पचीसी । पद्य २६ । रचयिता-लालचद श्रादि
परमख देख अपण मुख गो, मारग जाती लटका जो । नामि मंडन्त जो बहिसि दिखावै तो बिनाल क्या होल बजावे ।। १ ।।
एफ संमें इकतीया निहाली, हयन संग करनी छीनाली ।
तालचन्द श्राबर समझाये, तो बिनाल क्या टोल बनावें ॥ २६ ॥ प्रति
पत्र १, जिमम गीदड़ग्रमो, मास्वमोलही श्रादि भी है।
दानसागर भण्डार । २०. भागवत पच्चीसी. श्रादि
प्रथमहि मंगलाचरन गास किया चदसूता मो सोनकादिक बाद रम भयों है। उत्तर में अवतार भेद व्यास को संताप नारद मिलाप निन पालाप उच्चयों है । भागवत करी शुकदेव की पठाय कुंतीविने माम स्तुति । रिनत जन्म भयों है । कलियुग दंड भगया में मुनि सराप ग्रह त्याग गंगा तट शुक सौ प्रश्न कों है ।
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(११२)
दशमा सर्वया लिखते छोड़ा हुआ है अत: अन्ध अधूरा ही मिला है।
प्रति
पत्र-२ । पंक्ति-१३ । अक्षर-४५ । साइज १०॥x ||
स्थान- अभय जैन ग्रन्थालय । (२१) मोहणोत प्रतापसिंह री पच्चीसी । पद्य २५ । कवि सिवचन्द ।
अथ ग्रन्थ प्रताप पचीमी प्रादि
कवित दोष जाने सबै वाधनन्द परवीन ।
ताते य नही को धरे, करि के कवित नवीन ॥ १ ॥ अथ असलील दोष लक्षणं ।
दोहा।
तीन भान असलील है, एक जुगपसा नाम ।
बीड पमंगल जानियें, ग्रंथ नमत गुन धाम ॥ २ ॥ अथ जुगपमा लक्षणं।
पढत ग्लान उपजै जहां, तहाँ जुगपमा जान । सबद विचार प्रवीन कवि, कवितन में जिनान ॥ ३ ॥
वाता
___यहाँ लिंग शब्द की ठौर रचि न कहयो चाहिये । लिंग ब्रीडा दूषन हो ।
कवित्त दोष न दिखाय मेकूगुन समझाय नेकू कविन रिझाय बेफू महावाक वानीसी । अमित उदारन कू रस री झवारन कू सूर सिरदारन कूः सिण्या की निसानीसी मन मगरू रन के कपन कारन के मान काट बेफू भई तिप्यन पानीसी ।
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कवि सिवचन्द जू पच्चीस का बनाई यह बाघ के प्रताप को अकौरति कहानसी ॥ २५ ॥
होहा यह प्रताप पचीसका, पटै गुनै चित लाइ
कवित दोष सब गुन सहित, समझै सवै बनाय ।। १ ॥ इति श्री संवक्र सिवचन्दजी कृत किसनगढरा मोहणोत प्रताप सिंघरी पचीसी सपूर्ण
मं० १८५७ ना वर्षे पोष माम शुक्ल पक्षं २ द्वितीया तिथी बुधवासरे इन्ध पुस्तक संपूर्णो भवता ।
पंडित श्री १०८ श्रीज्ञानकुशलजी तच्छिष्य ५० कीर्तिकुशलन लिखितात्मार्थे । प्रति परिचय-पत्र ६ साइज १० x ४।।। प्रतिष्पृ० पं० १३, प्रति पं अ० ४०
[गजस्थान पुरातत्व मन्दिर, जयपुर ] ( २२ ) राजुल पच्चीसी- विनोदीलाल श्रादि
प्रथमहि हो समरू परिहतदेव सारद निज हिय धरी । बलि जीव वे बंदो वे अपने गुरु के पाय, राजुमतीगुन गाइस। वलि गाउ मेरी गजुल पचीसी नेम जब व्याहन चले दखि पसु जिय दया ऊपजी, धारि सब वन को हली । गिग्ना गट पर जाय के प्रभु, जैन दीक्षा श्रादरी जन्म तब कर जोरि यहु, वाने सो बीनती करी ।।
भवियन हो, मवियन हो जो यह पटै त्रिकाल अरु सुर धरियह गावही ।
जो नर सुद्धि समालि, द्वादश मावन मावाह ।। यह भावना राशल पचीसी जो कोई जन भाव हि । सो इन्द्र चन्द्र फनीन्द्र पद धरि, अन्त सिवपुर जावहि ।। भानन्द चन्द विनोद गायौ, धनत सब जन ग्रहन । राजन्न श्रीपति नेम सब, संग को रक्षा करो ।।
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ले० १७८२ मगसिरवदी ६, दिन पं० प्रवर मनोहर लिखतं साथी केशवजी पठनी। प्रति पत्र ३, पं०१५, अ०४६
(स्थान-अभय जैन पुस्तकालय ) ( २३ ) मूरख सोलही । रचियता-लालचंद । पद्य १७ श्रादि- अथ मूरख सोलही लिख्यते
कुबुधी कदे न श्रावइ मन सा काम की, घुस राति मन माहि जउ तिमना दास की । मली बुरी कछु बात न जाणइ श्राप था, बरु मुरख सिरु सींग कहा होइ नव हत्था ।।
समझो चतुर सुजाण. या मूरख सोलही । किवरी विरत विचार, सुकवि लालचन्दै कही । समझ धारिख एह, कुसज्जन संग था।
अरु मृरख सिरु सींग, कहा होइ नवहत्था ॥ १७ ॥ प्रति- गीदड़ रासो वाल पत्र १ में लिखित ।
( दानसागर भंडार)
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जैन साहित्य ( १ ) अनुभव प्रकाश । रचयिता-दीप ( चंद)। १८ वीं शती
श्रादि
अथ अनुभव प्रकाश लिख्यत ।
दाहगगुण अनंतमय परम पद, श्री जिनवर मगवान ।
गेय लवंत है ज्ञान में, अचल सदा जिन पान ॥ गा
परम देवाधिदेव परमात्मा परमेश्वर परमपूज्य अमल अनूपम पाणंदमय अखंडित भगवान निर्वाण नाथ कू नमस्कार करि अनुभव प्रकाश ग्रंथ करों हों। जिनके प्रसादतें पदार्थ का स्वरूप जानि निज आणंद उपजै। प्रथम यह लोक पट द्रव्य का अन्या है । तामे पंच द्रव्य सों भिन्न सहज स्वभाव सतचित आनंदादि गुणमय चिदानंद है। अनादि कर्म संजोग तें अनादि असुद्ध होय रखा है।
यह 'अनुभव प्रकास'झान निज दाय है । करियाको अभ्यास संत सुख पाय है । यामे घर्ष (अपार ) सदा भवि सई है ।
कहे दीप श्रतिकार आप पद को लहै । इति श्री अनुभवप्रकास अध्यात्म ग्रन्थ समाप्त ।
लेखन काल-संवत् १८६३ वर्षे मिति फागुण शितात् द्वितीयायां चंदजवासरे लिख्यतम्, पम तोदयेन श्री।
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प्रति- पुस्तकाकार | पत्र ३५ से ४८ । पंक्ति २६ से ४० । अक्षर ३० से ४० साइज ७ ११
[ स्थान- अभय जैन ग्रंथालय ]
( २ ) कल्याण मंदिर टीका ( गद्य ) । रचयिता - आम्बेराज श्रीमाल |
आदि
अन्त
राज्ये ।
( ११६ )
अन्त
परम ज्योति परमातमा, परम
बंदौ परमानंद-मय, घट घट
गग-सारंग
जान परवीन |
अन्तर लीन |
यह कल्याण मंदिर की टीका, पढ़त सुनत सुख होई |
आखैराज श्रीमाल ने, करी यथा मति जोह ४५ ।
लेखन काल - संवत १७६६ म० सु० ६ गु०लि० अकबराबादे बहादुरसाह
प्रति- पत्र २५ । पंक्ति- ११ । अक्षर-३३ ।
( ३ ) कल्याण मंदिर धुपदानि । रचयिता - आनंद |
आदि
[ स्थान-सेठिया जैन ग्रंथालय ]
दृहा
आनंद वदत कृपा करहु, श्री जिनवर की वानि
शुभ मंदिर के रचहुं पद, काव्य रथ परमानि ॥ १ ॥
चरणांबुज श्री जिनराज के प्रणमुंहुं सकल मंगलके,
मंदिर अतिहि उदार कया जिके । च० ।
afta faarti Ha भय तारण, प्रसंसित सकल समाज के ।
मव जल निधि से बुडत जगत को, तारण विरूद्ध जिहाजके ॥ २ ॥
वे नर रसिक चतुर उदार ।
पास जिनवर दास तेरे, जगत के शिरवार || १ || वे |
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रूप निरूपम जल सुवासित बनन परम रसार || ॥वे ! नवल झलकत कांति मनुहर, देव के अवतार ॥ विलमि संपद लहई आनंद, मगति के सुख मार ||३|०४४॥
इति कल्यागा मंदिर स्तोत्रम्य ध्र पदानि । लेखनकाल-संयत् १७१०
[ स्थान-प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय] ( ४ ) कुशल विलास । पग-७८ । रचयिता-कुशल । प्रादि
अथ कुशल विलास लिख्यते राजा पर जा जे नर नारि, बाला तरुणा बूढ़ा । श्राला सूका सरव जलेंगे, ज्यू जंगल का कूड़ा। पर घर छोड माड घर घर का घर में कर घर वासा । पर घर में के घर पर है, घर घर में मेवासा ॥ १ ॥
अन्त
धाम विवेफ विना गुरु संगति, फिर फिर वो चौरासी । कुमल कहे चेत सगाने, फिर पीछे पीये पितासी ॥७॥ मुरणे मग वांचे पढ़े, मूल मरम को नास । ।
नाम धयां या ग्रन्थ को, कुमल विवेक विलाम ||८|| लेखनकाल-संवत १८३३, माह वदि १२, रवि वासरे-तत् शिष्य मुनि अभयसागर लिपि कृतं श्री अहिपुर पदण नगरे । प्रति-पत्र ६ । पंक्ति १३ । अक्षर ४०। साइज-१०॥ ४५
[ स्थान-अभय जैन पुस्तकालय ] ( ५ ) कुशल सतसई । रचयिता-कुशलचंद्रजी । पादि
नमन करू महावीर को, जग जन तारण हार । कुशल गुरु कुशलेहु को, देहु सुमति सुविचार ॥१॥
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( ११८ )
विशेष- इसकी पूरी प्रति अभी प्राप्त नही हुई । खवि गांव के यतिवय बालचंद्रचार्य के कथनानुसार बीकानेर में प्रति मोहनलालजी के पास उन्होंने इसकी प्रति स्वयं देखी थी। उनके पास जो थोड़े से दोहे नकल किये हुए मुझे भेजे थे उसी से ऊपर उद्धत किये गये हैं ।
लेखनकाल सं० १८३६
आदि
जिन वानी हिरदै घरी, करहुं गच्छ हितकार । जिहि ते कर्म कषाय का नाश होत ततकार ॥ २ ॥ ज्ञानचंद्र गुण गण रमण भए सन्त श्रुत धार / उनके चरनन में रही, चहु मतसई सार ॥ ३ ॥
[ स्थान- यति मोहनलालजी, श्रीकानेर ] ( ६ ) चतुर्विंशति जिन स्तवन सर्वेयादि - रचयिता- विनोदीलाल, प ७१
X
जाके चरणारविंद पूजित मुरिद इद देवन के वृद चंद शोभा जाके नख पर रवि कौटिन किरया बारे मुख देखे कामदेव सोमा जाकी देह उत्तम है दर्पन सी देखीयत अपनों सरूप भव सातको विचारी 1 कहत विनोदीलाल मन वचन त्रिकाल ऐमे नामिनंदन कृ वंदना हमारी हैं ।
x
श्रतिभारी है ।
बिहारी है ।
X
अन्त
मे मतिहीन अधीन दीन की श्रस्तुत इतनी करें कहां ते अधिक हो जाकी मति जितनी | वर्णहीन तुक मंग होइ सो फेर बनावहु ! पंडित जन कविराज मोहि मत श्रंक लगावहु ||
यह लालपचीसी वन करि बुद्धि हीन ठादौ दई ।
जिनराज नाम चौबीस भजि, श्रुत ते मति कंचन भई || ७ ||
इति चतुर्विंशतिम्लवनं । इति विनोदीलाल कृठ कवित्त संपूर्णम् ।
लिखतं वेणीप्रसाद श्रावक वाचणार्थ ।
लो० श्री सवत् १८३६ भाद्रपद कृष्णा तृतीया सुक्रवार, पत्र १४, पं० १२,
अ० २७
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(१६)
विशेष-श्रारम्भ के 5-6 पद्य आदिनाथ के, फिर नवकार, १२ भावना पार्श्वनाथ के मवैये हैं। पद्यांक १७ में ६८ में २४ तीर्थंकरों के एक २ सवैये हैं।
[स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ७ ) चौवीश जिनपद भादि
नासिरायः कुल बद, मरुदेवी केरे नंद । अधिक दीठ श्रागद, टारइ भव फेरउ । निरमल गांगनौर, सोवन बन्न सरीर । मेवनां संसार तार, जाकई इंद्र चेग्उ ॥ नयरंग कहा लोइ, गाउ २ महु कोड । त्रिभुवन नीको जोइ, नाही हा अनेरउ । मंत्र सेव श्रादिनाथ, सिवपुर फेरउ साथ ।
सुरतरु जाके हाथ, सोहन नवेरउ ॥१॥ प्रति-पत्र २ अपूग, पद ३२ पूर. ३३ वां अधृग रह जाता है। ले-१७ वी तिम्वित ।
[अभयजैन ग्रंथालय ] ( ८ ) चौबीस जिन सवैया धरममी श्रादि
ग्रादि ही को तीर्थ कर श्रादि ही को मिक्षाचा । श्रादि गय आदि जिन च्यारौं नाम आदि श्रादि ॥ पाचमा रिषभनांम पुरै सब इछा काम । काम धेनु काम कुभ को नो सब मादि मादि । मन सौ मिथ्यात मेटि भाव सौ जिणंद मेटि । पावौज्यु अनंत सुख जावोगुण वादि वादि ॥ साची धर्म सीख धारि आदि ही कुं सेवो यार । प्रादि की दहाई भाई जो न बोलै श्रादि श्रादि ॥ १ ॥
त
साधु भाव दस ध्यारि हजार, हजार छतीस सु साध्वी बंदी। गुणमटि सहस्स सिरै लख धावक श्रावकाची दुगुणी दुति चंदी।
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( १२०)
चौवीस मैं जिनराज कहै राज विराजत प्राज सबै सुख कंधौ ।
श्री धुमसी कहें वीर जिगिह कौ शासन धर्म सदा चिरनन्दी ॥२॥ इति-चौबीम तीर्थकरी रा सवैया संपूर्ण । लेः- पं. सायजी लिखतं बीकानेर मध्ये सम्बत १७८१ वर्षे मिनी आषाढ़ सुदी : दिने । प्रति पत्र २, पंक्ति १४ अ. १६
[अभय जैन ग्रंथालय] ( ) चौवीशी । रचयिता-गुणविनाम (गोकुत्तचन्द) सं. १७६२ जैसलमेर
प्रादि
गोकलचन्द कृत चौवीसी । अब मोह तारौ दीनदयाल । सबही मत देखौ मई जिन नित, तुमही नाम रसाल ॥१॥ अ. ॥ यादि अनादि पुरुष हो तुमही, तुमही विष्णु गुपाल । शिव ब्रह्मा तुमही में मर वधै, भाजि गयौ भ्रम जाल ॥ २ ॥ श्राः ।। मोह विकल मूल्यौ भव माहि, फियों अनंता काल । 'गुण विलास' श्री ऋषभ जिगोमर, मेरी कगे प्रतिपाल ।। ३ ॥ या. ।।
अन्त
संवत सतर बाणवै वरमे, माघ शुक्ल दुतीयाए । जैसलमेर नगर में हरषै, करि पूरन सुख पाए । पाठक श्री सिद्धि वरधन सदगुरु, जिहि विधि राग बताए ।
'गुण विलास'पाठक तिहि विध सौं, श्राजिनराज मल्हाए ॥ ५ ॥ इति चौवीम तीरंथकरायां ( स्तवन ) संपूर्ण । लखनक काल - १६वीं शताब्दी । प्रति - १ पत्र । पंक्ति १६ । अक्षर ५४ । २ पत्र २४ को संग्रह प्रति में
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] (१०) चौवीशी जिन रत्न सूरि धादि
राग वेमास तथा श्रीराग | समरि समरि मन प्रथम जिन ।
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( १२१)
युगला धरम नित्रामा मामी निरखा जइते साल दिनं ॥१॥ उपसम म मागर नित नागर र कर पातग मलिनं ।। श्रीनिन रतन गरि मधुकर जिम, रमिक सदा प्रपद नलिनं ॥ २ ॥
अंत
गम बन्गामा:चरवी जिनवर ने गाव विकग्गा शुद्र तिके मत्रि प्राणी. मन यंत्रित पुग्न पावह ॥ १ ॥ श्री जिनराज सूरि वनगर मह गुरु नइ सुप सावद । गति दिवस तुझ गण समस जर एह मात्र मन भाव ।। * जिन रतन प्रमती सानिध, दिन २ यधिक दरबद ।
श्रारनि बद ध्यान दुद परिहरि, धर्म ध्यान नित यावा ।। २ ।। इति बरामी प्राते- ३ प्रांत यां, पत्र १-२-६ जिनमें १ मं. १७१६ मोमनंदन लि.
[अभय जैन ग्रंथालय ) (११ ) चौबीशीपद-कोटारी मगनलाल कृत आदि
रू मत्र ऋषभदेव प्रथम ज़िगांदा । अंत
तोम नव उगनीम संवत, वर्गाच्या प्रभु निर्मला । मगन जिनवर जाप जपता, शुभ दिशा चड़नी कला ॥ ५ ॥
दोहा चौबीसी जिन गुण वरणी, निज बुधि के अनुसार । मगनलाल ने दी लखि, मक्तन के सुखकार ॥ १ ॥ जयपुर राजस्थान में, विदित कार्य के काज । रवे गग पद सुगम करि, सब सुख के हैं साज ॥ २ ॥ तुफीद खलायक मंत्र है, सहद अकबदा बाद । अधकारी मृसी तहो, महावीर परसाद ॥ ३ ॥
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आदि
अंत
तिनको अनुमति पाय के sears पनी ताए ।
भक्त जन के अर्थ एह, करू निवेदन जाए ॥ ८ ॥ लिखतं लछमनदास अंबाले मध्ये मोतीलाल की चोवीसी
( १२ ) चौवीस जिन सवैया आदि । रचयिता - उदय |
( 925 1
प्रथम ही तीर्थंकर रूप परमेश्वर को वंश ही इक्ष्वाकु अवतंश ही कहा है। वृषभ लांछन पग धोरी रहे धीग जाकै, धन्य मम देव ताकी कुधि आयो है ॥ राजऋद्धि र करि भिताचार भेष भये, समता संतोष ज्ञान केवल ही पाय हैं । नामि रायजू को नंद नमैं सुर नर वंदे, उदय कहत गिरि शत्रु जे महायो है ॥ १ ॥
फर संसार मां है श्रायौ तब कीयो स्पर्श, रसना के रस मांहि क्यो दिन गत ही । प्राण के रस माहि श्रायौ तालू थी सुवास, चक्षही के रस रूप देख बहु भांति ही । श्रोत के रस माही श्री गज हुवो मन, विषय नेवी या सब कहिला ही । उदय कहत अब बार बार कहाँ तोहि, हार मोहि तारक तू त्रिभुवन तात ही ॥ लेखनकाल- १६ वी शताब्दी
हू
[ बीकानेर बृहद ज्ञानभंडार । ] वि० भक्ति, नीति, उपदेशादि सम्बन्धी अन्य २०० फुटकर सर्वये कवि के रचित इस प्रति में साथ ही हैं ।
( १३ ) चोवीस स्तवन । रचयिता - राज ।
श्रादि
पद-राग वेलाउल
श्राज मकल मंगल मिले, श्राज परम श्रानदा ।
परम पुनीत जनम भेयो, पेखे प्रथम जिनदा ॥ १ ॥ श्र० ॥
पटे पडल ज्ञान के जागी यांति उदारा |
अंतर जामी में लख्यौ,
तू करता सुख संग को, और ठौर रावे न ते,
श्रातम श्रविकारा || २ || श्रा० ॥
वंचित फल दाता ।
जे तुम सग राता ॥ ३ ॥ श्रा० ॥
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श्रका अनादि अनंत न भव भय ने न्यारा । मृग्ग्व भाव न जान ही, मतन कृ 'याग ॥ ४ ॥ श्रा० ।। परमातम प्रतिबिंब मी, जिन मनि जाने । ते पृजित जिनगज क. अनभन रस मान ॥ ५ ॥ श्रा० ॥
अत
गगधन्या मिरी नित नित प्रणामि चउचाग जिनपर । मवक जनमन वंचित पुरगा, संमति परतानि सुरनर ॥११॥ नि. || रिषम अजित सभव अभिनंदन, समति नाथ पदम प्रभु, सवाद चद्रप्रम विधि मीतन जिन,श्रेयांस श्रीवामुपृय त्रिम ॥२॥नि विमन अनंत धर्म शांति कुथुजिन, महिम मनिसुव्रत देवा । नाम नाम पाम महावीर मामी, त्रिभुवन करन ससेवा ॥३॥ नि, ||
सन ज्ञान चग्गा गगग करि सम, ए चोवीस तिथंकर ।
गाज श्री लिग्वमीवल्लभ प्रम नाम जपतभव भयहर ॥४॥ नि.।। इति श्री चतुर्विशति तीर्थ कराया मिति अध्यात्म युक्तानि पदानि । लं. मं० १४५५ लिखतं गांव पापामर मध्ये मा६ वदि ४ । प्रति- १ । पत्र ४ । पंक्ति १४ । अक्षर ४० । २। पत्र ५, मं० १७६०, फा०व० १ गु मुलताण मध्ये सुखराम वि०
[अभय जैन ग्रंथालय (१४) चौबीमी । पद-२५ । रचयिता-जिनहर्प ।
आदि नाथ पद् - राग ललित ।
दंग्यो ऋषभ जिनंद तब तेरे पातिक दुरि गयो, ५थम जिनंद चन्द कलि सुर-तर कंद । सेबै पुर नर इंद अानन्द भयो ॥ १॥ दे० ॥ जाके महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढी संसार, फोऊ न लहत पार जगत्र नगी ।
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पंचम भार मे श्राज जागैः ज्योति जिनराज, भव सिंधको जिहाज आणि के ट्यो ॥ २ ॥ दे० ॥ बगा। अदभत रूप, मोहनी छवि अनूप, धरम को साची भूप, प्रभजो जयौ । ग.है जिन हरषित नयण भारे निरखित,
ग्य धन बरसत, इति उदयौ ॥ ३ ॥ ६ ॥ अंतराग धन्या सिरी जिनवर चौवीस मुग्वदाई। भाव मगति धरि निजमनि थिरकार, कीरति मन सुध गाई ॥१॥ जि. ॥ जाकै नाम कलपवष समवर, प्रणमति नव निधि पाई । चौवासे पद चतुर गाईश्रो, गम बंध चतुराई ॥२॥ जि. ।। श्री सोम गरिण भपसाउ पाइके, निरमल मति उर भानई ।।
इति चोवीस तीर्भ कराणां पदानी ॥३॥ जि. लं. सं. १७६६ रा माघ वदी १० श्री मगेटे लि०पं. भुवन विशाल मुनिना। प्रति-पत्र ३, इसके बाद आनंदवर्द्धन की चौवीमी प्रारम्भ होती है।
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( १५ ) चौवीसी । पद-२५ । रचयिता- ज्ञानसार । रचनाकाल-मंवत् १८७५, मार्ग मु० १५ । बीकानेर । पादि
राग भैरू-उठत प्रभात नाम जिनी की गाइये।
ऋषभ जिणंदा, पाणंद कंद कंदा । याही ते चरण सेवै, कोट सुर इदा ॥ ० ॥।॥ मरु देवा नामिनंद, अनुभव चकोरचंद । श्राप रूप को सरूप, कोट उय दिगदा ॥ ऋ० ॥ २ ॥ शिव शक्ति न बाढू. चार न गोविंदा ।
मानसार भक्ति चाहूँ, मैं हूँ नेग बंदा ॥ ऋ• ॥ ३ ॥ प्रति
[ अभय जैन ग्रन्थालय ]
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(१६) चंद चौपई समालोचना । पद्य-४१३ । रचयिता-ज्ञानसार रचना काल - सम्बत १८७७ चैत्र बदी-।
आदि
ए निश्च निश्नै करौ, लखि रचना को मांझ । छंद यत्नं कारै निपुण, नहीं मोहन कविराज ॥१॥ दोहा द विषम पद, कही तीन दस मात । मम में ग्यारह धरे, मंद गिरथे ख्यात ॥ २ ॥ मो तो पहिले ही पदै, मात रपी दो बार । अलंकार दुषगा लिख, लिग्वत चढत विस्तार ॥ ३ ॥
ना कवि की निन्दा करी, ना कछु राखी कान । कवि कृत कविता शास्त्र की, सम्मति लिखी सयान ॥ २ ॥ दोहा त्रिक दश घ्यार मो, प्रस्तावीक नवीन । खरतर भट्टारक गरौ, झान सार लिख दीन ।। ३ ॥ भय मय पवयणमाय सिंध, धानवाम लिख दीध ।
चत किसन दतिया दिने, संपूरण रस पीध ॥ ४ ॥ इति श्री चंद चरित्र सम्पूर्ण । संवन्नवत्यधिकान्यष्टादश-शतानि (१८८६) प्रमित मामोत्तम माम चैत्र कृष्णकादश्यां तिथो मार्तण्ड वारे श्रीमत्वहनखरतर गच्छे पं. आणंदविनय मुनिस्तच्छिध्य पं० लक्ष्मीधीर मुनिम्तस्य पठनार्थमिदं लि०। श्री। श्री। लूणकरणसर मध्ये ।। ( पत्र ८७ )
[ म्यान-सुमेरमलजी यति संग्रह,भीनासर ] ( १७ ) जपतिहुश्रण स्तोत्र भाषा । पता ४१ । रचयिता-क्षमा कल्याण । महिमापुरश्रादि
परम पुरुष परमेशिता, परमानंद निधान । पुरसादाणी पास जिन, बंदु परम प्रधान ॥१॥
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महिमापुर मंडन जिनगया, मुविधि नाथ प्रभु के सुपसाय । श्री जिनचंद्र मरि निगज, धर्म राज्य जयवंत समाज ||३|| बंगदेश शोभित सुश्रीन, श्रोश वंश कातला गोन । सोमाचंद सत गृजरमल्ल, माता तनसुखराय निसन्म ॥४०॥ तिनके आग्रह मैं जुन कीन, जपतिहअग्ण की भाषा कीन ।
वाचक अमृत धर्म गनीस, सीस क्षमा कल्यारण जगीस ॥४॥ लेखनकाल-१६ वी शनादी । प्रति-पत्र २
[ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] (१८) जिनलाभ सरि द्वायत । रचयिता-वम्ता( विनयभक्ति)
आदि
अथ पदावली सहित श्री जिनलाभ सूरिजी ग द्वायत लिखीजै छै वाचक विनयभक्ति जी री कही
गाहा चौसर धवल धी सेवक धरणी धर, धुर सिर हर देवो धरी धर । धुना देव नमो धरणी धर, धरिजै कपा नजर धरणी धर ॥१॥ पहपायाल सुन्दरि पदमावती, पूरण मन बंछित पदमावती । पृथ्वी अनंत रूप पदमावती, प्रसन मीटि जोवी पदमावती ॥२॥ उल पामाल हुंता बहि यात्री, अम्हा सहाय करणा वहि भावा । इस मंत्र भागही प्रावी, श्राई माद दातां प्रात्रौ ॥३॥
वनिका
भैसी पदमावती माई बरे बड़े सिद्ध सानै ध्याई । तारा के रूप बौद्ध सासन समाई । गौरी के रूप मित्र मत बालु नै गाई । जगत में कहानी हिमाचल की झाई । जाकी संगती काट्ट सो लखी न जाई । कोसिक मत मैं बना कहानी । सिवजू की पटरानी । सिब ही के देह में समानी। गाहत्री के रूप चतुरानन मुम्ब पंकज वमी। अपर के रूप चौद विधा में विकसी ।
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अन्त
जैसे जिनके सब जस श्रवदात। किनसे कह्या ने जात | सब दरियाव के जलकी सनाई aftara | श्रसमान का कागद बनवा । सुर गुरु से बाबु लिखवै की हिम्मति करे। सो थकि जात है। इक उपमान के उरे । जिस बात में सरस्वती ह का नर या सारा, तौ और nairas का क्या विचारा | पर जिन जिन की जैसी उक्ति श्ररु जैसी बुद्धि की शक्ति | तिन माफक ट्रक बहुत का ही चाहिये । as a कविश्वरु की उक्ति देखि हिम्मत हार बैठे रहिये या सब गच्छराजन के महाराज गच्छाधिराज श्री जिनलाभ सूरि द्रवित कही गुन गाया । अपनी कविता का पुनि स्वामी धर्म का फल पाया।
( १२७ )
दोहा
श्रविचल जा गिर मेरुल, श्रहिपति सायर इन्द |
कागम तां राजम करो, श्रीजिनलाभ मृीन्द ॥ १ ॥
कीन्द्रौ गुण वस्तै सुकवि, बहुत त ति । करिये प्रभु चरती कला, जुग जुग गपति जैत ॥ २ ॥
इति श्री जिनलाभ सूरि राजानाम द्वार्यंत गुण वाचक वस्तपाल री कही । लेखन काल-वा० कुमल भक्ति गणि नाम लिखतम पंचभद्रा मध्ये संवत १२ रा पोष वदी = तिथों रविवारे ।
आदि
प्रति-१- गुटकाकार | पत्र ७ ।
पंक्ति १६ । अक्षर ३७ । साइज ६४५|| २- पत्राकार - सं० १८४२ श्र० १२ खारीया में धर्मोदय लिखित
पत्रप०१४ अ० ३८
[ अभय जैन ग्रन्थालय ]
( १६ ) जिनमुखमूरि मजलस- रचयिता - उपा-रामविजय मं० १७७२
अथ भट्टारक श्री जिनसुखसूरि री द्वावेंत मजल |
वारस रुपचंदजीकृत लिख्यते ।
श्रहो श्रात्रों ने यार बैठो दरबार । मवादी रात कही मजलस की बात । कहो काका पुलक का कौंगा राज देखें ।
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{१८)
कौंगण कौंण पातिस्याह देव कौन २ दईवान देवें । कौन कौंन महिनि देखे .......... ... जोधोरण राठी, राजा अजीतसिंघ देखे, बीकांण राजा सुजाणसिंध देवै । यांवर कछवाहा गजा जयसिंह देखें । अबिर कछवाहा राजा जयसिंह देोवै । जैसाण जादव रावल दुध सघ देखें । ए कैसे हैं, वडे सुविहान है,वड महिर्बान है, व सिरदार है,वटे वूमदार हैं ,वडे दातार है, जमी श्रासमान बीच संभू अवतार हैं ।
sa
श्री पूज्य जिनसुखसूरी श्राइ पाट विराजव है । इंद्र से छजते है धर्म कथा कहित गाजते हैं । तो ऐस जैन के तखत बडे नेक वखत साहिब सुविहान भगवान से भगबान । परम कपाल भक्ति प्रतिपाल चौरासी म् राज उमरदराज
ई जालम युग जुग कायम | वात को वात चोज का चोज । गुग्णा का गुण मौज की मौज । देसातु पास रहिया नो द्वागीर ।
चंद द्वावत कहिया इति मजलस द्वावेत जिनसुख सूरिजी री संपूर्ण । कीनी २० श्री गमविजय जी १७७२ करी।
प्रति-इसके प्रारम्भ में जिनवल्लभ सूरि द्वावैत १ पीछे पंजाबी भाषा में मीह बम्लो छेद 17० रुपचन्दजी रचित) है । कुल पत्र ११, पंक्ति १५, अक्षर ३६ से ४०
[ अभय जैन ग्रन्थालय]
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( १२६ )
( २० ) जीव विचार माषा-रचयिता-बालमचंद । रचन. काल-संक १८१५, बैंमाख मुदि ५। मकसुदावाद । श्रादिअथ भाषा लिख्यते
चोपई तोन भुवन मे दोष समान । वंदु ) जिनवर धधमान । मन शुद्ध वंद गरु के पाय शुभ मति घे मुझ सरस्वति माय ॥ १ ॥ भाषा बंध गन् जीव (वि) नार। गुर सिद्धान्त तणे ग्रनसार । अन्नप बुद्धि के मम-झग हेत । माषा किन्ही बुद्धि ममेन ॥ २ ॥
समय सुदरजी मरव प्रसिद्ध । श्रासक रणजी पंडित वृद्ध । तास शि-य है कल्याण नंद । तर लय नंधव अालमचद ॥ ११ ॥ निणयहमाषा रची बाय । निजमति मापक युगति उपाग । बालक रयाल कियों में ग्रेट। सुगुरण सुकवि मति दीयो छह ।। १११ ।। बाम शशिवसुनद बखा १.५) श्रेसबार मांगा । साल क्षदि पचमी रविवार | भाषा बंध रच्यो जवचार ॥ ११२ ॥ साह सगालचंद सुगृण प्रवीन । श्री जिनधर्म माहें लयलीन । तिनके हंन करी यह जोडि । दिन दिन होन्यो मंगल कोडि || ११३ ॥ नगर नाम मकसूदाबाद ! दिन दिन सुख है धर्म प्रसाद ।
संघ चतुरविध कु जिण चंद । नित नित दीज्यो अधिक अानंद ॥ ११४ ।। इति श्री जोव विचार भाषा संपूर्णम
लेखनकाल-सुश्रावक पुन्य प्रभावक श्री जिनाज्ञा प्रतिपालक सासुग्वन गोत्रीय साहजी श्री सुगालचंदजी पठनार्थ । प्रति-गुटकाकार । पत्र-११ । पंक्ति २० । अक्षर १५ । साइज ६x६॥
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( २१ ) जोगीरासो। जिनदास
आदि
श्रादि पुरुष जो श्रादिज गोतम, श्रादि जती बादि नायो । श्रादि पुरुष गुरु जोग पयास्यौ, जय २ जय जगनाथो ॥ १ ॥
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( १३० )
ताम परंपद मुनिवर इया, दिगंबर महिनाणि । कद कंदाचार्य गुरु मेरा, पाहुद कही कहाणी ॥ २ ॥ तो पर अप्पी बप्प, न जाएगो पर सुं पेम धणेरी ।
थो षद मोग विया नहि तूरत भय तव रोगी करो ॥ ३ ॥ वंत
हो बनिहारी चेत ( न ) केरी, जौं चेतन मन भावे । योड़ि अचेतन भूपड़ा श्रोणण सिवपुर जावै ॥ ४१ ॥ जोगी रासौ सीखहु श्रावक, दोष न कोई लेजो ।
जो जिनदास त्रिवधि विधि हि सि५ हं समरण कीज्यो ॥ ४२ ॥ इति श्री जोगी रासौ संपूर्ण ॥ प्रति:- कई है।
{ अभय जैन ग्रन्थालय ] (२२) ज्ञान गुटका । पद्य-१८५
आदि
अथ ग्यान गुट का विचार सवैया लिख्यते । भगति का अंग
दोहा अरिहंत सिद्ध समरूं सदा, श्राचार्य उवझाय । साधु सकल के चरन कू, वंद, सीस नमाय ॥ १ ॥ सासन नायक समरिये, भगवंत वीर जिणद । अलय विधन दुरे हरा, पापो परमानंद ॥ २ ॥
अन्त
वासी चंदन कप्पो यद्धर तौनी परे सब सहो ।
अपनी न कहो दुसरे को सहो जिचाहे जीहा रेहो ॥१०५ इति ज्ञान गुटका हितो उपदेश दूहा सम्बन्ध समाप्त ॥ लेखनकाल-२० वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध प्रति-पत्र-४, पंक्ति-१५, अक्षर-३६, साइज-१०|४५
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ]
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। १३१ )
(२३) ज्ञान चिंतामणि । पदा-१२६ । रचयिता-मनोहराम |
रचना काल संवत् १७२८ शुक्न ७ भृगुवार । बुरहानपुर । आदि
आदि के कई पत्र गायब हैं। अन्त
यसी जानि ज्ञान मन धरो, निरमल मन परमारध करो। संवत् १७२८ माही सुदो सप्तमी मृगुवार कहाई ॥१२३॥ नगर बुरा ( बुरहा । न पुर खान देश माही, मुमारख पुग वमे गा माह । धने श्रावक, वमें विख्यात् . सदा धरम करें दिन गत ॥१२४॥
दोहा मकल देव नछा करे, ग्रह न पीठे काय । जो सम-दृष्टि हो रहे, ताकि मलि गति होय ॥१२५॥ श्री श्रादि जिन ममरता. हिरदै आयो शान । ब्रह्म मथानिक में कयौ, लिग्थ्यो धरम ३६ ध्यान ॥१२५॥ भये पठारा दोहरा, गाथा पावन सार ।
और अठावन चीपई, इतना में विस्तार ॥१२॥ सा मत के मंग सों, हुवो ज्ञान प्रकाश ।
परमारथ उपगार थे, कहे मनोहरदास ॥१२८॥ ज्ञान चिंतामणि संपूर्ण ।
लेखन काल-मिति प्राषाद वदी १० संवन १८२४ केवल रसी लिप्यकृतम । वांचे तिनको जथा जोग्य वंचना । प्रति-गुटकाकार । पत्र-२० । पंक्ति-१२ । अक्षर-१४, साइज-५|||६.
[ अभय जैन ग्रन्थालय ] (२४) ज्ञान प्रकाश । रचयिता-नंदलाल । रचना काल-संवत् १६०६ । कपूरथला। पादि
बद्धमाणं नमो किच्चा सासण नाय जो मुणि ।
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(१३२)
गणहर गोयमं वन्दे, कल्लाणं मगलं प४ ॥ १ ॥
मिथ्या दृष्टि जीव की, श्रद्धा विषम जो होइ । दृष्टि विषम के कारण, देव विषम तस जोइ ॥ १ ॥
एह ग्रन्थ पूर्ण भयो, नामे ज्ञान प्रकास । सत गुरु कृपा क ......" भन्य जीव हित माम ||
उत्तर देश पंजाब में, कपूरथले मभार । ___ उनवीसवें सठ (षट् ) साल में अन्य रच्यो शुभकार ॥ १६ ॥
x
काल (प्लट ? ) पंचमे ऋषि विराजे, श्रीमनी मोटा ऋषिराय । तास पटोधर संत मुनीसर, नाथूराम महन्त कहाय ।। ऋषि गयचन्द सत गुग्णा कर शिष्य श्री रतिराम कहाय । तस चरणा बुज मंबन हारो, नन्दलाल मुनि गण गाय ॥ २३ ॥ जिसी भावना माहरी, तैसे ग्रन्थ बणाय ।
श्रोको अधिको जो करो, मिच्छामि दुक्कड़ मथाय ॥ २४ ।। लेखनकाल-रचना समय के समकालीन प्रति-पत्र-२१ । पंक्ति-१२ से १६, अतर ४२ में ५२ ।
विशेष-ग्रन्थ दम काण्डों में विभक्त है। इसमे सम्यकत्व और सम्यक दृष्टि का वर्णन है।
[स्थान- चारित्र सूरि भण्डार] ( २५ ) ज्ञानार्णव ( भाषा चौपई बंध ) रचयिता-लब्धि विमल ।
सं० १७२८ विजय दशमी, फतेपुर में ताराचंद आग्रह पादि
छप्पय छद ललित चिह्न पर कलित मिलत निरखति निज संपत । हरषित मुनि जन होय कलिमल गुण जंपति ॥
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(१३३ )
दिट श्रासन थिति चास जासु उज्जल जग कीरति ।
प्रातीहा गज अष्ट नष्ट गत रोग न पीरति ।। घजरामर एकल छल छग अनुपम धनमित शिव करन् । इंद्रादिक बंदित चरण युग जय जय जिन श्रशरन शरन ॥ १॥
दोहा शान रमा धन श्लेष हैं, वंदित परमानद । अजर अझै परमातमा, नमो देव जिनचंद ॥ २ ॥
कहि ही संत प्रमोद घर, यह ज्ञानार्णव ग्रन्थ । जग विया निग्रह कर, कोविद शिव को पंथ ॥ १३ ॥
पूर्वाचार्य स्तुनि में समतभद्र, देवनंदी, जिनमेन, प्रकारक का निर्देश है।
शान समुद्र अपार वय, मान नौका गति मंद । 4 2 ( सं १ ) वट नीको मिल्यो, घाचारज शुभचद ॥ ४७ ॥ ताके वचन विचारि के. कीने भाषा छंद । श्रातम लाभ निहारि भनि, प्राचारज लखमीचंद ॥ ४८ ॥ स.गुरू कृपा ते मे सुगम, पायो श्रागम पंथ ।। भविक बांध के काने. भाषा कीनी अथ || ४६ ॥
कुदलिया
गन परतर मब जग विदित, शुभ भापा जिनचंद । लधि ग पाल सगरू, गत जिन धर्म धनद ॥ रत जिनधर्म थनंद, नद मम बम विचारी । = शिष तावे. मए, विष चित्त शुभ जिन गुन धारी ॥ कुराल नारायणदास तास लघु मात लखमन ।
जानि भविक सुख न विदित्र जग सब खरतर गन ॥ ५० ॥ बदलिपा गोत वर करत वजीरी नित, स्वामि काम सावधान हियो परिचाऊ है । ताराचंद नाम वस्तपालजू को नंद हिरदै मैं जाके जिनवानी ठहराउ है ॥
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(१३४ )
इन ही के कारन ते अन्य सान निधि भयो, पठत सुनत याके मिटत विभाय हैं । थाम अगिम को बखान्यो मग भाषा रचि, स्व रस रसिक गासौं राखे चित चाउ है ॥ ५२ ॥
मान समुद्र सुभाष सुभ, पदमागम सुख कंद ।
सज्जन सुनहु विवेक करि, पदति गुनत श्रानंद ॥ ५३ ॥ इति श्री ज्ञानार्णवं योग प्रदीपाधिकारे भइया श्री ताराचंद सुतभ्यर्थमया पंडित लब्धि विमल कृतौ भाषाया प्रारंभ पीठिका वर्णनं प्रथमो प्रकरणम् (१) अंत
वायुग मुनि ७ इंदु संवत् कुवार सास विजय दशभि वार मंगल उदारू है । दव जिन मानिक के पाट भए जिनचन्द अकबर साहि जाको कई सिरदारू है ॥ उवमा समराज कौल लाम भए ताके लबधि कीरत गति जगजस सारू है। . खबि रग पाठक हमारे उपगारी गुर तिनके सहाइ रच्यो वागम विचारू हैं ॥ ५७ ॥ तागचन्द उदो भये जैसे नत ताई रेने प्रतिपल साम्य वाटै जैसे बालचन्द है। वस्तु के विलोकन को यहै है तिलोकचन्द और चन्द्रभान यासौं दोऊ मतिमंद हैं । ५६न कषाय को वरफ़ न किया चाहे सम्यक सौ राचि मई या जहा नाही बंद है । कानसिंधु कारन है सम्यक की सद्भता को यहै हेतु जानि रच्यो ग्रंथ शुभ चंद है ॥ ५८ ॥ नगर फतेपुर मैं क्याम खाती कायम है सिरदार साहिब अलिफवा दीवान है । ताति राज काज भार ताराचंदजू को दीनो देश को दिवान किनी जान परधान है ॥ ता जैन बानी को श्रद्धान प्रमान ज्ञान दरशनवान दयावान प्रतीतवान श्रवधान है। इनही के कारन ते भाषा भयो झामसिंधु घागम को अग यामें ध्यान को विधान है ॥ ५६ ॥
इति श्रीमालान्धयं वदलिया गोत्रे परम पवित्र भईया श्रीवस्तुपाल मुन श्री ताराचद साभ्यर्थनया पंडिन लब्धि विमानगगि कृती ज्ञानार्णव भापायर्या योग योग प्रदीपाधिकार संपूर्णम ॥ संवत् १८२८ वर्षे श्री अश्विन मासे शुक्लपक्षे तिथी चतुर्दश्यां ॥ १४ । भीभवामरधिमायाम, लिग्विनं स्वामी रिषि शिवचद् गौश गंज मध्ये पठनाथ श्रात्मार्थ व परमार्थो ।।
(सं० १६५ आश्विन शुक्ला ६ गु० लि• श्रमीलाब श्रमा निवासी ग्राम पालय सूया दिल्ली सहर का यह शास्त्र बाकी दिल्लो ला. महावीर प्रसाद उर्फ नूरीमल की स्त्री ने भी मंदिरजी कृये सेठ में प्रदान किया।
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पत्र ६६, पंक्ति १२, अक्षर ४२, साइज १२४७ १. शेष अधिकारों में लक्ष्मीचंद्र नाम भी है।
(२५) तव प्रबोध नाटक।
श्रादि
।। ६० ।। नमः श्री प्रत्यूह व्यूह छिदे राग ललित दोहरा -
स्याद वाद बादी तिलक, जगगुरु जगदानन्द । चन्द सूरितै अधिक युति, 3 जिन सो अगिचन्द ॥१॥ मध्ये गुरु नाम प्रथमाईत वर्णन सं. ३१ सा. साद बाद मतता की, ज्ञान ध्यान शुद्ध ताकी. नव भेद घेद् वाको, नाही है इकत्व की । हरि हर इन्द चन्द, मुरा मुर नर नृन्द, मानी बिन जाने कौन, यात्रता पं. सत्य को । चीनीस अनेक जास, अतिमय को विलास, लोका लोक को पकाम, हामन अमत्व को । गोई अरिहत देव, श्री जिन समुद्र सेव, प्रणमि दिसा भेव, सुगी नव तत्व की ॥२॥
दोहा धार हनादिक चि पद, नायक प.च प्रमिए । पृथक भेद का वर्ण ही, सुनह सगुन गुन मिट ॥३॥
प्रथमाईन वर्णनं, सबैया ३१ साश्रष्ठ महा प्रानि हार्य गजति जिनेन्द्र राजा सुरासुर कोडि करजोडि सेवै द्वारजू तीन शाल प्रविसाल रूप्य स्वर्ण मणिमाता चिंहुदिशि मायुध प्रघर प्रतीहारजू ।। कंचन मव कमल ध्वनक्रमयुगन विमल गगन तल अमन विहारजू, श्रीजिन समुद्रसोई तीन लोक पति होई जय जय जय जिन जात्र अधारजू ।।४।।
सवैया ३१ सास्याद वाद मर्डन कुत्रादि वादि खंडण मिथ्यात को विहंष्ण जू दंन बोधको दोष को
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( १३६ )
निन गगति पंथ स्पंदन मविजना गन्दन गन्दन सुबोध की सुमति एव कारन दुगति दुख वारण मविक जनतारन निवारन करोध को श्रीजिन समुद्र सामी मोई माची सिवगामी नगं सिरनामी जाकी वचन श्रबोध को ॥५॥
अथ ग्रंथ संपूरनं अाभोग कथनं - दोहरा - तन्य प्रबोध मुन उदधि ज्य, किन विधि लहीयै पार । यथा शक्ति कळु वरन यौ, निजमति के अनुसार {१७५|| गाथा प्रकर गए श्रौकरी, महा अर्थ की खानि | पढ़ श्रत धारिने दुरै, ते मम लम्प विज्ञान ||७६॥ वान बुद्धि सास नहीं, गाथा अरथ दुगम्य ।। तब भाषा कीनी भली, चतुरनि को चितरम्य ॥६॥ मंत्रित सतरह गै वग्ग, बीते ऊपरियोस । कातिक सित पंचमी गुगे, ग्रंथ न्यौ सजगीम ॥७७॥ श्री गड गर मैं भलो, मूरि सकन गुन जान । या जिन चन्द सूरी स्या, सुविहित मति धान ॥७॥ ताम मास सुविनय धरन, श्री जिन समुद्र सूरीस । कोनी सभ व रेत की जारि भग्वद सकवीश १७६ । पनि गल पंच पद भणम मा प्रधान । अंतिम मयफ. की याना मंगल म एन ।८.० }
सवथा
सकाने गुन विधान पंडित जी पधान बहु गण के विधान भूषन महित है। तलक प्रबोध की जो रचनाकरी मै हित ताहि तुम सोधियो त्रु प्रस्थ ग्रहत है। सवत रातहरी तामे रामे पानी एह गिरी दुर्घजैसलमी धम्म महत है। श्री जिनचंद पूरीम ? जिन मममीस माम् शध म्यान ईस वीनती कहत है ॥१॥
इति श्री तत्वधोध नाम नाटक सपूणम् श्री वेगढ़ गछाधीश भट्टारक श्री जिन समुद्र सूरिभिःकृतं सं०१७३० कार्तिक यांसित पंचम्यां गुरौ श्री जैसलमेरगढ महा दुम ।। महा नंद राज्ये श्री: ।। श्री श्रीः ।। कल्याण भूयात् ।।
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(१३७)
(२७) तत्व पचनिका । रचयिता- दलपतराय । श्रादि
प्रथम शिष्य गुरु दयालसी, पाणि संपुट जोरि के प्रश्न करत है - स्वामी शुद्ध वस्तु को कहा। पर अशुद्ध वस्तु को कहा । तदा गुरु प्राशाद होय उत्तर कहै है - शिष्ण जो वस्तु अपने ही गुन करके सहित है सो तो शुद्ध वस्तु धक जामैं और वस्तु की मिसाल मयो सो पशुय वस्तु । अन्त
ताके उदय श्रावे शुमाशुभ कर्म भूक्ते हैं। बाको हर्ष-शोक का नहीं । ता (ते ) समीति जीवों कर्म लगै नहीं, पूर्व कर्मको निरजरें, नवे कर्म बांधे नहीं । ऐसे कर्म सम्पूर्ण कारकै सिद्ध गति मैं बसे हैं।
इति तत्व वनिका श्रावक दलपतरायजी कृत तत्व बोध प्रकाश । ग्रंथ १०५ लेखनकाल-लि. प्रो. सुखलाल, अजमेर प्रति-पत्र २२ । पंक्ति - १५ । अक्षर - ३५ । विशेष- जैन धर्मानुसार सम्यक्त्व और १२ व्रतादि का वर्णन है।
[जिन चारित्र सूरि भण्डार] (२८) त्रैलोक्य दीपक । पद्य-७४३ । रचयिता-कुशल विजय । रचना
काल सम्बत् १८१२ आदि
श्री जिनवर चोवीस को, नमों वित्त धर भाव । गणधर गोतम स्वामी के, वन्दौ दोनों पाव ॥
अन्त
शुम गच्छ तपों में अधिक, पण्डित, कुशल विजय पन्यास ।
यह तीन लोक विचार दीपक, लिखी पु समास ।
कुछ भूल मन्द सबार उनतें, ओसवाल सितम्बरी । गुरु मगत समती दास लघु सत, कही मवानी की ॥
[जैसलमेर भण्डार]
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( १३८ )
( २६ ) दान शील तप भाव रासरचयिता-वृ.Cणदास, र.काल सं.१६६६
धादि
धं ....... " वर पुखवरखनी विमल बुद्धि परगाम । दान मील तप भाव का, कविजन जंपै रास ॥१ एक मे राजगृही, समो श्री वर्द्धमान । देवहि मिलिकै तहं किया, समो सरन मंडान वही बारह परवदा, श्राया अपने ठाऊ । वाद कर नह थाप मै, दान सील तप भाउ ।। दान कहै यो बडो, स्वामी श्री बर्द्धमान । मा बग्वान हम कर, एमी बोल्यो दान ॥
दान भील तप भावका, रामा पुगे निकोई । तिमके घरमै मदा ही, असौ नवनिधि होई ।।
गाथा
सोलह मई गुण हत्ताइ, मम्वत विक्रम राइ समए । मितपस्वि माघ मास गमा कवि क्रिमणदास उचरियं ॥ ७
कलमर3 -- दान उत्तम सील सुपवित्त तप देही सुद्ध करि मिले । भाव तप सर्व सोह..............."का कहो ईक ॥ इक सबै जगत मैं दान सील तप मावना चारे एक समान ।
किशनदास कविजन कहै, सुप्रसन्न श्री कर्द्धमान ॥ इति दान सील तप भावना का रासा संपूर्णम् । प्रति-गुटका पत्र २१६ से २८, पं० १३, अ० १८ । १८ वीं शताब्दि साइज शा४४
[अभय जैन ग्रन्थालय]
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(१३६ )
( ३० ) दिगफ्ट खंडन । पद्य १६२ । रचयितः-यश (विजय)
श्रादि
अथ अध्यात्म मत खंड ।
रागण ध्यान शुम ध्यान, दान विधि परम प्रकाशक । संघट मान प्रमान, धान जस मुगति अभ्यासक ॥ कुमत वृद तम कंद, चंद परिद्वन्द्व निकाशफ ।
कांचन मंद मकरंद, संत प्रानंद विकासक ॥ यश वचन सचिर गंभीर निजे, दिगपट कपट कुठार सम । जिन पर्वमान सोई बंदिये, विमल ज्योति पूरण परम ॥ १ ॥
हेमराज पाठे किये, बोल चौरासी फेरी । या विधि हम भाषा यचन ता ( को ) मति कियो श्रोरि ॥ ५ ॥ है दिगपट के वचन से, और दोष सत साख । केते काले लेडिये, भुजित दधि उर भाख ॥ ६ ॥ पंडित साची सरदह, मृरख मिथ्या रंग । केहनो सो प्राचार है, जन न तजे निज टग ॥ ६१ । सत्य वचन यो सहहै, करे सुजन को संग ।
वाचक जस कह सो लहै, मंगल रंग अभंग ।। ६२ ॥ इति दिगपट खंडन । लेखनकाल-१६ वीं शतारिद प्रति---पत्र ६ । पंक्ति १६ । अक्षर ४० । साइजx४|
[-ममय जैन ग्रंथालय]
(३१) द्रव्य प्रकाश । रचयिता-देवचन्द्र। रचनाकाल-सं. १७६७ मा.
व. १३ । बीकानेर ।
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चादि -
अथ द्रव्य प्रकाश तिरुयते
अन्त
( १४० )
दूहा
अज अनादि अवरख गुनी, नित्त चेतनावान | प्रमुं परमानन्दमय, सिव सरूप भगवान ॥१॥
अथ षट् द्रव्य के नाम सबैया
प्रथम जो धर्म वव्य, दूसरौ बधर्म द्रव्य, तोसरौ थाकास पुनि, लोका लोक मान है । चौधौ काल द्रव्य, एक मुदगल द्रव्य रूपी, निज निज सत्रावंत, अनंत धमनि है ॥ पांचौ है अचेतन जू, चेवना सरूप लीये, घट्टौ ज्ञान वान द्रव्य, चेतन सुजान है । स्यादवाद नाव लोमै तीनौ अधिकार कामैं, ग्रंथ को आरम्भ कीनौ, ग्रंथ ज्ञान भनि है ॥
पूर्व कधीसर के गुन वरन (न) स. ३१ पाठक सुपाठही के निवारन घाउही कै, हंसराज राजपति नामै हंसराज है । ताके कौने हैं कलश रात पड़वीस जत, ज्ञान ही के जोन अरु दंशन के राज " तत्व के पिधान, जान, ताही को निधान मान, विमल अमल सब, ग्रन्थ सिरताज थापा पर भेद कर, पर ब्रह्म भाव भर शुद्ध सरद्वान घर नर ताके काज है ॥५३॥ हिन्दू धर्म चीकानयर, कीनौ ख चौमास ।
1
तहाँ एह निज ज्ञान मैं, कीयो मन्थ अभ्यास ॥ ५४ ॥
अथ कवीसरके गुरु के नाम कथन स० ३१
वर्तमान काल बित, आगम सकल विच, जगमें प्रधान ज्ञान बान सब कहे है । जिनवर धरम पर, जाफी परतीति बिर, और मत वात चित, माहि नहिं गई है । जिनदन्त सूरि पर, कही जो क्रिया प्रवर खरतर खरतर शुद्ध रीति कहै है । पुन्यके प्रधान, प्यान सागर सुमतिही कै, साधू रंग साधु रंग राज सार लहैं हैं ॥५५॥
सब पाठक सिर सेहरी, राज सार गुन बनि ।
विचरै धारज देश में, मविजन छत्र समन || ५६ ॥
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(१४१ )
अन्त
ताके सीश हैं विनीत, पर स्रोत स विनीत, साधू रीति नीति सरी मुन अभिराम है । आत्म ज्ञान धर्म घर, वाचक सिद्धान्त वर, श्रति उपत चित्र, ग्यान धर्म नाम है ॥ ताके शिष्य राजहंन, राजहंस मान मर, धान उद्यमादि गुन गाम धाम है । वासी देवचन्द की ऐ अन्य वर, अपनी चेतनराम खेलियो को ठीम है | arati सहाय प्रति, दुर्गदास शुभ चित्त । समभावन निज भित्रको, कोनो ग्रन्थ पवित्त ॥५
थशास्त्र के श्रता विनके नाम से. ३१
श्राम सभाव मिठु मल्ल को पहारी दीनो, भैरू दास में दास मूलचन्द जान है । ग्यान लेख राज व पारस स्वभाव घर, सोम जीव तत्व परि जाकी सरधान है || ज्ञानादिनिन मंत, अध्यातम ध्यान मत, मूललान थान वासी श्रावक सुजान है । ताकी धर्म प्रोति न यानि के अन्य कोनों, गुन पर जाय घर जामे द्रव्य ज्ञान है ॥५॥
श्रव्यानम सैलि मरस,
ते जायें (गे) अन्ध यह,
गुन लवन पहिचान के
चिदानंद चि(दरूप) मम,
परमातम नम्र शुद्ध घरी,
यह मोह में नव भ
जे मानत सो जैन । ग्यानामृत स्म लैन ॥६०॥ हेय वस्तु करी हेय । शुद्ध ब्रह्म श्रदेव ॥ ६१ ॥ शिव मारग ऐहीज | यही ग्रन्थ को बीज ॥६२॥
सम्वत् कथन दोहा
७
विक्रम सम्वत् मान यह सब के भेद । शुद्ध संजैम अनुमासिके, काय को छेद ||६३||
ता दिन या पोथी राखौ, व
अधिक संतोष । सुभ वासर पूरन मई, प्रमिनेश्वर मोया ||६४||
लेखन काल - १६वीं शताब्दी
प्रति - - प्रन्थ ७०० । पत्र १६ । पंक्ति १५ । अक्षर-५२ साइज + ४||
[ अभय, जैन प्रन्थालय ]
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(.४२)
(३२) द्रव्य संग्रह भाषा ।
धादि
जीवमजीवं दब्व जिनवर वसईण जेण जिदि ।
देविंद विद वच्छं, वदे तं सम्बदा सिरसा ॥१॥ अर्थ-तंजिनवर वृषम, सर्वनं अहं वंदे । ते जी जिनव वृषभं सर्वशं ग्रहं वदै । तेज श्री जिनवर वृषभ, सह देउ 1 ताहि वंदे नमस्कार करतु हइ । तं किं जिनवर वृषमं, ते कणि जिनवर वृषभ, जेणि जिणवर वृषमेन । जिनवर वृषभ सर्वज्ञ देवन । जोत्र अजीव द्रव्यं निद्दिष्टं । जीव द्रव्य अजीव द्रव्य कहें । तं वंदे । ते जिनवर वृषभ नमस्कार करतु हह । केन काहे करि नमस्कार करतु हई । मिरसा-मस्त केन मस्तक करि नइ । कितक कालें - कितेक काल लगि नमस्कार करत हह । सर्वदा सर्व काल विषै । कथं भूतं जिनवर वृषमं । ते जिनवर वृषभ र इसे हइ । दविंद विद वंदे । देवेंद्र वद वधं । देविन के जू इंद्र तिनके जू वद समोह ता करि जु क्या हइ 'स दै' करि चा हा ।
अन्त
मो मुनि नाथा । भो मुनि नार्थ । मये पंडित किसी हो तुम्हा । दोष संचयंम् ता । दोषनी के जु संचय कहियइ समूह तिन तइ जो रहित है । मया नेमि चंद्र । मुनि नाथेन मणित यत् द्रव्य संग्रह । इमा प्रत्ययी भूतं । हो ही नेमिचंद्र मुनि, तिन शु कयौ यहु द्रव्य-संग्रह साचु तोहि सोधयंतु सोधौ, हूं किस्सो हुँ तनु सूर धरेणा तेनु कहिया णेरौ सो सूत्र कहियह सिद्धांतु, ताको जु धारक हों । अल्प शास्त्र करि संयुक्त है र नेमिचंद्र मुनि तेणइ कयो जु द्रव्यसंग्रह सास्त्रु तो कौ भो पडित ! हो ! साधो !
इति द्रव्य संग्रह भाषा समाप्त संपूर्ण । लेबन कालं-हमी गुट के में अन्यत्र लेखनकाल संवत् १६८४ । ८५ लिखा है। प्रति-गटकाकार । पत्र २२ । पंक्ति १४ । अक्षर २० । साइज | x ३||,
[प्रभाव-जैन ग्रंथालय]
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आदि
पन्त
( ३३ ) द्वादश अनुपेक्षा कालू
( १४३ )
अथ माना लिख्यते
भुव वस्तु निश्चल सदा,
स्कंध रूप जौ देखिये,
अभुत्र साव पट जाय । पुग्गल तखौ विभाव || ||
छंद -
जीव सुलक्षणा हो,
मो प्रति मारयौ श्राज | परिग्गह परितया हो, तास्यों को नहीं बाज ॥ कोई काज नाही परहों सेती सदा ऐसी जानिये 1 चैतन्य रूप अनूप निज धन तास मुख मानिये | पिग पुत्र बधव सवल परियगा पथिक मगी पेवगा । समग्राय दंगा सौ चरित्रह संग रहै जीव सु(ल) क्षणा ॥२॥
कथ कहानी ग्यान की, कहन सुननं की नाहि । श्रापन ही में पाइये, जब देखें घर मोहि ॥ ३६ ॥
इति द्वादश अनुप्रेक्षा अलू कृत समाप्ता ।
प्रति-गुटकाकार | साइज ६|| +५|| | पत्रांक २०५ । से २०५ । पंक्ति २१ । अक्षर २६ ।
[ अभय जैन ग्रंथालय ]
( ३४ ) नवतत्व भाषा बंध । पय ८२ । रचयिता लक्ष्मीवल्लभ ।
रचना काल संवत् १७४७ बै० ब० १३ । हिसार । आदि
श्री श्रुत देवता मन में ध्याय, लहि श्री सद्गुरु को सुपसाय । are करो न तत्व विचार, भावत हुँ सुणियो नरनार ॥ १ ॥
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अन्त
श्री विक्रम सै सतरसै, बीते सहुतालीम । तेरस दिनि वैशाख वदि, बार बखाणि जगीस ॥ ४ ॥ सुत श्री रूपसिंह के, उत्तम कुल ोमवाल । बुरुवा गोत्र प्रदीप सम, गनत बाल गुपाल ॥ ७ ॥ जिन गुरु सेवा में षडिंग, प्रथमज मोहनदास। तसे ताराचंद मी, तिलोकचंद प्रकास ॥ ७६ ॥ तृ तुथ कीनी प्रार्थना, पुर हिंसार मभार । नव तत्व माषा बध करो, सो लाम अपार ॥ ७७ ॥ तिनके वचन सुचित्त धरी, लक्ष्मीवल्लभ उवकाय । नव तत्व भाषा बंध कियो,जिन बच सुमुरुपसाय ।। ७८ ॥ श्री जिन कुशल सूरिश्वत, श्री खरतर गच्छराज । ताच परंपर में भये, सव वाचक सिरताज || ७६ ॥ क्षमकीर्ति जग में प्रसिद्ध, तह से खेमराज । तामे लक्ष्मीवल्लभ भया पाठक पदवी मास ॥ ८० ॥ पटधारी जिन स्तन को, श्री जिन चंद सरिद ।। कोनो ताके वाज में, नव तत्ल भाषा बंध ।। ८१ ॥ पटै गुण रूचि सं सुणे, जे प्रातम हित काज । तिनको मानष भव सफल, करणत है कविराज ॥ १२ ॥
लेखनकान-संक्त १७६० वर्षे चैत्र सुदी १३ दिने च० नेमिमूति लिखितं श्री पल्लिका नगरे।
प्रति-पत्र ७ । पंक्ति १६ । अक्षर । साइज-१०४४
विशेष-जैन धर्म में जीव', अजीव, पुण्य', पाप, पाश्रवसंवर', बंध', निर्जर और मोक्ष' ये नव तत्व माने जाते हैं। इनके भेद प्रभेर प्रादि का इसमें वर्णन है।
[अभय-जैन ग्रंथालय
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(१५)
(३५) ननबाड़ के मूलणे- रचयिता - मगनजान्न । सं. १६४०
मा शु.८, पत्र २६ । श्रादि
सरसन सामया विनव, गणपत लागु पाय । सील तनी नब बाडक, मावा मन हुलसाय ॥ १ ॥
नत्रवाड़ा के झूलणा, दोसा सहित बनाय ।।
गुरु कृपा से मगन ने, कीनो दो घर पाय ॥२५॥ अझी कने दो घट श्रान, मास भाद्रव सुद अधम धारी है । उगीसे साल चालिसमें, किया चौमासा सुखकारी है । जिन घरमो धावक लोक वसे जिन थानह सु मनसा धारी है । कहै मगनलाल मभ बुध तुप, ग्यांनी जन लेवा सुधारी है ।।
"रकाकार - [गोविंद पुस्तकालय] (३६) नेमजी रेखता
शादि
समुद विनइका फरजंद ब्याहन को श्रापने नेमनाथ खूब धनग कहाया है । वस्वत विलंदसीस सेहरा विराजता है, जादों सस पनकोटि जान म्यूब लाया है । यानवर देखिकै यहरबान हुवा श्राप, इदको खलास करौ येही फरमाया है। जाना है जिहाँनको दरोग है विनोदीलाल,गिनार जाय मक्ति सैती चितलाया है।
गि स्नेरगद सहाया, खुस दिल पसन्द आया तो जोग चित्तलाया तन कहाँ गया है। शुभ ध्यान चित्त दीन्हां नवकार मंच लीन्हा, परहेज कर्म क्या है ॥ स्त्री लिंग छेद कीन्हा पुलिंग पद लीन्हा ससद रहे स्वर्ग पहुँची ललतांग पद भया है। खुस रेखते बनाये लाल विनोदी गाये अनुसाफदर्प दाते, राहुल का मया है । इति श्री नेमिनाथजी की रेखता समाप्त
[अभय जैन ग्रंथालय]
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( ३७ ) नेमिनाथ चंदाहण गीत ।
धादि
गग-केदारा जुडी-दूर उ मामल वरया सोहामणु, सब गुण तरणु मंधार ।।
मुगति मनोहर मानिनी तिन को हा भरतार ॥२॥ चालि-मुगति रमनि तु मरथारा तुझ गण कोइ न पावइ पारा
तीन भुवन कु प्राधारा, अभयदान कुहइ दातारा ॥२॥ बहा वारि नइ धुरि जानु तेरी दुलतह महीबखानु । अधयार हर६ जिनु मानु. तेज अनंत तुम्हारा जानु ॥३॥
अन्त
नेमि वदायण जे भणय रे त पाबड सुमार । मुनि भाऊ हम वानवइ छोरर भव के पार ॥४६॥
(३८) पद ६६ । ग्य ता - रूपचनः । पद - चेतन चति चतुर सुजान ।
कहा रंग रच रह्यौ पर सी, प्रीति करि यति वान ॥ १ ॥ तु महंतु त्रिलोक पति जिय, जान गुन परधान । यह चेतन हीन पुदगलु, नाहिं न तोहि समान |॥ २ ॥१०॥ होय रयो श्रममन्यु श्राप नु, पर कियो पजवान । निज सहज मुख छोडि परवक्ष, परयौ है किहि जान ॥३॥०॥ रह्यो मोहि जु मूद याम, कहाँ जाषि गुमान । रूपचन्द चिरा चेति परु, अक्लौ न होइ निदान ॥४॥०॥
लेखनकाल-१७ वीं शताब्दी । प्रनि-गटकाकार-फुटकर पत्र । माइज-४|४३ विशेष-कई पद भक्ति के हैं, कई अध्यात्मिक कई निर्मायक भी हैं।
[अभय जैन ग्रंथालय ]
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( ३६ ) पद संग्रह | रचयिता - ज्ञानसार
श्रादि
अन्त
( १४७ )
होरी काफी
भाई मति खेलै सू.
माया रंग गुलाल मूं । भा० ।
माया गुलाल गिरन तें
मंदी यांख अनंते काल सू ॥ भा० ॥ १ ॥ जल विवेक मर रुचि पिचकारी, त्रिरके सुमति सुचालसू | मा० ।
उधरत म्यान नयन तै खेले, ग्यानसार निज ख्यालसू ॥ मा० ॥
राग
'यारे नाह घर नि गोही जीवन जाय ।
पिय विनया व पीहर वाम कहि सखि कॅम सुहाय ॥ १ ॥ या० हा हा कर सखि पया परत हूँ, कटी नाह मनाय ।
घर मिदद सुंदर तन् भूमन, मात पिता न सुहाय || २ || प्या० इक एक पलक 'कल्प' सो वीतत, नीसामे जिय जाय | ज्ञानमार पिय श्रान मिलै घर, तौ सब दुख मिट जाय || ३ || प्या
५।। ४४ ।
इति पदं । इति श्री ज्ञानसार कृत ध्रुपद मंपूर्ण । श्रीरस्तु ||
लेखनकाल- १६ वीं शताब्दी ।
प्रति-गुटकार | पत्र - ५१
मुलतानी
८ पंक्ति-११ | अक्षर १६ से २० | साइज
( ४० ) पंच इंद्रिय वेलि ।
आदि
विशेष- अन्य कई प्रतियां मिली हैं ।
अथ पंचेद्री को वेल लिख्यते ।
[ अभय जैन ग्रंथालय ]
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अन्त
(१४८ ★
दोहरा
बन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवतौ सु छंद । पदंसणद्री प्रेरियो, महु दुख सहइ गयंद ॥ १ ॥
आदि
चाल - बहु दुख सहै गयंदो, तस हो गई मति मंदो । कागद के कुंजर काजै, पडि खाडे सक्यौ न भाजै । मिसिहीप घणी दुख भूखो कवि कौन कहै त दुखो । रखवाला व लग्यो जायो. वेसासी दाग धरि श्रारयो । बंध्यो पगि सकुल धाले सो कियों ससके चालें ।
कत्रि गेल्हु सुतनु गुख श्रामु, जगप्रगट टुकुरसी नाएं । कहि वेल मदसगुण गाया, चित चतुद मनुष्य समृकाया ॥ मन मरिख संक उपाई, तिहि तखै चित्तिन सुहाई । पसारो, इंह एक
नहि जंपौ ध वत पनसै
वचन है साद 1
पंचास, तेरिस सुद कतिग मासे ।
जिहि मनु इद्रि बसि कीया, तिहि हरत परत जग जीया ॥
(
इति पंच इंद्रिय वेलि संमाप्त
प्रति- गुटकाकार साईज ५||२६|| पत्रक १७६ से ७८ ।
पंक्ति १६, । श्रक्षर २२ ।
( ४१ ) पंचगति वेली - हरदव कीर्ति
[ श्रथय जैन ग्रंथालय ]
दोहरा -
रिषभ जिनेसर चादि करि, वर्द्धमानजि (न) श्रत ।
नमस्कार
करि सरस्वती, वदयौ वेली भंत ॥ १ ॥
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(१४)
(४२) पंचमंगल । रचयिका- रूपचन्द । पादि
प्रणाम पंच परम गुरु गुरुजन सासनम् । सकल सिद्धि दातार तौ विघ्न विनासनम् ।। सारद बरु गुरु गौतम, सुमति प्रकासनम् ।
मंगल करहु चौ संघ, पाव प्रणासनम् ।। पापे प्रणासन गुणहि गुरुया, दोष अष्टादश रह्यौ । धरिध्यान कर्म विनास केवल, शान अविचल जिहि लखौ ॥ प्रभु पंच कल्याणिक विराजित, सकल मर नर ध्याहिये ।
त्रिलोय नाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गाइये ॥ अन्त
पमित अष्टो सिद्ध नव निध, मन प्रतीत ज्यू मानिये । भ्रम भाव अटै सकल मन के, जिन स्वरूप जे जानिये ॥ पुनि हरै पातक टलै विधन सु, होइ मंगल नित नये । भनै रूपचंद त्रिलोक पति जिन, देव चौ संघ जये।
इति पंच मंगल रूपचंद कृत समाप्त । लेखन काल - मिति ज्येष्ठ सुदि संवत् १८२४ प्रति - गुटकाकार । पत्र-५० से ६०। पंक्ति-१२ । अक्षर- १४ साइज
[ अभय जैन अन्धालय] (४३) बारह व्रत टीप ( गय) । रचयिता-उद्योत सागर । आदि
सदा सिद्ध भगवान के, चरण नमुं चित लाय । श्रुति देवी पुनि समरिये, पूजू साके पाय ॥१॥ करूं सुगम भाषा सही, चारह प्रत विस्तार । भिन मिन मेद र करी, मन्य नीव उपकार ॥२॥
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अन्त
( १५० )
बुध उद्योत सागर गणि, अपनी मति अनुसार । विधि श्रावक के व्रत तखी, टीप लिखूं निर्द्धार ॥५॥
इति श्री सम्यक मूल बारह बत टीप विवरण ऐसी विगत माफक दोष मिटाय के व्रत पाले सो परम पद कल्याया माला मालै । ऐ बारह व्रत मली रीति सेती दूषण टाली अवश्य पुण्य प्राणी करे सो मुक्ति लक्ष्मी निरंतर करें ।
इति श्री द्वादश व्रत [ टिप्पण ] विरचिते सुगम भाषायां परिडतोत्तम पाठक श्री ज्ञान सागरजी गणि शिष्य श्री उदय सागर गणिना कृता टीप सम्पूर्ण ।
अन्त
लेखनकाल - १६ वीं शताब्दी
प्रति- पत्र १४० | पीत ५० र ४२
[ मटिया जैन ग्रंथालय ]
( ४४ ) भक्तामर भाषा । पद्य- ४ । रचयिता - आनंद (वर्द्धन )
आदि
अथ भक्तामर भाषा कवित्त लिख्यते । सवस्था इगतीला ।
प्रणमत मगत अमर वर मिरपुर, अमित मुकुट मनि ज्योति के जगावना | हरत सकल पाप रूप अंधकार दल, करत उद्योत जगि त्रिभुवन पावना | इसे चादिनाथ जू के चरन कमल जुग, मुवधि प्रणमि करि कछु भावना ! मनजल परत लरत जन उधरत, जुगादि श्रानन्द कर सुंदर सुहावन ॥१॥
जगि सुवास श्रमिलान विमल तुम गुन करि गुंफत । सुंदर वरन विचित्र कुसुम वह अति सुंदर मित || धरै कंठ सूजन श्रहोनिशि यह है वर माल ! मानतुरंग पनि लहै, सुवसि लखमी सुविशाल |
भक्तामर भाषा रुचिर । पावि सुख संपद सुधिर ||४१ ||
यातम हित कारन कियो पढ़त सुनत आनंद सौ, इति भक्तामर भाषा कवितानि लेखनकाल संवत् १७१०
प्रतिलिपि - [ श्रभय जैन ग्रंथालय ]
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(४५) भगवती वनिका (गद्य ) आदि
अब दोय से इकतालीस गाथा करके भगवती वनि कान्तर्गत ब्रह्मचर्य नाम मवहा ब्रत का वर्णन करते हैं तिनमैं पांच गाथा करकै सामान्य ब्रह्मचर्य कुं उपदेश है । अन्त
विषय रूप समुद्र में स्त्री रूप मगरमच्छ वसै है। ऐसे समुद्र कू स्त्री रूप मथ्छ अर पार उतर गये ते धन्य हैं। ऐसे अनुसिष्टि नाम महा अधिकार विर ब्रह्मचर्य का वर्णन दोयसै इकतालीस गाया में समाप्त किया।
इति ब्रह्मचर्य नामा महा व्रत ममान । लेखन काल- २८ मी शतानी। प्रति-पत्र ८५ । पंक्ति.-७ से १२ । अक्षर-३४ से ४२ ।
[ मेटिया जैन ग्रंथालय ( ४६ ) भरम विहंडन श्रादिअथ भरम विहंडन भाषा ग्रंथ लिख्यते ।
दोहाप्रथम देव परमातमा परम ग्यान रम पूर । पध्यो ग्रंथ अद्भुत सचिर, मरम विहंडन भूर ॥ सबहि बात मतनि की, रचि सौ सुनी अच्छेह । हिय विचार देखि तबै, उपज्यो मन सदेह ।। तब हम देशाटन करन, निकसे सहज सुमाय ।
देख चमत कृत नर तहाँ, रहते जहां लुमाय ॥ ३ ॥ (फिर मुनि मिलते हैं और प्रश्न जान कर उत्तर दे संतुष्ट कर देते हैं)
मरम विहंडन ग्रंथ को, समझै मरम अनूप । वेद पुरान कुरान कों, जान लेत सब रूप ॥ १.१॥
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आदि
श्रन्त
( १५२ )
[ बृहत् ज्ञान भंडार ] (४७) भावना विलास । पद्य - ५२ । रचयिता लक्ष्मीवल्लभ । रचनाकाल- संवत १७२७, पोष दशमी ।
इहे ग्यान की बात है, दुरी पार बाथ |
में जुहा परगट करी, सो छवियो अपराध ॥ १०३ ॥
प्रति- पत्र ४, पंक्ति १४, अक्षर ४८ ।
चूरा है पूरण है आस के ।
प्रथम चरण युग पास जिनराज जू के, विश्व के एट दिल मांझि ध्यान धरि श्रुत देवता को, सेवत शान हग दाता गुरु वढी उपगारी मेरे, दिनकर जैसे दीये ज्ञान प्रकास के ।
संपूरन हो मनोरथ दास 1
इनके प्रसाद कविराज सदा सुख काज, सवीये वनावति मावना विलास के ॥ * ॥
आदि
द्वीप युगल मुनि शशि वरसि, जा दिन जन्मे पास 1
विरुद्ध ॥ ५२ ॥
ता दिन कीनी राज कवि, यह भावना विलास ॥ ५१ ॥ यह नीके के जानिये, पढ़िये भाषा शुद्ध 1 सुख संतोष श्रति संपजै, बुद्धि न होह इति श्री उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ गणि कृत लेखनकाल- संवत् १७४१ आसोज १४ नापासर मध्ये | श्री स्तु ॥
प्रति- पत्र ७ से १०, पं० १७ से १८ । अक्षर- ५७ साइज १०x४।
विशेष - जैन धर्म की वैराग्योत्पादक अनित्य, अशरणादि १२ प्रकार की
भावनाओं का इसमें सुन्दर वर्णन है ।
भावना विलाम सपूर्णं । लिखितं हर्ष समुद्र मुनि
[ अभय जैन ग्रंथालय ] (४८) भाषा कल्प सूत्र । रचयिता- रायचन्द । रचना काल - सम्वत्१८३८, चैत सुदी ६ मंगलवार, बनारस ।
अथ श्री भाषा कल्प सूत्र लिख्यते ।
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अन्त
( १५३ )
सो०- जै जै जैन धर्म हितकारी, संघ चतुर्विध जिहि अधिकारी ॥ १ ॥ arat any after anaक, यहि चतुर्विध संघ प्रभावकारी ॥२॥ नराकार सौधर्म बखाना, जाके तेरह बंग प्रधाना ॥३॥ वदन पंच प्राणद्वै हाथा, बुभि चित चतम द्वै पद साथा ॥४॥
राजत्रय जासौ कहै, शान दरस चरित्र || १ || धर्म भूप नर रूप कौ, कहिये वदत पवित्र || २ ||
X
X
X
इन पाठ दिन में जनि, जिन जन सनमुख होय ।
कल्प सूत्र को अर्थ सबं, बस्नी वखाने सोय ॥ १५ ॥ कल्पसूत्र को मूल यह, प्राकत बानी माह । लोक संस्कृत तहि यदि क्यों हूँ समझे नहि || तैसी टीका संस्कृत, मई न समभ्झन जोग । to अनेक ता पर करे, टम्बा जिन जिन लोग । एक देस की भाष सो, गुरजर देसी जान | धान देस के जन तिन्हें समझिन सके निदान ! याते यह माषा करौ, जिहि सम देसी लोग । सुख सौ सब समझे, पढ़े, बड़े पुग्य सुख मोग । ऐसी मति उर धानि श्री जिन जन कुल परसंस । गोन गोखरू जैन मस, घोस वंस अवतंस | समाचंद नर राय कै श्रमर चंद वर राय | तिनके सुत कुलचंद नृप, डालचंद सुखदाय ॥
X
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तिन जिन जन सुख हेत, अरु धर्म उद्योत विचार ॥ करायचन्द हि चतुर, उपकारी मतिधार ॥ कल्प सूत्र करि कल्प तय, भाषा टीका हेत ॥ सो अनुसार जिन यश वचन, सिर घर लेह सहेत ॥
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संवत् ठारह से वरस, सरख और विक्रम नाम बीतें मई, टीका प्रकट बुधीस |
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तीस ।
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( १५४ )
चैत चादन पारख की, सुभ नौमी अमिराम । पुष्य नक्षत्र धृत जोग वर, मंगलबार ललाम ।। जन्म पारस परस पल, पुरी बनारस नाम । जन्म भूमि या ग्रंथ की, मई छई मुख धाम ॥
X
to
विशेष-प्रन्थ का परिणाम २५०० श्लोक के लगभग है प्रति-गुटकाकार।
[ स्वग्तर प्राचार्य शाखा भंडार] (४६ ) भोजन विधि । पद्य-५१ । रचयिता- रघुपति । आदि
स्वस्ति श्री ऋद्धि वृद्धि सिद्धि प्रानंद जय मंगल उदय हेतु जन्म जाको भयो है । उधव अनेक ताके कुंड पुर नगर माहि कराये सिद्धार्थ भूप पार किन लधौ है । दान मान नित्य-प्रति करत ही अकादश दिवस व्यतीत हुवे मोद परनयो है । बारमें दिन मांहि पुत्र जन्म नाम पर कुं भोजन विधान राजा सिद्धार्थ पुढ्यौ है ।।
असन पान खादिय तथा, स्वादिम च्यार प्रकार । यथा योग्य संस्कार युत, भोजन होत तैयार ॥ १ ॥ x x x x
भंत
हाथ जोर रघुपति करी, बीनती वार हजार ।
मो गरीब कू स्वामि जी, भव सागर से तार ॥ ५१ ॥ इत्यले । भोजन विधि । लेखन काल-संवत् १९२० सरसा मध्ये ॥ प्रति परिचय-पत्र-३ । पंक्ति-१५ । अनार-४० ! साइज-५०x४॥.
विशेष-भगवान महावीर के दसोठण (नाम स्थापन संरकार ) के समय भोजन की तैयारी की गई उसका वर्णन कविने किया है।
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(५०) मदन युद्ध-रचयिता-धर्मदास । श्रादि
मुनिवर मकरध्वज, दडून मांडी दारि । रति कंत वली यत, उतहिं निवल ब्रह्मचारि ॥ दोऊ सूर सुभट दल, साजि चढ़े संग्राम । तप तेज सहस यत, उतहि महाभइ काम || मु०॥१॥ प्रथम जपू परमेष्टि, पंच पचमि गति पावू। चतुर घस जिन नाम, चित धरि चरण मनाऊं ॥ सारद गनि मनि गुण, गमीर गवरि सुत मंचो। सिद्धि मुमति दातार, वचन अमृत गुन बचों । गुरु गावत मुनि जन सकल, जिनको होइ सहाइ । मदन जुझ धर्मदास को, वरणतु महि पसा ॥ मु०॥२॥
पहिरइ सील सन्नाह, लंच अति आ जदीए । सीस परन धु धीव, खिमा करि षडग लीयद ॥ दसन जन वदन्न धजा, कोउ रस्थ उपरि सि सज्जे । सत सुमते स्वारथ मुहह, संजम गल गज्जे ॥ चेतन हा रथ .................... निसाथ। हाकि चलेउ वरत उवनि, गए मदन अवसान || ३२॥
इति मदन जुझ समान। प्रति-पत्र ४ । पं० १३ । अ० ३७.
[अभय जैन प्रन्थालय] (५१) विवेक विलास दोहरा । पद्य- ११७ । आदि
नपुं सरवदा सीस नै, जिनवर रिषम जिनंद । जीब अजीब दिखाइयो, नमैं इंद पर चंद ॥१॥
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( १५६ ,
चौपईप्रथम देव गुरु धर्म पिछाने । ता परतीत मिथ्या तन मार्ने । क गर कु देव कुधर्म निबार । मुमुर बचन नित वित्त संमारै ॥२॥
अंत
कुगुर तना धौगन धनंत, कहता कोई न जानै अन्त । मुगुर तनी संगति डारसी, बाप तरै और न तारसी ॥ ११६ ॥
दहाअटार दूषन रहत, देव सुगुर निरपन्ध ।
धरम दया पूर अपर, मति अविरोध गरंथ ॥ ११ ॥ इति श्री विवेक विलास संपूर्ण ।
लेखनकाल- श्री कासमा बाजार मध्ये लिखित प्राचार्य श्री कीर्तिः पंडे, बेलचंद पंडे लक्ष्मीचंद पटनार्थ संवत १५६५ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १ रचौ श्री स्तु ॥ प्रति-गुटकाकार-पत्र-५८ से ७६ । पंक्ति- १३ | अक्षर- १३, साइज-४४६
[अभय जैन ग्रंथालय । (५२) विशति स्थानक तपविधि-(गय) ज्ञानसागर रा० सं० १८२६ मि०व० १०, मकसुदा वाद् । आदि
श्रीमहतमानम्य गुरु चे ज्ञानसागरम् ।
विशते स्थानकस्याहं लिखामि विधिविस्तरम् ॥ "अथ पीस स्थानक तपका विधि विस्तार मेती लिख्यते, निहां प्रथम शुभ निर्दोषमुहूर्त दिवसे नंदीस्थापना पूर्वक सुपिहित गुरु के समीप विसति स्थानक तप विधि पूर्वक उबरें । एक भोली दो मासे जापत् छः मासे पूरी करें कदाचित् छ मासमध्ये पूरी न कर सकें तो वे भोली जाय फेर करणी पड़े।
अथ श्री भाषा कल्प सूत्र लिख्यते ।
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अंत
( १५५ )
इनसे कोई अज्ञान मूढता दोष संती कोई न्यूनाधिक विरुद्ध लिख्या गया होइ, उसका श्री संघ साखिमिच्छामि दुकडे हो, अरु गुणी जन ने क्षमा कर के शुद्ध करंगाजी || "
दृहा
संवत् यठारह अधिक, बीते एगुतीस ।
मृगसिर यदि दशमी दिनें, पूरण भई जगीस ॥ १ ॥ तप पति महिमा निलौ, नागर बन्दित पा श्रीपून्य सागर सूरिवर, नम्रो सुयश सदाय ॥ २ ॥ तस श्राणा सिर धारता करता विषय कषाय । कृपावंत श्रागम रुचि, श्री ज्ञानसागर उवकाय ॥ ३ ॥ तारा सांस पूरव तथा भेटत तीर्थ धनेक | रह्या मसुदाबाद मैं, चऊमासा सुविवेक ॥ ४ ॥
सर्व भद्रक प्रकृति, साह रूपचन्द सुजान | रतनचंद तनुषा, धर्म रुचि सुभवांन ॥ ५ ॥ शास सुयत तप ची मई, वीसठाण गुणगेह । कहें विधि हम लिखदीश्रो, तब श्रम कीन्हों एह ॥ ६ ॥ विधिपूर्वक जो तप करे, मात्रै भावसार । तीर्थंकर हुई तेल है, शाश्वत सुख श्रीकार ॥ ७ ॥ मिति सं० १८७१ कार्तिक सुदी ३ अजीमगंज नगरेप्रति-पत्र ३४, पं० १२ से १७, ० ३३ से ४२, साइज - १०।।। x ५
[ मोतीचंद जो खजानषी संग्रह ] ( ५३ ) संयम तरंग | पद- ३७ आध्यात्मिक । रचयिता - ज्ञानानन्द । तिम पद
राग झिंझोटी
रहो बंगले में, बालम करूं तोहे राजी रे । र०॥ टेक ॥
निन परिणति का अनुपम बंगला, संयम कोट सुगाजी रे । २०
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(१५)
चरण करण समति कंगुरा, अनंत विरजम साजी रे । २० ॥१॥ सात भूमि पर निरमय खेलें, निर्वेद परम पद लाई रे । १० । विविध तस्व विचार सूखदी, शान दरस सुरमि माई रे । २० ॥२॥ पहनिशि रवि शशि करत विकासा, सलिल अमीरस धाई रे । २० । विविध तूर धुनि सामल वालम, सादवाद अवगाई रे । २० ॥३॥ ध्येय ध्यान लय चढ़ी है खुमारी, उतरै कबहु न रामी रे । २० । मन निधि संयम घरनी वाचा, ज्ञानानन्द मुख धामीरे । २० ॥ ४ ॥
[प्रतिलिपि-अभय जैन प्रन्थालय] ( ५४ ) समय सार-बालबोध-रचयिता-रूपचन्द सं० १७६२ । धादिअथ श्री नाटक समयसार भाषाबद्वों लिख्यते ।
दोधकभीजिनवचन समुद्र की, को लग होइ बखान ।
रूपचन्द तौटू लिखें, अपनैं मति अनुमान । अथ श्री पार्श्वनाथजी की स्तुति, झंझटा की चालि
सवैया ३१'मूल सवैया की टीका-अब ग्रन्थ के श्रादि मंगलाचरन रूप श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की स्तुति आगरा की वासी श्रीमाली वंशी विहोलिया गोत्री बनारसीदास करतु है भी पार्श्वनाथस्वामी के हैं करमन भरम-करम सो बाठों ही करम, मरम सो मिथ्यात सोई जगत में तिमिर कहता अधकार नाके हरन को खग कहते सूर्य है । अरु जाके पगमें उरग लखन कहते सर्प को लगन है श्रम मोत-मार्ग के दिखावन हार है, बरु जाको नयन करि निरखते भविक कहता कस्यानरूपी मज है सो वरषै, ताते अमित कहता परिमान बिना अधिक जन सरसी कहता भन्यलोक सरोवर है सो हरषत है, जिन कहते बिहि कारन मदन बदन कहता कंदर्प के शमा कारक है, अरु जाको उत्कृष्ट सहज सुखरूपी मीत है, सो मगत कहत भाग जाइ है।"
अंत
पृथ्वीपति विक्रम के, राज मरजाद लीन्हें, सहसै वीतै परिवान श्राव रस मैं ।
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(१५६)
थासू मास आदि घाँसु, संपूरन पन्च कीनौ, बारतिक करिक, उदार वार ससि मैं । जोपै सह माषा मन्ध. सबद सुबोध याको, तो चिनु संप्रदाय ना तत्त्र वस में। यात शान लाम जानि, संतनि को वैन मानि, वात प्रन्थ लिख्यो, महा शान्त रस में ॥ १ ॥ खर तर गधनाथ विधामान मट्टारक जिन मक्ति सूरिजू.
के धरम राज धुर में। खेम साख माझि जिनपजू बैरागी कवि, शिष्य सुख बर्द्धन शिरोमनि सुघर में। ताको शिष्य दयासिंध जानि गणत्रंत मेरे, धरम पाचारिज विख्यात श्रुतधर में। ताकौ परसाद पाइ रूप चंद पानंद सौं, पुस्तक बनायो यहु सोनगिरी पुर मैं । मोदी थापि महाराज जाको सनमान दीन्हौं, फतेचंद पृथ्वीराज पुत्र नथमल के । फतेचंद जू के पुत्र जसरूप जगन्नाथ, गोतम गनधर मैं, धरै या शुम चाल को ता. जगन्नाथ जू के । धूभित्रै के हेतु हम, ब्यौरि के सुगम कीन्हें, वचन दयाल के, वाछत पटत अब पानंद सदा एक सै। सगि ताराचंद अरू रूपचंद बालके ॥ ३ ॥ देशी भाषाको कही, अरथ विपर्यय कीन ।।
ताको मिता दू कडू, सिद्ध साख हम दीन ॥ ४ ॥ लेखन पुस्तिका
___ नंद वन्दि नागेन्दु वरसरे विक्रमस्य च । पौषसितेतर पंचमी तिथी धरणीसुत्तवासरे ॥ श्रीशुद्धिदंतीपत्रने श्रीमति विजयसिंहास्य सुराज्ये । वृहत्खर नरगछे निखिलशास्त्रौष पारगमिनो महीयांसः श्रीक्षेमकीर्तिशालोद्भवाः पाठ
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( १६० )
कोलम पाठकाः । श्रीमद्रूपचंद जिद्रण-स्तच्छिष्य पं० विद्याशीलमुनिस्तच्छिष्यो गजसार मुनिस्समयसारनाटक ग्रन्थमलिखत्। श्रीमद्गवडीपुराधीशप्रसादाद्भावकं भूयात्पाठकानाम् श्रोतॄणां छात्राणां शश्वत् । श्रीरस्तु ।
प्रति परिचय सुन्दर अक्षर पत्र १४३, पं० १५, अक्षर ५० ।
[ सहित्यालंकार मुनि कांतिसागरजी संग्रह ] अन्य प्रति- बीकानेर ज्ञान भंडारों में
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वारह मासी साहित्य (१) नेमिनाथ राजिपती बारह मासी । पद्य १३, विनयचन्द । धादि
श्राव हो इस रीति हित सै यद कुल चन्द । यउ मोहि परमानन्द ॥ श्रा०॥ २स रीति राजल बदत प्रभूदित, सुनौ यादव राय । छोरि के प्रीति परतीति प्रिय तुम, क्यों चले रिसाय । बिहुँ और धोर घर ... ... ... ... ... ... त मैन । धरि अधिक गाट अाषाढ़ उमट्यौ, घट्यो चित्त से चैन ॥१॥
अन्त
इस मांति मन की खाति, बारह मास विरह विलास । करके प्रिया प्रिय पास चारित, ग्रयो पानि उल्हास । दोउ मिले सुन्दर गति मंदिर, भर जहाँ मति नन्द ।
मृदु वचन ताको रचन भाखत, विनय चन्द्र कवीन्द्र ॥ १३ ॥ इति श्री नेमिनाथ राजमत्यौ द्वादस मासः । प्रति :-गुटकाकार ।
स्थान :- [अभय जैन मन्यालय] ( २ ) नेमि बारह मासा । पद्य १३ । रचयिता-जसराज (जिनहर्ष) आदि
सावन मास धना धन बास, बाबास में केलि करे नर नारी । दादुर मोर पपीहा रटे, कहो कैसे कटे निशि घोर अंधारी ।।
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(१६२)
बीज भिलामल होई नही, कैसे जात सही समसेर समारी । थाइ मिल्यो जसराज कहें, नेम राजुल कुं रति लागें दुखारी ॥१॥
राजल राजकुमारी विचारि के संयम नाथ के हाथ गयो है । पंच समिति तीन गुपति धरी निज, चित में कर्म समूह दशो है ॥ राग द्वेष मोह माया नहें, उज्जवल केवल हान लयो है । दम्पति जाइ बसें शिव गेह में, नेह खरो जसराज कामो है ॥ १३ ॥ इति श्री नेमि राजिमती बारमासा समान ।
[अभय जैन प्रन्थालय] ( ३ ) नेमि बारह मासा । सवैया-११ । रचयिना-जिन हर्प। श्रादि
पन की घनघोर घटा उनही, विद्युरो चमकत झलाहलि सी । विचि गाज अगाज अवाज करत सु, लागत मों विष वेलि जिसी । पपीया पीऊ पीउ रटत रयणा जु, दादर मोर वदै उलिसी ।
से श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी ॥ १ ॥
अन्त
प्रगटे नम वादर प्रादर होत, धना धन पागम पाली मया है । काम की वेदन मोहि सतावै, श्राषाढ में नेमि वियोग दयौ है । राहुल संयम ले के मुगति, गई निज कंत मनाय लयो है । जोरि के हाथ कहै जसराज, नेमीसर साहिब सिद्ध जयो है ॥ १२ ॥
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( ४ ) नेमि राजुल बारह मासा। पद-१४ । रचयिता-लक्ष्मीवल्लभ ।
राजीमती बारहमासियो राज कृत सवैया लिख्यते । श्रादि
उमटी विकट धनघोर घटा चिहुँ पोरनि मोरनि सोर मचायो । चमकै दिविवामिनि यामनि कुमय मामिनि कुंपिंउ को संग मायो ।
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( १६३)
लिव चातक पीउ ही पीह लई, मई राज हरी भु देह टिपायो । पतियाँ पै न पाई री प्रीतम की बली, श्रावण बायो पे नेम न पायो ॥ १ ॥
मान के सिंधु अगाधि महा कवि मैसर छीलर नार निवासी । है ज महा कवि तो दिन राज से, भेरो निसाकर कौ सौ उजासो । ' ताते कर बुध सुं यह बीनति, मेरो कहुँ करियो जनि हासो ।
प्रापनी बुध सू' राज कहै यह, राजल नेमि को बारह मासो ॥ १४ ॥ इति सबैया बारै मासरा समान ।। प्रति-पत्र-१ पक्ति-१५ । अक्षर-४२।
[अभय जैन प्रन्थालय] ( ५ ) नेमनाथ बारह मास । पद्य-१५ । रचयिता जिनसमुद्र सूरि । श्रादि
श्री या पति तोरण थाया, पशु देख दया मन लख्या । प्रभु श्री गिरनार सिधाया, राजल रांणी न विदाया हो लाल ॥ १ ॥ लाल लाल इम करती, नयणे नीझरणा झरती ।
प्यारी प्यारी हो नेमि तुहारी, भव मव की केम बीमारी हो ॥ २ ॥ अन्त
सखी री नेमि राजुल गिरवरि मिलीया, दुख दोहग दूरे टलिया । जिणचन्द परमसुख मिलीया, श्रीजिनसमुद्र सूरि मनोरथ फलिया ॥ १५ ॥ इति श्री नेमनाथ बारहमासी गीत ।
[अभय जैन प्रन्थालय] (६ ) नेमिराजिमती बारह मासा। पय १६ । रचयिता-धर्मसी ।
पादि
सखोरी रितु भाई अब सावन की, धुरंत घटा बहू छन की । पानी सुपी पपीयन की, निशा जाये क्यु विरहन की ॥१॥
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(१६४)
इकतारी नेम से करती, धन सीपल रतन ने धरती । तिम विरह करी तनुतपती राजुल बालम मे अपती ॥२॥
पन्त
सखी मन धारो पारह मासा, प्राणों वैराग उलासा । गुरु विजय हरख जसबासा, वधते धर्मसील विलासा ॥ १६ ॥
[अभय जैन प्रन्थालय) (७) नेमि राजिमती बारहमासा पध १३ । रचयिता- केसवदास ।
सं १७३४ पाधि
धनघोर घटा उमरी विकटी, भृकटी हग देखत ही सुख पायो। बिग चमकत मुकंत सही, फुनि भू रमणी उर हार बनायो।। - मर भौर भिंगोर करै वन में, धन में रति चोर को तेज सवायो ।
सुख मास भयो भर जोवन भाषण, रामुल के मन नेम सुहायो ॥ १ ॥ अंत
गुम के सुपमाउ लही शुभ भाव, बनाय फयो इह बारह मासा | उग्रसेन सुता नमि जो गुण गावत, वंचित सीमत ही सब अासा || सुध मास सदावण को शनिवासर, सम्वत् सतर चौतीस उबासा !
श्री लावण्यरत्न सदा प्रसाद ही, केशवदास कहि सु-विलासा ॥ १३ ॥ इति श्री नेम राजुल के बारह मासा समाप्तं । ले०:- बीकानेर मध्ये।
[अभय जैन प्रन्थालय] (८) नेमि बारह मास । पद्य १३ । रचयिता-लब्धिवर्द्धन । आदि
पकटा विकटा निकटा निरजें गरजे धनघोर घटा घन की । सजूरी पजूरी वीजरी चमके, अंधियार निसा अती सावन की । पीठ पीउ कहै पपीहा उपहा, कोह पीर लहें पर के मन की । ऐसो नेम पीया ही मीलाय दियै, बलिजाउं मसी जगि या अनकी ।
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( १६५)
एम द्वादश मास सहि गृहबास, गई प्रिपू पास विराग हं पाणी । विषया रस घोरी दोहु करि जोरि, सिव सुख काज सुणी जिन पाणी । लहि संजम मार सजी कुविचार, सती सिमगार राजिमती राणी ।
लवधि पद्धन धन धन्न नेमीसर, सामी नमो निते लवि प्राणी ॥ १३ ॥ इति द्वादश मास नेमी राजिमती समाप्त ।
[अभय जैन ग्रंथालय ] (8) नेमिवारहमासा । पद्य-१६ । श्रादि
सुराजे री वात सहेली जदुराय पिन खरीय दुहेली । मेरो पोउ है कामनगारो, चित ले गयो चोर हमारो ॥१॥ दीया दोष पसुन को भूठा, वालम तो मोसं रूठा ।
रूठो पीउ मनावे कोई, सखी मित्र हमारो सोई ।। सु० ॥ २ ॥ अन्त
जदुपति उग्रसेन की कुंश्ररी, परणी व्रत चारित्र धरणी । नव भव की प्रीत विसारी, जाय मुक्ति पुरी में सारी ॥ सु० ॥ १६ ॥
[अभय जैन ग्रंथालय ] (१०) नेमि राजिमती बारह मासा । पय २६ । विनोदीलाल । आदि
विनवै उग्रसेन की लाड लडो, कर जोरी के नेम के पागे खरी । तुम काहे पिया गिरनार चले, हम सेती कहो कहा चूक परी ॥ यह र नहीं पीय संयम की, तुम काहै की ऐसी चित्त धरी । कैसे बारह मास बितायेंगे, समझायो पिया हम ही सगरी ॥
अन्त
बारह मास पूरे भए, तबै नेमिहि राइल जाय इनाए । नेम ह द्वादश माव नस धनु प्रछते राल कू समुझाए । राजल ही तप संयम लें तप के सुभ मावा. कर्म गराए । नेम जिनन्द अरु राजमति प्रति • उत्तर लाग विनोदी ने गाए ॥ २६ ॥
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(१६६ )
इति नेमनाय गजीमती बारहमासो सम्पूर्णम् । प्रति-रेखता बारहमामा सम्मलित, पत्र ६, पं. १३, अ.४०
[अभय जैन प्रन्थालय] (११) बारहमासा । पा-१३ । रचयिता-वृन्द ।
अथ स्तवन लिख्यते । वसन्त राग। श्रादि
मास वसंत मधुर महि सुन्दर, लाग रह्यौ रित सुक्षरवानी । मा नीली धरा तरू एकलहकत फूलत पूर महक सुहानी । प्राणी मनोहर केसर घोर के, कंचन मुरत पूज रचानी । क्षेत्र के मास में आदि जिनेसर, पूज रचै कवि वृन्द सहानी ॥ १ ॥
इम द्वादश मास में श्रादरता 5 ए, नेह शृगार धयों मन हो । नित देव निरंजन ध्यान धरै, धन ते नर मानत अन्दर ही । सहु सुख मिले जिन ध्यावन में, नित पावत पुर्ग निवावरही ।
कवि वृन्द कहै जिन चोविस कु, सब धान परागन धावन ही ॥ १५ ॥ इति बारेमासा सवैया संपूर्ण। लेखन काल-१६ वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार । पत्र ३ । पंक्ति-१०। अक्षर-५८ । साइज-६|1||
[अभय जैन ग्रन्थालय ] (१२) बारहमासा । रचयिता-केशव। आदि
सुख ही मुख जह राखिण, सिख ही सिख सुख दानि । सिखा चेपु कनौ वरनि, अपद बारह वानि ॥ १ ॥
लोक लाज तजि राज रंक, निरसक विराजत । जोई पाक्स सोई करत कहत, पुनि सहन न खाजत ।
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शन्त
( १६७ )
घर घर जुबती बनि मोर, गहि गादि निचौरहि । वसन जीनि पुल माजि बाजि, लोचन तिनु तोरहि पटवार वा अकास उदि, सुव मंडलु सबु मंडियै ।
कहि heart विलास निधि, सु फागुन कागुन इंडियै ॥१३॥
इति बारहमासा वर्णन संपूर्ण । शुभं भवतु । लेखन काल-संवत् १७५० वर्षे मिति श्रावण बदि १४ दिने बीकानेर मध्ये | प्रति-गुटका । पत्र- ४|| | पंति-७ | अक्षर ३५1
[ वृहद् ज्ञान भण्डार ] (१३) बारह मासो | दोहा-१२ । सवैया - १२ । रचयिता - बद्री कवि |
आदि
चैत मास प्यारे चतुर, गोन करति परदेस प्रिय,
आदि
यादि वरस को मास ।
तातें
रहत उदास ॥ १ ॥
गावति राग वसन्त बजावति, चावति ही वनिता गुन मैं । कहूं or at eat प्यारे को, श्रागम होतो की धनुरागुन मैं ॥ जब आन परी तिय मो तन हेर, लगी मुसकान सुधा गुन I तब लूट लयौ सुख बारे ही मासके, लाल मिले पिया फागुन मैं || १२ || प्रति- गुटकाकार पत्र ४ । पंक्ति-७
अक्षर-३४ ।
( १४ ) बारहमासौ । रचयिता मान
[ बहत् ज्ञान भण्डार !
अथ बारह मासौ जिख्यते
दोहरो
श्रगहन मान समान दुति, जारत सकल सरीर ।
चलन कहत परदेस पिय, छिन छिन वाटतपीर ॥ १ ॥
सोरठो
गवन कियौ नंदखाल, गोकुल तजि मधुरा गए ।
राधे अ दे साख, काल मई मज माल सब ॥ २ ॥
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( १६८)
घोर दिवारी हरि मिले, मारो मेष पनाइ ।
परी मुख मोकौं दयौ, सारी पीर गंवाइ ॥ ३७॥ इति भी कवि मान कृत बारहमासी संपूर्ण प्रति-गुटकाकार न० ७६ । पत्र ४७ से ५० । पंक्ति-१६ अक्षर-२२ साईज
६||४|| विशेष-इम प्रति में सुंदर शृंगार, विहारी सतसई टीकादि भी है।
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय] (१५) बारह मासा। आदि
रख्यौ मास द्वादस पिया, पिय अपनी निज देश । नयी नयौ वरनन कियौ, दीयो न चलत विदेश ॥ १ ॥
ऊरत गुलाल अति उहत अबीर मय, बित सौ लगाइ रहत प्रकास यौ । छूत है जल पिचकारनि ते चिहुं ओर जानु घनघोर वरषत ज्यू ॥ 'फागुण मैं ऐसे पिय फागु राग गाईगत, रूप कहे रसही मैं रस बस होइ त्यू । मोरी जान मो भरमावत हो जोरी वात होरी आये श्रही पिए क्यों करि चलयो ॥ १२ ॥ इति बारह मासा सम्पूर्ण ।
लेखन काल-सवत् १७५० वर्षे श्रावण वदि १३ दिने बीकानेर मध्ये मथने पेमू लिखतं तत्पपुत्र मैहपाल तत्पुत्र अखेराज ।
[वृहत ज्ञान भण्डार] (१६) बारहमासी । बालदास
अथ बारैमासी लिख्यतेश्रादि
मोहना बंसी बाजे कृष्ण, तेरी प्रवास सुण कर दोषी । रमझम रमझम मेहा बरसै, तट जमना पर लगी झड़ी ॥१॥
जेठ मास में तपै देवता, पंचागन तपस्या कीनी । साबरी सूस्त मोहे दरसन दीनो, बालदाम उर कठ कीनी ।
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(१६६)
इति बारे मासी संपूर्ण प्रति-१ आधुनिक प्रति । पद्य १२ ।
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] ( १७ ) बारामासी । पद्-१२२ । रचयिता हामद काजी ।
अथ हामद काजी कृत बारहमासो लिख्यते । धादि
दृहाश्राप निरंजन आदि कल, रच्यो प्रेम मंडाण | रूप मुहमद देह घर, खेल्यौ खेल निदान ॥१॥ एक बकेले अंग , स्वाद लग्यो नह नेह । विरह जोती जगमगित, अपकरिय यह देह ॥ २ ॥
विवरण द्वादस मास को, मो तन पयो पहार । ज्यों उगों जरी विजोग ते, रयों त्यों करी पुकार ॥ ५ !!
धाज मलै उद्योन भयो, दिन नागर नाह विदेस से पायो । हूँ मग जोय पकी बहु चाहत, भागबड़े घर बैठे हि पायो । नैन सिराय हियो मयो सीतल, कोट कचावन मंगल गायो ।
हामद महाग सेज बनाय के, पाणंद सं हसी रंग बनायो ॥ १२२ ॥ इति काजी हामद कृत बारहमासो संपूर्ण । लेखन काल-संवत् १८२८ वर्षे भादवा सुदि ६ सनी लिखितम् हरी धीर
मनिहि प्रति- गुटका कार । पत्र-५ । पंक्ति-२० । अक्षर ३८ । साइज Ex
[अभय जैन ग्रंथालय] (१८) बारहमासा। पद्य ८३ । रचयिता- साहि महमद फुरमवी अब बारहमासा साहि महंमद फुरमती का लिख्यते ।
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(१७०)
दोहासाहि महंमद फुरमति, ताक्रित बारहमास । विरही तन मन रंजना, भोगी चित हुलास ॥१॥
सोरठाअहट हुत्तो तबसुन, मीम परत मूरत मई । देखें गहु घटका पुन, प्रभु प्रगटे नर रूप होई ॥२॥
कवित्त
सुगन सकल बहु हुने नेन कुच भुजा फरकहिं । फरकति अंचल दरस दरम पिय कमन तरकही । अवन रसन चख प्रान परस रख भुज मुखलीनी । अब नब जब विध रचत संइछत मोहि दीनौ । मानवी मदन महमुद मुदति मिले मनोहर विविध मति । नौरस विलम तस्नी मनुहर वन साहि चंपा जु पति ॥
दोहाबारहमास अ मैं कहै, ज्यों अमरन बिन हार ।
झुरते अधर चित धरहु, टूटत लैह संवार ॥ ३ ॥ इति श्री साहि महमद को बारहमासा संपूर्ण । शुभं भवतुः ॥ ले. संवत् १७५० वर्षे चैत्र सुदि अष्टम्या तिथु छेनीसुर वारे श्री बीकानेर मध्ये मथेन पेमू लिखत नन्पुत्र महपालः तत्पुत्र ।
[अभय जैन ग्रंथालय] (११) बारहमासा--श्री मीना सतमी श्रासाधन की । आदि
परथम बेनमूं नया मंडारू । बखख एक सो सेरजन हारु । पास तोरी मो बहोत गोसाइ, डरे, काह कर रगे नाही ।
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(१७१)
सतमिना कहि साधन थिर राजे अब करतार ।
कूट न भार न सारी कहस तीन के परकार ॥ प्रति-पं० ११३, पंक्ति १५, अक्षर ११,
[अनूप संस्कृत लाइब्रेरी] ( २०) पडऋतुवर्णन
अथ श्रीषम वर्णन दसौं दिसंत चह अवालौ प्रति प्रीषम मैं जल थल विकल अवनि सब धहरी । अमन के पुंज दोऊ श्रौचको मिले है कुंज द्रुमके वेलीनिको तकि कवि छाह गहरी । राधा हरि भूलि पल रूप के सखी सुख, रहके बटो अनुराग लहरी । नंदमा सौ लग्यो मात नादिसी सी लगि धूप सरद की राति भई जेठ की दुपहरी ॥ १॥ ग्रीष्मवर्णन पय ३१, वर्षा ६७, सरद के २५, हिमके १०+ १० + १०-६५, संवत ३३.
फूलनि के बंगला झरोखा अटारी जारी फूल की सिवारी छबि मारी रंग रंग है । फूलनि भूषण वसन तन फूलनि के फूलि रहे सावन गवर अंग अंग हैं । कुंजनि में नैन फूले नैननि में कुंज फूले सुखो मुख दिपी दुति महल अनंग है । विहारी विहारनि विहरै दिठि दरपननिरूप काय व्यू ह है भूलके दोउ संग है ॥
इति वसंत संपूर्ण । मंवत १७ ८९ वर्षे मिति फागण सुदि ४ बुधवार वि. अंत में कृषिजापचीसी मलूकचद् कुन है ६६ ४२६. प्रति- पत्र ८१, पं० ११, अ० १६, साइज ६|| ४ ||
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय]
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. ग० कृष्ण काव्य वसंत लतिका ।
श्रादि
पहले के १६ पन्ने नहीं हैं। मध्य
चौकि चले निज टौर में, पंचम जुगल किसोर ।
को जानै निसि शेष में, को ससि कौन चकोर ॥ ६४ ॥ इति श्री श्रीमद् वसंत लतिकायां पंचमी कलिका समाप्त
श्रीमन्मर्कल रुचि रुचिर तक तरुणावलाम्बिताया ।
नव दल दलित ललित मंजु मंजरी संयुतायो । अलि कुल भाकितायो । प्रादुर्भुत केलि कोरकन्नाम प्रथम म्तयकः
दोहा धमल पुखी प्राची प्रिया, मुख पट करिके दूर । प्रात माल नम मैं दयो, लाल अरुन सिंदूर ॥ १ ॥ जागी वधूगन महरि पे, सकुचत सकुचत जाय ।
परि पायनि घर को चलि, धूंघट में सिरनाय ॥ २ ॥ द्वितीय स्तवक की प्रथम कलिका पूर्ण होकर द्वितीय कलिका के पद्य यह प्राप्त हुए हैं, अन्ध अधूरा रह गया है।
लेखनकाल-२० शताब्दी। ___प्रति-पुस्तकाकार । पत्र-१७ से १६ तक । पंक्ति-२१, अक्षर-२०, साइज ६॥४१॥
[ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ]
ड़ वेदान्त बुधि बल कथन-रचयिता-लछीराम
श्रादि
सरसति की उरि भ्यान परि, गणपति गुरु मनाइ । लकीराम कवि यह कथा, बद्भुत कहत बनायी ॥ २ ॥
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( १५३)
पूरब दिसि जहाँ वठे सुरसरी, ता उपकठि वसति सिवपुरी । जहाँ नरनारी सुदर रूप, राजै शानदेव तहां राव, रविले अधिक प्रताप दिखाय । जाकै मान तेज उरि जगै, तातै दूर मुटता मग ॥
अंत
मंगल प्रकत मही ज्यौ राजै, युधिबा बुधिमतीत्यों छाजै । धन बुद्धिबल मंगल चतुराइ, दीनी ते दस ठकुराइ ॥४०॥ नई कथा पर नाम गुन, पुनि नर नारी समाच । लछीराम कलपित करै, रोझो कविराज ||४|| बुधिवल सुने बुधि अतिबाटै, मनतै सकल मूढता । सोरहसै विक्रम को साको, तापर वरस इक्यासी ताकौ ॥४९॥ तीजै महावदि पोषी मई, बुधिबल नाउ कल्पना नई । लछीराम कहि कथा बनाई, तामें गति रस निकी छाई ॥५०॥ स्वारथ परमारथ युगल, दीने सब निज नाइ ।
नूकपरी जा और , कविजन लेहु बनाइ ॥५१॥ इति श्री बुधियल अंत प्रभाव वेदांत खंड समाप्त ।। अष्टम प्रभाव समाप्त ।। पत्र २१६ से २३२ पं० ३०अक्षर २६ गुट कार ।
ज्ञानमाला।
आदि
प्रथम पत्र नहीं करम है मो श्राप किरपा करकै इन धेनु करम के भेद मिन मिन मो से कहो, जोइ मेरे मनका संदेह निवारण करो। राजन यह प्रसन सुनाकर श्रीशुकदेवजी बहुत प्रसन्न भये और श्राज्ञा कीनि कि हे राजा तेरे प्रसंग में संसारी मनुस कू नहलाये है। और जो यह संदेह तरे मन में उपजी है सोही अरजुन के मन में उत्पन्न मया था, सोभाकिसनजी ने वाक प्रसंग में कहा
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( १७४ }
पंत
श्रादि बुधि की होन हो दुर्जतन धरिजाय । लीजै बाखत हीन हो चौथे रोजी भरि ॥
इतने लखन पापके होवे बार बार । ..लिखा है अरजुन जो मनस इन तीन पाठन कू अपने चित्त सू कभी नियारी नहीं करें तो इस लोक पार पर लेया मैं परम सुख पावै प्रथम सुख पावे. प्रथम स्वामी की सेवा मे हंसमुख और निरलोभ रहै दूजे चाकर के मनकू दुखी नाखे। तीजो किरोध न करे।
इति श्री ज्ञानमाला संपूरणम । प्रति पत्र २ से ६५ पं० १२ अ०१४ साइज ६.४८
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ]
च.निति चाणक्य भाखा टीका।
अब चाणक्य माखा टीका लिख्यते ॥ आदि
दोहा
सुमति बढ़ावन सरब जन, पावन नीति प्रकास । माखा लघु चानक मलें, मनत मावनादास ॥ १ ॥ संकर देव प्रनाम करि, विधिपद वंदन ठानि । विष्णु चरन जुन सीस धरि, कई चि शास्त्र बखोनि ॥२॥ कयौ प्रथम चाणक्यमुनि, शास्त्र सुनीति समाज । सोइ अब मैं धरनू नरन, बुद्धि भटावन काज ॥ ३ ॥
कहियत चानक संस्कृत, निरमल नीति निवास । भाखा करि दोहा मनै, साधु मावनादास ॥ २० ॥ षोडश चानक के कहिये, पोहा व सततीस । सुभग स्वरग सोपान सम, प्रतिमुद प्रद अवनीस ॥२१॥
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छक अयन ग्रह इन्दु कहि, संबत माधव मास ।
पख उज्जल रवि पंचमी, पूरन अन्य प्रकाश ॥ २२ ॥ इति श्री वैष्णव भावनादास विरचिते माखा टीका वृद्ध चाणक्ये अष्टमोऽध्याय १.८॥
प्रति-गुटकाकार । पत्र ४४ पक्कि अक्षर २५
गुटके में पहले इन्हीं टीकाकार का भर्तृहरि शतकत्रय और फिर चाणक्य मूल श्लोक और प्रत्येक श्लोक के साथ पद्यानुवाद । छ शतक
( १ ) भरतरी शतक श्लोक भाखा टीका नीति मंजरी । टीकाकारभावनादास।
श्रीगणेशायनम ॥ श्रथ भरतरी शत श्लोक भाखा टीका नोति मंजरी लिख्यते ।। श्रादि
सोरठा अमल प्रीति उर श्रानि, दामोदर पद कमल प्रति । भावना भनहिं सुवानि, नीति सतक माखा म भलि ॥ १ ॥
सवया जिनको हम प्रानप्रिया कहि चिंतत, भिन्न सदा तिनको चित है। जन औरन ते बह प्रीति करें, जन सो पुनि और हुतै रतहै । अनुराग न ता तियके नित, हमको प्रिय आनि चहै वितहै । धिक है तिय की जनको रूमनोज को, याहि कौं मोहिकों सो नित है ॥ १ ॥
दोहा सुख सौ समझत मूढ मन, अति मुख बिदुख रिभाइ । अरष दग्धि मति मन्द को, विपिन सके समुभाइ ॥ २ ॥
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धन्त
( १७६ )
दोहा
ग्यान अनल कौं थरनि सम, मुनिजन जीवन मूर्ति ।
वरनी सतक विराग की भावन
मरुधर
नगर सु जोधपुर, बसियौ
राम
सने ही साधु हम, खैरावा
कवित्त
1
भाखा भूरि ॥१०६ ॥ सदा बखान ।
गुरु थान ॥ ११० ॥
स्वच्छ रमनीय हीय र अनुप जाके नीति राम विमल विराग त्याग तैं भरी । जरी गुन दानक के मानक विसेख बनी सिंधु भव भूरि ताके तरिबे को हैतरी । रसिक रिकाfeat विवेक की बटावनी है।
जेते बुद्धिवंत ताके जीवन अंक नै अंक इंदू मास सुचि
को हैजरी ।
शका कवि
माया मैं वखांनी टीका मावन मरतरी ॥ १११ ॥
इति श्री भरतरी सत मात्रा वैष्णव भावना दासेन विरचिता वैराग्य मंजरी
समाप्ता ॥ ३ ॥
भितृहरि शतक के तीनों शतकों के मूल श्लोक और उनके नीचे उनका पद्यानुवाद दिया हुआ है I
प्रति-
-गुटकाकार | पत्र ९६० ॥ पं. अक्षर २२ | इसके बाद चाणक्य मूल और पद्यानुवाद इन्हीं टीकाकार का है।
( २ ) भतृ हर शर्त, भाषा टीका
आदि
॥ ६८ ॥ श्री गुरुभ्योनमः ॥ अथ भतृ हर शतं निख्यते ॥
भर्तृहर नाम ग्रंथ करतो । ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति कौं। ग्रंथ के आरंभ समय श्री महादेव को प्रणाम रूप मंगल करत है | कैसे हैं श्री महादेव | ज्ञान दीप रूप तें अधिक है त हैं । कौन ठोरि विषै वर्त्तत हैं । जोगीश्वरन्ह को जेवंत सोई भयो र तामैप्रवर्त्तत हैं । पुनः कैसी हैं श्री महादेव । माथै उपरी घरि है
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(१७७)
जो चंद्रमा की कला ताकी चंचत् देदीप्यमान जु शिखा ताकरि मासुर देवीप्यमान है। पुनः कैसे हैं श्री महादेव । लीला अपुनी करि जारपौ है काम रूप पतंगु जिनि ।। पुनः कैसी है ।। मोक्ष दसा के प्रागै प्रकासमान है।। पुनः कैसे हैं श्रीमहा. देव । अंतःकरण विष बाढ्यो जु मोह अज्ञान रूप अंधकार ताको नाश करणहार । असो श्री महादेव जयवंत वत्तै ।। १ ॥ राजा भरी हर । या संसार को दसा । जैसी आपुनकू भई । तैसी साधुन को जनाइ करि । वैराग्य उपराजिव कई : पंथ करत हैं ।। तहां जो असाधु निंदा करें नौ करौ । निंदा असाधु ही को कर्तव्य है ।। असाधु सु कछु तातपरज नाहीं। असाधु को निर्णय करत है। भागिलेश्तो कन्ह विष ।। xxx अंत
अहो महां तनके वचन चित विर्षे अवस्यमेव राखिजै । यह आयु जु है सु कल्लोल मई। लोल चंचल है। जैस जल को तरंग। अरु जोबनु की जु श्री सोभा तें घोरे ही दिवस है। परंतु बिनसि जातु है । अरु अर्थ जु है अनेक प्रकार की लक्ष्मी ते स्मर तुहीं नात हैं । अरु भोग को समूह सु जैसें मय वितानमौ विजुरी चंचल तैसो क्षण एक चंचल है। उपजै अरु नष्ट जाइ। अरु प्रिया जुस्त्री तिन्ह जुआलिंगनु विलास सो चितषत ही आत है। तातें हौं कहत हौं यह समस्त अनित्य जाणिकरि परब्रह्म जिहैं श्री नारायण तिन्ह विष अंतहकरण निरंतर हलगावह। अब संसार को त्रास निवारी करि वैकुठ विर्षे चलो ॥ ८ ॥
(अपूर्ण लिखा हुआ) प्रति-पुस्तकाकार गुटका। पत्र ८५ पंक्ति १७ अक्षर २० प्रत्येक मूलश्लोक के नीचे टी का लिखि है। मूल श्लोक यहां नहीं दिये हैं।
[वृहत ज्ञानभंडार-बीकानेर ] (१) श्रमर सार नाम माला- रचयिता-फष्णदास-दो ३६० श्रादि
प्रादि पुरुप जगदीश हरि, जागुन नाम भनेका। समय रूप रचि जान ही, श्रादि अंत जो एक॥१
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(१७)
संत /
देषg एक अनेक मैं, ग्यान दिउ नर क्यों दिपक सब गेह प्रति, त्यो घर सकलंद नंत ॥ २
X
X
क्रिष्णादास कवि तुछमति, सबदमहोदधि बाग समस्थ उत्साही, सार हत्थ गही भीममेन नृपराजहित, करु नाम नग कविकुल विगनि मानही, अमरसार
X
X
माहि ।
बांह ॥ १०
दाम |
श्रभिराम ॥
X
सवत पट रसात
परिषद् धरिभावत
यदि तेरसिं गुरु पुस्यदिन तिम्रो
प्रबंध
नायरतन की मालिचंद शोभा दिपति
छवि
कोविद कुल कंठ हिल से बितु भूपन • अमरकोष पुन केस किय अमरसिंह मति किस्दास मतिसर सिय कर सुबुद्धि हित
X
X
श्ररध तरंग अनेक छबि, गुन दोस भीमसेन नृपराज के, अघ धरि सुमन रूप सब देह धर, मान प्रमोद कृष्णदास बलिवाश लिय, रचि किय ग्रन्थ साठि तीन से दोहरा, अमरसार वित्र सन सूत किय, जे प्रसिद्ध हित इति श्री श्रमरमार नाममाला दाधक संपूर्ण ।
ले० संवत - १८६५ वर्षे मंगलवारे वैमाख सुदी सातम दिने ७ लाल मध्ये लिखी सामिजी बाल वाचक वाचनार्थे तीखी छे ।
पत्र ८ पं० २९ ० ४२
X
मास ।
पटकास || १२
समेत ।
देत ॥ १३
राज |
राज || १४
X
नगलाल । गहिमाल ॥ ५८
सुगंध |
प्रबंध ॥ ५६
श्रमिराम |
नाम ॥ ६०
[ स्थान- गोविंद पुस्तकालय ]
( २ ) एकाक्षरी नाम माला-रा रतनू वीरमाला पत्र ३४ श्री गणेशायनमः ॥ अथ एकाक्षरी नाम माला लिख्यते
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कहत अकारज विष्णु क, पुनि महेश महेश मतमान । श्रा ब्रह्म कुं कहत है, ईशुगमार या जान ॥ १ ॥ लघु उकार संकर कयौ, दीरथ विष्णु सदेख ।
देव मात लधुरी कहै, दीरघ दनुज विशेष ॥२॥ अंत
विदूषन मुख मुनि तरक पट, अष्टादमहि पुरान ।
नाम माला एकाक्षरी, माषी रतन् मान ॥३४॥ इति श्री घड़ोई रा रतनू बीमाण कुत एकाक्षरी नाममाला संपूर्णः ॥ लेखन प्रशस्ति स० १८५६ ना वर्षे श्रावण बदि ३ रवौ लिखिता श्री गोडीजी प्रसादात ॥ प्रति पत्र २ पं० १४ भ.४८ साइज १०x४।। ( दोनों पत्र एक और लिखे )
[ राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर ] (३) नामरत्नाकर कोष- रचयिता-सरकत सं० १७८६ श्रादि
परमज्योति परमातमा, परम श्रक्षय पद दाय । परमभक्ति धरि प्रथमीह, परम धरम गुरु पाय ॥ वंदु माझ जतिहि दियाल, माषा मंद बनाय । रमिक पुरुष रीझत सुनत, करता कवित कविराय ॥ संस्कृत हा कहित सरस, पंडित पटत प्रवीन । कविजन चारण मारकइ, लधु मति इनत लीन ॥ ता करस्या कविमन तुरत, पढन होत बरपान | सरसमंद थाणे समझि, म चलत अक्षर मान ॥ प्रादिदेव श्ररिहंत के, रचना ये अभिगम । सिद्धि बुद्धि दीजै सरसती, पद युग करू प्रणाम || नमो जगनायक ईस जिने
सदाशिव शंभु स्वयंभु स्वरेश सुतीरथ कार मिकाल के जान
प्रभु परमेश्वर सर्व सुगपाना ॥
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अन्य
(950)
पाट महाष्ट्र में, डायोड |
वास बहों हरिभक्त जहाँ सबस बुद्धि को धाम ||
परगट पंडित देश में, तास
तनय शिवदास
farai fare विवेक बुद्धि, पर नवि खेडत पास || सतवली तिय मतर विच परद रति विश्नाम | पचोली पृथवी प्रगट, निरुपम नाथूराम ॥ फकीरदास अनि फाबतो, तर अंगज प्रति नेज । गुग्ण ग्राहक छति मति सुरगुरु, हरषण तजित हेज | एषिहुं तिजो शिष्य निज, चातुर लखमीचंद | मिलि चारु मिज लए करि, कीयो ग्रन्थ सुखकंद | कवित्त
रसव मुनि त्रिधु वर्ष मास त पसितपथ मुणोथ । तिथि पंचम क्षिति प्रणीमार तिय दिन कोमिणी यह ॥ तपगंज सिरताज मगसि ( क१) रमगय दुखभंजन | तहाँ पद पंकज भृंग सकल सजन मनरंजन ॥ केसरि कीरति जोड करी, कर्यो
प्रन्थ सुखरासि ।
पढ़े गुणै खै मुणौ पावत चित
......
इति नाम रत्नाकर
अधिक- ४ रेवाधिकार पत्र २२२ मनुष्याधिकार पद्म २७३ स्त्री पद्य १६२
११७
प्रत्येक अधिकार के पथ अन्तकं सत्र व केसवदामकवि का नाम है प्रथमधिकार की लेखनसमाप्ति में कैंसर की कृति विजयते लिखा है ।
पद्य ३२८ पं० १५ ० ४३
[ मोतीचंद खजानची संग्रह ] ( ४ ) नांमसार रचयिता राठौड़ फतहसिंह महेशदासोत
आदि
श्रीगणेशायनमः अथ राठौड़ फतेसिंघ महेसदासोत कक्ष नांमसार लिखते ॥
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अंत
( १८१ )
दोहा
करुन नदन धानन
सुज, प्रसन बदन र स्वेत ।
गननायक दायक सुमति सुत संकर बरबेत ॥ १ ॥
,
नामसार के पटमतें, प्रगटै धूध सुभाय ।
धरम अरथ कामक मुक्त, प्यार पदारण पाय || २ || नामसार के नांमजो, दुढि स्मृति सब लीन्ह । फतेसिंघ राठो यह, तापर भाषा कीन्ह ॥ ३ ॥
प्रथम येक संख्या :
ब्रम्ह येक कुमा अनत, येक दन्त गनराज |
सुक टष्ट fee भुमियक, रिव रथ चक्र बिराज ।
अपूर्ण पत्र २० । प्रति पत्र पंक्ति १८ प्रति पंक्ति अक्षर १९, गुटका
[ सीतारामजी लालस संग्रह गुटका ]
( ५ ) पारसी पारसात नाम माला । पत्र ३५३, म० कुअर कुशल ऊथ-बज भाखा कृत पारसी पार सात नाम माला लिख्यते ॥
दोहा
परम तेज जाकौ प्रगट, रचत जगत आराम ।
बंदत सविता चरन बिब, कुँवर स कविता काम ॥ १ ॥ सूरज की साँची भगति, हित सौं जौ हिय होय । कबिता तौ बाढे कुँवर, सुनन सु कबि जस सोय ॥ २ ॥ सविता की सेवा किये, पसरे कबिता पूर | विनाकी जग मैं छती निधि वाकै मुषनूर ॥ ३ ॥
अथ गनेश की स्तुति ।
कवित छप्पय ।
उदर सुधिर गिरि अतुल, हार पैंनग हिय हरषित । दंत येकु भुष दिपत बैन, अमृत सम बरषित ॥
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( १८२)
भाल वाल ससि सुभग, प्रगट छवि मुगट सुपाई । शिव सप्त गुन सदन गोरि, हित जुत गुर ताई ॥ घरदैत सही पंछित करन, धरा कछ रिधि (सधि धरहु ।
कवि कॅ श्रर राउ लपधीर कै, गनपति निति मंगल करहु ॥ ४ ॥ अथ श्री गुज नगर वर्ननं ।।
दोहा
सहर सुथिर भुज है सदा, कछ धराउँ अरेस । पातिस्याह तिनिकौ प्रगट, निरषहु लखा नरेस ॥ ५ ॥ दानि माँनी देसपति, रगानी गुन गंमीर । बांनी बर पाँनी प्रबल, लषि जादौ लषधीर ॥ ६ ॥ दोपै हेमल नंदये, रग जस अमत रूप । भनवा ज्यो मनि फरत, भुज मह लपपति भूप ।। ७ ॥ अवनी रा कन्न उधारकों, हिय में हम गीर । रच्या विधाता श्राप रूचि, बिय बिधि लषपति वीर ॥ ८ ॥ किय लषपनि कुअरेम को हित करि हुकमहजूर ।
पारमात पारसी, प्रगट हु भाषा पूर ॥ ६ ॥ अब यूरज सौ बीनती ॥
पौरत वर दाता बिमल, सूरज होहु सहाय । पारसात है पारगी, न भाषा जु बनाय ॥१०॥
अन्त
सूरज सशि सायर सुथिर, धुग्रजोले निरधार ।
तो खौं श्री लपपत्ति को, पारसार सौं प्यार ॥५३॥ इति श्री पारसात नाममाला भट्टारक श्री कुँअर कुशल सूरि कृत सम्पूर्णा । सम्वत १८५७ ।। ना श्रासूचिद १० सोमे संपूर्णा कृता ।।
सकल पंडित शिरोमणी पं० कल्याणकुशल जो तशिष्य पंडितोत्तम पं० विनीत कुशलजी वशिष्य पं० ग्यान कुशलजी तत्शिष्य पं० किर्ति कुशलजी लिषिताश्व भर्थे श्री रस्तु ।
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प्रति परिचय:- पत्र ३५, साइज १०x४॥, प्रतिपृष्ठ पं०.६ प्रति पंक्तिप० २८
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] (६) लपपति मंजरी । पद्य १४६ । संवन् १७८४माघ वदी११ बुधवार । आदि
श्री गणेशायनमः सुखकर वरदायक सरस, नायक नित नवरंग । लायक गुन गन सी लखित, जय शिव गिरिजा संग ॥ १ ॥ मली रत्ती तिहुँ भौंन में, बढत चढ़त विख्यात । पातक न रहत पारती, भजन भारती मात ॥ २॥ चिंतित सुफल चित्तौनि मैं, दीननि कौं निहिं दीन ।। वा गुरुके पद कमल जुग, मन मधुकर करि पीन ॥ ३ ॥
दोहा वत सतरैसै बरष पनि ने ऊपरि च्यार । माघ मास एकादशी किसन पछि कविवार ॥ ७ ॥ नस्पति कुल बन्यो प्रथम राज कुलीकी रूप । पुनि कवि की पट्टावली उचरत सुनत अनूप ॥ ८ ॥
अन्त
माने जिन्हें महाबली, महाराज अजमाल । श्रम सूबे अजमेर के, मान के महिपाल || ४१ ॥ करि लषपति तासौ कृपा, कयौ सरस यह काम । मंजुल लषपति मंजरी, करहु नाम की दाम ॥४८॥ तब सविता को ध्यान धरि, उदित करयौ श्रारम ।
बाल पुद्धि की वृद्धि कौं, यह उपकार अदंम ॥ ४ ॥ अंतलिस्वते छोड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। नाममाला का प्रारंभ मात्र होता है विशेप विवरण
पद्यांक ६ से १२१ सक में नृप वंश वर्णन है जिसमें नारायण से कुअर लषपत तक की वंशावली दी है। पद्यांक १२२ से कवि वंश वर्णन प्रारम्भ होता है।
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(१८४)
यह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। प्रारम्भ के पाठ पत्रों में पद्यों के उपर गथ में टिप्पणी लिखी है। प्रति परिचय-पत्र १२, साइज १०॥४४॥, प्रति पृ० ५० १, प्रति पं०७०३०
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] ( ७ ) (लखपत मंजरी नाम माला) २० ४६ कनक कुशल, पय २०२ सं०। महारक-श्री कनककुशलजी कृत लखपति मंजरी नाम माला लिख्यते ॥
दोहा विबुध वृद वंदित चरन, निरुपम रूप निधान । अतुल तेज आनंद मय, वंदहु हरि मागनान ॥ १ ॥
कवितपय परम जोति परमेस दरस मुख करन हरन दुख । चाचित सर नर चरन राह निरि सरस राजसिरुव ।। अमल । उतमंग गरि अरधग धरत गुरु ।
6 डमाल रचि झ्याल माल वनि चंद झाल मक ॥ कवि कनक जगति हित जग मगत, अकल रूप असरन सरन । देवाधि देव शिव दिव्य दुति जदुपति सखपति जप करन || २ ।।
दोहा ज्यो गिरि कुल में कनम गिरि, मनि भूषन अवतंस । वृण्वनि में मर दृश्छ त्यों, सनि मै हरिवंश ॥ ३ ॥ कनक कान्ह अवतार कौं, जानत सकल जिहान । पाट मये तिनके नृपति, अनुकम पृथु अनुमानु ॥ ४ ॥ मये हु भूप हमीर के, सब भूपति सिंगार । साहि पम्छिम दिसि को, सबल खल खंडन खगार ॥ ५ ॥ तरनि तेज तिनि के भये, भुजपति मारा भूप । पाई जिहि पति साहिते, पदवी राउ धनूप ॥ ६ ॥ मोज राउ तिनि के भये, गनि तिन के खंगार । राउ तमानी राम सम, सत तिन के सिरदार ॥ ७ ॥
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तिनके पटधर अधिक तय, मनी रायधन राउ। शील सत्य साहस मुगुन, रन भय रुद्र सुमाउ ॥ ८ ॥ पावन तिनि के पाट पति, पति साहस जस पूर । राउ प्रयाग प्रयाग से, प्रकटे पुण्य अंकूर ॥ ६ ॥ तिनिके उपले तप बली, गाजी गुन निधि गौड़। मूर शिरोमनि सहसकर, मन्द महीपति मौड ॥१०॥
लखपति जस सुमनस ललित इक बरनी अमिराम । सुकवि कनः कीन्ही सरस नाम दाम गुन धाम ॥ १॥ सुनत जास है सरस फल कल्मष रहै न कोय ।
मन जपि तखपति मंजरी हरि दरसन ज्यों होय ॥ २ ॥ अंत
इति श्री भट्टारक कनककुशलजी कृत ॥ लखपति मंजरी नाम माला संपूर्णः॥ श्री भुजनगर मध्ये जोसी कल्याण जी ॥ संवन १८३३ वर्षे पोप मासे शुक्ल पक्षे ४ तिथौ ४ सोमवासरे लिस्वि ।। पठनार्थम । वारोद रामजी || श्री रस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ शुभमस्तु ।। श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ।। प्रति-गुटकाकार साइज ६४५, पत्र १३, पं० १३, अ-२० से २४
[गजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] वि०पयांक १०२ तक भुजनगर उनके राजादि का वर्णन फिर नाममाला प्रारंभ
( 2 ) सुबोध चन्द्रिका । पद्य १०२१ । फकीरचन्द । सं. १८०० चै. सु. ३,
प्रादि
बाद पुरष को ध्यान करि कहौ नाम की दाम । एक बरन के अर्थ बहु सुफल कर समधान ॥१॥ सो भरि नाम प्राचार्य कृत दुती नामकी माल । ताहि के परमान कछु बरनौ जुगति रसाल ॥२॥ अधिक और कवि पुस्खन मुनि के कियो प्रमान । सो प्रमान मा लाय के हैं महा बुधवान ॥ ३ ॥ सन्द सिंधु सब मध्य के रच्यो सुमाषा बानि ।। अर्थ अनत इक बरन के द्वादश अनुक्रम बानि ।।४।।
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(१८६)
संवत ठार से रवि वरष चेत तीज सित पक्ष ।
भर सुबोध चन्द्रका सरस देत ग्यान परतः ॥ ५॥ अथ प्रथम ऊ के नाम
ऊ परमेस्वर मुक्ति मनि ग्यान पूर्म पहिचानि । समरिय बाचक अव्यय केवल रूप बषानि |॥६॥
अचल प्रीति प्रभु दीजिये तुम गुनगन की मोहि । इहि मार्ग अति चौंप करि मालम मन की तीहि ।। १०१६ ॥ इति श्रीनाम ।
दोहराकहु न पाये अर्थ जब श्राद बनते भाषि ।
कवि कुल के परबंध इह सही जानि हिय राषि ॥ १०२० ॥ इति श्री चहुबाण मयाराम मुत फकीरचन्द विरचितायां सुबोध चन्द्रकायां । प्रति-गुटकाकार ।
[ राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर ] ( १ ) छंदमाला। रचयिता- के गवराई ( कैसवदास) श्रादि
श्रथ छंदमाला लिख्यते। थनंगारि है पैल में संग नागे ।
दियै मुण्डमाला कहै गंगधारी ॥ मा कालकूटै लसै मीस चन्दै ।
___ कहा एक हो ताहि त्रैलोक्य वंदे ॥ महादेव जाके न जाने प्रभावै ।
महादेव के देव को चित्त मावै ॥ . महानाग सो है सदा देहमाला ।
महा माययंती करौ 'छंदमाला' ॥
दोहामाषा कवि समुझे सबै सिगरे छंद मुमह । चंदन की माला की, सोमन केसवरा ॥
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एक वर्ण को पद प्रगट छबि सलौ मतिमंत । तदुपरि केसवराइ कहि दंडक छंद अनंत ॥ दीर्घ एक हीं वरन को दीजै पद सुखकंद ।
मंगल सकल निधान जग नाम सुनहु श्रीमंद ।। इसके पश्चात ७७ पद्यों में ८४ छंदों का विवरण देकर "वर्णवृत्तिसमासा" लिखा है। तदनंतर विविध प्रकार के छंद, गनगन दोष, दोहों के उपभेद आदि है।
पुरुजन सुस्वपावत रघुपति श्रावत करतति दौर । भारती उतारै सर्व सुवारे, अपनी अपनी पौर ॥ पटि मंत्र असेषनि करि अभिषेकनिदै बाशिष सब शेष ।
कुंकुम करनि मृगमदपूरनि बरपनि वरणा वेष ॥ ७३ ॥ इति श्री समस्त पंडित मंडली मंडित केसोदास विरचिता छंदमाला समाप्तम् ।
ले०-सम्वन १८३६, बैशाख सुदी ६, शुक्रवार लिखत जती ऋषि...जगता ऋषि पठनार्थम् ।
शुभमस्तु-वागप्रस्थ पुरे लिपीकृता । प्रति- पत्र १७, पं.- १२, अ. २८ । ४० ।
[विनयसागरजी संग्रह] (२) छन्द रत्नावली-रचयिता-जुयात राइ । सं० १७३० का० सु० थादि
आगग हिम्मत खांन कथन से । श्री बानीकरना पुरुस, कर्यो नु प्रथम उचार । पागम निगम पुरान सब, ताम ताहि जुहार ॥१॥ पिंगल श्रागै गरुड के, रच्यो कला प्रस्तार । पहुंचो पाप समुत्र करि, ईद समुद्र अपार ॥ २ ॥ जगतराह सों यों कहयो, हिम्मति खानबुलाए । पिंगल प्राकृत कठिन है, भाषा ताहि बनाई ॥३॥ छद्रों अन्य जिते कहे, करि इक ठोरै पानि । समुभि सक्न को सार ले, रतनावली बखानि ॥ ४॥ .
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(१८८)
नाम छन्द रतनावली, याहि कहैं सब लोग । लाइक है प्रभु थ(स्तवन को,कवि हिय राखन जोग । ५ ॥ समाध्याय स्तनावली, कयों ग्रन्थ मन सूर । प्रथमाध्याय कर्म कू (कि) या गुरु लघु गन इम पूर ॥ ६ ॥ असम मात्र छंद दुतिय है, समकल छंद त्रिय जान । चोथी सम वर्नक कही, असम वर्न पंच मान ॥ ७ ॥ छठी ध्याय छंद पारसी, सप्तम तुक के भेद ।। कर पंडित या प्रन्ध मैं, मनवचन क्रमसौं खेद ॥ ८ ॥ थर्थ गुरु लघु लक्षनसंजोगादि सविंद सुनि, कहुँ होई चरनंत ।। दोघ ए गुरु जानियों, श्री लघु नाम लहंत ॥ ६ ॥
४
हिम्मखान सों अरि कपत, भाजत लैबल जिय । अरि रे हमै है संग लै बोलत, तिनकी तीय ॥
पत्रांक ८७ से १३ में पारसी छंद लक्षण के अंत में इति श्री जुगतराइ विरचिते छंदरतनावल्या पारसीवृत्त पष्टमोध्यायः ॥ ६ ॥ अथ तुकपये मतमोध्यायः ॥ ७ ॥
अन्त
इति श्रि जुगतराइ विरचित छंदरतनावल्या तुकभेद सप्तमोध्यायः ॥ ७॥ संवत सहस्त्र सात सत तीस कातिक मास शुक्ल पक्ष दीस भयो ग्रन्थ पूरन सुभ स्थान, नगर बागरो महाप्रधान
दान मान गुनवान सुजान, दिन दिन बादो हिम्मतवान । जुगतराइ कवि यह जस गायो, पढत सुनत सबही मन मायो॥ जो कुछ चूक मोहिते होई, सो अपराध क्षमो सब कोई ।
विनती सबसौं करों अपार, पंडत गुन जन लेहु सुधार ।। इति वेद रतनावली पिंगल भाषा श्री जुगतराइ कृत सम्पूर्ण ।
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(१६)
प्रति-पुस्ताकाकार पत्र १००, पं. १६, श्र.१८॥ १९ ॥
[नया मंदिर, दि. सरस्वती मंदिर धर्मपुरा, दिल्ली]
प्रतिलिपिः अभय जैन मन्थालय । विशेष- प्रस्तुत ग्रन्थ में विशेष उल्लेख योग्य पारसी वृत्तों के वर्णन हैंश्रतः उसके आदि अन्त के पत्र दिये जाते हैं - बादि
अथ पारसी धंद मेद परमोध्याय प्रारभ्यते । सबै पारसी छनि में, लघु गुरु को पौहार | पुनि लघु गुरु मन नेम हैं, तिनके कहों प्रकार ॥
फिर मक्तूबी, गन प्रस्तार, प्रस्तार, छंद गन भेद, छंद नाम, सालिम बहर, मुतकारिब, मुतकारिब हजज, रमल, रजजू, काफिर, कामिल, मनसरह, खफीफ मुजारज, मुजतिम तबील मुक्तजिव, मदीद बसोत, सरीन, ठारीब, मशाकिल, गरसाल मक्तया, म.लिम अरोचक, गैर सालिम अज्जहाफ, के नीस नाम, यंत्र, अथ भेद आदि का वणन है।
गजल रुपाई मसनवी, पैतत प्रधबा पर्न ।
के द्वै गन तुक सहत धर, मुस्तजाद सो बन ॥ एक चर्न सों मिस एक है, वर्न मुसलिस तीने लहैं । चर्न मुखंमस पाचै मान,विषम चर्न छंद प्रतिय जान ॥
इति श्री जुगतराइ विरचित छंद रत्नावल्या पारसी वृत्त पष्टमोध्या । अथ तुकभेद सममोध्याय
चर्न अन्त जे पर्न पुर, पून बरन है गुन । ने पुर बर्न इ सकल मिल, तुक कहिए जिय जान ॥ संसकत पात बहू, बिन तुक हूँ चंद होई । मावा छंद तुक बिनु नहीं, कहो ग्रन्थ मत जोइ ।
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(१६०)
(३) छंद अंगार । पद्य २२८ । सेवग महासिंघ । सं. १८५३ नम. सु. ५ नष्टे नगर। धादि
छप्पय- . धरन बरन गज वदन सदन, बुद्धि वर मुख दायक । अष्ट सिद्धि नव निद्धि वृद्ध, नित प्रति गण नायक || विमल ग्यान बरदान तिमर, अक्षान निकन्दन । सर्व कार्य सिद्धि लहे, प्रष्णु नासो जग बन्दन ।। गरि सुनंद पानन्द मय, विधन व्यापि भव भय हरन । निज नाय सीस कवि सिंघ, मजय गनेश मंगल करन ॥१॥
गणपति देव प्रताप , मति अति निर्मल होत ।। ज्यू तम मन्दिर के विषे, दीपक करत उद्योत ॥२॥ श्री गुरुदेव प्रतापते, मयो सुम्यान अमन्द ।। जाके पद सिर नायक हूं, भाषा पिंगल छंद ||३|| छंद बोध यात लह, रसिकन को रस सार । नाम धग्यो इन ग्रन्थ को, ताते छंद अंगार ||४||
छंद पधडीअब कहूँ प्रथम प्रष्ट हिं प्रकार । दुतीय प्रभाव गन के विचार ।। मन तृतीय छंद मता सुचाल । मन वर्ण छंद चोथे रसाल ॥५॥
अन्त
नाम छद सिगार है, पढ़त हिं प्रगट प्रमोद । मंद मेद अरु नायका, जाको लहत प्रबोध ॥ २६ ॥
चोपई छंद भारद्वाज गोत्र पोहकरना, सेवग ग्यात कहाने । महासंघ नगर मेरते, बसे परम सुष पावे ।। जो कविता जन भये अगाउ, जांके वंदत पाया । बंद भंगार ग्रंथ यह कीनों, सामधि हरि गुन गाया ॥ २७ ॥
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( १६१)
कवितः संमतलोक पाडव" नाग चंदन' नभ मास धवल पप पंचमिकुजवार ठानियो । स्थति नष्यत्र सुंदर चंद तुल रास धाये मध्य रवि समें इंद्र जोग स्मानियो । छंद अंगार नाम यह अन्य समापत भयो, नवेनगर सहर निज मन मानियो । कहे कवि महासिंघ जोइ पढ़े बांचे सोइ मेरो नित प्रने जासी कृष्ण जानियों ॥२८॥
इति श्री संवग महासिंघ विरचित छन् भंगार पिंगल संपूर्ण) संवत् १८७६ ना पोम अद ३ अनेने लिषितं जामीमकनजी तथा डोशा । प्रति परिचय-पत्र २० साइज १०x४॥ प्रतिपृष्ठ पं० ११ प्रति पं० १०३५
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] ( ४ ) पिंगल अकवरी- चतुर्भुज दसवधि कृत्य
मूल दोहा जव्वण धर स्वम श्रादि दे। अष्टौ अक्षराणि निषिधा । गुधिगण गणपति चिति चित, प्रवति घकह अपार । देहि बुधि प्रभु जगदगुरु, करुह लंद विस्तार ॥१॥
चौपई अगदरशाह जगत्र गुरु माणोहु, इहि वात मण महि अणुमायाहु । सरद सुधाकर कीरत मागाहु, निसिदिन हिण ताहि सामाणड्डु ॥ २ ॥
अकवर विरजि १ दल विबुध सजि २ गजमद गरजि ३ बजाति बजि ४ नृपगण तरजि ५ कण सकवि रजि ६ अरि सकल भजि ७ निज भुषण तजिरवण गई तिलजि तण रहिस धजि १० वण फिरति खजि ११ मुख छविण छजि १२ मनु दुख उपजि १३ जलनिधि निजि १४ मवहण निवजि १५ जुगपति रजि १६॥
रण चढत मीर १ तेउ विविध वीर २ प्रति समर धीर ३ बुधि बल गभीर ४ जहां तहां हि भीर ५." ६ अरि भय अथीर ७ उदलागति तीर सहिय बढति पीर : मुख थकित गीर १० नैणण तनीर ११ दुरबल शरीर १२ वण पण करीर १३ ध्रम झटक वीर १४ नहीं जुरत नीर १५ भोजन समीर १६||
अरि जिय विचारि १ भुय भय परारि २ गढ-मह विदारि ३ अपहय उदारि ४ पुर किय उजारि ५ निज भुवण जारि ६ मण गण विधारि ७ धन विविध
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( १९२)
निहारि १२ नहीं उदधिश्चारि १३ बुडेहि तिवारि १४ लिहिगति निनारि १५ जगदेति धारि १६||३||
वजति निसाण १ धुन घण समान २ अरि सुणत कान ३ अति ही सकाण ४ दस दिम पराण ५ गृह मग मुलाण ६ तज्जति गुमाण ७ सभ गई हिसाण ८गिरवण परवाण ताह फरत थांण १० जब जुर ने पांण ११ निरखत वेदांगा १२ तर तजति प्राण १३ श्ररि कोउ रहाण १४ लंकन अहाण १५ अकबर की प्राण १६॥४॥
दोहा
अकबर साहि प्रवीण भय, कह्यो कहुह सब बंद । मुगम होहि ममि मंडले, पटत वदति श्राणंद ॥ ३ ॥ . पतुर चतुरभुज सुग्गत ए, यो बुद्धि अणुमाण ।
याहु साधु सम मुचित हुई, करहु ग्रन्थ सणमाण ॥ ४ ॥ सुम भरथ गौतव गरुड़, कश्यप सेष विचार । १४ पिंगलु ए विदत भइ, यह अब तिहअ निहारि ॥ ५ ॥ पिछिमिति तर कहु मन विष्णु ए बिगाहु लघु नाणि | प्रगट ताहि घुधि जन कहत, अवर सारे गुरु मांण ॥ ६ ॥ विद सहित संजुत पर, अरु विकला चरणंतु । कबहु लघु राजुत पर, दीह सबै बरणति ॥ ७ ॥ कबहु अक्खर त्रिणहुइ, मिलति परति एक सथ ।। उहै एक लघु जाग्गिए, बुधजण कहत समथ ॥ ८ ॥ मग तगण सम पर,................" x x x x x x द्विविध छंद फणपति रचित, वरुण वरुण मत परमाण ।
करुह प्रगट सब जगत्रहि, जघा बुध अणुमाख ॥१५॥ सासी जीगो श्रीछंद, तिणछंद, संसाराजी छंद, विद्य तमाला छंद, हमाल, राइमाला छंद, मालती माला छंद, विजूहारा छंद, विश्वदेवा छंद, सारंग छंद, बमरूवी छंद ।
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( १९३)
१६ के बाद- अब लघु छद, मधु छंद, दमण छेद बादि । १६ के बाद फिर-यहीछंद लगाणिया छ।
पत्रांक ६५ और ६६ खाली है। पत्रांक ६७ पञ्चांक २३ के बाद प लिखते हुए छोड़ दिया है । फिर फुटकर कवित्त और दोहे हैं, जिनके कर्ता सारंग, कालीदास, पातसाह आदि है। व जिनका विषय अकबर पातसाह के कवित्त, नाजर रा सारजादेरो, खानखानारा झूला, फिर कवित्त रायदासजी को।
रायदासजीरो गुण अमृतराजरी कियो, पत्रांक ७६ तक है। पत्र ७७ मे गारु अनूप चतुरभुज दसवधि कृत्य । ग्रन्थ प्रारंभ किया है।
पत्र -साहिबाजखान रो, पतिसाहजीरा ढढरिएपद चतुर्भुज कृत्य । पत्र ७६ पद्य ६६ फिर कवित्त ।
एस विधा देत साउ, वित चाहत, वित दे विथा तूहि पदावतु । फैल्पद्रुम कलिकाल चतुर पति, कविता करण कहत जिय भावतु ।। जा देखे सुख सपति उपनति, दुरति दूरि नासत तहा जावतु ।
अहरिदास सतन सुखदाता,चतुभुज गुणी जनराइ कहावतु ! प्रति गुटकाकार (अन्य अपूर्ण)
[अनूपसंस्कृत लाइब्रेरी]
( ५ ) पिंगलादर्श-रचयिता-कवि हीराचंद र० सं० १६०१ मोरवी।
प्रादि
छप्पय सच्चित श्रानंद रूप, क्वचित माया ने गुनमय । कुचित तासो नाहि, खचित ज्योति सो अक्षय ॥ अर्चित ब्रह्मादिते रचित, जाते जनि स्थितिलय । किंचित नाही द्वैत, उचित अच्युत सुख अतिशय ॥ सो चितवत हों इक बाप प्रभु, अचित रहित ओंकार जय । वंचित नास्तिक नाश हिलहो, संचित सों बांधे समय ॥१॥
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उपोद्घात
दोहरासंस्कृत प्राकृत पिंगलन, हे अनेक सो देखि । ताते रचना अधिक गहि, या में धरी विशेखि ॥१॥
कुंडलियाताते मित अच्छर प्रती, अर्थ बुद्धि को धाम । घंद नाम यति भेद अरु, सूत्र चिह गन नाम || सूत्र चिह गन नाम, एक पाद हि मैं श्रावै । एसो करो विवेक जाइते ओर न मावे ॥ भागें पिंगलके भये न्यूनाधिक याते। लेह समन को सार, बनाये मुन्दर ताते ॥ ३॥
दोहा ताते याके नामजू. पर्यो पिंगलादर्श । कीजो सम बुध जन छमा, जो श्रावै अपकर्ष ॥ ४ ॥ विखे गलादर्श में, दर्शन पाच प्रकार | प्रथम गनादिक दुतिय है, वरन छंद उपचार ॥ ५ ॥ मता छंद तृतीय हे, तुर्य विशेष विचार । पंचम प्रस्तारादि हे, उदाहरन सविकार ॥ ६ ॥
ग्रंथ कारण-दोहासंबत उन्निश शत अधिक, एकेश ऋतु वसंत । फागुन शितयुत अष्टमी दिन दिनकर बिलसंत ॥१॥ मो अनुमो सम पिंगला-दर्शसटीक समाप्त । बुधजन शुध कर लीजियो, दोष होह जो प्राप्त ॥२॥ सप्त पुरिन में यह पुरी, तासों सिंतर कोश । पूर्व दिशा में मोरवी, जहां नृप निति ज्यों श्रोस ॥३॥ ताको श्रीमाली बनिक कानजि त धीमंत । हरीचंद मनस्वि सो, जा पति कमला कंत ॥५॥
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( १९४)
फियों अठाइस वर्ष लों, दन्छिन ब्रज गुजरात । ताने कीनो अन्ध यह, सब पिगल सरसात ॥ ५ ॥
शार्दूल बक्रीडित छंदहीरा खाने यही मही महिं रही कोई कहों की कहीं । तामें नग बडो जु कोउ एत हेमें नीका ग्रही । तोऊ रन की जाति बज्रमयता नोहेरी सो जानहीं । का जाने अहिरा चरायत बछरा जो घास में सोवहीं ॥६॥
प्रथ प्रशंमा, दोहाबहुतेर पिंगलनको, करके मनमें स्पर्श । बुधजन पाछे देखियो, यही पिंगलादर्श ॥ १ ॥ जदपि अमूल्य बमन रतन, भूषन पहिरो कोइ । तदपि धारसी में दिखे, बिन संतोष न होइ ॥ २ ॥ पिंगल बहुत पढो बटो, बुद्धि सौ बुध कोइ । तदपि पिंगलादर्शबिन, अतुल तृप्ति ना होइ ॥३॥ भावे तो यह एक ही, पढो पिंगलादर्श । देखो पिंगल अोर सब, होइ न यह उत्कर्ष ॥ ४ ॥ मिस्त्री की प्रति मिष्टता, शुनिकें जानि न जाइ ॥ ५ ॥ वायें ने बानी परे, फिर पूधिबे कि नाइ ॥ ५ ॥ निजुर प्रजवासी अब, गुजरातो यह तीन ।
मोक्ष सो भाषा मिलित, अंथ चंद में कोन ॥ ६ ॥ इति कवि हीराचंद कृते पिंगलादर्श ॥ प्रस्तारादि वर्णनं नाम पंचमं दर्शनं ।। ५॥ ममातोयं पिंगलदर्शः ।। संमत् १६२६ का || मिति फागणवदि लिषतं गुलाब सहल ब्राह्मण || लिषायतं महतावजी गाडण || गांव गुदाइवास का ठाकर बेटा भाईदानजी का ।। लिषतं बिसाहु मध्ये ॥
पत्र सं०७१, प्रति पत्र पंक्ति १८ प्रति पंक्ति अक्षर १४, यंत्र कोष्टक आदि संयुक्त । गुट का साइज ८४६
[सीतारामजी बालव संग्रह]
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( १९६)
३ अलंकार ( नायिका भेद-रीति) (१) ज्ञान शृंगार पद्य ३१२ २० सं० १८५१ वै० शु० २ गु० पादि
अथ ग्यान सिंगार लिख्यते।
शिव मृत श्रादि गनेश जय, सरावत हृदय Hधार । ग्यान बधै सिंगार रस, कयौं अग्यान सिंगार ।। शिवजू सदा अद्भुत रस, ता सुत ग्यान निधान । तिन स्वरूप को ध्यान धर, दोहा रचे सुजान || अद्भुत रूप अपार श्रबि, गनपत गहरो गान । ताइ दया ते तास मैं, नवरस गुन जु बखान || प्रथम नायका जात ए, घ्यार मात की मान । पद्मन चित्रन संखनी, बार हस्तनी मान ।
( पाक १८४ तक नायिका फिर नायक लछन,मान भन व ऋतु वर्णन है )
अन्त
अथ शिशिर वर्णन
जगत कियो भयमीत श्रत, है ससिर के सीत । दंपत मिले विहरत सखी, लिये जराफा रीत ॥ संपत ससि सिवबदन मन, सिध घातमा जान ।
सुध वैसाख गुर दूज दिन, मये ग्रन्थ परमान ॥ इति श्री।. ............ प्रति-गुटकाकार ( नं000६, पत्र ३५ पं०१४ ) चित्र के लिये स्थान पर जगह छोड़ने के कारण पंक्ति का ठिकाना नहीं, ) प्रति पंक्ति अक्षर २४ साइजxs |
[ स्थान कु० मोती चन्द जी खजानची संग्रह ]
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(१६७)
(२) मधुकर कलानिधि
मादि
सवैयाबानी जू हौ जगरानी महीपद पंकज रावरे जे नर प्यावें । से नर ऊषम हुष पियूष सनी मृदुका ला बरसा ॥ मान मरे गुन ग्यान मरे पुहमी मध दानन को ते रिझाने । कीरति चंद्रिका चंद्र समान समा नैम ते ईक विद्र कहावै ॥
कवित्तश्ररथ अमोल मनि सुबर अलंकार अन्धनि को राजही के गुननि गयौं करें । मानि हान मानि दान दुन निस दाम वियरुघ मक्कि लछि लखि सदा उलयो क । सरस सिंगार कलकहड मकान बनि राजै छबि छाजै छत्र और निलयौ कर । साधु बंध कृपासिंधु सत्य सिधु माधवजू रावरे को सुरसुति से दवे बौं करें ।
गुन रतनाकर नृप मुकुट, विलसत मधुकर भूप ।
निज मति उज्जवल करन में, कियो ग्रन्थ रसरूप ॥ अंत
ये कीने हैं रस कवित, अपनी बुधि अनुसार ।
सौधि लीजियो छमा करि माधवेस अवतार ॥ इति सारस्वतसारे मधुकर कलानिधि संपूर्ण । सं० १८५७ श्रा० १०७-सोमवार पत्र १३ पं० १७ अ-१० पुस्तकाकार साइज ||x१०॥
[स्थान-अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] वि० इसी प्रतिके प्रारंभ में प्रेमप्रकाश व्रजनिधि रचित है। ( ३ ) रसमोह श्रृगार-कर्ता-दामोदर सं० १७५६ बुरहानपुर
आदि
अथ रसमोह श्रृंगार लिख्यते
पहेलें गनपति नमनकरि । नमु प्रपति तास । चौहरि सरस्वति नमनकरि, मागु बुद्धि प्रकास ॥ १ ॥
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( १९८)
छप्प गणपति गुण निधिमार भार सिर काट ही मजें । गणपति समरित रिद्ध सिद्ध, मुख संपति पुज्जे । गणपति स्स्थत दुषम विषम, बल बुद्धि उपज्जे ।
गणपति चिंतित हित चित्त, वंचित फल हुज्जें ॥ गवरिनंद जयवंत सुकृत, मव काम दहन 'सत शुमकरण । एक दंतवंत गजवदन सकल गुण, दाश पित्त गणपति सरणा ॥२॥
दोहग
दक्षणदेश सुदेश हें और सब देशन को सार । अनधन मणि माणिक हीरा, मुगता को नही पार || ३॥ - तिहां पातसाहि करें, महाबली मति धीर । चारु दिशा जिन वश करी, सु साहिब श्रालमगीर ॥ ४ ॥ तिहानगर बुरानपुर वसतहि, अरु अरु खांण देश को धान दास वरण सबको बसें, पुन्य पवित्र मुग्यान ॥ ५ ॥
__ मोरठा
तिहां तापी तोय तोर, दास सुमरितही सके । पायन रहे सरीर, वेद पुगण यु उचरें ।
दोहरा दाम दमोदर नाम हें मूढ मती अग्यान । गुरु प्रसाद उपदेशते, दीयो चिक स्यान ॥ ७ ॥ जिन गुरु अक्षर ही दीयो । स पंडित परमानंद । अंचल गश्रमों सोभिजें, जो पुनिम को चंद ॥ ८ ॥ दास दमोदर चतुरकों, कीयो ग्रन्थ सो मात । पटुवा परम प्रसीद्ध ही वीर वंस हे जाति ॥ ३ ॥ तिन इह ग्रन्थ विस्तारियों, सुभग सरल सुरंग ।। भूल्यो चूको कवीजनो, जिन प्राणो चित भंग ॥१०॥ संवत १७ सय वरष छप्पन्नवा समसार । श्रावण सुदि तिधि पंचमी, बार मलो गुरु वार ।
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! १६६ )
नाम धरयो इह ग्रन्थ को, रसगेह सिंगार । दास दमोदर रसिक कुं, कोयो प्रेम को हार ॥१२॥ नों ही रस सबकौं कहें, तामें सुभ गार । दाम ताके रस बहूं, एक एक में सार ॥१३॥
___ अथनवरम नाम वर्णनप्रथम गारो जानीये, दुजी करुणा मान । तीजो अदभुत कहत हैं चउथो हास४ वषाण । पांचो रुद्र" व वी२६ सप्त भय" चित्त बानि । अष्ट विमिछ वषाणि ह नोहों शांति सुजाण ॥१५॥
अथशृंगार रस वणनं ।। दो० रस *गार के रस बहू वरण २ है जोग । दास ताके रसनकुं, जाणे चातुर लोग ॥१६॥
श्रांत
अथ राजसी नांयका को अभिसार वर्णन गति गजराज लाय, तर ग के तुरंग कीये, विजुरी चिराग बिचिराग कीयें केंदरी । कुचतो निसान चीने, पल्लव निसान लीयें, जल धार फोन भार अंग संग हे भली । मन के मनोरथ हैं, पाय दल पूरे सूर, सुरति संग्राम कुतो बाम साच के चली । निसकु दमामो घनघोरन को दीये दास, लीये साज राजन ब्रजराजन जा मीली ॥ ६ ॥
दूहरा ।। अथ भाई काको अभिसारिका ।। दाउ परें पर मावसु, मिले हित करि प्राय । भाई काको अभिसारिका, बण दास बनाय ॥ २८ ॥ दाउ परें पर दास चली अली संग लीयें ।
निकसी व्रज प्यारी पीत पोतांवर काठ कले- । आगे लिखते छोड़ा हुआ है। श्रागे मदन संवाद है । विहरीसतसई सं० १७६४ लिखित है।
प्रति-गुटकाकार साइजx
॥ पत्र ८५०१५ अ.४६
[अभय जैन ग्रन्थालय]
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( २००)
वि० प्रथम खंड-काराचा संयोग वियोग धर्णन पद्य २३
द्वितीय , के मग्न उपाय , पब ७०
तृतीय , अष्ट नाइका , पथ २८ अपूर्ण (४) रसविनोद-रचयिाव-प्रवीनदास सं० १८५३ पादि
अंश अप्राप्य
मिलन मनोरय-विकल, सो कहिय उनमाद । इसी अवस्था सरन है, तामैं कछु नफसाद ॥ ७६ ॥ यह संबर शृगार को करनि रुनायौ रूप । थोरे में सब समझिये, बुद्धिवंत तुम थूप ॥ ग्रह इने हात जानी, संवत्सर श्रेपन अधिक ।
विक्रम ते पहचानि, जेट असित भृगु द्वादसी ॥ इति श्री महाराजाधिराज महाराज राजराजेन्द्र सवाई मानसिंघ हितार्थ प्रविनदासेन विरचितं रसविनोद संपूर्णम् ।
लिपीकृतं गढ गोपाचल मध्ये श्री ........... प्रति-गुटकाकार छोटी साईज, पत्र २० मे २४ पं०६ अ० १०
[अभय जैन ग्रन्थालय] (५) सुखसार-रचयिता कवि गुलाब (सं०१८२२ पौष. शु० १५अवंतिका) आदिश्री गनेसायनमः अथ अन्ध सुषसार लिप्यते ॥
दोहा मंगलाचरन ॥ गुरुगन पति विध सारदा, श्री हरि मंगल हेत । कवि गुलाब बंदत परन, सिप सिका समेत ॥
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(२०१)
"कवित्त मनहरन गनेसजू का" नंदन श्री सिवजूके सिवाके सुखद पति । प्यारे प्रान हूँ ते मारे मोन है गुनन के ॥ श्रेक दंत राजै भाल सिंदुर बिराजै चारु । चंद छवि छाजै काज साजै सुम मन के ॥ धाधु बरु श्रास नहैं नासन बिगन भूर । सासन जगत मान पूरन हैं पन के || बंदों गननायक सकल सषदायक । (क) हैं सुकवि गुलाब को सहायक सुजान के ॥
दोहासंवत जुग जुन गजससी, पौष पुन्यो बुधवार । एमदिन सौधि गुलाब कवि, कियो ग्रन्थ मुखसार ।।
गुन कम अपने बंसकौ, कैसे कहीं प्रमान । नाम रहत है ग्रन्थ मैं, याते करौं वर्षान ॥ १ ॥ दिल्लीपत अकबर बली, राप्यौ जिनको मान ।
से कुलदीपक भये, कुलमैं बकमनखांन ॥ २ ॥ यकसनपा के सुत मश्रे, लाडूपांन सुजान । सुत सुजान जू के मश्रे, लायक भाईखांन ॥ ३ ॥ लाडपांन के सुत प्रकट; चार चार गुन मोंन । चांदपान जुनेदां, रादू बाजिदषांन ॥ ४ ॥ बांदान के सुत उभ, जांनी कुदनषांन । जिनके गुन अरु लायकी, जानत सकल जहाँन ॥ ५ ॥ कुंदनपा के तीन सुत, जेठे कालेषांन । तिनको राजा र कसौं, रही अकेसी बान ॥ ६ ॥ लघु बंधी तिनके मुमति, मगनपांन गुनगेह । बंस मागीरथ मर्थ सौ, सदा रप्यो है नेह ॥ ७ ॥
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(२०२ )
कवि गुलाब समते लघू , कवि कुलही कौ दास । किरपा सीतारामतै, धरत अयंती बास |॥ ८ ॥ भी राधा बाधा हरन, मोहन मदन पुरार । प्रगट करयो निज प्रीत सुं, कवि गुलाब सुषसार ।।।। बिनती सुनौं गुलाब की, कबिता दीन दयाल ।
जहाँ जहाँ जो भूल है, लीजै श्राप सम्हाल ॥६॥ इति सुषमार ग्रंथे चित्रालंकार धर्ननं नाम चतुर्दस उल्लास ॥ १४ ॥ संपूरनं ।। माम सांवन बदी १२॥ वार बुध प्रस्थान अवंतिका ।।
पत्र सं० ७८, प्रतिष्ट. पंक्ति १७ । १८ प्रति पंक्ति अक्षर १८ गुटकाकार नं0 छ. ५६ । साइज ८x ||
[मोतीचंदजी खजांनची संग्रह
(४) वैद्यक (१) दडलति विनोद सार संग्रह-(वैदाम ) दौलतखान आदि
श्रीमंतं सच्चिदानंदं चिद्रूपं परमेश्वरम् । निरंजनं निराकारं तं कंचिन्प्रणमाम्यहम् ॥ दोधकाधिक सद्भत्तैः पाटः पाठानुगैर्व रैः । शास्त्र विरय्यते रुच्यं दृष्ट्वा शास्त्राण्यनेकशः ॥ दडलति विनोद सारसंग्रह नाम प्रगट पामाथी पत्र । से परोपकृत्यै सन्मने सुमते कवीन्द्राणाम् ॥ श्रीमद्वागडमंडलाखिल शिरः प्रोद्यत्प्रमामंडनाः । श्रीमंतो दिपखान भूपतिवरा नन्धाः सुरानन्ददाः ॥ तत्पष्टोदयसानम नकरै मस्वित्प्रमामास्करैः । श्रीमहऊलतिखान नाम वसुधाधीशैः सुधीशाश्रिमैः।।
(त्रिमिः कुलकम् ) तथा दोहाधन्वन्तोर मुख वैध बहु सुद्ध चिकित्साकार । तनसुद्धिा मुणि योग पथ लहइ संसारह पार ||
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ताप त्रिकछक योगविद पदइ चिकित्सा सत्य । मुक्ति होइ पर मावि निपुण इहाँ चाहा तउ प्रत्य ।। धर्म अर्थ श्रह काम कऊ साधन एह शरीर । तम् निसेगत कारणाइ उथम करइ सुधीर ॥
२४ दोहे के बादइति श्रीदऊलति विनोद सार संग्रहे दऊलतिखान नृपति विरचि निर्मितं वैधगृणाधिकारः ।
दोहा - १०१ ज्ञान परम कहु जोगी अंनद का कुछु परम वैध बरवाना ।
ग्रन्थ विसंधि जिहां किछु पाया भूपति दऊलतिखान दिखाया ।। इति श्री अलपखां नृपति सुत भूपाल कृपाल श्री दऊनति खान विनिम्मिते दुऊलतिसार संग्रहे।
चरम ज्ञानाधिकार सारः । फिर काल ज्ञान, मूत्र परीक्षा, नाड़ी परीक्षणएवंच
षोडशवर लक्षणसहित घोषध का बखान ।
क्या बागडदेशाधिपति नृप श्रीदऊसातिखान ॥ इति श्री वागड देशाधिपति श्री अलिपखाननंदन श्री दऊलतिखान विरचितं श्री दऊलति विनोदसार संग्रहे षोडशवराधिकार सारः ।
फिर अतिसार १५ रोगों के ४१वें में कुल विंशति, ४२२ में शीतपित्ताधिकार, ४३वें में अम्लपित्ताधिकार, ४४ विसर्पि, ४५ भृता-श्रपूर्ण ।
इति श्रीदऊलतिविनोद सार संग्रहे विसर्पिनिदानाधिकारसारः ।
बड़ा गुटका पत्र ३६७ मे ३६७ पं. २४-२५. ४०।४८ ( १७ वो शताब्दी व ५८ वी प्रारम्भ )।
[अनूप संस्कृत लाइब्रेरी] ( २ ) वैध चितामणि ( समुद्र प्रकास सिद्धान्त ) जिन समुद्र सूरि आदि
प्रथम पत्र नहीं।
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(२०४)
इति श्री समुद्र प्रकास सिद्धान्ते विद्या विलास चनुष्य दिकायां वर्ग रि० समाप्त मिति ॥ कुल पत्र ५.
पत्र में, ग्रंथ अपूर्ण । अंतिम पंक्ति इस प्रकार__"तालू रोग पिण नव सर्वथा नव विध वली कपाल नी वृषा होठ रोय भेदे में पाठ कंठरोग अष्टादश पाठ ५ ॥ मादि
दहा त्रासावरी = ॥ ६॥ श्री गुरुभ्यो नमः श्री भारत्यैनमः ॥
सकल स सुक्खदायक सकल, जीव जंतु प्रतिपाल । नाम ग्रहण बाधित फलत, टलत सकल दुख जाल ॥ १ ॥ श्रीगोडी फलवद्धिपर, श्रादिक तीरथ जास । पार्श्व प्रभू पृथिवी प्रसिद्ध, पूरण वांछित श्रास ॥ २ ॥ पंच बग्ण दे नाग कू, कीयो धरण को बंद । जादव सैन्य जरा हरण, प्रणमं जगदानंद ॥ ३ ॥ तास वदन ने उपनी, सरसति सरस सुर्माण । ताको ध्यान धरों रिद, जिम कारज चढे प्रमाण ॥ ४ ॥ सगुरु जिनेश्वसूरि पद नायक जिगणुचंदसूरि । नाके चरण कमल नम, धर चित पाणंद पूरि ॥ ५ ॥ गनि उपकार नगी रिदै, धरी प्राण चित चूप । रचौं येद्य के काज को. वैद्यक ग्रन्थ अनृप ॥ ६ ॥ वैद्य ग्रन्थ पहिलो बहुत, हे पिण संस्कृत वापि । तातह मगध प्रबोधउं, भाषा ग्रंथ बम्बाणि ॥ ७ ॥ वाग्भट मन चरक, फनि मारंधर श्रात्रेय । योग शतक धादिक वली, वैद्यक प्र-भ अभेय ॥ ८ ॥ तिन सविहुँन को मथन करि, दधि हैं ज्यु पृतसार । स्यों रचिहुँ सम शास्त्र तें, वैद्यक मारोद्धार || ti परिपाटी सवि वैधकी, श्रामनाय सशुद्धि । बैद्य चिंतामणि चोपई, स्वर्दू शास्त्र को बुद्धि ॥ १०॥
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( २०५)
रोग निदान चिकिच्छ का, पथ क्रियादिक संत ।
नाम धरयो इन ग्रन्थ को, भी समुद्र सिवंत ॥११॥ प्रथम देश व्यवस्था कहता हौं
चोपईप्रथम देश विहि भांति बखाण, जांगुल अनूप साधारण जाण । पित्त वाय अनुकम सही, विधि देसा की प्रकृति कही ॥ १ ॥ जागुल देश पित x x x x x
অনুযা प्रति-प्रथम पत्र ही प्राप्त
[जैसलमेर घड़ा भंडार]
(५) संगीत
( १ ) रागमाला । गिरधर मिश्र । ग्राहि
करि प्रणाम हरि नरण कुं दुख नासन सुख चित्त । होति सुमति नाका पटत, रागमाल मुनि मित्त ॥१॥ या प्रमदा जिन राग की, तार ताहि सयोग । अवर गग संगतह, गावत पढन बियोग ॥ २ ॥ समय विना हरि दरसतह, उपजत रोष प्रत्यंग । तहसइ राग समय विना, करत होत मति भंग ॥ ३ ॥ प्रात समइ भइरु कगे. मालव सूर उद्योत । प्रथम याम हिंडोल कर, याम दीप द्वे होत ॥ ४ ॥ निसा श्रादि श्रीराग को, समयो कहर प्रवीण ।। मेवराग मध्य राति विण, गावद सो मति होय ॥ ५ ॥
अन्त
पूरव कविकत देखि कर, गिरधर मिश्र विचार । रागमाल रूपक रचे, सत कवि लेहु सुधार ॥ ५८ ॥
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(२८६ )
इति संगीत सारोद्धार मिश्र गिरधर विरचित रागमालायां दीपक रागरागिणी निर्णय सप्तमांक ॥ ७॥ इति रागमाला ॥
वि. १. रागरागिणी निरूपणो प्रथमांक । ,, २. भइरव रागरागिणी निर्णयो द्वितीयांक । ,, ३. मालव कौशिक रागरागिणी निर्णये तृ० । ,, ४. हिंडोल रागरागिणी रूप निणंये चतुर्थांक । ,, ५. श्रीराग रागरागिणी रूप निणये पंचमांक । ,, ६. मेघ रागरागिणी रूप निर्णये षष्ठांक । पत्र १ यति बालचन्दजी, चित्तौड़ । लेखन- १८वीं शती ।
(६) नाटक ( १ ) कुरीति तिमिर मार्तण्ड नाटक । ८. रामसरन
दूसरी प्रति पत्र १२१-७२-१२६-४१३-७३२ । आदि- अथ कुरीति तिमर मार्तण्ड नाटक ।
दोहानमो नामि के नंद कौ, विघन हग्न के हेत । सकलन सिद्ध दाता रहैं, मन वांछित सुख देत ॥१॥ परमात्मा स्तुति - गजल षखानजी, + x
+ सूत्रधार (आकाश की ओर देखकर)। श्रोह हो, देखो, क्या घोर कलिकाल प्रगट हो रहा है। प्राणी अन्याय मार्ग में कैसे लीन होरहे हैं। खोटे कार्य करते भी चित्त में लज्जा नहीं आती है। ये सम्पूर्ण अविद्या का प्रभाव है। धन्य, विधाता तेरी शक्ति, तेरा चरित्र अगाध है। इसमें चुप रहने का ही काम है।
अंत
फरुखाबाद निवास जिन, अपन धर्म लक्लीन । निवसत मनसुख राग तहां, आयुर्वेद प्रवीन ॥
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(२०७)
रामसरन तिनका तनुज, जिन चरणाम्बुजदास । ताने ये नाटक रच्यो, करत कुरीति विनास ।। शब्द घरथ की चूक को, बुधजन कीजै गह । कटक वचन लख या विषय, कीजे रेचन वृद्ध ॥ कोई जीव अभिष्ट को, इक मन हरषात । तिनसे है कछु भय नहीं, करै अणुगतो बात ॥ चैत्र गुण पाही दिना, पूर्ण हुश्रा ए लेख । काय वाच ग्रह रवि मिले, सम्बतसर को देख ॥
इनि कुरीति तिमिर मार्तण्ड नाटक सम्पूर्णम् । यह नाटक लिखाया पण्डिनजी मांगीलालजी (..." क. ३ क. सं. १६ से ५५ तक । पत्र ३६ पुस्तकाकार पं. १८ अ. १८ ।
[ मोतीचन्दजी खजानची संग्रह अथ ज्ञानानंद नाटक लिख्यते-छोराम
देव निरंजन प्रथम बखानो, गहि व्योहारु गनेसहि मानौ ॥ १ ॥ बहुरि सरसुति विष्णुउ संमु, सुमिरि कयौं नाटक प्रारभ । लछीराम कवि रसविधि कही, श्ररथ प्रसंग मियो तिनि लही ॥ नाटक ज्ञानानंदु बखान्यौ, ज्यौं जाकी मति त्यौ तिनि जानों । देसु भदावर अति मुखु बासु तहाँ जोइसी ईसर दासु । राम कृष्ण ताके सुत भयौ, धर्म समुमुद्र कविता यमु छयौ । तिनके मित्र मिरोमणि जानि, माथुर जाति चतुरई खानि । भोहनु मिष सुमग ताको सुतु. वसै गंभीर सकल कला युतु । पुनि अवधानी परम विचित्र, दोऊ लछीरामसो मित्र ।
तोनों मित्र सने मुखु रहें, धनि प्रीति सब जगके कहें । प्रय छीराम वृत्तान्त कहियतु है
जमुना तीर मई इक गाऊं राइ कल्यान बस तिहि ठाँऊ । नछीराम कवि ताकै नंदु, जो कविता सुनि नासै दंदु ।
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( २०८)
गइ पुरंदर करे ल भाई तासौ मित्रनि वात चलाई ।। नाटक ज्ञानानंद सुनाऊं, देहु मुखनि अरु तुम मुख पानी ॥
सब मै अपु मै सबै, सुनो भेद कछु नाहि । ज्यों स्यो तनु मनुधर रहैं धरस्यौं तत मन मांहि ।
या अंत के दाके अर्थ को जानु होई सोई जानियो । इनि ज्ञानानंद नाटक, लछीराम कृतं समाप्तम् । संवत १७२७ वर्ष वैसाख, पत्र १४ पं०८०४१
[अनूप संस्कृत लाइब्ररी] ( ३ ) प्रबोध चन्द्रोदय नाटक । घासीराम । सं. १८३६ । श्रादि--
पाथ पबोध चन्द्रोदय नाटक लिख्यतेलंबि कपोलनी कला हरन कर कदंब गेलंत्र । नमन चरण सेब मम् (श्व ) क जे प्यारे जगदंबा ॥ हरिहर सरसुति कर नमन सदानन्द गुनपूर । मो सार ताप हाक महत विघन निवारक भूर ॥ जिनकी कृपा कटाय ते, होत ग्यान परकास । तो ता त्याचे गुरुचरण, सकल गुननि की रास ॥ वीनती धामोराम की, सुनौ व्यास भगवान । उद्घाटक फाटक हृदय, दीजै नाटक सान ॥ ____ + x +
___ कवित्त महाराव वर्णनबोलनि के समै देवगुरुसै विराजमान दान देवै काज राजतने अंशुमंत है । जुद्ध न के समथ महाधीर गम्भीर मन जीतवार जंग कै अनंत को हनंत है ॥ धीरवंत सोभत है महावीर घासीराम भागवंत माह सोभै महाभागवत है । धर्म एसे नीतवंत चिरंजीव राज राज, तिनके समान महाराव जसवंत हैं ।
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(२०)
दोहाएक विलंमि सत्रह शतक १५०० यक सुदिवस बसंत ।
संवतसर गुन अष्टमू १८३५ एथ्यो प्रन्थ श्रीमंत ॥ वाला
' जे मानवी शास्त्र में प्रवीन अध्यात्मज्ञानमै निपुण परंस प्रबोष ते विमुख तिनके निमित्त क्रष्णदत्त मिश्र या ग्रन्थ के बहाने अनुभव का प्रकास प्रकट करते हैं
( इनके प्रत्येक श्लोक देकर उसका हिन्दी में पद्यानुवाद है-)
निकसे स्वागी सब बहिर पूरे अन्ध बनाय । ........ ." अाशिष दये राजा को सुखपाय ॥५॥ घासीराम सुत जुगतमणि भाखारच्यौ बनाय । चूको होय कहुँ कहु देहु सुधर समझाय ॥६६॥ जान राव रामा सरस मुनि जन के शिरताज । देग तेग ते बरन कयौं निष्कटंक बलराज ||७|| महाराव जसवन्त श्रम तिनसुत करता राज । दिसि २ बरणो सुजस जिन बड़े गरीब निवाज ||८|| महाराव जसपन्त की पहिले हुती निदेस । रचौ तिवारी नाटकै रचौ न तामैं लेस ॥६॥ सम्वत् अठारासै छत्तीस मुक सत्रह स ताफ । कातिक बदि रवि पंचमी धन्द दिवारी लेख ॥१०॥ पूरण की-हों अन्ध यह जानै उचिम शान । बांचे नासै मृदफ्न अन्त होय निर्वान ॥ मांगत घासीराम दछिना महाराव प्रभु पास । मुख सो चाहत हैं वसो विट्ठल प्रभु के पास ॥
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समस्त गाथा ६४८।
इति भी श्रीमंत महाराव जसवन्त विरचिते समश्लोकी भाषायां प्रयोष चन्द्रोदय नाटके उपनिषध देवा पर शास्त्र-संवाद वर्णनं नाम षष्टम अंक समाप्तः ।। सं. १८३७ शाके १७८२ शर्वरी नाम संवत्सर प्रति पत्र ६०, पं. १२ अ. ३२ ।
[ स्थान वृहद् शान भण्डार]
(६) कथा (१) गणेशजी की कथा। हुलास
मादि
संकट मरदन करौ गौरी सुत गणेश । विघ्न हरन पर सम करन काटन सकल कलेश ॥ सुमति देह दुर्मति हरन काटन कठिन कलेश । भुस्नर मुनि सुमिरत रहै प्रथम नाम गणेश ॥ १ ॥
दोहा सुमिरन करि गणेस की हरि चरनन चित्त लाई । संकट चौथि महिमा सुनी, कथा कहौं समुझाई ।।
पंत
गण नायक की कथा यह संमे कीती मद्वि बिलास ।
जथा बुद्धि माषा रची जडमति दास हुलास ॥ ४२ ॥ इति श्री गणेशजी की.कथा संकट चौषि व्रत संपूर्ण ।
संवत १८८७ ना वर्षे महा मास शुक्ल पक्षे द्वितीया तिथौ २ सनौ वासरे लि. मु० रंगजी । प्रति परिचय-पत्र१२ साइज alx४॥ प्रति पृ० पं० प्रति पं०७०
[ राजस्थान पुरातत्व मंदिर, बयपुर ]
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(११)
(२) चित्रमुकट कहानी। चित्रमुकट की बात लिख्यत ।
चौपई
नख गणपति के बहि जाये, प्रथम बीनती बनकी करिये । अलख निरंजन को है पारा, वा साहिब गुरु जानि हमारा ॥ पा कारन विधना संसारा, बहुत अन करि आप सबारा ।
दोहादिन नहीं पारो दूजिये, गनपति गहिये बाह । अन्त जानन ही दीजिये, रखिये हिवरा महि ॥
देखो प्रेम प्रीति को बानी, "चत्रमुकुट" की सुनु कहानी ।
+ x +
देखो प्रेम प्रीति की बानी, चत्रमुकूट की सुन कहानी ।
दोहाप्रीति रीति वरली कथा, तुकै पुछ सोहि । प्रेम कहानी नाव धरि, प्रगट कीनी तोहि ॥३४०॥
चौपाईचत्रमुकट था राजकवारा, नम उजीनि में सब कुं प्यारा । अनुप नम की सोमा मारी, चन्द्र कन हे राजदुलारी ॥ जिनकै पीचि पाह मब सही, जिनकी बानी लागे मोठी । विधना ऐसा जोड़ा बनाया, दोऊ मिल पन्छी जस पाया ॥
दोहासान-मूठ की गम नहीं, सुनी कर कियान । मूल-चूक छ मुभ करो, ग्यानी चत्र मुजान ॥
दुख दिखाई फिर Bख दीया, ऐसा है करतार । . नहया निरमत चाहिये, साई बुझे सार ॥
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(२१२)
इति श्री प्रेम कहानी समाप्ता।
सम्बत् १८७१ मिति श्रावण शु. बुधवासरे। लिखतं चौथमलजी पातमार्यम् । लिपिकृतं महात्मा फतेचन्द जैपुर मध्ये।। प्रति-गुटकाकार पत्र ३०, पं. १७ अ. १६ साइज ८॥४६॥
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय] ' ( ३ ) छीताइवार्ता-रचयिता-नारायण दास ।
प्रादि
प्रारंभ के ५ पत्र नहीं होने मे त्रुटित है, छठे का प्रारंभमध्य
दैहस्ति तुरंग, चले हि जनि सुरतखान के संग । नगर दुर्गपुर पाटण नगर रहिन सके तुरकन के घर । बहुत वात का कहौ बढाई, उतरे मीर देव गिर जाइ । धावइ तुरक देह महिधार, उबरै राड दीह वरनारि ॥ सुवस कही जे गांवों गांव, तिनके खाज मिटाए ठाउ । हाकिन मिलाइ मीड ए श्राइ, कांधो टेकि तिह देहि कवाई ॥ ६३ ॥ प्रजा मागि साथ दिट गई, देवगिर सुधि रामदेवलही । चित चिंता जब अपनी राइ, सच विसयाने लिए बुलाइ ॥ ६४ ॥
जिह दिन मिली कुरि संदरी, ढोल समुदगढ़ पहुनी तीरी । चटि चकडाल बिताइराइ, पावनि खबति करी तिहा पाइ । सासु सुसरा प्रागइ जाइ, जानु वसंत रित फूली झाइ । छाजे छत्र नवतने कराई अनुप, अतिह प्रानंद भयौ सबभूप ॥ श्रागइ होइ राइ भगबानो, आगह सुरसी कुंघर सजानो । को तिक जोम पाए जहान, जो कुछ दस विदेस सुजान ॥ ठाई २ मंगल गावा नारि, सहइ चतुर सनि वात विचारी, ठाई २ तरुणी नाचई काल, ठाई २ निरत करा भूषाल ॥
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देखत सुरनर मोहै होइ, इसी मांति दान बहु दी ।
घरि १ बायो सुरसी राह, नराणवास कहै उबाहि ॥ इति छिताइवार्ता समाप्ता।
खे-संबस १६४७ वर्षे माधववादि ६ दिने लिखतं चेला करममी साहरामजी पठनार्य ।
प्रनि-गुटकाकार साइज १०||४६।पत्र ६ से ३६,
पं०१७, १०४०, स्थान-बृदद ज्ञान भंडार बीकानेर वि० पद्यांक ६४ के बाद धंक नहीं दिये। बीच में पाक नहीं दिये पत्रांक १३,१६, १७, नहीं पत्रांक २६ एक तरफ ही लिखित
(४) नंद बहुतरी (दोहा ७३ ), रचयिता-जसरास (जिनहर्ष ) सं० १७१४ कानी.. वील्हावास' आदि
सबे नयर सिरि सेहरो, पुर पाडासी प्रसिद्ध । गढ मद मंदिर सपत भुइ, सूसर भरी समृद्ध । सूर वीर मारण बटल, परियण कंद निकद । राजत है राजा तहां, नंदशह धानंद ॥ तास प्रधान प्रधान गुण, वीरोचन वरीयाम । एक दिवस राजा चल्यो, ख्याल करण भाराम ॥ ३ ॥ कटक सुमट परिवार स्यौं, बल्यो राइ र पाल । वस्त्र देखि तहाँ सूकतै, ऊमी रमो छछाल ॥ ४ ॥ इक सारी तिहि वीचि परी, ममर करत गुजार | नृप चितैया पहिरि है, साइ पदमणि नारि ॥ ५ ॥
खुसौ मयो नृप सुणत ही, बहुत बधारू तुझ । सामि परी तु खरो, साचो सेवक मुझ ॥ ७० ॥ ताहि दीयो परधान पद, बाजी रही मुठाह । भरि मरदन मान्यो बहत, प्राक्रम अंग उछाह ॥ १ ॥
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(२१४)
पुन्य पसाय सुख लयौ, सीधा बंधित काज । कीनी नंद बहुरी, संपूरण जसराज ॥ ७२ ॥ सतरैसै चवदोतरै, काती मास उदार ।।
की जसराज बहुतरी, वील्हावास मझार ॥ ७३ । इति श्री नंद बहुतरी दृहा बंध वारता समापता । पत्र २, पं० १६, अक्षर ५०,
[अभय जैन ग्रंथालय] ( ५ ) माधव चरित्र । २. जगन्नाथ । सं. १७४४ । जेसलमेर । पादि
॥६॥ श्रीगोपालजी साय जी ॥ श्रीगुणेशायनमः ॥ अथ मात्र चरित्र से वात लिखते ॥
कवित्तमुगट शीश जगमगत, चपल कुंडल हग चंचल । वेणुनाद मुखवाद, माल वणि श्राड निरम्मल || कटि कालिन तन खौर, दौर पग नूपुर रुमझुम । गुन्जहार वनमार, पीत दामिनी जानी तन धन ॥ सिंगार विविध शोभित शुमग, राधा हास विलासबर । गिरिराज धरन तारण हुजन, जगन्नाथ नित ध्यान धरि ॥१॥
इहि माधव कामा चरित, विविध भेद रस हेर । हुइ हरखत जगन्नाथ कवि, कीनो जेसलमेर ॥ ५०६ ॥ जेसलमेर उतंग गढ़, पुर मुरपुर हि समान । तिनिमौं सब जग सुख बसै, ताको करौं बखान ॥ ५१० ॥
कवित्त
कचन वरन उतंग, वंक जानी लंक विराजित । सुरज उरज अति प्राज, भवन पय महिमा गाजत ॥
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(२१५)
मथि कोठार मन्डाण, विविध महिलाइत मंदिर । धति उतंग पावास, अजब चित्राम सु इंदिर ॥ घोपमा अमल राजित सहट, जानौं सुरपुर लाजिहैं । जगन्नाथ कहै जेसांणगढ़, तहां अमरेस विराजि हैं ॥ ५११ ॥
दूहा
तहाँ राजै रावल अमर, वंस रूप खटत्रीस । करन जिसो दाता सकत, तेज जिसो दिन ईस ॥ ५१२ ॥ ख्याग त्याग बडभाग जस, श्रोपम नमल सुरेस ।। मब गन की चाहक सरस, कहोयत अमर नरेस ॥ ५१३ ॥ पाट कर अमरेम के, जमवन्तसंघ सुजाव । गनी बहुत श्रादर लहै, चातर मौज सुचाव ॥ ५१४ ॥ गबलजी के राज मी, सब जन सखी उलास । म्यान चातुर्ग भेद रम, सदा रहत चित हास ॥ ५१५ ॥ तिनकी छाया वसतु है, जोसी कवि जगन्नाथ । लिखत पढत नित हरम्ब नित, गहति गुनन की गाथ ॥ ५१६ ॥ देत अमर पादर सदा, रीम. मौज दातार । ताहि मया ने चित हरख, कीनौं ग्रन्थ विचारि ॥ ५१७ ॥ सरस छंद भाखा सुगम, कायौ बहुत गुनगाध । द्विज माधव कामा चरित, रच्यो सुकवि जगन्नाथ ॥ ५१८॥ सम्बत् सतरै सै वरस, वीते चउतारीस । जेठ शुकल पूनिमि दिवमी, रच्यो बारि दिन ईस ॥ ५१६ ।। ता दिन यह पूरन करयौ, माधव चरित अनूप । रच्यो ज भाखा सरस रस, मुनि मुनि रीझत भूप ॥ ५२० ॥ यह माधव कामा चरित, सोसै मुनै ज कोई ।। ताहि को हरिहर अमर, मदन प्रसन नित होइ ॥ ५२१ ॥
इति श्री माधव चरित कथा जोसी जगन्नाथ कृत सम्पूर्ण ॥ सम्बत् १८१६ भाद्रया सुदी १३ दिने लिखितं ।
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(२१६)
स्वेतांबरी पं. भगवान सागरेण, माहेसरी वशे वीसाणी सा । जसकरण पुत्र सुखराम वाचताफैः ॥ श्री जेशलमेर मध्ये ॥ रावलजी श्री प्रसैसिंघजी कुंधर श्री मूलराजजी राज्यात् ।
शुभं भवतुः कल्याण मस्तु लेखक पाठकयो चिरजीयात् ॥ श्री ॥ मूल प्रति जैसलमेर डुगरमी भक्ति भडार ।
प्रतिलिपि मादूल राजस्थानी रिहाल इन्स्टीट्य ट ] (७) शिव व्याह । पहा ३७३ १ या भुजनरेश महाराउ लषपति सं० १८१७ सावण सुदी ५ आदि
एक रदन श्रानंदघर, दुखहर शिवमत देव । प्रांजलि लषपति 4 कृपा, निजरि करहु नितमेव ॥ १ ॥ शिवरानी जानी जगत, बरनत हो तुव ब्याह । सेबक लषपति के सदा, अविचल करि उछाह ॥ २ ॥ महिमानी माता तुम, बहानो बरबीर । भवा भवानी मारती, रक्षा कर लषधीर ॥ ३ ॥ भुव धरिनी करनी भई, शिव परिमी सुषदाय । हरिनी दुषकी हो सदा, पूजित पुरनर पाय ॥ ४ ॥
मेरे मन माही सदा, बसौ ईसुरी बास । सषपति सेवक दिगखपी प्रषिक्ष सफल करि पास ॥ ५ ॥
अंत
इह प्रकार जग ईस जोग तजि भोग सुभीनो । नेम प्राडि छाडि वन माँभि नाँच नारी . कीन्ही । चंचल द्विगकरि चित्त चतुर सबरीको चाही ।
ब्रह्म श्रादि पुर संग प्राय उमया कौं ब्याही । बानन्द भयौ अंग अंग अति, भुवन तीन संतिति मरन । किरतार सदा लष धीर के सफल मनोरथ पुषकरन ||१||
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सुनें पर्दै मुग्याननर, सुम यह शिवको व्याह । सकल मनोरथ सिद्धि कर, अचल होहिं उबाहु ॥७२॥ संबन ठारह से उपरि सत्रह वर्ष सुजान ।
सावन सित पाँच कर पूरन अन्य प्रमान ||७३॥ इति श्री मन्महाराउ लषपति विरचित मदा शिव ब्याह संपूर्ण ।
संवत् १८५७ ना वर्षे शाके १७२२ प्रवत्त माने श्री माघ मासे कृष्ण पक्षे ११ एकादशी तीधौ चन्द्र बासरे लिषितं पं०। श्री १०८ श्री विनित कुशलगणि तत् शिष्य श्री श्रीज्ञानकुशलगणि लिपीतं तत् शिष्य पं०। कुपरजी वाचनार्थ लीपित श्री भुज नगरे लीषितं ॥ पत्र संग्न ३३ । प्रति-साइज ११४श पंक्ति ११ । अक्षर ३० ।
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर जयपुर] (७) ऐतिहासिक काम ( १ ) कामोद्दीनपन- पद्य १७७ । रचयिता-ज्ञानसार । रचनाकालसम्बत् १८५६ बैशाख सुदी ३ जयपुर । आदि
तारिन में चन्द जैसे ग्रहगन दिनन्द तैसे, मणिमि में मणिंद त्यों गिरिन गिरिन्द यू । सुर में पुरिंद महाराज राज वृन्दहू में, माधवेश नन्द मुख सुरतरु सुकन्द यू ।। अरि करि करिंद भूम मार को फणिंद मनौ जगत को, बंद पुर तेज ते मंद यू । श्राशय समन्द इन्दु सौ चन्द ज्याको मदन कर गोविन्द प्रतपै प्रताप नर इन्द यू ॥
ग्रन्थ करो षट रस भरो, बरनन मदन अखण्ड ।। जस माधुरिता ते जगति खंड खंड मई खण्ड ।। १७५ ॥ सुघरनि जन मन रस दियें रस मोगनि सहकार । मदन उदीपन ग्रन्थ यह, रच्यो कथ्यो श्रीकार || १७६ ।। जग करता करतार है, यह कवि वचन विसाल ।
पे या मति को खण्ड दै, हैं हम ताके दास ॥ १७७ ॥ विषय- जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह का अलंकारिक वर्णन ।
[प्रतिलिपि- अभय जैन प्रन्थालय]
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(२१८)
(२) गोकुलेश विवाह-जगतनंद आदि
श्री गोकुलशो जयति । श्रथ विवाह छप्पय । श्री वल्लम पद कमल युगल निर्मल दुति प्राजे । श्री गोकुल अवास्त पास मुखरास विराजे ॥ माचरवाद विहंडि चन्ड शतं स्थंडि खंडि किय । दुर्जन मुख विदला नटवल उईवसा फलोदहिय ॥ अति जदार सम्वरूप लाखि भक्कन हित वा अपुधरण । जगतनन्द श्रानन्दकर श्री गोकुलेश यशग्गा शरण ॥ प्रगट मये विट्ठलनाथ के, श्री वल्लम सुरराज । शरण पुरुषोत्तम लखे, करत भक्त के काज ॥ गोकुलेश निज ईश को, मथुर मध्य विवाह । जगतनन्द यानन्द सो वरनत चित उत्साह ॥ सम्बत् सोरह से सुखद वरखे लखि चोवीस । वद अषाढ़ गुरु द्वेज को, व्याहे गोकुल ईस ॥ चंडना वेशभर सो वातै कहा बनाय । तुम्हरे कन्या रत्न है सो बोजो बितलाय ॥ श्री वल्लभ सब गुन मरे, विठलेश के नन्द । विठलेश विनती करत, श्राहो भर सुख कन्द ॥
चित विचारत घोस निसि, करि करि उतम चंद । मगन भयो प्रभु प्रेम में, वरनत कवि जगनंद ॥ कवि सबसों बिनती करत, मत सुनो चितलाइ । मूलो चूको होई सो, दीजो अबे बनाए । गोकुलेस की व्याह की, लीला श्रगम अपार । जगतनंद तितनी कही, जितनी मति अनुसार ।।
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( २१६)
भक्त हिय में धारि के, और आनि की रीति । लोक वेद संगत लिये, प्रभु चरनन की प्रीति ॥ यथा सकति कविता कही, प्रभु के नाम प्राय ।
जग (त) नंद करि जानियौं, अपनी गोकुल नाथ ॥ मिलिका छंद।
इति श्रीमदगोकुलेश पादपद्मपादुके शरज अंजलिसरंद बुधि सदा मेषके जगनंद कविराज विरचिते श्रीगोकुलेशचरिते सुखविवाहलीलावर्णनं नाम तृतीय प्रकरणं समाप्तमिति-शुभं भवतु-कल्याणमस्तु । शुभं भूयात् ।
ले-संवत १९२६ श्रापाद वदि १ भृगुवारप्रति पुस्तकाकार पत्र ६१ पं० १० अ० १४ साइज६x६
[ स्थान-अनूपसंस्कृत पुस्तकालय ] ( ३ ) प्रथीराज विवाह महोत्सव । पा ५२ । लिखमी कुशल । सं० १८५१ बैशाख वदी १० श्रादि
छंद पद्धरी संवत अठार, कावन्न पेशाम्व मास बदि दमम दिन्न । हिय हरष थापि थाप्यो ज ब्याह अवनी कार लोक निहुच उछाह ॥ १॥ मुचि मजन सामा किय सु श्रंग चरची षम धोई धंग चग । पो साषदेत्र वस्त्र जु पुनीत गावै तिनकी छवि सकल गीत ॥२॥ रंगी म केसरी पाघ रंग शुभ थापी अविचल सीस संग ।। मनि जटित H यापे थप्यो मौर ठहराई किलगी मध्य और ॥ ३ ॥
बैठे सिंहासन विविध ग्यांन बहु करै न्याह के जे विधान । दुज सकल सफल श्रासीस दीय पछिम पति तिहिं पर नाम कीय ॥४६॥ भोजन कीन्हे बहु भांति भौति पावत जुम राति बैठि पाति । परस पी करी पहरावनीय भई बात सबै मन माननीय ॥५०॥
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. (२२०)
इति श्री महाराष्ठ कुमार श्री प्रथीराज विवाहोत्सवः पं० लिषमी इशल कृत संपूर्णः ॥ पठनार्थ चेला सोमाग चंद ।। दुर्लभेन लि.
प्रति परिचय-पत्र ६ साइज १०॥॥४४॥ प्रति पृष्ठ पं० १० प्रति पं० अ० ३४ प्रति नं०२, पत्र संख्या४, साइज ८४४|| प्रति पृ० पं०१३,१०४६
इति श्री महाराउ कुमार श्री पृथ्वीराज विवाहोत्सव पं० । लिषमी कुशल कृत संपूर्ण लिखितं (पं० ) कीर्ति कुशल गणि। वाचनार्थ चिरंजीवी गुलालचंद तथा रंगजी श्रीमान श्रा मध्ये। श्री सुपार्श्व जिन प्रसादात ।
[राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर ] (१) नाटक नरेश लखपत के मरसीयां। पद्य संख्या ६० कुअर कुशल सूरी। सं० १८१७ आदि अथ श्री महाराउ लषपति स्वर्ग प्राप्ति समय वर्णन
दोहा दौलति कविता देत है दिन प्रति दिन कर देव । कविजन याते करत हैं मुकर सफल सुमचेव ॥ १ ॥ सकल मनोरण सफल कर श्रासा पूरा श्राप । Bषदाई दरसन सदा निरषत हौहि न पाप ॥२॥ भाई श्री धामापुरा राजत कधर राजि । तुम करपति को देत हौ बहु दौलति गज बाजि ॥ ३ ॥
कविस्त छप्पय वरसह का बन बिमल अनुज प्रभु के जब भाये, पूरम श्रायु प्रमानि किये तब मन के भाये । तुला करि तिहि समय दानहु जगन की दीन्हें, प्रजा नृपति हित पुन्य किये श्रवननि मुनि लीन्हे ।।
तप जप अनेक समता सहित ध्यान सदा शिव को धरयौ। पातिक पजारि सब पिंडके कुदन ते उज्वल कर यो ॥३३॥
पुनः छप्पय संक्त ठारहि सतनि उपर सत्रह बरसनि हुव जेठ मासि सुदि जानि परनातिथि पंचमि धुव
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( २२१ )
बार प्रदीत बनाउ और नष तर असलेषा
अ. सुहवन जोग राति षट घटि गतरेषा तिहि समय ध्यान धिर चित्त कियो देषन साहिब को दुरग तनि पाप पाप नृप लषपति सुमन सिधाये मुम सरग ॥ ३६ ॥
यह समयौ लषधीर को स्नै परै सुम्यान
सकल मनोरथ सिद्धि है परम सुधा रस पनि ॥ १० ॥ इति श्री भट्टारक श्री १०८ श्री श्री कुअर-कुसल सूरी कृत श्री महाराउ लषपति रवर्ग प्राप्ति समय संपूर्णम् ॥
लिखितं पं० श्री ज्ञान कूसलजी गणि तशिष्य पं० कीर्ति कुशन गणि लिखिता ग्राम भी मानकूत्रा मध्ये ।
सम्बत् १८६८ ना वर्षे शाके १७३४ ना प्रवर्तमाने मासोत्तम मासे प्रथम माधव मासे शुक्ल पक्ष तृतीया तिथौ भौमवासरे इदं महाराउ-लपति जी ना मरसीया संपूर्णौ भवता । श्री कच्छ दे से।
विशेष विवरण
महाराउ लषपति के साथ जो १५ सतियां हुई थी उनका वर्णन इस प्रकार है।
कविन छप्पय । राउ लषपति सरग सिधाये पीछे सुम दिल पन्द्रह बाई, प्रथम जदूपत्ति कामह दिव्य जल सदाबाई सरस राज बाई हुवरूरी निंदू बाई निपुन पुहम बाई गुन पूरी, राधा रूलाछि बाई मुरुचि बाई हीर वर्षानिय सातौं सतीनि सिंगार करि पिय 4 चली प्रमानिये ॥ ५ ॥ बाई देव विनीत श्रास बाई प्रति प्रोपी पहा आई पेवि रूचि प्रीतम सौं रोपी अफुओं बाई बाप जोति बहु जेठी बाई रंमा माई रूचिर मेघ भाई मन माई
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(२२२)
रूपाँ सरूप रति सीरची धनी प्रीति चित मैं भरि
सत सील सुजस करि बेसु थिर कठिन कार मन ते करिय ॥ ५१ ॥ प्रति परिचय-पत्र : साइज ८ x४ प्रति पृ० पं० १३ प्रति पं० अ० ३८
[ राजस्थान पुरातत्व मंदिर-जयपुर ] (४) महारावल मूलराज समुद्र बद्ध काव्य वचनिका रचयिता-शिवचन्द्र । सं० १८५१ काती वदि ३, सोजत आदि
अथ यादव वंश गगनांगण वासर मणि श्रमन्या धावतार राणराजेश्वर श्रीमान महाराजाधिराज महारावल श्री १०८ श्री मूलराज जिज्जगन्मण्डल विसारि सकल कला कलित ललित विमल शरच्चंद्र चंद्रिकानुकारि यशो वर्णन मय समुद्र बंध समुद्भव चतुर्दश रत्ननानि तद्दोधकानिच विलख्यते । [१ संस्कृत श्लोक है वदनंतर]
परिहांधरियै पासा एन खरी महाराज की, और न करिय चाह कहो किमकाजरी साहिब पूरणहार जहां-तहां पूरि है, दो गो चून अचिंत्यो चिंता चूरि है। फिर कवित्त, दोहा, फारमी वेत, संस्कृत, प्राकृत श्लोक श्रादि १४ . . . है
अथ सिंधु बंध दोध का नायर्थ शुभाकार कौशिक त्रिदिव, अंतरिक्ष दिनकार ।
महाराज इम धर तपौ मूलराज छत्र धार अरुण अर्थ लेश:- जैसे शुभाकार कहि है भलो है श्राकार जिनको एसै कौशिक कहिये इंद्रमो त्रिदिव क. स्वर्ग में प्रतपै पुनः दिनकार अंतरिछ क. जितनै ताह सूर्य श्राकाश में तपै महा. क. इन रीतै छत्र के धरनहार महाराज श्री मूलराज धर तपो क. पृथ्वी विर्षे प्रतपौ ।। १ ।।
वरस वसति कर करन नाग छिति कार्तिक वदि दल तृतीया तर निजवार । गच्छ खरतर तर गुन निम्मल सुम पाठक पद धार ।
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( २२३ )
सकल बादी शिरोमणि रूपचंद्र गुरुराज तासु शिष्य वरगति बहु शास्त्र सार बिंदु पदम सी गुरु अनुग्रह शिरधरी । मुनि शंभुराम नृप गुन कलित जलधिबंध रचना करी ॥ २ ॥
दोधकविबुध वृद थानंद पद, सीमित नगर मझार ।
सिद्ध भयौ ९ सुमन जन, सुस्वद सिंधु बंधसार ॥ ३ ॥ इति प्रशिन्ति ।। इति श्री राजराजेश्वर श्री मन्महाराजाधिराज महारावलजि छी श्री १०८ श्री मूलराज जिवां गुण वर्णन मय जलधिबंध दोधकार्थाधिकारी लिखितः प्राज्ञ शंभुराम मुनिना सद्विधु शर सिद्धि रसा प्रमिते मधु मास स बलमा पक्ष पंचमी तिथौ यामिनी जानि तनय वासरे श्री ज्जेसलमेरू दुर्गे ॥
प्रति-पत्र वैद्यवर बालचंद्रयति संग्रह चित्तौड़, प्रति लिपि हमारे संग्रह में ।
वि०- इसके बाद ही इच्छा लिपि स्वरूप लिखा है। देखें नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष"अंक
(६) रतनरासो-रचयिता-कुभकरनआदि
तेजपुंज तले विलद दिल पर अजब करार । खतम रेफ हिम्मत वलीय अल्लहु पर इकतार ॥ १ ॥ अजबलाल इक बेहा, हिन्दु जौहर अजून । इसक इवक किम्मत पदा हिम्मत 4 महबूब ॥ २ ॥ चातुर चकता चक्रवतीय चित्र गिय खूमान । कमंध वंस कूरमवली बादव बह चहुवान ॥ ३ ॥ ब्रह्म माख गिर्वान बत चारन चर चतुरंग । भषि मध्यह वानिप निकट गिय गांधर्व उमंग ॥ ४ ॥ मैं चठ्ठिय पारसीय, पसतौ बरब प्रबंध ।
राजनीति उक्त मरिख, कापन चिकन बंध ॥ ५ ॥ इति श्री कुभकरन विरचिते काव्य अष्टक रतना करे प्रश्नोत्तर कथन तृतीयोध्याय ।
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(२२४ )
(अलब्ध प्रतियों में पहले के २ अध्याय नहीं है एवं तीसरे के ४७ वे पद्य से प्रारंभ होता है। ४७ वे पद्य को प्रतिलिपि में प्रथमांक दिया है)।
इसके पश्चात् कवि वंश का वर्णन विस्तार से पर अस्पष्टसा हैअंत
लाज खिते ति कुंकम चढाय सिवभक्त रतन रासो पढ़ाय । उज्जेन छेत्र सिसुरा महान् भी ज्योतिलिंग महकाल ध्यान ॥
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कहि कुंभकरन वर्नन बिमल रामनाम असरन सरन ।
रामो अगाध सिवकर रतन कुम्मकान कवि इन्द्र । कित शूगार सम सपा छटा सिध श्रानंद । धुवति मनसाहिट अवन सुबहान मुखमल प्रपूर रब । प्रदिन पर फलक तव पुरतक प्रसरिथ धुव ।। दिज नृप कवि भूत तिलकन अति परिगह गछाह मन । चित चमत्कार सस्फुट वचन अस्त्र मस्त्र चतुर्थ इति ॥
सिव रतन सिध रासो सरस अस विधान सन परि नृपति । इति श्री कवि कुम्भकरन सत्तपुरीमध्ये मुकुटमणि अवतिका नाम क्षेत्रे श्रीसि. पुरह महासरिजतरे श्रीसिवाश्रीगगाजी सहिते श्रीज्योतिलिंग महकालश्वर सविध जुध उभय साह अवरंग मुरारि जवनेंद्र सम महाभारते महाराजाधिराज जसवंत सिंघ नमे अनुजरतन सेना धवते प्रचण्ड इद्र जुगले तत्र मुक्तिद्वार सुकहित कपाटे अनेक सुभट सपूत रविमण्डल भेदनेक वीरोछवे तत्र रतन संघ सिवस्वरूप प्राप्त कैलासवासे तत्र महमा वर्णनो नाम प्रस्तावः ।। इति श्रीरतनरासो संपूर्णम् ।
प्रति (१ ) १५१ प्रति ( २ ) बद्रीप्रसादजी साकरिया की दी हुई प्रतिलिपि जोधपुर से गई प्रति ( ३ ) बीकानेर के मानधातासिंहजी के मारफत गाहा प्रति (४) राजस्थान रिचर्स इस्टिट्यूट, कलकत्ता।
( १-२-३ प्रति-श्रीमहाराजकुमार श्रीरघुबीरसिंहजी सीतामऊ की रघुबीर लाईब्ररी स्थित २ पुरानी शैली की १ प्रेस कापी )।
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(२२५)
(७) समुद्र बद्ध कवित्त । रचयिता-ज्ञानसार । आदि
सारद श्रीधर समर के, इष्ट देव गुरु राय । वर्णन श्री परताय की, करिहुं शक्ति बनाय ॥ १ ॥
अन्त
স্বামীश्री संकाणी दौर, कमल में छिप गई । रवि शशि दोनु भाजके, नभ मंडल मही ।। सिंघ सके बनवासे, जीय देही वनौ ।
श्री परतापसिंह जी, यो सो युग चिर चिर जयौ ॥ ५ ॥ इति चतुर्दश रत्न गर्भित समुद्र बद्ध चित्रम् । कृतिरियं ज्ञानसारस्य श्रीमज्जय. पुरे बरे पुरे ॥ श्री ॥
विशेष-इस पर राजस्थानी में बनाई हुई स्वोपन वचनिका भी है। जयपुर नरेश प्रतापसिंह का मुख वर्णन है।
[स्थान-प्रतिलिपि-अभय जैन प्रथालय ] नगरादि वर्णन गजलै( १ ) जैसलमेर गजल । कल्याण सं० १८२२ चे सु० आदि
अथ गजल गढ श्री जेसलमेर से लिख्यते
सरसत माता समरि ने, गाइने गणपत्ति ।
पाने जे सभी अवस, अवरल वाया उकति ॥ १ ॥ जडे सालम हीहुंवांणी सदा, पालम सिर जेसाण । नवहि खंडे मालम अनड, बालमगढ जेसाण ||
अथ गजल जालम गढ जेसाक, है जिहां सदा हिंदुवाशाक । पल। ध सोम पहाइ, उपर दुरंग हे श्रोना ॥ १ ॥
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(२२६)
लेखा बिना गढ लंका क, सिर नाह साल की संसाक । श्रेसा भुरज सत उतंग, सोवनमेर गिर को शुग ॥ २ ॥ पेहली मीत चीत प्रकार, त्रैवट कोट त्रिकुटा कार ।। जालम कामगढ हुने क, चावी टीप नहीं चुने क ॥ ३ ॥
रीसाल तिहां वंकाक, शाहि को करे पर शंका क ॥ ५ ॥ अंत
वरणे चोतरफ वाखाण, पांच कोश की परिमाण । संवत अठारसै बावीस, सुद वैसाख सुभ दीसे क ||१२८|| भाषा गजल को माखी क, अपणी उक्त परि पाखीक ।
वाचत पढत जण बाखांण, कीजै प्रभु नित कल्याण ॥१२॥ इति श्री जेसलमेर री गजल संपूर्ण ।
लिखतं स देवीचंद सं०१८५० मिगसर वदी ७, सा निहालचंदजी पुत्र अनोपचंदजी लघुभ्रात मयाचंद पठनार्थं । श्रावक वाचे तेइने धर्म ध्यान है। वाचे विचारे श्रमने पिण याद करज्यो ।
[ प्रतिलिपि- साल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्य ट-बदरीप्रसाद साकरिया ]
गुटका पत्र ११, जैसलमेर साह धनपतसिंह जी के वास ।
( २ ) नारी गजल-रचयिता-महिमा समुद्र धादि
देखि कामिनी इक खूब, उनके अधिका हे असलूब । कहीय. कहसी तसुतारीफ, देखा मगन हो यह रीफ ॥ १ ॥ जाणे अपछरा मसहर, उमका सूर नवसो नूर । महके स्वास वास कपूर, पइदाबार सम्मी टूर ॥ २ ॥
मध्यपतिसाही सहर मुलतान, दिसे जरका का थान । कायम राजा साहजहांन, अश्या जाणे सम्मो माण ॥ ३४ ॥
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( २२७)
कामिण जात की सोनार, घइसी का न देखी नार । ताकी सयल सोमा सार, कहतां को न पावइ पार ॥ महिमासमुद्र मुनि इल्लोल, कीधा कछु कवि कल्लोल । पुणकद सुख पावइ छयल, ही हो हसह मूरिख बयल ॥ ४० ॥ सुरता लहइ श्रइशो भेद, विप्र जामह वेद । मोती लाल विणसा, जापाई कोण किम तिसा ॥ इसकी यह है तारीफ, जडिसा नेह हरीफ हरीफ ।
महिमासमुद्र कह विचार, सुणतां सदा सुख प्यार ॥ ४२ ॥ इति गजल संपूर्ण
गुटका-लोका गछ उपासरा जैसलमेर प्रतिलिपि-सादृल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्य ट
(३) बीकानेर गजल । पद्य १६१, लालचंद, सं० जेठसुदि ७ रविवार । श्रादिप्रारम्भ के तीन पत्र नहीं मिलने से ६०, पद्य नहीं मिले ।
मध्य
" तु दाला क छैला छत्र छोगाला क ॥६॥ सखरे हाट बैठे साह............... मोती किलंगी मालाक, वागे जरकसी वालाक । लाग्बू हुडिया ल्यावे क, जनसा माल लेजावे क ॥६२॥
अन्त
बीमा सहर है बहुते क, ऐसी नाम है केते क । ईश्वर संभु का अवतार, पुष्कर कपिल है निरधार ॥१८॥
संमत अटार अडतीस में, बीकानेर मझार । जेठ मुकल सम दिने, साचो सूरजवार ॥१६॥ लालचंद की लील सू, कही खेत पर हेत । पटै गुणे जे प्रेम घर, जे पामै लष जैत ॥१६॥
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(२२८)
प्राचार्य सबला ग्रह पुत्र लिखतं प्राचार्य सूरतराम |श्री।।श्री।
( प्रति- जैसलमेर लोकागच्छ भंडार ) प्रतिलिपि सं० २००७ आश्विन शु०१४, बदरीप्रसाद साकरिया ।
सुन्दरी गजल । रचयिता-जटमल नाहर । प्रादि
सुंदर रूप गाढीक, देखी बाग भू ठाटीकि । सखियां बीस दस है साथ, जाके रंग राते हाथ ॥ १ ॥ निरमल नीर सूनाहीक, ढंडीया लाल है लाहीक । घोटण सबे सालू लाल, चल है मराल कैसी चाल ॥ २ ॥
अन्त
जैसे पचन त्रिय कहती कि अपने शील में रहती कि जटमल नजर में
श्राक,
दर तुझ है शावास, पूजउ सकल तेरो श्राश ।
अपने कंत सूकस र ग, कर नवरस सम्म श्रमं ।। इति सुन्दरी गजल। लेखनकाल
संवत १४७५ वर्षे वैशाख सुदी १४ दिन लिखित पं० मुख हेम मुनिना श्री लूणसर मध्ये शुभं भूयात् श्री।
प्रति-पत्र-१०। अन्त पत्र में ( पूर्व पत्रों में जटमल रचित गारा वादल वात व लाहौर गजलादि है) पंक्ति-१६ । अक्षर-४० । माइज-१०४४||
_ [अभय जैन ग्रंथालय ] (E) इन्द्रजाल शकुन, शालिहोत, सतरंज खेल, काम शास्त्र
(१) अद्भुत विलास । रचयिता-मीरां सेदन गृहर । रचना काल१६६५ । पद्य ११८ (बीच में बड़े बड़े पद्य)
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( २२६)
अब अदत विलास अन्ध लिख्यतेआदि
जैसे जैसे पुष्प गंध, हरेहि तिल को तेल ॥ तैसे तैसे वास गुन, कहियो वास फुलेल ॥१॥
चौपाईकोई बहुत अचरिज दिखलाने, कोई नाटक चेटक ल्यावै । कोई इन्द्रजाल ले आया, कोई कायाकल्प दिखायै ॥ २ ॥
थचरिज अचरिज खोल मिल, ए कोतिकदा ग्यान । श्रेक येक वरनन करै, रीझत चतुर सुजान ॥ ६ ॥
संवत सोरेसे गर्ने, अरु पचानवै राख । ९६ अंक गन लीजियो, वेद भेद सब भाख ॥।॥
विन ही विदा बटापा भागै, दौरि बालपन श्राधै । श्रीसी जुगत सिद्ध को जाने, करै सिद्ध सो करियै । कायाकल्प और बल बाधै. जामैं सब सुख करियौ ।
जब लग जीवै सहज एच सोवै, जो इह मन वै करियै ॥११॥ इति श्री मीगं सेदन गृहर कम अभून विलास । लखनकाल-संवत् १६११ मिति माह सुर ४ ग्रंथाग्रंथ ४३०॥ प्रति-पत्र १५ पंक्ति-१३ । अक्षर-३५ साइझ Etx५
स्थान-महोपाध्याय रामलालजी संग्रह । बीकानेर प्रतिलिपि अभय जैनग्रंथालय।
विशेष'- इसमें वशीकरण, अष्टि करन, पूर्व जन्म दर्शन एवं स्तमन बन्धन धादि प्रदूत प्रयोगों का संग्रह है।
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( २३०)
(२) मदन विनोद-रचयिता-पविजान रचना काल, संवत् १६६० कार्तिक शुक्ल २, पद्य ५६५
अथ मदनविनोद जान को कलौ, कोकशास्त्र लिख्यतेधादि
दोहानाम निरंजन लीजिय, मंजन रसना होत । सब कछु सूझै ग्यान गुन, घट में उपजै जोत ॥ १ ॥ कहा रस रीत सुख, सिरजै सिरजनहार ।
हिलन मिलन खेलन हसन, रहसनि उमगन प्यार ॥ २ ॥ बखान हजरतजू को
इजै समिरी नाम नबी को सकल सिष्ट को मूल ! मित इलाह पनाह जग, हजरत साहि रसूल ॥ ३ ॥ साहिजहाँ जुग जुग जियौ, साहि के मन साहि । राप्त दीप सेवा कर, रहीन कुछ परवाह ॥ ४ ॥ मोद कमोदनि चंदतै, कंवल पतंग प्रणेद । रसिकन के मन खिलन की, कोनो मदन विनोद ॥ ५ ॥
अन्त
संवत सोरह स निवे, कातिक पुर्वी तिथि दून ।
ग्रंथ करयो यह जान कवि, रसिक गुरु करि पून ॥ इति श्री कोकशास्त्र मतिकृत रसिक ग्रंथ कविजान कृत
लेखनकाल-सं० १७४३ रा श्रासाद सुदी १४ दिने लिखतं चूडा महिधर वास मेड़तो पोथी महिधर री छ।
पत्र-२७ पंक्ति २६ अक्षर २०, साइज ६४१० वि० प्रति किनारों पर से कटी हुई है ।
[स्थान-अनूप संस्कृत लाइबेरी]
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( २३१)
सतरंज पर (३) शतरंजिनी-रचयिता मकरंदश्रादि
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मध्य
बुधिबत कौतुक देखि के, कियो बहुत सनमान । राजकाज लज लाजको दिय अर्धासन पान ॥ ५७५ ।। उतपति कही सतरंज की, बुद्धिबल जाको नाम । कू (कू!) तलज लाख विचारि सो, करि मकरंद प्रमान || ७७६ ॥ मनसूबा याके रच्यो पोथी जुदी बनाइ । देखें सुनें खिलार जौ, लिखे लेई चितुलाइ ॥ ५७७ ।।
सोरठाचाल कही बनाइ, बुधिबल मुहरिनि की सबै । बुधिबल बड़ी लड़ाइ जो न माइ संदेह मन ॥ ५७८ ।। बुधिबल मुहरा चलन को, जानत जगत मुभाइ । मैं न जुटे कार के धरै, बहुरि ग्रन्थ बदि, जाइ || ५७६ ॥ मनसूबा पोथी निरखि, कयौ दरा बहु भार । अब कबीर सतरंज को, कीजो कछु विचार ॥ ५८० ।। कठिन खेल शतरंज को, जिहि कपीर है नाम । नाम रूप जाके बनें, मुहरा अति अमिराम ॥ ५८१ ॥ या कबीर शतरंज को, करहु बंधेत विचारि । में बहुते निसी बहु कयौ, कडू न दयो सुधारि ॥ ५८२ ॥ तातै उतपति भेद सौ. प्रगट कहाँ समुझाइ । भूले विस है चालि के, पोथी लेइ पटाई ॥ ५८३ ॥ बुधिबल किया लज लाज पहुंदिसि मयो प्रसिद्ध सो । अफलातून समाज पहुचे खेल खिलारते ॥ ५८४ ॥ थफलातू चित चिंत किय खेल किया पहु मैन । धनि लज लाज सुदेस धनि, बुधिबल धनि मनि वैन || ५८५ ॥
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( २३२)
कथा वारतावाद विधि, औ उपहास नसाइ । खेल समै मकरंद कहि, मादक द्रव्य न खाइ ॥ २० ॥
श्रादि
यौ ही मनु पासा धरै लरै डर क्यों सोई । बुध जन साहस सिद्धि कहहि करता कर सो होई ॥४.७ ॥
अन्त
ध्यान धारना अनहदवानी, कारन मन ठहर यें । या प्रकार जो बुधिबल खेले, तो कहु अलख लखैये ॥ ७३८ ॥ .
जो अभ्यास कर बुधिबल मै तौ क .... प्रति-पत्र से ५२ ५०६.१०२४ साइज १.४६॥
[स्थान अनूप संस्कृत पुस्तकालय ] (४) शालीहोत्र (अश्वविनोद ) रचरिता-चेतनचंद सं० १८५१ ( मैंगर वंशी कुशलसिंह के लिए इ० ) पना २६५ एगिभग अथ घोड़े का इलाज ।
दोहानमो निरंजन देवगुरु, मारतंड ब्रह्म । रोग हरन अानक कात, सुखदायक जग पिंड ॥ १ ॥
श्रीमहाराजधिराज गुरु, सेंगर वंश नरेश । गुण गाहक गुणिजनन के, नगत विदित कुमलेश ॥ २ ॥
जाके नाम प्रताप को, चाहत जगत उदोत । नर नारी शुख मुस्ख कहै, कुशल कुशल कुसगोत ॥ ३ ॥
चित चातुर चख चातुरी, मुख चातुर मुख देन । कवि कोविद वरनत रहत, सुख मुख पावत चैन ॥ ४ ॥
वाजी सो राजी रहे ताजी एमट समर्थ । रत्न पूरे पूरे पुरुष, लहे कामना अर्थ ॥ ५ ॥
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(२३३ )
अन्त
कासायन से सरन गहि, ये सुख पायो वृन्द । सालहोत्र मह देखि के, वरनत चेतनचंद ॥ ६ ॥ श्री कुशलेश नरेश हित, नित चित चाह .. .. अश्व बिनोदो प्रथ यह, सार विचार कयो ॥ ७ ॥ मूल मानसार बासु मधु पर समग कर साज ।
मुखन फूल फलियो सदा, कुशलसिंह महाराज ॥ ८ ॥ अथ माल होत्र जथामति वरणन
दोहाविजय करन अरु जय करन, गावत चारी वेद । नकल कहै सहदेव सो, रवि बाहन को भंद्र || E || चुरहा फाट गौपानाथ कानकुबीज मे भये सनाय । तिनके सुन चायो अधिकाई इदजित लक्षम जदूराई । चौथे ताराचद कहायो, जहि यह अश्व विनोद बनायो । हरिपद चित नाम की पासा, सालहोत्र वंदे पर कासा । कुसलसिंह महाराज अनूप, चिरंजीवो भूपन के भूप ॥
मोरठायह ग्रन्थ मुखसार, जिनके हेतु होमे मैलेउ सुधारि । विचारिचं चंदनन यो तथा । सम्बत सोलह से अधिक चार चाने मान । प्रन्थ कयो कुपलेस हि, नर दोक श्रीभगवान । मास कालगण सुकल पक्खि, दुतिया शुभ निधि नाम । चंदन चंदन सुभाखि श्रत गुरु को कियौ प्रनाम ।। (म)त दस और पाठ सो, ईक्यावन पै स्यार । फागुन शुकल त्रयोदसि, लिखी कार मोमवार ॥ अश्व विनोद ग्रन्थ यह, सालहोत्र सुरताल । प्रति देखी को लिखी मे, खोटि नहिं नंदलाल ।
२६ पं०१० अ०३० अथ अब धोका के सोरठा पत्र ३ और कुत्त पत्र २६
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(२३४)
ले-इति साल होत्र संपूर्ण घोड़ा को। लिपिकतं वैष्णष जानकीदास । कस्लगढ़ मध्ये । सं० १६६२ मती श्रावण सुद ११ बुधवासरे। अशुद्ध लिखित
[कु मोतीचंद खजानची संग्रह ]
विज्ञान (५) शुकनावली- संतीदास। आदि
गब्ध
महावीर को ध्याइके प्रणमं सासति मात । गनपति नित प्रति जे करें, देव बुद्धि विरचात ॥ १ ॥ गुरुचरणन को वंदना, कीजै दीजै दान । इस विध होनी जावता, पाइ जइ सन्मान ।। २ || रीत हाथ न जाइये, गुरु देशों के पास । अरु विशेष पृच्छा विषे मुदा श्रीफल तास ।। ३ ।। स्वस्ति चित्त सौ ठिकै बोलो मधुरी वानि । पीछे प्रश्नोत्तर मुणौ, पामा केनल ग्यानि ।। ४ ।। श्रवपद अक्षर चार यह लिखि पासौ चौफेर ।
वार तीत जपि मंत्रको पीछे पासा गेर ॥ ५ ॥ अहो पृछक सुण हुसुण तुमारे ताइ एक तो घड़ा बल परमेश्वर का है, परन्तु तुझारे शत्रु बहुत हैं । अरु तुम जानते हो जो मुझ एकले से एते शत्रु विस भांति क्षय हुवैगे । सो सब ही शत्रु अकस्मात क्षय हु★गे। अरु ज्यो कछु मन बीच नीत बांधी है, सो निह सेती हयिगो। चित चिंता मिटेगी।
श्रीपाठक जगि प्रकट अति सुथाणसिंघ के गुण । सतीदास पंडित करी, सुकनीति ससनेह ।।
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( २३४)
ले० संघात् १६१३ कातिक सुदी १३ सोमवार । लिखितं रविदिन जैसलमेर मध्येइति श्री शुकनावली सतीदास पंडितकृत संपूर्णम् । लिपिकृता सांज समये राव रणजीतसिंघ रा० प्रति-पत्र ११, पं०१३, अ०४०,
[ स्थान- मोतीचंद्रजी खजानची संग्रह ] (१०) संस्कृत ग्रन्थों की भाषा टीका लघुम्तवन भाषा टीका- रचयिता-रूपचंद्र सं० १७६८ माघ वदी २ सोमवार
श्रादि
जाकी सगति प्रभावत, भयौ विश्व सु विकास ।
सोई पदारथ चित धरौं, ध्यान लीन है तास ॥ १ ॥ गदाटीका-"जो त्रिपुरा भगवती 'ऐन्द्रस्येव, शरासनस्य' कहतें-इन्द्र है म्वामी जाको एसो शरासन कहते धनुष । इतने वर्षाऋतु को धनुष, ताकी जो प्रभा कहते ज्यानि तरको “मध्ये ललाटं दधति' कहत ललारमध्य विष धारतो है, इतने इन्द्रधनुपकीसी पांचवर्णी ज्योति मेरे दोनों भौहां विधि धरि रही है। ए तात्पर्य या पद मे एकार बीज कह्यौ ।”
सतरै सै अट्टाणुल्य मात्र कृष्ण पक्ष बीज । सोमबार ए वचका पूम लिखी स बीज ॥ गच्छ खरतर कुशलेमके, दयासिंध के सीस ।
रूपचंद कीन्हें सुगम, स्तोत्र काव्य इकईस. ॥ लि-संवत १९५५ मीगसर शुक्ल पख्य पूर्णिमा १५ बुद्धिवारेण श्री बीकानेर मध्ये । लिखी पं० वासदेव कमला गछे लिखितं लघुस्तोत्रम्-श्रीरस्तु
प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय विशेष-पृथ्वीधराचार्य रचित सुप्रसिद्ध त्रिपुरास्तोत्रकी भाषाटीका है।
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शुद्धि-पत्रक प्रस्तावना
शुद्ध
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अशुद्ध सरस्वत यहाँ हिंदी उसकी वन भी बामावली में इन्द्रपाल उन ३ द्वितीय भाग के ४८ पति पत्र अभी तक ग्रन्थों की उनकी की गई पूरी अतः कुछ कुशलादि
सरस्वती यहाँ के हिन्दी उसकी सूची बन भी नामावली इन्द्रजाल उन उन द्वितीय भाग की पूर्ति रुप १८ यति मात्र अभी तक प्राचीन हिंदी ग्रन्थों की उनकी पूरी अतः इस विवरण में कुछ कुअर कुशलादि
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कविराज
সানি
प्रशस्ति प्रवाह
प्रकाश हुआ शोध
हुआ व शोध उनका
अपना प्रकाशकीय निवेदन
रासौ कविराव
कवि नामानुक्रमणिका जानपुहकरण
जगन पुहकरणा भाडई
भालई महमद कुरमरी माहमद फरमती (वस्त)
(वस्ता)
हर्षकीर्ति हंसरज
हंसराज
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१५८
हषकीर्ति
१६३
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पृ०
बहलजी
..
ध्रपदानी
अंगार
) .
संतवाणी संग्रह गुटकों में उल्लिखित कवि पं० अशुद्ध
शुद्ध इसन
ईसनजी कणेसपाल
कणेतीपाव जाल बीयाव
जालधी पाच মায়।
बखतांजी बरब मालीयावजी
माली-पावजी ५२६ सिंध
सिध ग्रन्थनामानुक्रमणिका
उच्छव ध्रुव पदानि
शृंगार श्रृंगार
शृगार नेमिनाथ चंदारा गीत नेमिनाथ चंदरायणा १२३ বিল সুহান
पिंगलादर्श बुधि बाल
बुधि बल १४६ विहडंम
विहंडण १६ (वैराग्य वृक्ष) वैराग्य श्रृंद अंगार
श्रृंगार १६१ कामरसिया
का मरसिया अंगार
शृगार अंगार सार लिख्यते शृंगार सार समेसार
समसार (क) पुराण-इतिहास माधोदास
माधोदास सं० १६८१ का ३०
१० चंद्रवार मूयात्
भूयान् १२
शुचि कृ० १० शुचि कु०१०
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वृत निधान नामैकादशी दिज तीरथ वृश्चक दालिदु जिनचारित्र सूरि गजउधार
कृत निदान नामकारशी दिज नीरथ मिश्चक दानिदु जिनचारित्य मूरि गाउधर किपा पद्य भुजंगी मोथे मयक भोजरवास नीक क्रमण पीहाजल (ब्चा ) ब्रह्म निवाण
कृपा
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छद भुजंग मोपे मयंक मोजावास लोक प्रामण
११
मीहाजन
धान
(ज्यां) आदि ब्रह्म निरवास द्याल चाल अंत्र
6
छरब पर मंत्र
मुद्गल सरव
सर २०,२१ नै मुझ
भाषणं
नेह मुझ
भाषायां
१३
रहसत १८ कोना २३ ४ रिचर्स १० होग
बंधन
१४ १४
विहसेत कान बंधन रिसर्च सेवग
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१४
२०
अशुद्ध जिमें सं० १६७१ संवत्
जिते सं० १६७१ भा० ब० १, बुधवार
१५
सेवत
पदन्ह
kkkkx..
घदन्ह रहरि
पचन्ह घटन्ह रह
मैसे
१५
६
पैसे तिल
तिस तेनुयो ये हिते दिन करि हरसारी घाड़ों
तेलुयो येहिते क्निवहि रसारी घाड केती, केता
५६
केनी, केना
सुग्य
१६
२२
बसे
.....
मुख
सुरनर
वसे ।२८१ डीकरा
डोकरा छोरु छकिरा
छोकरी छोकरा वामे त्सनार
नामे तस नार दूमर, परत
ईसर, वात (ख) राम काव्य साहिब सिंध
साहिबर्मिघ होत
होत धाउ, धावल
ध्याऊ, ध्यावत जोता मैं
जो तामें पीड़ सोचत रमणि
पीउ सोवत रयणि
१६ १८,०६
२०
२०
२२
२२ २३
कांजिकाहे हइविल विरार
काहे काजि हा विख
विगारद
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अशुद्ध कनक न धर्यउ पड़ी लड़ाई प्रथम, अप्रान
- »
कन-कन घेयु परी लराई दो प्राप्त
.
.
.
.
जोके कपिला सन दिया केपिला
जाकै कंपिला सनैढिया कपिला ठाऊं
.
२२
क्यौ
.
०
छदि
छठि
०
वासह
वासरु जामु
०
नामु
०
(ग) कृष्ण काव्य कील तान मादि की लतांन मांझ भवि
चलि हे ली बलम
बल्लम उभार
kkkxxxx V W
थाके रोजी जबन विगरी मरोठा काम साहिब सिंध आठार सी अठौतर विन्दु
नीकरो जी जाय बलिहारी मारोंठ कीमखाव माहिब सिंघ अठारसै अठड़ोतर
अंतिम
बिनु
मऊरण सं०१०
बसत मगन सं०१८०
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Purus".
अशुद्ध ३ जाल
चटरतर
गनपति हिय नारं १२ पाऊं, गणि १६१७ संवत' . . . ' 'मुद्रक्षा
८ २
जंजाल बरतर गनपतिहि मनाउं. गाऊ उमगि मंवत सिखि शशि निधि, माघ माम तम पक्ष । पंचभी गुरु वासर विमल, समझो वृन्द सुरक्ष करहला गाइयो
३.
१५
करबलां जाइये
YW "
A.U0"
२० २१ ३. अंतिम हाद विचारे दारद विदारे पदा
बंध (बद्ध) २३ दिप आदि नहीं थे तो
कहि जुग नाम उधारा कलिजुग नाम अधारा हमरो भव उतारो मुमरो भव उतरो
(घ) संत साहित्य ३४ २८ दिलावर
दिसावर अंतिम छंद
अंग हन्दव छन्द
मनहर छंद विश्न पद
विमा पद भजण
भंजा जुरा २७ अंतिम निसकार
निराकार सुनजी निरंजन सुन जो मून भाई सुन जो बाप,
सुन्न निरंजन २६
पुहासरि लागि पुहासिम धार जलि
लागि गया लागिया धूवा ३६ घड़िका ।
धड़िका पंथ' 'चाले जाई। पंथ द्यले चपवना तूट, तनताली
जैतन जाइ।
३
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र.
०
अशुद्ध ममिव सावि १६८२ रचन कडम्या कहरवा
२४
साखि संतों की १८१८ रच्यो कड़वा कड़वा
२५ अंतिम
0
विध्यन कृलना बालश्रीदजी सन जी तिलादकजी छीनाजी दयजी यवतांजी दामजीदास
विधान मूलणा बालमीकजी सेनजी तिलोकजी ट्रोताजी देश्रमजी बम्वत्ताजी दासजी
0
0
.
.
।
हरि प्ररमजी खानांपाद x संवदास
YY
इहा
xx WmY
हरिपुरसजी खानाजाद सेवादास सेवादास रसा गुणा मुकति अमर जरणा
४३
१३
गुण मुवृति उमर जरया
४४
५
सम किस्टी भरोह चाइनिक किरपाण कासको माधो
समदिस्टी भरोसा चाणिक किरपण
१३
कालको
माया
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
पं.
४५
१६
W
४५
२१
~
अशुद्ध प्रति
प्रची गुट
गुष्टि गुटि
गुष्टि सिद्धि
लिष्टि षछिरी
पडादरी प्रगति
अगनि सदा
नव अवसि
अवलि हलवंत
हणवंत बाल गोदाई
बालगोसाई अजैपाल
अजेमल ददल नाथ
देवलनाथ महापुर्ण
महापुरुषों रदास
रदास जर परथ
जर (इ) भरत (डडनाथ)
(अतानाथ ) परितनाम
पदितनाम गुणश्री भूलन.
गुन श्री मुख नामा आगमतें
अगम ते रक्षाकार
रक्षा कर किहों का
किम का
पाप किय हुए
दुख (ङ) वेदान्त
पर तड़प द्विभाव
तणउ विभाय
ut
पाव
विषय
४६
१७
दर
सम स्पड असण कल्याणगु
असरण कल्याण गुण
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ०
१०
अशुद्ध जनौधन मारणक फल बाहुल
११
a 0 URUJI ANW K
५२
vp
२४
दृष्ट उपाय श्रतः अहिन श्रीखुदाइ श्रीपरमजी मर्म वीज को सुक्रिय
आयु भावही अनुसारंच वर वाज स्वयं ब्रह्मा अद्व त्यां
ज्यों धन मारणक क बल बाहुल्य सो बढ़ अभ्यास ताते साहिब श्रीग्बुवाश जीयराम मर्म जीव की अकिय आपु लाव ही अनुमारांच वर वाज स्वयमेव ब्रह्म अद्वता सूक्ष्म अकरं प्रकल्पं अरु चित श्रह आसा करन
kkkk
m
२३
अकरं अचलं प्रकल्प अस वित्त अढे आहा करन करनम
ऊडंडी अंतिम वसि
पास प्रति
कुल देवत १२ भट्ट
बतनी सुति
अडंडी बलि दास
पुनि
५८
कुलदेच्या
-
नतनी
सुधि
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०)
शुद्ध
करेज मार
सुजान वर
___ अशुद्ध कहे जै पार सु जस्न वर उडुपति पार ॥२३॥ समसार दिधन कृपाकर अन्य निवांचे কৰ বননি भीया दोप सृणिन सब आदि राजा हंस यशोधीरेय नारनी जीनब निर्नय जनाईन भट्ट
११ समसार दियन कृपाकटाक पनि वांचे घर वरनी भाया दोग सुछिम सम अहि राजहंस यशोचीरेण तरनी जीवन निर्णय जनार्दन भट्ट सं० १७३० कार ब.६ रविवार स्थान- अनूप संस्कृत लाइब्रेरी
स्थान-संस्कृत लाइब्ररी लहे विस
लरे
विय
बंई
बहुँ
कहत लापनि पुन्नि
कुसुल लाय निपुन्न
७३
१२
समान
समाज
गुरु
७४ ७४
१२ मया १५ खुरतर
आनंदसिंध
मग खरतर आनंद सिंघ जैसलमेर वृहद् शान भंडार
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११)
७७ VE
२७ १६
लस
सयर
लस समर जुछह तहहि पचन्द्र बिनययत्ति
Ur
पन्चे विनय भक्ति
करि
सोभागनी को आदरु अंत
८५
सोमाग नोको श्राद रु अंत बहुल
U
पान्यो
r
पासचंद और नि वंचन
२
.mmisi
. - UPUTU
धान्यो वासचंद पार निवंचन सम तारां लरक दीपा ताकुम सस्मा स्वा सा रहित
६१
१८
६.
सो
ee
mk.
मणीनांमत वसी एक्की
२६
0
क्रीत
0
दीवा तांकु सम्मा खासा रहिना सोई मणी नाभंतेवासी साक्की कीर्ति अंतरजामी तात अनंत श्वेतांबर सुसंवेग
आदिनाथ चिदानंद जार्थे
0
0
१२
१६
I
0
६२
२३
अंतरजामा जात अनंद क्वेतांबर सुसबेग
आदिवाथ चितानंद जथै
40 d
w
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२ )
पृ० १००
सना
गहना
अभय जैन ग्रन्थालय
१०४
भूठे० माया
१०७
संठाण
जेते
१०८
"
१०६
" ११०
" ११० ११५ ११२
पं० अशुद्ध ८ सना ।
गहरना अंत में १ ० E भूठे २ कर १३ पाया २ संदाण २२ जेने
छत्रीस १ कटन
पह करना
घनपति १६ सीतम १० मलूकचद्र २३ केल २४ माहा
दान सागर भंडार २५ मगरू रन
काट बेकू घुस
किवरी १५ आनंद १० आखैराज
विरूद्ध १६ फिर पीछे पीछे २६ कुशलेंहु
बत्तोम कटत न पुहकरना धनपति सी मति मलूकचंद्र केण मास स्थान दान सागर भंडार मगरूरन काटवे घुस विवरी
आनंदवर्धन अक्षराज विरुद फिर पोछे कुशलेंदु
११२
११६ ११६
११६
११७ ११७
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
पं० ५
पृ० ११८ ११८६ ११८
अशुद्ध खांव गांव प्रति उसी से
८
शुद्ध खामगांव यति उसी में से रचयिता नयरंग चौवीस मै सुखकंदौ ध्रमसी जिणिंद
०००
चौवीस मैं
१२०
सुख कंधौ धुमसी
सरवधे
तीरथंकराणां निरग्वीजइ ते सुपसाव दावह
१२० १२० २ जिणिह १२०
सर वधै १२० २१ तीरंथकरायां १२१
निरखी जरते सुप सावह
दराबाद १२१ ११ खेइ १२१ १५ कोटरी मगनलाल कृत १२२
भिक्षांचार १२ ६ नामि रायंजू को १२२६ शत्रुजे १२३ पृ० सं० २३ १२३ १० सुपाद १२३ १० वासुपूय १२३ ११ महिम १२३ १५ तीर्थ कराया १२४ २ ठ्यो १२४
कलपवप १२५ २२ जपतिहुअण १२६ ६ जपतिहुश्रण
कोठारी मगनलाल कृत मं०१६ भिक्षापर नाभिराय जूको
शत्रुजे
१२३ सुपास वासुपूज्य मल्लि तीर्थकराणां ठयो कल्पवृक्ष जयतिहुश्रण जयतिहुश्रण
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ )
पृ०
पं०
१२७
१२७
न रहा विराजते छाजते
१२७ १२७ १२७
१३ १६ १७
कृपाल
१२८
२२ २४
अशुद्ध नरं हया विराज छजते कपाल मु उमरदराज देशातु पास रहिया कहिया जिन वल्लभ सूरि कंह कंहाचार्य हितो उपदेश नायं जो सत गुणा कर दुक्कड़ मथाय गोयम सम्यक प्रातीहा राज
उमदराज देसोतु पास रहणा कहणा जिन लाभ सूरि कुंदकुदाचार्य हितोपदेश नायगो संत गुणाकर दुक्कड़म थाय गोयमं
१३०
१३०
१३२
१३२ १३२
१ १७
१५२
सम्पक
१३३
१३३
प्रातीहारीज
- * . . . . .
गत
गात
rruru
धर
घर १३४ ३ पदमागम १३४८ सास १३४
लाभ १३४ १६ क्याम खाती १३४ २७ कूये १३५
परमागम मास कँवललाम क्यागखानी
.
आमेर (जयपुर भंडार)
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ०
पृ० १३५
पं० ३
अशुद्ध
१३५
५ छिदे १३५८ सं. ३१ सा. १३५
साद बाद मतता को १३५
यावता के १३५ १४ हासन प्रमत्व
जिन समुद्र सूरि सं० १७३० । शु०५ गुरु छिदे। सवैया ३१ सा सादवाद मत ताको या यताके
१३५
२३
ध्व
२६
१३५ १३६
१३६
२१
मर्डन श्रुत धारिजे रचनाकरी दुजैसलमौ शध
१३६
१३६
२३
१३६
१३७
मंथ १०५ समो अर्या
१३६
ध्वज मंडन श्रुतधारी जे रचना करी दुर्ग जैसलमेर शुध जैसलमेर भंडार ग्रन्थाग्रन्थ १०५ समोसर्या श्रापा तह हूँ बड़ो गुणहत्तर खंडन रुचि अमंद पांडे फेरि
१३६
प्राया
१३६
१३६
१३८ १३६
३
नह हूंबड़ो गुण हत्तर खंड कचित्र मंद पाडे
१३६
११
फेरी
१३६ १३६ १३६ १३६ ११६
१२ १३ १४
ओरि से माख
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४१
पृ० पं० १४० ४ १४०८ १४०८ १४. १४० १० १४० १० १३१ २ १४१ २ १४१ ३
पुदगल सत्तावंत चेतना तामै जामैं उपजत
चित्त
१४१
११
राजहंस उपमादि गुनपाम कीनौ परजायधर
१४१ २० १४१ १४१ १४१ २१ १४२५ १४२ ७
अशुद्ध अवरख मुदगल सावंत चेवना लीमें कामै उप' 'त चित्र राजहं उघमाहि गुन गाम कनौ पर जाय घर मय लेश्यौं ७ संजैम अनुमोदि के স্ময় जिनव देवन ददि समोह वद्या बधव माप नृ तुथ उवकाय वाज
भय लेश्यों ६७ संजम अनुमोदिके
जिन्नवर
देवेन
देविंद
१४२ ११ १४२ ११ १४३ ११ १४३ २४ १४४८
समूह वंद्या वंधव भाषा तुरंत
उखभाय
१४४
१७
राज
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७ )
शुद्ध
१४४ १४५ १४५
१४५
२० मूति ५ मावा ७ दोसा
कने
नेमगीरेखता२२ परहेज
नेमिनाथ चंदाहण
प्रावा दोहा ? कीने नेमजीरेखता विनोदीलान
१४५ १४५ १४६
नेमिनाथ चंद्राहरणा गीत । भाऊ २
गीत
(
6
.
१४६ १४६
७ ८
१४६
५४६
११
कुछ इ नइ अधयार सुमार भाऊ उइम x
१४६
नई
अन्धयार सुसार भाउ इम १७वीं शती (१६५० लगभग) प्रति-राजस्थान पुरातत्व मंदिर। गुटकाकार अपनी
_____ अक्यो
१४७४
मिदद
२२
मिंदर वेलि ठकुरसी सं० १५५० का. सु.१३ परसण
१४८ १४८
वेलि पदसण सहीप व लग्यो
६
सहीय
वनग्यो
१४८८ १४८ १० १४८ ११
संकुल
सकुला नापु सदसगुण
नामु सरसगुण
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ )
पृ० ५० १४८ ११ १४८ १४ १४८१६ १४८
२३
शुद्ध चतुर कातिग अभय हर्ष कोनि वर्द्धमान जि (न) अंत
१५८
अशुद्ध चतुद कतिग अथय हरदव कीर्ति वर्द्धमानजि (न)
अत प्रणभई उद्योत पद्य-४ अति सुन्दरभित कंठ सुजन ॥४१॥
प्रणाम उदय (ज्ञानसागर गणि शिप्य)
१४६३ १४६ २१ १५० १२ १५० २१
१५०
पद्य-४८ भति संदरभित कंठ जो सुजन ॥४८॥ नामा महाव्रत
१५२ १५२ १५२
जु इहां
० 0 W wK
२ २ १०
नाम भत्रहात्रत जइहां. छपियो दीये सपीये राजत्रय वदत
छमियो दीपे सवैये
रत्नत्रय
वदन
१५३५ १५३ ६ १५३ १५३ १८ १५३ २५ १५३
वडे
गोन सरस विकभ नप पाचाय कुडपुर
गोत सहस विक्रम नृप
आचार्य कुंडनपुर
१५४
११
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६ )
अशुद्ध पुठ्यो है खादिय स्वादिभ
युट्यो है
पृ० पं० १५४ १३ १५४ १४ १५४ १४
नवीन १५५५
४
७ १५५ १० १५५ १२
वादिम स्वादिम अभय जैन ग्रन्थानय वली
१५७
१५५
* *
१५५
वली उतहि निवल पचमी बचों वरणतु महि मुहड़ मिथ्या तन स०सं० मेती। निहां पठ्य करता
"
१५६ १५६ १५ १५६ २० १५६ २० १५७८
पंचमी बंचो वरणू तुमहि सुहड़ मिथ्यातम रचना सं. सेती तिहाँ पाय हरता ते लहै
०
०
१५७
०
तेल है
१५८
११
१५८
नय
2 " :
परिवा नुश्रा वरस करिक
बद्धों क्षमा परिवानुभाव रम करिक बाछत भाषा को भिक्षा दू कडू पचने
१५६२ १५६ २० १५६ २२ १५६ २३ १५६ २६
वाचत
मिच्छामि दूकडू पतने
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२०
)
पृ० १६१ १६१ १६१ १६१
" * * *
राजिमती भाव प्रमुदित अति
१६३
पीउ उपायो
१६३
में सर
•१६३
लाया
१६३
नवि दाया
तरुनु तपती वालंम जपती
१६४ १६४ १६४ १६४ १६४
पं. २ राजिपती ४. श्राव ५ प्रमुदित १२ मति १७ मया
पीड ढिपायो
मेसर १३
लख्या १४
न विदाया तनुतपती कालंम ने जपती
दृग १२ मर १२ धन
सदावरण
उबासा १८ कहि २६ जुदहह २ सहि
निते
भाव न २५
सुखरवानी
एकड़ाकत १० सहानी
केशव १६ पान
भर
* * * * * " . . . . . : * * ' "
सरावण उजासा
कवि
१६४ १६४ १६५ १६५ १६५ १६५ १६६ १६६
रहि नित
२५
नेमह
भावन सु नेमजी सुदर वानी एक डहकत सखानी केशवदास जान
१६६
१६७
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ )
पं०
पृ० १६८
अशुद्ध बारहमासा
बारहमासा । २०रूर छूटत
कर मैं
१६८ १६- १७० १७० १७० १७०
२५ २६ ३ ६ १२ १३ २३
कंठ ता कित भीम रस
३
२५
सत मी साधन मया सत मिना
करने कठ ताक्रित मीम रख संइछत सतमी आसाधन नया सतमिना कूटन भारन सारी कहस तीन चद्द अवाजौं रहके बढी सिवारी सावन दरयन निरुप प्रादुर्भुत लछीराम वठे रविले
१७१
१७१
कूटन भारन सारी, कह सती न चहत श्रावली रस के समुद्र बढी तिवारी सांवल दरपननि रूप प्रादुर्भूत लछीराम सं० १६८१ मा० ब०३
१७१ १७१
१७ १८ १२
२
वहै.
१७३ १७३४
१७३
२५ २५
राजल सुनाकर दुर्जतन लीजै भारत हीन
रवि ते अनूप संस्कृत नाइनरी राजा सुनकर दूजे तन तीजै पाखत दीन
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२ )
१७५
CU
टीका। भावनादास च. नीति पोडश शत मंजरी । मादि टीकाकार वित है हे तरी है जरी भतृहरि
१७४
महांतरण के
अपूर्ण
पृ. पं. अशुद्ध १७४५ पातन १७४ १३ टीका
च. निति १७४ २६ पोश
शतक
मंजरी । टीकाकार १७५ २३ वितहै १७५ ११ हेतरी १७५ १३ हजरी १७५ २२ भद्रहर
महां तनके १७७ १६ अपण १७७ २२ १७७ २३ कष्णदास १७७ २५ पुरुप
जागुन नाम अनेक १७८१ दिठ १७८
घर सकलंद नंत १७८
उताहि
विगनि १७८७ सवत १७८८ वियो १७८
नायरतन १७८ १२ किस्दास १७८ १२ मितिसर सिय । १७८ १६ अलिवाश १७८ २४ रा रतनू वीरमाला
कृष्णादास
पुरुष
जा गुन नाम अनेक
घट सकल अनंत उतारही
विलगनि
संवत् कियो नाम रतन किरणदास मति सरसिय अनिवास १. रतनू वीरमाण
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ )
१७६
१५
१७६
वीरमाण अक्षय प्रणमीद वंदु नाम अतिहि विमल, भा बंध बनाय।
१६
१७६
२१
१७६
पृ. पं० अशुद्ध
वीमाण १७६
अक्षय प्रणमीह वदु मांझ जतिहि दियाल, भाषा मंद बनाय।
हा कहित १७६
भारकई
करण १७६
कविमय १७६ २१ वडपान
सरसमंद १७६ २२ मान १७६
रचना ये १७६ २४ करू १७६ २५ जिने १७६ २७ भिकाल १७ २८ सुगपाना १८० २ महाष्ट्र १८०
बेडाणो वडभुम १८०३ बहों
३ सवस
विस्वा १८०
पर नवि खेडत पास १८०
तिय सतर १८०
परद रति विश्नाम १८०८ अनि
सब हित भाटई कारण कवियण वड़पात सरस भेद मात रचू नाम करू जिनेश त्रिकाल सुम्यांनो महाराष्ट्र वेडाणो बड ग्राम
बसें
१८०
सका
1 m mk km AAN
विद्या पन नवि छोडत पास ॥ १३ ॥ तिण सहर यह दरशन विश्राम अति
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ )
शुद्ध
पृ० पं० १८०८ १८० ८
१८०
५८०
१०
अशुद्ध ताए नेज
ঘ-বজির एषहुँ तिजो चारु मिज लए त पसितपथ मुणोत दिति प्रणीमार तिय दिन कोमिणी
तेज हरषवंत चित ए बिहु तीजो च्यारू मिजलसि तपसति पख मुणीयइ थिति प्रणी चार तिण दिन को गिरणी या।
१८०
यह ॥
१८०
१५
भगसि (क?) रम भय
१८०
१८०
१६ १८
१८०
तस मीखे सुरणे पावत चित्त हुलास ॥ १७ ॥ अधिकार ४ देवाधिकार
१८०
मगसि (क?) रम गय तहां रवै मुणौ पावत चित... ... अधिक-४ रेवाधिकार की पद्य पदा अन्तकं मब व प्रथम धिकार केसर की कृति विजयेत
१८०
१८०
पशु पक्षी पद्य के अन्त में केसव प्रथमाधिकार केसर कीति विचिते
२२
१८०
३२८
A Ww 6.
धराऊँ अरेस मंजरी। १७८४ पारती ने उपरि
२८ धरा कुंअरेस मंजरी । कती कुअर १७६४ पा रती
२८३ १५३
८ १२
नेऊ परि
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ )
सं० १७६४
भगवान
* * *
पृ० ५० अशुद्ध १८४ ५ २०४६ १८४ १० भागवान १८४ १६ कनम
ठार से रवि वन्व १८६ १६ भावै १८६ २६ सुभइ १८७१ छवि सली
वर्ण वृत्ति समासा
१३ ऋषि "जगता ५८७ ५८ जुवान राइ
बानीकरना
को नु १८७
जुगनराह छद्रों
* * *
१८७
कनक ठारे से वरण भन्दै सुभाई छविमली वर्ण वृत्ति समाता ऋषि स्व शिष्य जगता जुगतराइ वानी करता कर्या जु जुगतराइ छंदो
२८
१८८
१३ १५८ १५ १८८ २० १८६८
हिम्मखान लैबल जिय बोलत, तिनकी तीय पदे बादो थौहार
हिम्मतम्बान ले ले जीय बोलत तिनकी तीय ॥१३ ।। भेद बाटो व्यौहार
१८६
मन
गन
११
१८६ १२६ २८६ १८६
मुतकारिब काफिर ठारीब भरोचक,
१२ १३
मुतदारिक वाफिर गरीब अरोक
:15.
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
शुद्ध
१८६ २८६
पं० १३ १४
१९
तीस अन्य बर्न ॥५ सप्तमोध्याय
१८९
१८६ १८६
२२ २३
अशुद्ध नोस अथ वन ।। ससमोध्याय पून - ने सु५ नष्टे ५.६ परिभय अथीर उदमागति मटक
पुन
१६२
सुनवे ५६ अरिभय अधीर
१६१
उरलगति
१६१
२५
अटक
१
पर वाणताह
पखाण ६ ताह धरत
त्रिण दुइ
त्रिण हुइ १६२ अंतिम
बंभरूबी १६३
सारजादेरो १९३
रायदास जी १९३
रायदास जी १६१ ११ साउ १६३ १४ अहरिदास १५ २२ पिंगल दर्शः १६५ अंतिम [सीतारामजी
बालव संग्रह १९६६ सरावत १६६ ११ ताइ दया ते तास में १६६ २०
४ मृदुका खा ११७
६ सभा नेम ते ईक कहा
यंभरूपो साहजादे से रामदास जी रामदास जी सोज श्रीहरिदास पिंगलादर्शः [सीतारामजी लालस-संग्रह
साश्वत
छाइ दया ते ता समै ३१४ मृदु काय कला समान में तेई कविंद्र कहावे
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२७ )
१६७
और
पृ० पं० अशुद्ध ११७ हान भानि
सनमानि वियरुष भवित्त किय, रुकमति
करें। १६७ कल कहड़
कलप दड
चौर १६७ ११ से वे
सेइवें बौहरि
बौहरि १९८४ रस्थत
रख्यत १६८ १३ अरु मरु १६८ १७ पायन
पापन १६४ वीर
वीर रस १६६ १५ केंदरी
केंदरी व्रजराजन् जा
ब्रजराजन कुंजा २६६२४ आगे
रचयिात-प्रवीनदास रचयिता-प्रवीनदास सं० १८५३
सं० १८५३ जेठ पदि १२ महाराजा मानसिंह के लिये २०० ८ मनोरथ विकत मनोरथ ने विकल २०० इसी अवस्था सरन दसी अवस्था मरन है, नाम कछुन
है तामैं कछु नकसाद सवाद २००
१० करनि कमायो परणि सुनायो २०० ११ थूप
भूप ।। ७७॥ १२ मह रने हात जानी ग्रह दूने सात जानी २००१३ द्वादसी
द्वादसी। २०० १६ कवि गुलाब
कवि गुलाबखा २०१३ मारे २०१६ बाबुबह बास नई श्राखु बरु भासन है
१६६
२००
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(२८)
सुकवि गुलाब को सहायक सुजन के॥
जुग-जुग रानू
प्ररथ
करत प्रति पृष्ठ अक्षर १३ से १८ दउलति दोधकादिक
२०२
वरैः
पृ० पं. २०१ (क) सु कषि
गुलाब में सहायक
सुजान के॥ ११ जुग जुन २०१ २१ रादू २०१ २७ अर्थ २०२ २ अरत २०२१ प्रतिष्ट
अक्षर १८ २०२ १३ दडलति
दोधकाधिक २०२ १७ वरैः २०२ १६ दडलति २०२ १६ प्रगट पामाथी पत्र २०२ २० २०२
श्रीमंत दीपखान २०२ २२ नन्धा । २०२ सानुम नकर २०२
सुधीशाश्रिमः २०२ धन्वंसार मुख वैध २०३
ताथर त्तिकछक २०३ २ भावि २०३ ३ अह
निसेगत २०३७ विरचि २०३ १८ सारह २०३ १९६५
दउलति प्रकृष्ट परमार्थी यात्रा से श्रीमंतोलिफरवान
सानुमादिनकर सुधीशाश्रितः धन्यतरि मुख वैद्य ताथ चिकछक भवि
6WW.
२०३
निरोगता विरचिति समाप्तः। हर्ष, कृमि, पांडु आदि
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( २६. )
पं.
अशुद्ध
*
२०३० २०४ २०४१८ २०५ १६ २०६
लूता चतुष्पदिकायां प्रसंग
भृता चतुष्य दिकायां प्रत्यंग तहसइ रामसरन दाता रहे बाला जी अपन। मनसुख राग करत
तइमई रामसरन सं. १६५५ दातार है बरवा तर्ज
२८६
२२
जयन
मनसुखराय करन
२०७२
* *
रेचन बुद्ध
शुद्ध रंच न कुद्ध
मान
अजुगती चैत्र शुक्ल षष्ठी दिना,
२०७
२८७
कु. ३५.
समुद्र
अणुगती चैत्र गुण पाही दिना, काय क ३ क. विष्णुउ समुमुद्र मोहनु भई सुनाऊं तत हरन
२०७ २०७ २०७ २०८
मोहन
१६ २१ २५ २
3. 4 *
सुनामी
२०८
५
तन
२०८
१३
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( ३०
)
२०८
शुद्ध
भभु ( श्वश्रु )क जे प्यारे जगदंबा॥
२०८
राज तेने
समय
२७८ २३ २०६२ २०८ २ २०६३
शक
शुक्र
२०६
अष्ट भू
२०६
इसके आगे प्रत्येक
११
शैलपत
१
२०६१३ २०६ २०६ १७ २०६ २० २०६ २१ २०६
२३ २०६ २०६ २५
राजतने समय एक यक अष्टमू इनके प्रत्येक ....... सुखेपाय सुधर ते बरन बरणो सुक सत्रह स नारका दिवारी मूदपन निर्वान ॥ पास ।। उनिबध देवा पर (६) कथा नख गणपति के
सुखपाय सुघर बल ते व्यायो शक सत्रहमत. . . . . विकारी मूढपन निर्वान ॥११॥ पास ।।१०२॥ उनिपद देका पट (७) कथा नाव मणपति के बलि
२११
दिन
छिन
१११ ११ ११ १२
जानन हो २० जोड़ा अंतिम नहया ३ आतमार्थम्
जान नहीं जोग नहचा आतम पडानार्थ
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अशुद्ध
२१२
१०
२१२
११
दै हस्ति वघर
२१२
२१२
२१२
१४
२१२
२१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१३ २१३ २१३
१५ १६ १७ १६ २० २० २१ २६ २
देह महिथार राड दीह कही। हांकिन मिलइ मीड टेकि साथ सच विसयाने पहुनी चकडाल खबति
....... 'दे हरित बयर देस माहि धार
उ दीइ वस संकिन मिलइ भीड़ ठोकि साय सचवि सयाने पहुकी चकडोल ग्ववरि
झार
१०
२१३
२१३ १३ २१३ १४ २१३ २१ २१४ २ २१४ १५ २१४ १६ २१६ ५ २१६६ २१६ २०
माइ काल घरि २ माधवयदि जसरास पाडामी सूसर मारण चिंतया बहुरी रुमझुम वनमार भवित्त रिहाल इन्स्टीट्य ट मुभीहमौ
बाल घरि माधवदि जसराज पाडली सुभर
आरण चिंत या बहुतरी रुनझुन वनवार यति रिसर्च-इन्स्टीट्यूट सुभीन्ही
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(
३२ )
प्रय
०१७
कामोद्दीपन
न मंद जगतनंद सं० १६२४ प्रासाद ब. २
মান্থা
सखरास
मायावाद अयु धरण यंऽना देण भट अहो भट
__40 २१७ १२ काम
कामोद्दीनपन -५७ १८ तें मंद २१८ १ जगत नंद २१८
अवास्त २१८ ५ मुम्बरास
भाचरवाद २१८
अपुधरण २१८ १६ चंडना वेणभर २१८ १८ आहो भर २१६ १ जानि २१६३ कही २१६ ३ प्राय ६/७ पाद पद्मपादु के
शरज अंजलिसरंद २२० १० (१) नाटक २२१ स्वर्ग
लपति जी २२२. ५ (४)
श्रमन्या धवावतार राण राजेश्वर रत्ननानि
जाति करी
पाद पद्मपादुकेश रज पुजलिप्त
मद
स्वर्ग लपतिजी
२०२
श्रीमन्माधवाचतार राजराजेश्वर रत्नानि १४ रत्न रूप हैं दोधका नामार्थ
२२२
२२२ २२३
२० १
दोध का नायर्थ अरुण बादी मिमीन
वादीई सोभित
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________________
( ३३ )
शुद्ध
२२३
प्रसस्ति ताले विलंद गौहर
२२३
इसक इसक किम्मत पदर चित्रांगिय अर वानिय विकट उक्ता सुरिख, कायब उपलब्ध
२३
२९
पृ० पं0
अशुद्ध २२३
प्रशिस्ति २२३ १६ तले विजद २२३ १८ जौहर १६ इसक इवक किम्मत
पदा २२३
चित्र गिय २२३ २१ अह
वानिय निकट उक्त सुरिख, कापन
अलब्ध २२४ ३ से पर २२४६ सिसुरा ।
सम इच्छपाक २२४ १० धुवति मन साहिढ ।
अवन सुबहान अबदिन पर फलक
तत्र २२४ १२ अति परिगह गछाह २२४ १३ त्ततुर्थ २२४ १४ रतन सिध २२४ १५ श्रवतिका २२४ ५७/१८ श्रीसिपुरह महास-
रिजसरे २२४ १६ सविध २२४
नमे अनुबरतन
सेना ध्यते अचण्ड २२४ १८ सुकहित
सिपुरा सभा इछा क ध्र वति मनसा द्रिढ अमन सुबह सान आछादित पट फलक तत्र
नृपति परिगह उछाह चतुर्थ रतनस्यंघ अवंतिका श्री सिपुरारे महासरिजतरां
सानिध नाम्ने अनुज रतन सेना धनवंते रुपचंद्र सुकलित
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________________
( ३४ )
शुद्ध ममूह रतन स्यंघ गई राजस्थान रिसर्च परताप
पृ० ५० अशुद्ध । २२४ १६ सपुत २२४
रतन संघ २४ २३ गाही
राजस्थान रिचर्स २२५४ परताव २२५
वह्यो २२५ १६ नगरादि २२५
२१ गाइने २२५ २३ जडे सालम हीहु
वारणो सदा, आलम
सिर जे सांण २२५ २७ अंतिम सोम २२६ ५ शाहि
६ नगरादि गाइजे जठे सालम हिंदवाणी सदा आलम सिर जेजांण
सोभा
शहि
२२६
२२६
१२
श्री
स हो यह रीफ नवमो सम्मी
होय हरीफ
जोक्सो
२२६ २१ २२६२ २२६ २२६ २५ २२७४ २२७५ २२७
m n n x
सकची पिरे माचो मनि सुरणकर विप्र कि जांणइ इणको लडिसइ जेह बरार लोकागछबड़ा भंडार उपासरा
सम्मो मुनि सुणकद विप्र जांमइ इसकी जडिसइ नेह प्यार लोकागछ उपासरा
२२७
२२७
२२७
२२७
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________________
( ३५ )
%**"
सं० १८३८ जेठ ४ सुन्दरी रूप गुण गाढी क आई क
रंग
पृ० पं० अशुद्ध ।
११ जैसलमेर २२७ १३ सं० जेठ २२८४ सुन्दरी । २०८
रूप गाढीक २२८ १२ प्राइक २२८१३ सुन्दर २२८ १४ रग २२८ २२ (६) २२६
॥ ११ ॥
८ कहा रस २३२ ११ इज २३० १३ साहि २३० १५ मोह कमोदनि २३०१६ २३१६ पान
२२६
पुहप ।। १२०।। कहा कहा रस
**"TWUSã: **
साहिन मोदक मोदनि पूज || ६५
२३१
प्रमान
प्रनाम
२३१
१३
लड़ाइ
जहाद
२३१
२३
विम है
विमरै
____४
काहि
२३२ २३२ २३२ २३२ २३३ २३३
१२ १२ १ २
मनु कहहि शालीहोत्र सं० १८८१ वासायन से म
যালীয় २० सं० १६१६ बालापन ते
**
मत
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( ३६ )
पं०
३ १०
०८
२३३ २३३ २३३ २३३ २३३
चाह...... नकल होमे मेले ज्ञान चंदन सुभाखि प्रत
चाह संग्रही नकुन होमेमे लेउ जान चदेन सुभाखिता
२० २३ २३
२३३
२३४ २३४ २३४
सतीदास विख्यात सेती जावतां पाइजइ
१२
१३
१७ १८
२३४ २३४ २३४ २३४ २३४
संतीदास विरचात होनी जावतां, पाइजा गुरु देणके अवपद तोत सुण हुँ सुण विस हयिगो सुकनीति रविदिन (१०) विधि बुद्धिवारेण
गुरु देवां के श्रवयद तीम सुबहु किस होयिगो सुकनोति रवि विजय
२० २२
२३५ २ २३५७ २३५ १७ २३५ २५
विचि बुद्ध-वारेण
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